शांतिकुंज की अभिनव सत्र−व्यवस्था

April 1982

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प्रगतिशील जीवन और उज्ज्वल भविष्य के लिए अभीष्ट मार्गदर्शन एवं व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त करने की सुविधा प्राचीनकाल के आरण्यक आश्रमों में थी। पर लगता है वह परम्परा मध्यकाल के अन्धकार युग में विलुप्त हो गई और आद्यावधि पुनर्जीवित न हो सकी। इस युग प्रभात को एक स्वर्णिम किरण ही कहना चाहिए कि उस वर्ष व्यवस्था का पुनर्जीवन सम्भव हो सका। आरम्भिक स्वरूप बीजाँकुर की तरह छोटा होने पर भी सन्निहित उद्देश्य और प्रयास की वरिष्ठता देखकर हर दूरदर्शी यह अनुमान लगा सकता है कि आज नहीं तो कल इस प्रयास के महान परिणाम उत्पन्न होंगे और समूचे विश्व समाज को मानवी गरिमा से अनुप्राणित करके रहेंगे।

नवयुग की तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए शान्ति कुँज में समय−समय पर विभिन्न प्रयोजनों के लिए छोटी−छोटी अवधि के सत्र लगते रहते हैं। इनमें आये दिन उलट−पुलट करनी पड़ती है। आज तो रसोई के चूल्हे पर ही तवा उतार कर पुल्टिस बनाने, नहाने का पानी गरम करने, कपड़े रंगने, साबुन बनाने आदि के बर्तन चढ़ाने पड़ते हैं। सत्रों का विषय परिवर्तन इसी विवशता में करना पड़ता है और कार्यक्रम इसी कारण प्रायः एक साल के ही बनाने, बदलने पड़ते हैं।

इस वर्ष तीन विशिष्ट सत्र शृंखलाएँ आरम्भ की जा रही हैं। ये एक साल तो विधिवत् चलेंगी ही सुविधा रही तो इन्हें स्थायित्व भी मिलेगा। जिन सत्रों का निर्धारण किया गया है वे इस प्रकार हैं– (1) उच्चस्तरीय अध्यात्म साधनाओं के लिये एक मास के कल्प साधना सत्र–एक जून गायत्री जयन्ती से। (2) युग शिल्पियों के एक−एक मास से सृजन सत्र– एक जून गायत्री जयन्ती से (3) तीर्थयात्रा, षोडश संस्कार एवं समस्या समाधान हेतु संगम सत्र–ये 5−5 दिन के होंगे व 1 मई से आरम्भ होंगे। तीनों की विस्तृत जानकारी इस प्रकार है।

कल्प साधना-सत्र

पिछले दिनों शान्तिकुंज में एक मास के चान्द्रायण सत्र ब्रह्मवर्चस साधना सत्र चलते रहे हैं। उन्हीं का परिष्कृत रूप कल्प साधना सत्रों के रूप में विकसित हुआ है। अब वे पूर्णिमा से पूर्णिमा तक नहीं वरन् अंग्रेजी महीने की पहली तारीख से तीस तक चला करेंगे। इससे तिथियों की घट बढ़ में छुट्टी लेने में, रिजर्वेशन कराने में झँझट न पड़ा करेगा। दूसरा परिवर्तन यह हुआ है कि पन्द्रह दिन आहार घटाने और पन्द्रह दिन बढ़ाने के स्थान पर पूरे महीने का एक ही उपवास निर्धारण कर दिया जायगा और वह पूरे महीने एक समान चलेगा। इसे कल्प चिकित्सा के समतुल्य समझा जा सकता है। दूध कल्प, छाछ कल्प, आम्र कल्प, खरबूजा कल्प, शाक कल्प, और न्यूनतम खिचड़ी कल्प तक के उपवासों की व्यवस्था रहेगी। साथ−साथ साधकों की शारीरिक,मानसिक स्थिति के अनुरूप चिकित्सा स्तर पर तुलसी कल्प, आँवला कल्प, ब्राह्मी कल्प, अश्वगन्धा कल्प इत्यादि जैसे उपचार भी जुड़े रहेंगे। तीसरा परिवर्तन यह हुआ है कि हर साधक के लिए एक महीने में सवा लक्ष अनुष्ठान अनिवार्य न रहेगा वरन् हरेक की विशेष स्थिति एवं आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए पृथक−पृथक साधना क्रम निर्धारित किया जायगा।

आहार का साधना की सफलता से घनिष्ठ सम्बन्ध है। पिप्पलाद, कणाद की आहार साधना प्रसिद्ध है। स्वयं गुरु देव को जौ की रोटी छाछ पर चौबीस वर्ष रहकर चौबीस पुरश्चरण करने की बात सामने है। इसी प्रकार प्रस्तुत कल्प साधना सत्रों में साधना उपासना की प्रक्रिया निर्धारित करने के साथ−साथ ही आहार कल्प का प्रावधान रखा गया है।

सभी साधकों को साधना, स्वाध्याय,संयम, और सेवा के चारों उपक्रम किस प्रकार पूरे करने चाहिए। यह निर्धारण अब हर साधकों की विशेष स्थिति का पर्यवेक्षण करके पृथक पृथक ही किया जाया करेगा और उस उपक्रम का क्या प्रभाव हुआ इसकी जाँच पड़ताल ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की अनुसंधानशाला में निष्णात नृतत्व वेत्ताओं द्वारा नियमित की जाती रहेगी। जिन पापों का स्मरण हो उनके प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में भी इन्हीं दिनों परामर्श दिया और सम्भव हो तो उसे कराया भी जायगा।

युग शिल्पी सत्र (सृजन सत्र)

यह भी एक − एक महीने के होंगे और अंग्रेजी महीने की पहली से लेकर तीस तक निरन्तर चलेंगे। प्रज्ञा संस्थानों में नियुक्त कार्यकर्त्ताओं के लिए तो यह प्रशिक्षण अनिवार्य है ही। साथ ही प्रज्ञा संस्थानों के संचालकों, प्रज्ञा पुत्रों, वानप्रस्थों परिव्राजकों एवं वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं के लिए भी इनमें सम्मिलित होना आवश्यक हैं। भले ही वे पिछले दिनों कई सत्रों में सम्मिलित हो चुके हों।

इस वर्ष प्रज्ञा संस्थानों का सामूहिक रूप से तथा वैसा सम्भव न हो वहाँ प्रज्ञा पुत्रों को सर्वत्र पंच सूची योजना हाथ में लेने पर अत्याधिक जोर दिया गया है। इस वर्ष दो और विशेष कार्यक्रम नये सिरे से बढ़े हैं(1) प्रज्ञा पुराण के आयोजन तथा उनके लिए कथा शैली, प्रवचन प्रक्रिया तथा सम्भाषण कुशलता की समुचित जानकारी साथ ही गुजराती भाषा में 1 मास का प्रज्ञा पुराण शिक्षण भी इन्हीं तारीखों से आरम्भ किया जा रहा है। गुजराती भाषा में प्रज्ञा पुराण का प्रथम खण्ड भी इन दिनों छप रहा है। (2) हर प्रज्ञा पीठ में घरेलू चिकित्सा की तरह जड़ी−बूटी उपचार का समावेश है। इन्हीं दिनों ऐसी बीस चुनी हुई जड़ी बूटीयों का निर्धारण हुआ है जिनके सहारे सामान्य रोगों का उपचार साधारण शिक्षित व्यक्ति भी भली प्रकार कर सके। इन जड़ी बूटियों का सभी संस्थान अपने−अपने यहाँ उगायेंगे ताकि खर्च से बचा जा सके। जब तक वैसी व्यवस्था न बने तब तक इन बूटियों को पिरो रूप में शान्ति कुँज से भी लागत मात्र पर प्राप्त किया जा सकेगा।

आसनों की अभिनव पद्धति शारीरिक रोगों के लिए और प्राणायामों के विशेष निर्धारण मानसिक रोगों के निवारण तथा दोनों ही क्षेत्रों की बलिष्ठता संवर्धन के लिए इन्हीं दोनों आविष्कृत हुए हैं। प्राथमिक सहायता, गृह परिचर्या का शिक्षण भी नाथ चलेगा। अगले दिनों स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकार्डर, लाउडस्पीकर उपकरण सभी संस्थानों के पास होंगे। उनका सही प्रयोग एवं रख−रखाव भी प्रयोक्ताओं को आना चाहिए अन्यथा उन उपकरणों के बिगड़ जाने का भय रहेगा।

एक हजार जीवन दानियों की माँग की गई है। आशा है प्रज्ञा परिवार से ही उसकी पूर्ति होगी। इनमें से प्रत्येक को एक महीने के प्रशिक्षण में सम्मिलित होना पड़ेगा। इसके उपरान्त ही इस निष्कर्ष पर पहुँचना सम्भव होगा कि उनका जीवन दान उत्साह कारगर भी है या नहीं।

एक महीने की सामान्य शिक्षा में कल्प साधना वाले, युग सृजन वाले तथा जीवनदानी तीनों ही सम्मिलित रहेंगे और उनका प्रसंग भिन्न होने पर भी लक्ष्य एक रहने के कारण प्रशिक्षण में सभी को समान रूप सम्मिलित होना होगा। साधनाएँ भर पृथक−पृथक रहेंगी। सामूहिक शिक्षण का स्वरूप सभी के लिए एक जैसा है। उसमें सभी को समान रूप से सम्मिलित होने का अवसर मिलेगा।

अपने परिचय समेत आवेदन पत्र भेजना और स्वीकृति प्राप्त होने के उपरान्त ही आना यह नियम पूर्ववत् ही हैं। भोजनालय की अब स्वतन्त्र व्यवस्था बना दी गई है। मासिक व्यय सौ रुपये आता है। सभी शिक्षार्थी अपना भोजन व्यय स्वयं वहन करेंगे। आवश्यक वस्त्र तथा खर्च सभी को साथ लेकर चलना चाहिए।

(3) पाँच दिवसीय संगम सत्र

इस वर्ष तक मई से ब्रह्मवर्चस् शान्ति−कुँज में होने वाले पाँच दिवसीय सत्रों का उन आत्मीय परिजनों के लिए बहुत महत्व है जो थोड़े समय के लिए पर्यटन का आनन्द, तीर्थ यात्रा का पुरातन षोडश संस्कारों की विशिष्ट फलदायक पद्धति का समुचित त्रिवेणी संगम जैसा लाभ उठाना चाहते हैं। यह तीनों ही प्रक्रियाएँ इन दिनों विकृत हो रही हैं। कुछ समय पुनीत स्थानों में रहकर वहाँ के प्राण प्रवाह, दिव्य सान्निध्य एवं उपयोगी साधना क्रम अपनाकर उसे आध्यात्मिकता का स्वल्पकालीन रसास्वादन किया जाता है। जो कभी अधिक समय तक उपलब्ध हो सके तो व्यक्ति को कृत−कृत्य बना दे। तीर्थों के इतिहास और पुण्य का विवरण सुनने के साथ यह भी जानना चाहिए जो माहात्म्य बताये गये हैं वे प्रतिमा दर्शन या नदी स्नान के नहीं वरन् वहाँ से मिलने वाली प्रेरणाओं के हैं। इन दिनों तीर्थों में ऊँची इमारतों वाले देवालयों में सजधज कर बैठी प्रतिमाएँ भर दिखती हैं। सेनेटोरियम में रहकर स्वास्थ्य लाभ पाने की तरह तीर्थ सेवन से आत्मिक प्रगति का पथ−प्रशस्त होने जैसा उपक्रम अब खोजने पर भी किसी तीर्थ में दीख नहीं पड़ता। न कोई वहाँ प्रायश्चित के लिए आता है, न प्रेरणा पाने के लिए, न साधना के लिए। लकीर पीटने की भगदड़ भर मची रहती है और उसके मात्र निहित स्वार्थों द्वारा भावुक धर्म प्रेमियों की जेबें काटने तथा उलटे उस्तरे से हजामत बनाने की विडंबना देखने के अतिरिक्त और कहीं कुछ हाथ नहीं लगता।

भारतीय संस्कृति में गर्भस्थ बालक से लेकर मरणोत्तर दे लोक में पहुँचने तक की अवधि में समय−समय पर षोडश संस्कार कराने की व्यवस्था है। इसमें प्रत्यक्ष प्रशिक्षण और परोक्ष प्रभाव एवं दिव्य परिणाम प्राप्त करने का सूक्ष्म तत्वों से भरा पूरा समावेश है। गर्भिणी का पुंसवन, बालकों का नामकरण, अन्न प्राशन,मुण्डन, विद्यारम्भ, वयस्कों का यज्ञोपवीत, विवाह अधेड़ों का वानप्रस्थ, मृतकों का श्रद्धा इन षोडश संस्कारों में प्रमुख हैं। यह आमतौर से कराये तो घरों पर ही जाते हैं, पर इस रहस्य से भी सभी अवगत हैं कि इन्हें यदि तीर्थों के पुण्य क्षेत्र में निष्णात कर्मकाण्डी विद्वानों किन्हीं ऋषि स्तर के सान्निध्य आशीर्वाद सहित कराया जा सके तो उनकी सार्थकता कहीं अधिक बढ़ जाती है। जिन्हें सुविधा है वे मुंडन संस्कार तो आमतौर से तीर्थों में जाकर ही कराते हैं। अन्य संस्कार भी यदि उपयुक्त तीर्थों में कराये जा सकें तो उनका शास्त्रोक्त प्रतिफल मिलने की आशा ही कहीं अधिक बढ़ जाती है। प्रज्ञा परिजनों को आमन्त्रित किया जा रहा है वे उपरोक्त तीनों प्रयोजनों का लाभ एक साथ उठाने के लिए इस अभिनव योजना से लाभ उठायें। इसी प्रयोजन के लिए आगामी एक मई से पाँच दिवसीय सत्रों की व्यवस्था की गई है। वे हर महीने पाँच की संख्या में निर्धारित तारीखों में हुआ करेंगे। 1 से 5, 7 से 11, 13 से 17, 19 से 23, तथा 25 से 29 के क्रम में शिविर चलते रहेंगे। बीच का दिन आने जाने का रहेगा।

पर्यटन के लिए हरिद्वार, कनखन, ऋषिकेश, लक्ष्मण झूला के चार छोटे धामों में बिखरे हुए ज्ञात अज्ञात तीर्थों का दर्शन कराने का प्रबन्ध बस द्वारा किया गया है। यात्री प्रातःकालीन साधना, कोई संस्कार कराना हो तो उसका क्रिया−कृत्य तथा भोजन से निवृत्त होकर 9 से 10 बजे तक बस द्वारा चल पड़ेंगे। शाम को 4 से 5 तक लौट आवेंगे। सायंकाल नित्य कर्म भोजन कसे निवृत्त होकर रात्रि में कथा प्रवचन सुनेंगे और शान्ति पूर्वक नौ बजे तक शयन कक्ष में चले जाया करेंगे। सत्र पाँच दिन के हैं। बस तीर्थ यात्रा प्रबन्ध दो दिन का है। शेष दिनों में से एक दिन व्यक्ति गत समस्याओं के समाधान का भी है। तीसरे प्रहर अन्यत्र घूमना मनोरंजन करना हो तो उसकी छूट है। पाँचवे दिन 10 बज तक भोजन से निवृत्त होकर सभी विदा हो जायेंगे।

उपरोक्त प्रयोजनों के लिए आने वालों के लिए शान्तिकुँज, गायत्री नगर में एक सौ आगन्तुकों तक के ठहरने का स्थान बनाया गया है। जन्म दिन, विवाह दिन मनाने से लेकर उपरोक्त षोडश संस्कारों के लिए एक विशेष मण्डप बनाया गया है। यात्रा के लिए एक बस का प्रबन्ध किया गया है जिससे दो दिन में बारी−बारी से अभी शिविरार्थी अपनी यात्रा कर लिया करें। भोजनालय की विशेष व्यवस्था बनाई गई है, जहाँ बाजार की तुलना में अधिक स्वच्छ एवं सस्ता भोजन उपलब्ध हो सके। नामकरण से लेकर यज्ञोपवीत दीक्षा एवं पूर्वजों के श्राद्ध तक के सभी संस्कार कराने के लिए इस विधि के निष्णातों को काम सौंपा गया है। तीर्थ यात्रा बस में एक मार्गदर्शक साथ जाया करेगा जो हर पुण्य स्थान का इतिहास महत्व एवं प्रभाव की प्रामाणिक जानकारी कराया करेगा।

जन्म दिन का, विवाह दिन का आशीर्वाद लेने और पर्वों, त्यौहारों तथा जन्मदिवसोत्सव की तरह ही उसका वार्षिक धर्म कृत्य करने के लिए भी आया जा सकता है। विवाह के उपरान्त वर−वधू प्रायः आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए शान्ति कुँज पहुँचते रहते हैं। यह परम्परा आगे भी जारी रहेगी। प्रज्ञा परिवार के उत्तराखण्ड तीर्थयात्री प्रायः शान्तिकुँज का आशीर्वाद प्राप्त करके तब आगे बढ़ते हैं। बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री को उत्तराखण्ड के ‘चार धाम’ कहा जाता है। इन दिनों उनके लिए कहीं पूरी कहीं आधी बस यात्रा का प्रबन्ध हो गया है और घोड़े रेडी, कंडी की भी सुविधा जहाँ−तहाँ है इतने पर भी प्राचीन काल का वह भय बना ही रहता है जिसमें दुर्घटना होने और बीमार पड़ने का भय हर उत्तराखण्ड यात्री को रहता था। अब वैसा कुछ है नहीं तो भी सुरक्षा एवं प्रयोजन की सफलता की अपेक्षा में कम से कम प्रज्ञा परिवार के लोग तो इस यात्रा पर बढ़ने से पूर्व शान्ति−कुँज का विधिवत् आशीर्वाद प्राप्त करके ही जाते हैं।

उपरोक्त सभी कारणों का समावेश रहने से अब शान्ति−कुँज उत्तराखण्ड का पाँचवाँ धाम बन गया है। इस क्षेत्र को ही समस्त भारत की तीर्थ परम्परा से परिचित व्यक्ति जब यहाँ आते हैं तो इसे प्राचीन काल की स्मृति दिलाने वाला जीवन्त तीर्थ कहते हैं।

ब्रह्मवर्चस में अध्यात्म और विज्ञान के अनुसंधान का दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाली प्रयोगशाला–गायत्री के चौबीस अक्षरों की चौबीस शक्ति प्रतिमायें–ग्रह नक्षत्रों की वेधशाला, हिमाच्छादित हिमालय को प्रत्यक्ष झाँकी कराने वाली शक्तिशाली दूरबीन, विलक्षण ब्रह्माण्ड की झाँकी कराने वाली एक आकर्षक प्रदर्शनी, आब्जर्वेटरी, जड़ी−बूटी उद्यान का अद्वितीय दर्शन परम पुनीत नित्य नौ कुण्डी यज्ञशाला में यज्ञ, नियमित गायत्री उपासना, दैनिक कथा−सत्संग, षोडश संस्कारों का प्रबन्ध, समस्त तीर्थों का एक ही स्थान पर दिव्य दर्शन, देवात्मा हिमालय और गंगावतरण शान्तिमय वातावरण, स्नेह सौजन्य और आतिथ्य से भरा पूरा सज्जनोचित व्यवहार, बालकों का गुरुकुल, गृहस्थों का तीर्थ सेवन और अधेड़ों का आरण्यक जहाँ एक साथ चलते हों ऐसा प्रशिक्षण देश विदेशों में धर्म−धारणा का आलोक उत्पन्न करने वाले लेखनी और वाणी के माध्यम से चलने वाले उच्चस्तरीय प्रयास इतनी विशेषता किसी एक स्थान पर देखने को मिल सके ऐसा कोई तीर्थ कदाचित ही किसी ने देखा हो। यही कारण है कि जो इस प्राणवान तीर्थ को एक बार देख जाता है उसकी स्मृति कभी नहीं भूलता और कभी कोई परिचित सम्बन्धी हरिद्वार यात्रा के लिए जाता है तो उसे वह इतना परामर्श अवश्य देता है कि शान्ति−कुँज ब्रह्मवर्चस् देखे बिना वापस न लौटें। प्रज्ञा पुरुष महाप्राण पू. गुरुदेव और अरुन्धती की जीवन्त प्रतिमा स्नेह सलिला माता जी का जाज्वल्यमान प्राण और प्रयास जिस संस्थान के कण−कण में ओत−प्रोत हो उसे सच्चे अर्थों में तीर्थ होना ही चाहिए। पाँच दिन के लिए यहाँ आने वाले तो अपनी यात्रा सार्थक मानते ही हैं, जो मात्र दर्शन के लिए पहुँचते हैं वे भी यह मानते हैं कि अभी भारत भूमि से तीर्थ परम्परा सर्वथा नष्ट नहीं हुई है।


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