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April 1982

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कुण्डलिनी महाशक्ति का विवेचन भगवान आद्य शंकराचार्य ने सौंदर्य लहरी में आन्तरिक शक्तियों के अभिवर्धन के रूप में इस प्रकार काव्यात्मक ढंग से किया है।

अरालेः सवाभाव्यादलिकलभसश्रीभिरलकैः परीतं ते वक्त्रं परिहसति पंकेरुहरुचिम्। दरस्मेरे यस्मिन्दशनरुचिकिञ्जल्करुचिरे, सुगन्धौ माद्यन्ति स्मरदहरनचक्षुर्मधुलिहः॥

भावार्थ– बल खाती हुई कटि भ्रमरी जैसी चंचलता; अलकाबलि से आच्छादित मुख, कमल पुष्पों जैसा परिहास; स्फटिक जैसे दाँतों से युक्त है देवि, तेरी मुस्कराहट के समय निकलने वाली सुगन्ध से काम दहन करने वाले शिवजी भी भ्रमर की तरह उन्मत्त हो जाते हैं।

संकेत– मन को सिकोड़कर बैठे हुए, निष्क्रिय, निराश और नीरस लोग भी कुण्डलिनी की स्फुरणा प्राप्त करके इठलाते हुए, भ्रमरी जैसे सक्रिय अलकाबलि जैसे स्निग्ध, शोभित, बढ़ चलने वाले हंस मुख स्वभाव और अपनी वाणी से सर्वत्र सुगन्ध फैलाने वाले बन जाते हैं और निष्क्रिय लोगों को भी आशा और स्फूर्ति की उमंग से उन्मत्त कर देते हैं।


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