सिद्धि सामर्थ्य से भरपूर शरीर का चक्र संस्थान

April 1982

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कुण्डलिनी महाशक्ति के भूमिका पक्ष के विवेचन में दो ध्रुवों की चर्चा हुई थी। उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुव, सहस्रार तथा मूलाधार, शिव एवं शक्ति इन नामों से पुकारा जाता है। इन्हें परस्पर जोड़ने वाली शक्ति का नाम ही कुण्डलिनी है तो साढ़े तीन फेरे लिये महासर्पिणी के रूप में मेरुदण्ड क्षेत्र में परिभ्रमणशील है। नीचे से ऊपर मूलाधार से सहस्रार तक की यात्रा काम−बीज से ब्रह्मबीज की ओर महायात्रा कहलाती है जिस पर योगीजन चलते हुए अपने परम लक्ष्य तक पहुँचते हैं। जीव सत्ता मूलाधार स्थित जननेंद्रिय मूल में निवास करती है तो ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलोक–ब्रह्मरंध्र–सहस्रार माना जाता है।

मेरुदण्ड रूपी राजमार्ग पर आत्मोत्कर्ष की,महायात्रा में कुछ विराम स्थान आते हैं जिन्हें ‘चक्र’ कहा जाता है। इन अनुदान केन्द्रों के अन्तराल में दिव्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं। साहसी–सुयोग्य–पुरुषार्थी योगी–ही इन विभूतियों को पा सकते हैं। ईश्वर ने इसीलिये इस वैभव को तिजोरी में बन्द करके रख छोड़ा है ताकि प्रौढ़ता–परिपक्वता की स्थिति आने पर ही उन्हें खोलने– उपयोग करने का अवसर मिल सके। चक्रवेधन, परिष्कार, जागरण की चर्चा करने से पूर्व उनकी पृष्ठभूमि, सूक्ष्म संस्थान में स्थिति तथा प्रसुप्ति के कारणों आदि पर पहले प्रकाश डालना ही उचित होगा। भौतिक शक्तियों के प्रतीक दक्षिणी ध्रुव मूलाधार और आत्मिक शक्तियों के उद्गम केन्द्र सहस्रार के बीच जो चेतन कड़ी है उसे अध्यात्म की परिभाषा में सुषुम्ना संस्थान कहते हैं। इस शक्ति संस्थान के अन्तराल में प्रवाहित विद्युतधारा प्रवाह के साथ जो उच्चस्तरीय विभूतियाँ जुड़ी हुई हैं उन्हें तत्वदर्शी भली−भाँति जानते हैं। यहाँ प्रचण्ड वेगवान विद्युतधाराएं बहती हैं जिनमें से एक ऋण है दूसरी धन। ऋण इड़ा है–धन पिंगला। दोनों जब भी परस्पर मिलती हैं– शक्तिधारा का प्रत्यक्ष अनुभव होता है और इस मिलन प्रक्रिया को ही सुषुम्ना कहते हैं। ये स्थूल स्नायु नाड़ियाँ नहीं हैं। मात्र विद्युत्प्रवाहों का संकेत इनसे लिया जा सकता है। मेरुदण्ड का ‘डिसेक्शन’ कर उसमें इन्हें स्थूल रूप से देखा नहीं जा सकता। योगशास्त्र की यह विद्या पूर्णतः सूक्ष्म विद्युत विज्ञान के ढाँचे पर खड़ी है। दोनों ध्रुवों के बीच दौड़ने वाले शक्ति प्रवाह को इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का समन्वय कहा जा सकता है। अलंकारिक रूप में उन्हीं को गंगा, यमुना और सरस्वती के मिलन से बनने वाली त्रिवेणी की उपमा दी जाती है।

जिन नदियों में प्रवाह तीव्र होता है वहाँ भँवर पड़ते रहते हैं। इनमें अप्रतिम सामर्थ्य होती है। इनमें फँसकर नावें अपना सन्तुलन खो देती हैं और उलट भी जाती हैं। जब हवा तेज और गरम होती है तो चक्रवात उठते है। ‘टारनेडो’ नाम से प्रसिद्ध ये चक्रवात अतिशक्तिशाली वस्तुओं को भी हवा में उड़ा ले जा सकने की सामर्थ्य रखते हैं। ‘चक्र’ नाम शक्ति की संचरण प्रक्रिया के एक सुव्यवस्थित–सुनिश्चित क्रम को दिया गया है। विज्ञान में जहाँ भी चक्र (साइकिल्स) की चर्चा होती है उससे आशय विद्युत, ध्वनि, प्रकाश आदि ऊर्जा के विभिन्न स्वरूपों के शक्ति संचार क्रम से होता है। एक पूरी तरंग बनने का क्रम साइकिल (चक्र) कहलाता है। ये एक के बाद एक बनती चली जाती हैं व शक्ति क्रमिक रूप से प्रवाहित होती रहती है। ठीक इसी प्रकार सुषुम्ना संस्थान में प्रवाहित चित्शक्ति को अति प्रचण्ड विद्युतधारा माना गया है इसमें भी भँवर पड़ते है, जिन्हें शक्ति चक्र कहते हैं। जागृत कुण्डलिनी की अग्नि शिखा जैसे−जैसे अधिक तीव्र होती जाती है, ऊपर उठती है, और इन चक्रों को उष्ण कर–उनमें हलचल उत्पन्न कर उन्हें जागृत व सक्रिय बनाती चली जाती है। ऐसे चक्रों की संख्या योगशास्त्र के अनुसार छह हैं। इन्हें ‘षट्चक्र’ जैसे सुप्रसिद्ध नाम से जाना भी जाता है। वस्तुतः यह सात हैं। अन्तिम सहस्रार है। चूँकि वह ऊर्ध्वगमन की अन्तिम परिणति है व सबका अधिपति है, उसे गणना से अलग ही रखा गया है। संख्या की उलझन में फँसने की अपेक्षा इन सात शक्ति चक्रों –सात लोकों के प्रतीक, विराट् सत्ता से सम्बन्ध स्थापित कर सकने वाले मर्मस्थलों को हमें और विस्तार से समझना चाहिए।

सूक्ष्म विज्ञान के आधार पर अनुभूति कर योगी–तत्वदर्शियों ने मेरुदण्ड के सुषुम्ना संस्थान में जिन छह चक्रों को माना है–वे हैं–मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र, आज्ञा चक्र। अन्तिम है सहस्रार। इनमें से शरीर विज्ञान के आधार पर मूलाधार को पेल्विकसेक्रलप्लेक्ससस, मणिपूर को सोलर प्लेक्सस, अनाहत को कार्डियक प्लेक्सस, विशुद्धि चक्र को फैरेन्जियल प्लेक्सस, आज्ञाचक्र को पीनियल –पिचुचरी एक्सिस तथा सहस्रार को रेटीकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम रूपी थेलेमस से उत्सर्जित विद्युत फव्वारे के समकक्ष अब वैज्ञानिकों ने मान लिया है। वस्तुतः ये उनके समीपस्थ भर हैं–स्थूल रूप में विद्यमान प्लेक्सस के नाड़ी गुच्छक नहीं हैं। इस तथ्य को कुछ उदाहरणों से भली प्रकार समझा जा सकता है।

जहाँ पर्वतीय स्थलों पर भूगर्भ की जलधारा का प्रवाह फूट पड़ता है उसे झरना कहते हैं तथा वहाँ जल का प्रवाह तीव्र होता है। गंगोत्री ग्लेशियर से गोमुख से निकलकर आने वाली भागीरथी का प्रचण्ड प्रवाह देखते बनता हैं। इस प्रवाह से जो कोलाहल–उथल−पुथल मचती है। उसे सभी जानते हैं। चक्र संस्थानों को भी एक प्रकार से स्थान विशेष से झरना फटने की तरह माना जा सकता है। भूगर्भीय ताप ज्वालामुखी के लावा के रूप में फट पड़ता है। इसी प्रकार सुषुम्ना स्थित चक्रों से शक्ति का प्रस्फुटीकरण होता है। जहाँ−जहाँ समुद्र में तूफान आते हैं, तीव्र गति के ज्वार−भाटे व साइक्लोन्स आते रहते हैं वहाँ वैज्ञानिकों ने अपने प्रचण्ड पुरुषार्थ से शक्ति दोहन कर उससे विद्युत उत्पादित करने में महत्व पूर्ण सफलता पायी है। भूमध्य सागर, कैस्पियन सी तथा हालैण्ड के समीपवर्ती समुद्री क्षेत्रों में तो ऊर्जा का इसे महत्वपूर्ण स्रोत बना लिया गया है। भौतिक क्षेत्र की ही भाँति आत्मिक क्षेत्र में भी योगीजन चक्र संस्थानों से उभरती−उफनती विद्युत का प्रयोग कर दैवी क्षमताएँ उपलब्ध करते हैं। यह तथ्य समझा जाना चाहिए कि ये सूक्ष्म ग्रन्थियाँ इन्द्रियों व उपकरणों की पहुँच से बाहर हैं। इन्हें जागृत अंतर्दृष्टि से ही दृष्टिगोचर किया, समझा व प्रयुक्त किया जा सकता है। इस पूरी विद्या की जानकारी उथली होने पर साधक को व्यर्थ भ्रम में डालती है। वैसी स्थिति न आने पाये व इस सूक्ष्म विद्या के प्रति अनास्था विकसित हो, व्यर्थ समय भी नष्ट हो व हाथ कुछ लग न आये, उनके लिये योगविज्ञान के इन उच्चस्तरीय आयामों की क्रमिक विस्तृत जानकारी अनिवार्य है।

वैसे योगवाशिष्ठ, योगचूड़ामणि, दैवी भागवत, शारदा तिलक, शांडिल्योपनिषद्, मुक्तिकोपनिषद्, हठयोग संहिता, कुलार्णव तन्त्र, योगिनी तन्त्र, बिन्दूपरिषद्, रुद्रयामल तन्त्र आदि योग ग्रन्थों में इस विद्या के विभिन्न पहलुओं पर गम्भीर विवेचन हुआ है। पर वह ऐसा नहीं है कि साधारण साधक उसे समझ सकें और उस अनुभव के आधार पर सफलता प्राप्त कर सकें। इन ग्रन्थों में मार्गदर्शक को माध्यम बनाकर सूत्र संकेत भर दे दिये गये हैं व माहात्म्य बता दिया गया है। इसी कारण इसे जन−मानस के समझने योग्य बनाना व उत्सुक सुपात्र साधक को इस मार्ग की ओर प्रवृत्त करने हेतु समुचित मार्गदर्शन देने का एक महत् उत्तरदायित्व उन पर आ जाता है जिन्होंने अपने जीवन में इन साधनाओं को अपने ऊपर परीक्षित किया।

पौराणिक उपाख्यानों में पुरुषार्थ का प्रतीक और शक्ति का पुत्र कार्तिकेय स्कन्द को माना गया है। वैसे उन्हें शक्ति शक्ति की देवी पार्वती का पुत्र माना जाता है, पर शिव पुराण के अनुसार उन्हें छः कृतिकाओं ने पाला–अग्नि ने गर्भ में धारण किया। शिव का रेतस् अग्नि के रूप में स्फुरित हुआ तथा उसे वैश्वानर ने नारी शक्ति के रूप में ग्रहण कर अपने ही भीतर परिपक्व किया। इन कार्तिकेय स्कन्द के 6 मुखों। इसी से उन्होंने व्यवधानों में देव शक्तियों का परिवाण किया। स्कन्द अवतरण के इस आख्यान को वस्तुतः अलंकारिक बनाया गया है। वैश्वानर ‘अग्नि’ कन्द कुण्ड में प्रदीप्त कुण्डलिनी शक्ति का मूलाधार है। शिव रूपी सहस्रार के जागृत−प्रफुल्लित होने पर जो पराग−मकरन्द निर्झतिर हुआ–वह ’रेतस्’ है। छः कृतिकाओं ने जिन्होंने इसे परिपक्व किया–षटचक्रों के प्रतीक हैं। शिव−शक्ति, परमात्मा−जीव, पुरुष प्रकृति का यह समन्वय ही स्कन्द रूपी महापराक्रम के रूप में प्रकट हुआ।

सूक्ष्म शरीर में अवस्थित इन छः चक्रों के ऐसे ही पौराणिक वर्णन विभिन्न ग्रन्थों में मिलते हैं। सार सबका यही है कि ये 6 केन्द्र छह ट्राँसफार्मर कहे जा सकते हैं। इनका कार्य है निखिल आकाश में संव्याप्त प्राणतत्व में से अभीष्ट मात्रा में प्राण ग्रहण कर व्यक्ति की मनस्विता को सुनियोजित रखना। ये स्वयं गतिशील रहते व मनुष्य के समग्र संस्थान को–ग्रन्थि−उपत्यिकाओं को–विद्युत्प्रवाह को भी गतिमान बनाये रखते हैं। इसकी अशक्तियाँ विकार ही व्यक्ति को आत्मिक–मानसिक दृष्टि से दुर्बल बना देते हैं भले ही बहिरंग में वह कितना ही बलिष्ठ क्यों ने हो? योगी इन चक्रों को न केवल जगाने–गतिमान रखने वरन् इनके माध्यम से कुण्डलिनी के विद्युत्प्रवाह को ऊर्ध्वगामी बनाकर−भौतिक व आत्मिक विभूतियों को प्राप्त करने की विद्या बताते हैं। इनकी परिष्कृति से मनुष्य महात्मा, देवात्मा, परमात्मा के स्तर तक पहुँच सकता है ओर ऋद्धि−सिद्धियों से सम्पन्न बन आत्मकल्याण व लोक−कल्याण के द्विविध प्रयोजन पूरे करते रह सकता है। इसी शक्ति को भौतिक प्रयोजनों में लगाकर व्यक्ति प्रखर प्रतिभावान बन जाते, उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच जाते हैं। ओजस्वी, मनस्वी, तेजस्वी ऐसे ही महापुरुष कहलाते हैं। इस सूक्ष्म संस्थान को आत्मिक प्रयोजनों में नियोजित करने की फलश्रुतियाँ अवर्णनीय है। चित् शक्ति को विकसित कर–सूक्ष्म पर छाई मूर्च्छना को जगाने की यह साधना आत्म−परिष्कार का ही प्रबल पुरुषार्थ है।

इनमें से प्रत्येक चक्र के क्या कार्य है? जागरण की क्या फलश्रुतियाँ है? इस पर विस्तार से प्रत्येक के विषय में आगे विवेचन किया गया है परन्तु ‘शारदा तिलक’ जैसे तन्त्र महाविद्या के अद्वितीय ग्रन्थ से उद्धृत एक विवरण यहाँ दिया जा रहा है जो समग्र रूप में षटचक्रों का निरूपण करता है। ग्रन्थकार लिखता है–

गुदलंगनतरे चक्रमाधारं तु चतुर्दलम्। परमः सहजस्तद्वदानन्दौ वीर पूर्वकः॥ योगानन्दश्च तस्य स्यादीशानादिदलेफलम्। स्वाधिष्ठानं लिग म्ले षटपत्रंचा क्रमस्यतु॥ पूर्वादिषु दलेष्वाहुः फलान्येतान्यनुक्रमात्। प्रश्रयः क्रूरता गर्वोनाशो म्च्छा ततः पमर्॥ अवज्ञा स्याद विश्वासो जीवस्य चरतोध्रुवम्। नाभौदशदलं चक्रं मणिपूरक संज्ञकम्॥ सुषुप्तिरत्र तृष्णा स्यादीर्ष्या पिशुनता तथा। लज्जा भयं घृ़णा मोहः कषायोऽथदिषादिता॥ हृदयेऽनाहतं चक्रं दलैर्द्वादशभिर्युतम्। लौल्यं प्रनाशः कपं वितर्कोप्यनुता पता॥ आशा प्रकाशशिचन्ताँ च समीहा ममत ततः। क्रमेण दम्भो कल्यं विवेकोऽहंक्व तिस्तथा॥ फलान्येतानि पूर्वादि दलसथ स्यात्मनो जगुः। कण्ठेऽस्ति भारतीस्थानंविशुद्धिःषोडशच्छदम्॥ तत्र प्रणव उद्गीथो हुँ फट् वषट् स्वथातथा। स्वाहा नमोऽमृतं सप्तस्वराः षड्जादयोविषम्। इति पूर्वादिपत्रस्थे फलान्यात्मनि षोडश।

अर्थात्–गुदा ओर लिंग के बीच चार पंखुड़ियों वाला आधारचक्र है। वहाँ वीरता और आनंद भाव का निवास है।

–इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल में है इसकी छः पंखुड़ियाँ हैं। इसके जागृत होने पर क्रूरता, गर्व आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गुणों का नाश होता है।

–नाभि में दश दल वाला मणिपूर चक्र है। ये प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय घृणा, मोह आदि कषय−कल्मष मन में जड़ जमाये पड़े रहते हैं।

–हृदय स्थान में अनाहत चक्र है। यह बार पंखुड़ियों वाला है। यह सोता रहे तो लिप्सा, छद्म कुतर्क, चिन्ता,मोह, दम्भ, अविवेक, अहंकार से भरा रहेगा। जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे।

–कण्ठ में विशुद्धि चक्र है, जो सरस्वती का स्थान है। यह सोलह पंखुड़ियों वाला है। यहाँ सोलह कलाएँ−सोलह विभूतियाँ विद्यमान है।

–भ्रूमध्य में आज्ञाचक्र है। यहाँ ॐ (प्रणव) उद्गीथ,हुँ, फट, विषद्, स्वधा, अमृत,सप्त स्वर आदि का निवास है। इस आज्ञाचक्र का जागरण होने से यह सभी शक्तियाँ जाग पड़ती हैं।

षट्चक्र जागरण की फलश्रुतियाँ दिव्य हैं, नगण्य हैं। शास्त्रकारों ने इन संस्थानों के जागरण से मिलने वाली षट्सम्पत्तियों का वर्णन किया है जिन्हें ऋद्धियाँ या आत्मिक उपलब्धियाँ भी कहते हैं।

षट्सम्पत्ति हैं–शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा समाधान। शम का अर्थ है शान्ति। उद्वेगों का, तनावों का, सन्तापों का शमन। दम का अर्थ है इन्द्रियों को दमन करने की निरोध की सामर्थ्य का विकास। उपरति अर्थात्−दुष्टता से घृणा तथा जूझने का सत्साहस। तितिक्षा अर्थात्–कष्टों को धैर्यपूर्वक सहन करने की सामर्थ्य। श्रद्धा अर्थात्–सन्मार्ग में प्रगाढ़ निष्ठा, विश्वास और भावना का समन्वय। समाधान–अर्थात् सारे व्यामोह के बन्धनों, संशय−लिप्साओं से छुटकारा।

वस्तुतः चक्रों की जागृति मनुष्य के गुण,कर्म,स्वभाव को प्रभावित करती है। उसका चिन्तन उत्कृष्ट बनता है तथा कर्मों में आदर्शवादिता का समावेश होता है। मूलाधार की जागृति मनुष्य में उच्चस्तरीय आनन्द, शौर्य, और कर्मनिष्ठा की भावना विकसित करती है तो स्वाधिष्ठान के जागरण से मनुष्य अपने में नव शक्ति का संचार होते, बलिष्ठता बढ़ते, उत्साह और स्फूर्ति में क्रमिक अभिवृद्धि होते अनुभव करता है। मणिपूर के स्फुरित होने से संकल्पों में दृढ़ता व पराक्रम की भावना का विकास होता है। मानसिक विकास घटते चले जाते हैं व परमार्थ प्रयोजनों में रस आने लगता है।

अनाहतचक्र को योग विज्ञान में भाव संस्थान की उपमा दी गयी है। कलात्मक उमंगें–रसानुभूति और कोमल संवेदनाओं का उद्गम स्रोत यही है। आदर्शवादी विवेकशीलता, आत्मीयता विस्तार,उदार सहकारिता के तत्व इसी चक्र से उद्भूत होते हैं। कण्ठस्थित विशुद्धि चक्र का जागरण अन्तरंग को पवित्र–दोष−दुर्गुणों से विरत बनाता है। सारी अतीन्द्रिय क्षमताएँ यहीं से जन्म लेती है। चेतना की इस अति महत्वपूर्ण शक्ति पर नियन्त्रण एवं परिष्कार कर सकने की सामर्थ्य इस चक्र के जागरण की ही फलश्रुति है। दिव्य श्रवणातीत का श्रवण, दूरदर्शन, पदार्थ हस्तान्तरण, विचार संप्रेषण विशुद्धि चक्र के ही चमत्कार हैं।

आज्ञाचक्र सहस्रार का उत्पादन केन्द्र कहा जा सकता हैं। सारे अचेतन का नियन्त्रण व सूक्ष्म जगत की गतिविधियों की मॉनीटरिंग इससे सम्भव है। सहस्रार मस्तिष्क के मध्य भाग में हैं। शरीर संरचना में साम्य की दृष्टि से इससे सबसे निकट है, थेलेमस से उठने वाला विद्युत का फव्वारा –’रेटीकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम।’ यहाँ से जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह उठता है। यह विद्युत सारे शरीर के सम्वेदना तन्तुओं से आने वाले प्रवाहों का सम्मिश्रित स्वरूप है और एक जालीनुमा अवयव के माध्यम से मस्तिष्क के एक−एक कोष्ठक तक जाकर उसे प्रभावित करती है। सहस्रों की संख्या में दौड़ती इन छोटी−छोटी चिनगारी तरंगों को ही सहस्रार की उपमा दी गयी है। ऐसा सशक्त राडार यन्त्र इस माध्यम से बनता है जो सारे ब्रह्मांड से संपर्क बना सकने व आदान−प्रदान की क्षमता अपने अन्दर रखता है। इसलिये इसे ब्रह्मरंध्र या ब्रह्मलोक भी कहते हैं। इसके माध्यम से बांये व दाहिने मस्तिष्क के उन प्रसुप्त केन्द्रों को जगाया, विकसित किया जा सकता है जिनमें असीम सामर्थ्य का भण्डार भरा पड़ा है, पर प्रसुप्ति के कारण जो मनुष्य को सामान्य बनाये हैं।

समग्र चक्र संस्थान को यदि जागृत नियन्त्रित किया जा सके तो आत्म जगत पर आधिपत्य स्थापित कर आदतों को मोड़ देना तथा अपने आपको बदल सकना सम्भव हैं। यह आत्म विजय ऋद्धि−सिद्धिदायक तो है ही; अपने ढंग की अद्भुत सफलता है। षटचक्रों के सम्बन्ध में आद्य शंकराचार्य ने लिखा है इस साधना में आत्मिक सफलताओं के साथ−साथ भौतिक सिद्धियाँ भी प्राप्त की जा सकती है। आठ प्रमुख सिद्धियाँ बताते हुए वे लिखते है–(1) जन्म सिद्धि–पूर्व जन्मों की स्थिति का सहज आभास, (2) शब्द ज्ञान सिद्धि–शब्दों के साथ जुड़ी भावनाओं का आभास,(3) शास्त्र सिद्धि–विस शास्त्र वचन को किस प्रकार प्रयुक्त करना–यह सूक्ष्म ज्ञान, (4) आधि दैविक ताप सहन शक्ति –दैवी प्रकोपों अथवा प्रारब्धजन्य विपदाओं को धैर्यपूर्वक सहन करना, (5) आध्यात्मिक ताप सहन शक्ति –काम, क्रोध, लोभ, मोहादि उद्वेगों पर कठोर नियन्त्रण, (6) आधि भौतिक ताप सहन शक्ति –सर्दी,गर्मी आदि शरीर कष्टों को शान्तिपूर्वक सह लेना व उद्विग्न न होना (7) विज्ञान शक्ति –सन्तुलित हँसमुख व्यक्तित्व–निश्छल अन्तःकरण, कर्त्तव्य निष्ठा, (8) विद्या शक्ति –अर्थात् आत्मा के स्वरूप व उद्देश्य पर विश्वास युक्त निष्ठा ईश्वर विश्वास, उदार आत्मीयता।

से वे सिद्धियाँ हैं जो व्यक्तित्व को सुरक्षित एवं सार्थक बनाती हैं। इन्हीं की महिमा शास्त्रकारों ने स्थान−स्थान पर गायी है। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा जैसी अतिउच्चस्तरीय सिद्धियों तथा परकाया प्रवेश–ज्वलन−आकाश गमन−प्रकाश आवरण क्षय जैसी अलभ्य सिद्धियों की जानकारी देना न तो यहाँ अभीष्ट होगा और न ही विवेक सम्मत भी। ऐसे चमत्कार इन दिनों देखे नहीं जाते–जो दिखाने की बात करते हैं उनमें छद्म की मात्रा प्रधान होती है। ऐसी स्थिति में उन्हीं पक्षों पर चर्चा की जानी चाहिए जिनसे जन−साधारण यह जान सके कि चक्रवेधन जैसी योग साधनाओं का आश्रय लेकर सहज ही आत्मिक व भौतिक सामर्थ्यों को जगाया जा सकता है।

काय−कलेवर में अवस्थित षटचक्रों की क्षमता असीम है। वे जीवन व्यापार में घुसी हुई अवाँछनीयता को तोड़ मरोड़ देने में भी समर्थ हैं और साथ ही व्यक्ति चेतना को इतना ऊँचा उछाल देने की उनमें सामर्थ्य है जिससे उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा जा सके। ये चक्र यदि प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहें तो उनका होना न होना समान है, किन्तु यदि उन्हें जागृत एवं सक्रिय किया जा सके, इन शक्ति धाराओं का सदुपयोग हो सके तो जीवसत्ता भी ब्रह्म सत्ता के समान समर्थ–बलशाली बन सकती है। साधना क्षेत्र के पुरुषार्थी तत्वज्ञानी इन्हीं शक्ति स्रोतों को प्रचण्ड बनाने व उनसे स्वयं का उत्थान तथा विश्व−कल्याण का विविध प्रयोजन पूरा करते हैं।

विभिन्न प्रकार के आध्यात्मिक आसन, शक्तिचालिनी तथा अन्य मुद्राएं, बन्ध, अनुलोम−विलोम एवं अन्य प्राणायाम, तीन बीजों सहित महाप्रज्ञा गायत्री का जप एवं कुण्डलिनी ऊर्जा कंथन– उन्नयन के ध्यान आदि के माध्यम से इस साधना क्रम को क्रमिक अभ्यास रूप में उपयुक्त मार्गदर्शन में आरम्भ कर देना चाहिये। परन्तु प्राथमिकता उस तत्वदर्शन को देनी चाहिये जो षट्चक्र वान की पृष्ठभूमि बनाता है।


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