क्रियाशीलता एवं विश्रान्ति परस्पर सम्बद्ध हैं।यों, सूक्ष्म अर्थ में तो विश्राँति भी एक प्रकार की क्रियाशीलता ही है। इसी अर्थ में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि व्यक्ति बिना क्रियाशील रहे एक क्षण भी नहीं रह सकता– “न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।” (3।5) किन्तु सामान्यतः श्रम एवं विश्राम परस्पर पूरक हैं। विश्राम एक भिन्न प्रकार का श्रम है और इसमें उन अंगों−उपकरणों को विश्राम मिल जाता है, जो पहले श्रम कर रहे होते हैं। इस प्रकार नये सिरे से श्रमशील हो सकने के लिए विश्रान्ति आवश्यक है। निद्रा ऐसी ही विश्राम प्रक्रिया है जिससे जागृति की स्थिति में क्रियाशील चेतन मन तथा अधिक क्रियाशील रहने वाली हाथ−पैर, नाक−कान, आँख−मुंह आदि इन्द्रियों को पूरी तरह अपनी ड्यूटी से छुट्टी मिल जाती है और स्वसंचालित संस्थानों के काम का बोझ भी बहुत हल्का पड़ जाता है। तभी यह सम्भव होता है कि नये सिरे से शक्ति का संचय हो सके और नई ताजगी के साथ पुनः कर्तव्यपालन में प्रवृत्त हुआ जा सके।
कार्याधिक्य अथवा प्राणशक्ति के क्षरण के आधिक्य के कारण, नींद के अतिरिक्त शेष समय में भी बीच−बीच में कुछ विश्राम आवश्यकता होता है। निद्रा की स्थिति में मानो शरीर अनन्त आकाश से अपने उपयोग हेतु प्राण−विद्युत की नयी बैटरी प्राप्त करता है। शिथिलीकरण प्रक्रिया की प्रयोग की बैटरी को ही पुनः ‘चार्ज’ करने की प्रक्रिया कहा जा सकता है। यह भी एक आवश्यक कार्य है। इसका अभ्यास करने पर पूरे दिन भर काम का उसी ताजगी और स्फूर्ति के साथ करते रहना सम्भव होता है जिस फुर्ती और तत्परता के साथ सुबह व्यक्ति काम में जुटता है। यह आवश्यक इसीलिए भी है कि सामान्यतः मनुष्य जाने−अनजाने अपनी प्राण शक्ति का बहुत सारा अंश तेजी से खर्च करते रहते हैं। उस कमी की पूर्ति नींद के पहले भी, बीच में कर ली जाय तो शरीर पर अधिक दबाव नहीं बढ़ पाता। साथ ही, रात में नींद का कुछ मात्रा भी उस स्थिति में पर्याप्त हो जाती है। इस प्रकार काम के लिए अधिक समय मिल जाता है और शिथिलीकरण में लगने वाला समय घाटे का सौदा नहीं रह जाता। शिथिलीकरण की यह प्रेरणा प्राणियों में वैसे भी नैसर्गिक रूप से उत्पन्न होती है तथा विभिन्न पशु−पक्षी इस प्रक्रिया का लाभ उठाते देखे जाते हैं।
अभ्यासवश अनजाने ही होती रहने वाली व्यर्थ की शारीरिक गतियाँ मनुष्य को कमजोर बनाती हैं। वैसे शक्ति संचय एवं व्यय में सामंजस्य का होना जरूरी है। पर होता ऐसा नहीं है। सामान्यतया प्रत्येक व्यक्ति संचय की तुलना में जाने−अनजाने विभिन्न प्रकार की अनुपयोगी आदतों, क्रियाओं द्वारा व्यर्थ शक्ति नष्ट करते रहते तथा कमजोर एवं रुग्णता में भी इसका एक बड़ा भाग यों ही बेकार चला जाता है। शिथिलीकरण द्वारा इस अपव्यय को रोका जाता है और व्यय की पूर्ति की जाती है।
प्रकृति प्रदत्त शिथिलीकरण प्रक्रिया में अभ्यस्त जीवों में इसका सुन्दर उदाहरण देखा जा सकता है। बिल्ली विश्रामावस्था में निर्जीव पड़ी रहती है, तनाव एवं आवेश से रहित, वह स्थिर और गतिहीन पड़ी नजर आती है। पर तुरन्त हमला करना हो तो बिजली के झटके के समान झपटती है। पहले से आक्रमण के लिए उसकी माँसपेशियाँ तनी नहीं रहतीं। जरूरत पड़ने पर ताजा प्राण नस−नाड़ियों एवं माँसपेशियों में भेज दिया जाता है। यही कारण है कि विद्युत की गति से उसकी क्रियाएँ प्रकट होती हैं। आवश्यकता कार्यों के अतिरिक्त उसके प्राण का अपव्यय नहीं होने पाता। शेर, कुत्ते, साँप प्रभृति अन्य जीव−जन्तुओं में भी ये विशेषताएँ देखी जा सकती हैं। बुद्धिमान कहा जाने वाला मनुष्य ही इसका अपवाद है जो बेकार की चेष्टाओं एवं मानसिक उद्वेगों में अपनी शक्ति का क्षरण करता रहता है।
विचारों का क्रिया में प्रकट होना और क्रियाओं द्वारा मन का प्रभावित होना एक सर्वविदित तथ्य है। इनमें से किसी भी तथ्य को नाकारा नहीं जा सकता। मन के शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों की विस्तृत व्याख्या मनोविज्ञान द्वारा की गई है। स्वास्थ्य पर मनःस्थिति के प्रभाव का प्रतिपादन मनोविज्ञान करता है। साथ ही शारीरिक स्थिति एवं उसकी विकृति का प्रभाव मनोजगत पर पड़ता है, यह दूसरा पक्ष भी उक्त तथ्य से जुड़ा हुआ है। शिथिलीकरण में इन दोनों तथ्यों को समान रूप से ध्यान में रखा जाता है।
शिथिलीकरण का प्रथम चरण है–”शरीर एवं मन को ढीला छोड़ देना।” इस अभ्यास में शरीर को सभी प्रकार के तनावों से रहित कर दिया जाय। चित लेटकर मन को सम्पूर्ण शरीर–सिर से लेकर पैर तक के प्रत्येक अंग, माँस−पेशियों नस−नाड़ियों में घुमाया जाय। यह अभ्यास जितने मनोयोग से किया जायेगी, उसी अनुपात में सफलता मिलेगी। मन को माँस−पेशियों में घुमाने पर मालूम होगा कि कहीं−कहीं की माँस−पेशियाँ अब भी तनी हुई हैं, उन्हें भी ढीला छोड़ दिया जाय।
अभ्यास की प्रगाढ़ता में अनुभव होता है कि शरीर के प्रत्येक अंग−प्रत्यंग विश्रामावस्था में पहुँच रहे हैं। कल्पना−चित्र बनाया जाय कि हमारा शरीर और इसके अवयव सीसा की तरह भारी है। मन में सीसे की भाँति भारी होने की भावना बारम्बार की जाय। इसके साथ ही दोनों भुजाओं को थोड़ा-सा उठाकर तनाव रहित किया जाय। उनमें प्रवाहित प्राण को खींचने का प्रयास करें, जिससे वे अपने भार से ही गिर पड़े। आरम्भ में यह विचित्र और कठिन लगता है क्योंकि माँसपेशियों में आकुँचन की आदत पड़ गयी है। जब भुजाओं पर अधिकार हो जाय तो पैरों पर भी यह प्रयोग किया जाय। पहले एक−एक पैर को अलग−अलग। तत्पश्चात् दोनों पैरों को एक साथ। तनिक-सा ऊपर उठाकर इनमें से भी प्राण खींचने एवं अपने ही भार से गिर जाने का प्रयोग करें। बीच−बीच में अभ्यास के साथ विश्राम करना भी आवश्यक है। इस क्रम को अब आगे भी बढ़ाया जाय। सिर को तनिक-सा उठाने एवं अपने ही भार से गिरने देने का अभ्यास, सिर को भी तनाव से रहित बनाता है।
भूमि अथवा चारपाई, चौकी पर पड़े−पड़े यह भावना की जाय कि शरीर का सारा भार भूमि अथवा चारपाई पर है। यह कुछ विचित्र-सा लग सकता है। कोई भी सोच सकता है कि शरीर का भार भूमि पर रहता ही है। पर बात ऐसी नहीं है। तनाव की स्थिति में हम स्वयं किसी न किसी माँसपेशी में अपने भार को वहन किए रहते हैं। पर इस स्थिति से अनभिज्ञ बने रहते हैं। वहन कर रही माँसपेशी का भार भी भूमि पर ही डालने से शरीर के तनाव रहित होने की बात बनती है।
सोते हुए बच्चे इसके सुन्दर उदाहरण हैं। उसका सम्पूर्ण भार बिस्तर पर होता है। भार कम होते हुए भी उसके दबाव के चिन्ह बिस्तर पर देखने से स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। यही स्थिति शिथिलीकरण अभ्यास में साधक को लानी चाहिए। शरीर के प्रत्येक अवयव,माँसपेशी, नस−नाड़ी के तनाव रहित होने, भार के भूमि पर पड़ने की भावना जितनी प्रगाढ़ होगी, शिथिलीकरण का उतना ही अधिक लाभ मिल सकेगा।
शिथिलीकरण का दूसरा चरण है– मन को विश्राम देना। शारीरिक विश्राम ही पर्याप्त नहीं है, मानसिक भी उतना ही आवश्यक है। इसमें मानसिक अभ्यास का समावेश करना भी जरूरी है। शरीर एवं मन के एक दूसरे से अन्योन्याश्रित रूप से जुड़े होने एवं एक की स्थिति का दूसरे प्रभाव पड़ने के कारण ध्यान दोनों पर ही देना होगा।
अगला अभ्यास इस प्रकार है। अधलेटी स्थिति या सुखासन में शरीर की ढीला करके बैठा जाँय। बाहरी बातों, विषयों से मन को खींचे। ध्यान को बाहर से खींचकर अपनी अन्तरात्मा पर लगाया जाय। भाव यह रहे कि हम शरीर एवं मन से परे हैं। इन स्थूल आवरणों को छोड़ सकते हैं। पार्थिव शरीर से मन को हटाकर उसे अपने वास्तविक अहं भाव आत्मा पर एकाग्र किया जाय। कल्पना की जाय कि अपने चारों ओर जो सृष्टि है, उसमें करोड़ों सूर्य हैं जो अनेकों पृथ्वी एवं ग्रह−नक्षत्रों से हम घिरे हुए हैं। अनन्त देश एवं काल में मन के भाव फैलायें। चेतना को समस्त सृष्टि में फैला हुआ देखा जाय। अब अपनी पृथ्वी एवं स्वयं की स्थिति का मूल्याँकन किया जाय कि विराट् सृष्टि, महती चेतना के समक्ष अपना अस्तित्व कितना नगण्य एवं तुच्छ है। स्थूल से ऊपर उठकर अब आगे चेतना के क्षेत्र में प्रवेश किया जाय। हम उस महती अविनाशी सर्वव्यापक चेतना के समर्थ अंश हैं, अमर, अविनाशी एवं नित्य हैं। हमारे बिना सृष्टि पूर्ण नहीं हो सकती। वह चेतना हमारे अन्दर स्फुरण कर रही है। हृदय में महानगर की तरंगें लहलहा रही हैं। इस भावना की प्रगाढ़ता के उपरान्त जब शारीरिक धरातल पर आया जायेगा, तो अनुभव होगा कि शरीर एवं मन दिव्य शक्ति से ओत−प्रोत हैं।
शिथिलीकरण का यह दूसरा अभ्यास योग निद्रा के अभ्यास का आरम्भिक चरण है। योगनिद्रा अपने आप में एक पूरा योगाभ्यास है। यह अभ्यास जितना ही प्रगाढ़ एवं परिपूर्ण हो सकेगा, उतना ही अधिक लाभ प्राप्त होगा। पहला अभ्यास शरीर की थकान हरता है और शरीर की बैटरी को पुनः ‘चार्ज’ करता है। दूसरा अभ्यास नींद की भी आवश्यकता पूरी करता है और शरीर में नयी ही चेतना आकर्षण−धारण कराता है। यहाँ यह स्मरण कर लेना चाहिए कि निद्रा भी मात्र थकान मिटाने की प्रक्रिया नहीं है। अपितु उस स्थिति में अचेतन मस्तिष्क अन्तरिक्ष संव्याप्त विद्युत−प्रवाह से अपने लिए नयी विद्युतीय खुराक प्राप्त करता है। शिथिलीकरण का दूसरा अभ्यास भी इस प्रक्रिया को पूर्ण करता है और इस प्रकार वह चेतन मन को भी विश्रान्ति तथा नवीन स्फूर्ति प्रदान करता है। इस प्रकार शिथिलीकरण की उभय चरणों वाली प्रक्रिया शारीरिक−मानसिक विश्रान्ति एवं नई शक्ति के सम्पादन का उत्तम उपाय है।