प्राणाकर्षण प्राणायाम से संकल्प बल का अभिवर्धन

April 1982

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इच्छा, भावना और संकल्प की विशेषताएँ जुड़ जाने से क्रियाओं का महत्व और प्रतिफल कई गुना अधिक बढ़ जाता है। सामान्य-सी दिखायी देने वाली क्रिया भी चमत्कारी फल देने वाली सिद्ध होती है जबकि उपरोक्त विशेषताओं के अभाव में पूरे किए गये क्रिया-कृत्यों का वह लाभ नहीं मिल पाता जैसी कि अपेक्षा की गयी थी। भावना और संकल्प का चमत्कार तो सर्वत्र देखा और अनुभव किया जा सकता है। एस-सी क्रियाएँ पूरी करते हुए भी दृष्टि से श्रम एक मजदूर भी करता है और एक पहलवान भी। पर एक अपना स्वास्थ्य गँवाता रहता है जबकि दूसरा बलिष्ठता एवं समर्थता का लाभ प्राप्त करता है। स्थूल दृष्टि इसे आहार आदि की अतिरिक्त विशेषता मानकर सन्तोष कर सकती है, पर बात ऐसी है नहीं, एक जैसा आहार दोनों के लिए जुटा दिया जाय तो भी मजदूर किसी प्रकार अपना स्वास्थ्य भले ही सन्तुलित रख ले, पहलवान की भाँति अतिरिक्त सामर्थ्य अर्जित कर लेने में समर्थ नहीं हो पाता।

इस अन्तर की खोजबीन करने पर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि मात्र क्रियाओं को पूरा कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। उसमें भावना और संकल्प का पुट नहीं जुड़ा तो अभीष्ट परिणाम निकलना संदिग्ध ही बना रहेगा। अपेक्षाकृत पहलवान से अधिक श्रम करते हुए भी मजदूर द्वारा सामर्थ्य अर्जित न कर पाने का एक ही कारण होता है कि उसकी क्रियाओं में संकल्प और भावना का समावेश नहीं होता। फलतः वह बलिष्ठ बनने को लाभ नहीं प्राप्त कर पाता। जबकि पहलवान की प्रत्येक क्रिया अपने लक्ष्य के लिए भावना एवं संकल्प से अनुप्राणित होती है। फलस्वरूप वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल रहता है।

साधनात्मक क्षेत्र में क्रियाओं से भी अधिक महत्व भावना, इच्छा और संकल्प का है। प्रायः देखा भी जाता है कि जैसे विधि−विधान साधना के पूरे करते हुए भी एक व्यक्ति चमत्कारी सामर्थ्य अर्जित कर लेता है। जबकि दूसरा कोई विशेष लाभ नहीं उठा पाता। साधना के परिणामों में भारी अन्तर का कारण स्पष्ट है। जिसे भावना एवं संकल्प के होने न होने के रूप में समझा जा सकता है। प्रत्येक साधनात्मक क्रिया−कृत्यों के साथ यही नियम लागू होता है।

प्राणायाम के चमत्कारी परिणामों का वर्णन योग ग्रन्थों में मिलता है। उसे अनेकों प्रकार की सिद्धियों का एक समर्थ माध्यम माना गया है। योगियों में विलक्षण सामर्थ्य विकसित हो जाने का वर्णन पढ़ा, सुना और देखा जाता है। यह संकल्प युक्त प्राणायाम की ही परिणति होती है। उनमें अनेकों प्रकार की शक्तियों प्राण के संचय करते रहने से विकसित हो जाती है। वे इस तथ्य से भलीभाँति परिचित होते हैं कि प्राण का विपुल भण्डार सर्वत्र भरा पड़ा है, पर जीवधारी मात्र उस भण्डार से जीवनयापन करने की आवश्यकता पूरी करने योग्य अल्प मात्रा ही उससे प्राप्त कर पाते है। जिस प्रकार बूँद−बूँद के मिलने से बड़ा भरता है उसी तरह योगी प्राणतत्व का संचय और अभिवर्धन करते रहते हैं तथा असाधारण शक्ति के स्वामी बन जाते हैं।

प्राण तत्व की प्रचुरता भौतिक सफलताओं का कारण बनती है और आध्यात्मिक प्रगति की भी। भौतिक जीवन में प्राणवान व्यक्ति का सर्वत्र वर्चस्व होता है। व्यक्तित्व की प्रभावोत्पादक क्षमता सहज ही अपने अनुयायियों, सहयोगियों एवं समर्थकों की संख्या बढ़ाती है। जीवन सम्पन्न ही संसार समर में विजय हासिल कर पाते तथा कुछ महत्वपूर्ण कहा जाने योग्य काम कर पाते है। मनोबल, संकल्पबल की दृढ़ता प्राण तत्व केक आधार पर ही बनती है जो हर प्रकार से भौतिक सफलताओं का आधार बनती है। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी प्राणवान ही सफल हो पाते तथा कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ अर्जित कर पाते हैं। कुछ को यह सम्पदा जन्म−जन्मान्तरों की साधना के फलस्वरूप अनायास भी जन्मजात प्राप्त होती है, पर विशिष्ट साधना प्रक्रिया अपनाकर हर कोई प्राण के लहलहाते महासागर में से अपनी झोली भर सकता और प्राणसम्पन्न बन सकता है।

विविध प्रयोगों के लिए प्राणायाम की विभिन्न प्रक्रियाएँ निर्धारित की गयी हैं जिनमें से एक है प्राणाकर्षण प्राणायाम। कहा जा चुका है कि इच्छा,भावना एवं संकल्प का पुट जुड़ने से ही क्रियाएँ प्राणवान बनती तथा अभीष्ट परिणाम प्रस्तुत करती हैं। प्राणाकर्षण प्राणायाम की सफलता पूरी तरह संकल्प शक्ति की दृढ़ता के ऊपर निर्भर करती हैं। प्रक्रिया इस प्रकार है–

प्राणायाम के लिए सर्वोत्तम समय प्रातःकाल का ब्रह्ममुहूर्त का है। कारण यह है कि उस समय अन्तरिक्ष में प्राणतत्व की प्रवाह अत्यन्त तीव्र होता है तथा विशिष्ट प्रकार को चैतन्य धाराएँ सूक्ष्म केन्द्रों से समूचे ब्रह्मांड में प्रवाहित होती हैं। करने को तो कभी प्राणायाम किया जा सकता है, उस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं हैं, पर प्रातःकाल जैसा लाभ अन्य समय में नहीं मिल पाता। अस्त प्राणायाम के लिए सबसे श्रेष्ठ समय प्रातःकाल को ही माना गया है।

प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके सहज आसन में बैठें। दोनों हाथ घुटनों पर हों। मेरुदंड सीधा आँखें बन्द। ध्यान करें कि अखिल आकाश में तेज और शक्ति से ओत−प्रोत प्राणतत्व हिलोरे ले रहा हैं। गरम भाप के, सूर्य के प्रकाश में चमकती हुई बादलों जैसी शक्ल के प्राण का उफान हमारे चारों ओर उमड़ता चला आ रहा है ओर उस प्राण उफान के बीच हम निश्चिन्त, शान्त−चित्त, निर्विकार एवं प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए हैं।

नासिका के दोनों छिद्रों से धीरे−धीरे साँस−खींचना आरम्भ करें तथा भावना करें कि प्राणतत्व के उफनते हुए बादलों को हम अपनी साँस द्वारा भीतर खींच रहे हैं। जिस प्रकार पक्षी अपने घोंसले में, साँप अपने बिल में प्रवेश करता है उसी प्रकार अपने चारों और बिखरा हुआ प्राण प्रवाह हमारी नासिका द्वारा साँस के साथ शरीर के भीतर प्रविष्ट हो रहा है ओर मस्तिष्क, छाती, हृदय, पेट, आँतों से लेकर समस्त अंगों में प्रवेश कर जाता हैं। जब साँस पूरी खींच लें तो उसे भीतर रोकें और भावना करें कि–जो प्राण तत्व खींचा गया है, उसे हमारे भीतरी अंग−प्रत्यंग सोख रहे हैं। जिस प्रकार मिट्टी पर पानी डाला जाय तो वह उसे सोख लेती है उसी प्रकार हमारे अंग सूखी मिट्टी के समान है और जल रूपी इस खींचे हुए प्राण को सोखकर अपने अन्दर सदा के लिए धारण कर रहे हैं, साथ ही प्राणतत्व में सम्मिलित चेतना, तेज, बल, उत्साह, साहस, धैर्य, पराक्रम जैसे अनेकों तत्व हमारे अंग, प्रत्यंग में स्थिर हो रहे हैं।

जितनी देर साँस आसानी से रोकी जा सके उतनी देर रोकने के बाद धीरे−धीरे साँस बाहर निकाल दें। साथ में यह भावना करें कि प्राणवायु का सारतत्व हमारे अंग−प्रत्यंगों द्वारा खींच लिये जाने के बाद अब उसी प्रकार विकार युक्त वायु के माध्यम से बाहर निकाला जा रहा है, जैसा कि मक्खन निकाल लेने के बाद निस्सार दूर हटा दिया जाता है। शरीर, मन और मस्तिष्क में जो विकार थे वे सब इस निकलती हुई साँस के साथ घुल गये हैं और काले धुएँ के समान अनेक दूषणों को लेकर बाहर निकले रहे हैं।

पूरी साँस बाहर निकल जाने के बाद कुछ देर बाहर साँस रोके रहें अर्थात् बिना साँस के रहें और भावना करें कि अन्दर के जो दोष बाहर निकालें गये थे उनको वापिस न लौटने देने की दृष्टि से दरवाजा बन्द कर दिया गया हैं और बहिष्कृत होकर हमसे बहुत दूर उड़े जा रहे है।

यह प्राणाकर्षण की पूरी प्रक्रिया हुई। जिसे आरम्भिक चरण में पाँच की संख्या में आरम्भ करना चाहिए अर्थात् उपरोक्त प्रक्रिया पाँच बार दुहरायी जाय। हर महीने एक प्राणायाम बढ़ाया जा सकता है। यह प्रक्रिया क्रमशः बढ़ाते हुए एक वर्ष की अवधि में आधे घण्टे समय तक पहुँचायी जा सकती हैं।

नाड़ी शोधन प्राणायाम से सूक्ष्म


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