हमने आनन्द भरा जीवन जिया

June 1984

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भगवान जिसे अपनी शरण में लेते हैं, अथवा जो भगवान की शरण में अपना समर्पण भाव लेकर पहुँचता है, उसके ऊपर देव लोक से अजस्र अनुकम्पा बरसने लगती है। उसे तृप्ति, तुष्टि और शान्ति की कहीं कमी नहीं रहती। इसे कोई भी कहीं भी प्रत्यक्ष देख सकता है। हमें यह अनुभूति आजीवन पग-पग पर होती रही है, इसलिए उस आनन्द का सदा सर्वदा रसास्वादन करते रहने का अवसर मिला है, जिसे ब्रह्मानन्द परमानन्द कहते हैं। इसे आत्मानन्द कहा जाय तो और भी अधिक उचित होगा, क्योंकि इसकी उत्पत्ति भीतर से होती है। समझा भर यह जाता है कि जो मिला, वह बाहर का अनुदान वरदान है। पर वास्तविकता निहारने पर पता चलता है, कि यह भीतर का उत्पादन ही बाहर का अनुदान प्रतीत होता है। भीतर वाला खोखला है तो फिर बाहर से कुछ हाथ लगने की आशा चली ही जायगी।

सुर्य में कितना ही प्रकाश क्यों न हो, समीपवर्ती दृश्य कितने ही सुन्दर क्यों न हों पर यदि आँख की पुतली काम न करे तो समझना चाहिए कि सर्वत्र अन्धकार ही अन्धकार है और दिन या रात्रि में कभी भी उसका अन्त न होगा। अपने कान की झिल्ली खराब हो तो फिर गायन वादन या प्रवचन-परामर्श का लाभ ले सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं। अपना मस्तिष्क बिगड़ जाय तो यह समूची दुनिया पागलों से भरी हुई प्रतीत होगी। अपने प्राण निकल जायँ तो फिर इस शरीर को कोई भी साथ या सुरक्षित रखने के लिए तैयार न होगा। अपनत्व का सही होना इस वात का प्रतीक है कि बाहर से भी जो सही है, खिंचकर पास आने लगेगा। अन्यथा बाहर की उपयोगी वस्तुएँ भी अनुपयुक्त स्थान पर जाकर अनुपयुक्त उत्पादन ही करती हैं। साँप को दूध पिलाने पर उससे विष ही उत्पन्न होता है। यद्यपि दूध का गुण विष उत्पन्न करने का है नहीं।

अन्तर ने जब “सियाराम मय सब जग जाना” की मान्यता अपना ली और छिद्रान्वेषण की दुष्प्रवृत्ति का परित्याग करके गुण ग्राहकता अपना ली तो फिर संसार का स्वरूप ही बदल गया। वह दीखने लगा जो दर्शनीय था। वह लुप्त हो गया जो दर्शनीय, कुरूप, अवाँछनीय था। जो सुन्दर है उसे सरस होना ही चाहिए। अपने भीतर से रस बहा तो बाहर से भी उमंगें सम्मिलित होती चली गईं। नदी बहती है तो उसमें समीपवर्ती नाले भी जुड़ते जाते हैं। आगे चलकर वह सरिता समुद्र में जा मिलती है जहाँ अथाह जल राशि के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। यह लाभ बालू के टीलों को नहीं मिलता। वे अन्धड़ के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान तक उड़ते फिरते हैं। धूप निकलते ही आग की तरह तपने लगते हैं। वर्षा होती है तो भी उन्हें शान्ति नहीं। उथली कीचड़ मात्र बनते हैं और किसी जलाशय में पहुँचा देने पर भी तली या किनारे पर फिर बालू के रूप में पूर्ववत् अपने अस्तित्व का परिचय देते हैं।

सदाशयता का दिव्य-दर्शन यही है भगवान की झाँकी जिसे बिना किसी कठिनाई के कोई भी, कहीं भी, कभी भी कर सकता है। अध्यात्म का निर्झर फूटते ही एक नई दृष्टि उत्पन्न हुई, संसार कितना सुन्दर और कितना भला है। इसमें कितनी सद्भावना और सेवा अनुकम्पा भरी पड़ी है। यहाँ जो कुछ है जिसके आधार पर कृतज्ञता ही अनुभव की जाती रहेगी। जो कडुआ लगता है, अप्रिय प्रतीत होता है, उसमें भी बहुत कुछ ऐसा होता है जो आज न सही अपने लिए कल शिक्षाप्रद अनुभव हो सके। सुधारात्मक सेवा साधना करने का अवसर प्रदान कर सके। फिर जो प्रिय है, उपयोगी है, सहयोगी है, उसके गुणानुवादों को यदि थोड़ा बढ़ाकर देखा जा सके तो प्रतीत होगा कि आत्मीयता और सेवा सद्भावना ही चारों ओर से बरस रही हैं। यदा-कदा जो कटुता प्रतीत होती है उसमें भी अपने उस सुधार का तारतम्य छिपा पड़ा है जो अधिक पवित्र, अधिक जागरुक अधिक प्रखर बनने का अवसर प्रदान करता है। यदि प्रतिकूलता न हो तो लोग अपनी जागरुकता ही खो बैठें। सुधार के लिए भी और प्रगति के लिए भी जागरुकता आवश्यक है और वह बिना प्रतिकूलता से पाला पड़े और किसी प्रकार उत्पन्न ही नहीं होती। सुविधा सम्पन्न तो विलासी और आलसी बनकर रह जाते हैं। उन्हें सँभलने, सीखने, सुधरने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। फलतः वे अभागों की तरह जहाँ के तहाँ जड़वत् बने रह जाते हैं। सुविधा और प्रगति में से एक को चुनना हो तो समझदारी सदा असुविधाएँ अपनाकर ऊँचे उठना- आगे बढ़ना स्वीकार करेगी। अपनी मनःस्थिति अध्यात्मवादी दृष्टिकोण ने कुछ ऐसी ही बदल दी जिसमें जहाँ भी नजर उठाकर देखा गया, आनन्द से भरा-पूरा वातावरण ही दीख पड़ा।

यह सब स्व-उपार्जित था, ऐसी मान्यता उदय होते ही कृतघ्नता पनपती और अहमन्यता सिर पर चुड़ैल, डाकिन की तरह चढ़ती है। अहंकारी एक प्रकार का उन्मादी होता है। उसे दूसरों के उपकार दीखते ही नहीं। जो अपना नहीं है, उस कर्तृत्व पर भी दावा करता हे। फलतः धृष्टता बढ़ती है। साथ ही वे लोग जो उस सफलता में प्रत्यक्ष था परोक्ष रूप से सहयोगी थे, खिन्न होते हैं। सहयोगियों की नाराजी, किसी के लिए भी भारी पड़ेगी। कम से कम इन परिस्थितियों में जबकि व्यक्ति एकाकी नहीं रहा। अपने को सबके साथ और सबको अपने साथ वह जोड़ता है। इसमें अनुकूलता तभी रहती है, जब सभी सहयोगी या सम्बन्ध व्यक्ति अपने साथ प्रत्युत्तर में सफलता अनुभव करें। इस व्यावहारिक दृष्टि से भी सघन आत्मीयता की अभिव्यक्ति अपनी ओर से होना आवश्यक है। यह तभी हो सकती है जब वस्तुतः वैसी अनुभूति भी हो। दिखावटी अभिव्यक्ति को अन्तराल कुछ ही समय में नंगी करके रख देता है। वे आवरण उठाने पर भी टिकती ठहरती नहीं।

इस विराट् विश्व के कण-कण से अपने को अजस्र अनुकम्पा बरसती दीखी और उसकी सघन अनुभूति निरन्तर होती रही। लम्बा जीवन इसी उल्लास का रसास्वादन करते हुए बीता है। प्रतिकूलता शत्रुता, अभाव, भय, आशंका, अपेक्षा आदि का अनुभव होते ही सब कुछ नीरस हो जाता है। इतना ही नहीं, भयानक भी दीखने लगता है। यही है- अपने मन का चोर जो चारों ओर प्रेत पिशाच बनकर नाचता है और जीवन की सुख-शान्ति को निगल जाता है। भीतर विक्षोभ पड़े हों तो बाहर विद्रूपता रहेगी ही। भीतर शान्ति और सन्तोष हो तो बाहर स्नेह, सौजन्य भरा वातावरण दीखेगा ही।

चारों ओर दृष्टि पसार कर जब भी देखा, भगवान अनुग्रह बरसाते दीखे। काया पर दृष्टि डाली तो वह बिना कोई अड़ंगा अटकाये, इच्छित क्रिया-कलाप में संलग्न दीखी। बात यह भी थी कि उसे हैरान भी नहीं किया गया। असंयम से चटोरेपन से न पेट खराब किया गया और न जीवनी शक्ति के भण्डार को खोखला। नियमित दिनचर्या अपना कर ऐसा कुछ नहीं किया गया, जिससे काया कोसती और काम करते समय रोग-शोक, दुर्बलता आदि का बहाना बनाती। अभी भी जब छुरे की चोट लगने के दिनों काया की जाँच पड़ताल हुई तो एक्सरे में हड्डियां ऐसी पाई गईं मानो वे अठारह वर्ष के लड़के की हों। रक्त जाँचा गया तो उसमें हिमोग्लोबीनलौह आदि की वैसी कमी न थी जैसी कि पचहत्तर वर्ष के बुड्ढों के शरीर में रक्तस्राव के बाद आमतौर से होनी चाहिए। रक्त चाप, हृदय गति, पाचन तन्त्र, निद्रा आदि से सम्बन्धित सभी अवयव अपना-अपना काम ठीक प्रकार करते पाये गये। इस आधार पर काया के प्रति आपसी कृतज्ञता कम नहीं जो, आजीवन साथ रही और काम से बिना जी चुराये, ईमानदारी के साथ पूरा-पूरा परिश्रम करती रही।

इसके बाद दूसरा नम्बर है- सहधर्मिणी का। उन्होंने भी प्रायः आधी शताब्दी ऐसे ही सहायता की जैसे काया छाया का अभिन्न सम्बन्ध कहा जाता है। हम लोगों की जन्मजात मनःस्थिति ऐसी है, जिसमें बिना गृहस्थ बनाये भी जीवन क्रम भली प्रकार चल सकता था। पर सर्वसाधारण के लिए उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यही उपयुक्त समझा गया कि गृहस्थ बनाकर रहा जाय। इससे आत्मिक प्रगति में कोई व्यवधान नहीं पड़ता वरन् सुविधा ही रहती है। दोनों एक-दूसरे के चौकीदार संरक्षक, सहयोगी, पूरक बनकर रहते हैं तो काम हलका हो जाता है और मंजिल आसान पड़ती है।

माताजी की सेवा सहायताओं का वर्णन करना तो यहाँ आत्मश्लाघा जैसा होगा, ऐसा करने पर तो अपनी काया की भी उतनी ही सराहना करनी पड़ेगी। फिर अनेकों मित्र कुटुम्बी स्नेही, सहयोगी, निकटवर्ती, दूरवर्ती ऐसे गिने जा सकते हैं जिन्होंने यदा-कदा नहीं, अनवरत सेवा सहायताएँ की हैं। माताजी का दर्जा उनमें कुछ ऊँचा बैठता है क्योंकि उनका स्नेह सहयोग ही नहीं, वात्सल्य भी हमने भरपूर पाया है। सन्तानें भी उनकी हैं। उनके प्रति भी उनकी ममता न रह हो ऐसी बात नहीं है। पर हमें वे उनसे अधिक उदारतापूर्वक परिपोषण देती रही हैं, उनका मूल्याँकन, तुलनात्मक दृष्टि से कम नहीं किया जा सकता। वे अनवरत रूप से सहधर्मिणी रही हैं। उनके कारण हमें निजी जीवन में भी धर्मधारणा पर अडिग रहने और दूसरों को उस दिशा में चला सकने में असाधारण सहायता मिली है। एक शब्द में उन्हें “सजल श्रद्धा” कहा जा सकता है। उनकी काया में है तो हाड़माँस भी पर कोई कण ऐसा नहीं है जिसमें श्रद्धा कूट-कूटकर न भरी हो। संपर्क में आने वाले हमारी प्रज्ञा से निष्ठावान बने हैं वरन् उनकी श्रद्धा के साथ वात्सल्य पाकर निष्ठावान बने हैं। मिशन को अग्रगामी बनाने में किसने कितना योगदान दिया जब इसका लेखा-जोखा भगवान के घर लिखा जायेगा तो कदाचित् मूर्धन्यों में माताजी का नाम ही अग्रणी होगा। यह श्रद्धा का उत्पादन है और उसकी उर्वर धारित्री के रूप में हम सब माताजी की जीवन्त प्रतिभा के रूप में साक्षात्कार करते हैं।

काया माता के अनुग्रह से और माता जी भगवान के वरदान की तरह हमें मिली। उनका समुचित सम्मान करने में कदाचित ही कभी चूक की हो। स्नेह तो वे ही देती रही हैं। हम कहाँ से दे पाते? एक शब्द में इतना ही कहा जा सकता है कि उनने बांये हाथ जैसी नहीं दाहिने हाथ जैसी भूमिका निभाई है। कभी सोचते हैं कि यदि वे साथ न रही होतीं, तो हम इतना कर पाते क्या, जो कर सके? उनकी वात्सल्य ने हमारी ही तरह समूचे गायत्री परिवार को- उनके माध्यम से दूरवर्ती वातावरण को कृतकृत्य किया है।

हमें अगणित विज्ञान और अविज्ञात व्यक्तियों की प्रत्यक्ष और परोक्ष सेवा सहायता स्मरण आती और पुलकित करती रही है। यदि उस अमृत वर्षा का लाभ न मिलता तो हम अकेले क्या कर पाते? अकेले तो अन्न, वस्त्र, निवास, पुस्तक, कलम जैसी आवश्यक वस्तुएँ तक अपने बलबूते उपार्जित न कर पाते। वाणी का उच्चारण कठिन पड़ता और जो जानकारियाँ उपलब्ध हैं, उनमें से एक को प्राप्त कर सकना भी सम्भव न रहा होता। अगणितों के सहयोग का ही प्रतिफल है कि हम जीवित, स्वस्थ और प्रबुद्ध हैं। जिन कामों से श्रेय हमें मिलता है, उनमें से प्रत्येक के पीछे असंख्यों-असंख्यों का छोटा-बड़ा- ज्ञात-अज्ञात- सहयोग जोड़ा हुआ है। लोगों को उनका विवरण नहीं मालूम है, उससे क्या हमारी अन्तरात्मा तो अनुभव करती है, कि वह सहयोग वर्षा अनवरत रूप से न बरसती होती तो फिर कदाचित् ही उनमें से कोई काम बन पड़ता, जिनका श्रेय अनायास ही हमारे पल्ले बँध गया है।

कृतज्ञता हमारे रोम-रोम में बसी है। भूतकाल की जितनी घटनाओं का स्मरण करते हैं उन सबमें असंख्यों के अहसान ही अहसान बरसते दीखते हैं। स्नेह, सौजन्य, मार्गदर्शन, प्रोत्साहन यह भी तो सहयोग के ही परोक्ष स्वरूप हैं। यदि वे न मिल पाते तो वनमानुषों और नर-पामरों से अधिक अच्छी स्थिति अपनी भी नहीं होती। यह लाभ अन्यान्यों को भी मिला होगा किंतु अन्तर इतना ही है कि लोग अपनी ओर से जो लोगों के साथ किया गया है, उसे बढ़ा-चढ़ाकर याद रखते हैं और बदले में लम्बी चौड़ी आशाएँ पूरी होने में जहाँ कभी देखते हैं, वहीं भड़क उठते हैं। इस अर्थ में दुनिया तोता चश्म भी है और अहसान फरोश भी। पर जब हम दृष्टिकोण में मौलिक अन्तर और करलें मात्र दूसरों की भलाइयाँ सोचें, अपने करे धरे पर धूल डालें तो फिर प्रसन्नता का पारावार न रहे। हमारी कृतज्ञता सम्पन्न अन्तरात्मा चारों ओर बिखरे व्यक्तियों, प्राणियों प्रकृति पदार्थों पर दृष्टिपात करती है तो उसे सर्वत्र सदाशयता ही सदाशयता दृष्टिगोचर होती है। जिनने कुछ हानिकारक प्रतीत होने वाले काम किये हैं उनके सत्परिणाम ढूंढ़ लेने के कारण क्षोभ नहीं उभरा वरन् उस घटना के साथ सुयोग जुड़ा ही परिलक्षित हुआ है।

उदाहरण के लिए इसी आठ जनवरी को एक अपरिचित सज्जन ने छुरों से आक्रमण बोल दिया। कितने ही गहरे घाव लगे। वे अपना रिवाल्वर छोड़कर भी भाग खड़े हुए। कदाचित चलाने पर भी वह चला नहीं था।भाग जाने पर भी क्रुद्ध लोगों ने उनके असली नाम-गाँव का पता लगा लिया और बदला चुका लेने का निश्चय किया। यह उनकी बात रही। तीन महीने बिस्तर में पड़े रहने और ठीक होने में लगे। इस बीच हमें एक योगाभ्यास करने का अवसर मिला घावों की पीड़ा में भी हँसते-मुस्कुराते रहा जा सकता है क्या? दुःख के समय भी भगवान का विश्वास यथावत् बना रह सकता है क्या? यह दोनों ही साधनाएं घायल परिस्थितियों में चलती रही और सफल हुई। सोचता हूँ, जिन सज्जनों के कारण यह नई भावनात्मक परिपक्वता प्राप्त हुई उनका अहसान क्यों न माना जाय?

अपने हाथ अपने ही घातक हथगोले से अपना पैर तोड़ लेने और जेल जा पहुँचने के समाचार से जब हमें अवगत कराया गया तो हमें तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई। प्रतिशोध आदि से अन्त तक तिरोहित हो चला था। केवल एक अपरिचित सज्जन अनगढ़ कृत्य करते स्मृति के किसी कोने में रह गये थे। लोगों ने जब सारी परिस्थितियाँ उसके अनुकूल होते हुए भी हमारी सुरक्षा ढाल का बखान शुरू किया और कहा उन पर न रिवाल्वर चला न छुरा। इन शब्दों ने एक और नया उत्साह बढ़ाया कि अनायास ही इतने शूरवीर और किसी अज्ञात संरक्षण से आच्छादित होने का श्रेय मिल गया। इसके लिए उन प्रकार कर्त्ता महोदय का कृतज्ञ क्यों न रहा जाय?

अमृत वर्षा का प्रत्यक्ष रसास्वादन किसी को नहीं मिला, क्योंकि इस धरती की बनावट में हर प्राणी और हर पदार्थ परिवर्तनशील है। अमृत पाकर अमर बनने की कल्पना एक अलंकार मात्र है। फिर क्या अमृत का रसास्वादन नहीं हो सकता है। जिसे आत्मानन्द, ब्रह्मानन्द, परमानन्द आदि कहा गया है उसे नहीं चखा जा सकता है। हमारा अनुभव है कि यह सर्वथा सम्भव है। इसके लिए विधायक पक्ष का चिन्तन करने का अभ्यास डालने की आवश्यकता है। इस संसार में सदाशयता कहाँ है, कितनी है, अपने साथ उसका कितना, कब, किनके द्वारा पाला पड़ा है, इसका स्मरण करते रहा जाय तो भूतकाल अतीव आनन्द से भरा-पूरा प्रतीत होगा। इस स्तर की घटनाएँ अपने अन्तराल में ऐसी गुदगुदी उत्पन्न करेंगी, जिनकी स्मृति से भी पुलकन उत्पन्न होती रहें। जीवन कृत-कृत्य हुआ अनुभव होता रहे।

यह जीवन मात्र भूतकाल से ही बँधा हुआ नहीं है। उसके साथ वर्तमान और भविष्य भी जुड़ा हुआ है। वर्तमान के प्रयासों में आदर्शों का समावेश और कर्त्तव्यों का परिपालन जुड़ा रखने से जो कुछ बन पड़ रहा है वह अपने लिए गर्व नहीं तो सन्तोष तो दे ही सकता है। भविष्य में क्या परिणाम होंगे, इस सम्बन्ध में निराशा, असफलता की बात क्यों सोची जाय? जब भविष्य अनिश्चित ही है तो अशुभ की आशंका करने से क्या लाभ? क्यों न शुभ का चिन्तन किया जाय? क्यों न सफलता का स्वप्न देखा जाय? उससे भी अच्छा यह है कि हर भली-बुरी परिस्थिति के लिए तैयार रहा जाय। अच्छे से अच्छे सपने देखे और बुरे से बुरे के लिए साहस पूर्वक तैयार रहें तो यह सन्तुलित मनोभूमि बनाये रहने वाली अपने कर्त्तव्य धर्म का परिपालन करते हुए हर परिस्थिति में प्रसन्न रह सकता है।

हमने इसी मनःस्थिति में प्रसन्नता भरा जीवन जिया है। इसके लिए उपयुक्त मनोभूमि प्राप्त की है और विश्वास परिपक्व किया है कि जो भी इस प्रकार सोचकर सीखेंगे, सच्चे अर्थों में अध्यात्मवादी होने का हाथों-हाथ पुलकन भरा लाभ प्राप्त करेंगे।


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