उच्चस्तरीय साधना के सहयोगी उपक्रमआसन, मुद्रा, बँध

April 1982

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आत्मिक उत्कर्ष के साधनों में उच्चस्तरीय प्रयोजनों की ओर बढ़ने के पूर्व कुछ प्रारम्भिक अभ्यासों को अनिवार्य माना जाता है। महर्षि पातंजलि ने इनमें यम, नियम के बाद आसन, मुद्रा, बंध, प्राणायाम को मुख्य महत्व दिया है। बहुसंख्य साधक दो अतियों में चलते हैं। या तो वे आसन, प्राणायाम को ही सब कुछ मान बैठे इनमें ही अपना समय नियोजित करते रहते हैं अथवा इन्हें जाने बिना सीधे कुण्डलिनी जगाने व उससे नीचे की कोई बात मन में कभी लाते ही नहीं। सबसे श्रेयस्कर मध्यम मार्ग है जिसमें आसन सिद्धि, प्राणायाम शुद्धि एवं मुद्रा−बन्ध प्रयोगों को न्यूनाधिक रूप में साधना विशेष के अनुरूप अपनाकर प्रगति पथ पर क्रमिक रूप में बढ़ जाती है।

आसन से तात्पर्य है–वह सारा स्थान–परिकर जहाँ पर उपासना की जा रही है। स्थान एवं वातावरण मन की एकाग्रता–तन्मयता में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जहाँ विशिष्ट साधना की बात आती है वहाँ तो सिद्ध पीठों–संस्कारित तप स्थलियों पर समय निकाल कर जाने व संकल्पित अनुष्ठान को पूरा करने की बात सोचना चाहिए। परन्तु साधारण स्थिति के साधक को अपने ही निवास स्थान में कोलाहल रहित सुसंस्कारित वातावरण तलाशना होगा ताकि नित्य की साधना सम्पादित की जा सके। वातावरण वे तलाशना होगा ताकि नित्य की साधना सम्पादित की जा सके। वातावरण व शरीर की स्थिति–ये दो मिलकर आसन को सर्वांगपूर्ण बनाते हैं। आसन समग्र शरीर का होता है। कमर सीधी, आँखें अधखुली– अधबन्द-सी, शान्त चित्त, स्थिर काया यह स्थिति ध्यान के लिये उपयुक्त आसन मानी जाती है। दोनों हाथ गोदी में हों, शरीर सुखासन की स्थिति में होते हुए भी सुस्थिर, सुव्यवस्थित हो।

आसन प्रक्रिया के विषय में जानने से पूर्व यह स्पष्ट कर लेना चाहिए कि अपना अन्तिम उद्देश्य क्या है? पैरों को मोड़ना व अन्य निर्धारित हलचलों द्वारा शरीर की सूक्ष्म संरचना को गतिशील बनाना भी आसन प्रक्रिया है जिसे आजकल ‘योगा’ नाम से जाना जाता व प्रचारित किया गया है। आरोग्य रक्षा की दृष्टि से इन सूक्ष्म, व्यायामों का महत्व असंदिग्ध है। परन्तु अध्यात्म प्रगति की दृष्टि से कुछ ही ऐसे विशिष्ट आसन हैं, जिसकी मनीषीगण सलाह देते हैं अथवा जिनके शास्त्र निर्धारण मिलते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि तनाव मुक्ति, जीवनी शक्ति वृद्धि व निरन्तर स्फूर्ति के लिये यदि नियमित रूप से विभिन्न प्रकार के आसन किये जाते रहें तो ध्यान योग प्रक्रिया में लाभ मिलता है। पर यह लाभ उसी प्रकार का है जो पात्रता प्रामाणित करने के लिये एक और अतिरिक्त सर्टीफिकेट पा लेना। मात्र कर लेना ही ध्यानयोग जैसी चरमोत्कर्ष की साधना में आगे बढ़ा देता है, यह सोचना भी नहीं चाहिए।

कई प्रकार के आसन योग ग्रन्थों में तथा योग चिकित्सकों द्वारा बताये जाते हैं, पर इनमें से 84 ही ऐसे हैं जिन्हें सूक्ष्म शारीरिक व्यायाम की दृष्टि से तो मार्गदर्शक के परामर्श एवं निर्देशानुसार मात्र तीन आसनों तक स्वयं को सीमित रखना चाहिए। सुखासन को तो महत्ता दी ही गयी है क्योंकि यह किसी भी साधना में निस्संकोच प्रयुक्त हो सकता है–इस सम्बन्ध में शास्त्रकारों ने कहा है–

येन केन प्रकारेण सुखं धैर्य च जायते यत्सुखासनभित्युक्त मशक्त स्तत्समाश्रयेत्॥ जाबालोपनिषद्

अर्थात्–”जिस प्रकार बैठने से शरीर को सुविधा हो, शान्ति में अड़चन न पड़े वही सुखासन कहलाता है। अशक्त साधकों के लिये तो ये ही श्रेयस्कर है, इन्हीं का आश्रय लेना चाहिए।”

शिव संहिता में सुखासन के अतिरिक्त चार अन्य आसनों को विशिष्ट व साधना प्रयोजनों में उल्लेखनीय माना है–सिद्धासन, पद्मासन, उग्रासन, स्वस्तिकासन।

इस योग ग्रन्थ में उल्लेख है–

चतुरशीत्यासनानि सन्ति नानाँ विधानिच। तेभ्यश्चतुष्कमादाय मयोक्त नि बवीम्यहतम्॥ सिद्धासनं ततः पद्मासनं चोग्रं च स्वस्तिकम्॥

इन में भी सिद्धासन व पद्मासन को विशिष्ट माना गया है। इसी कारण किसी प्रकार के भ्रम और अत्यधिक विस्तार में न जाकर सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन इन तीन को ही प्रमुख माना जाय व विभिन्न बन्ध तथा मुद्राओं का सम्पुट इनमें जोड़कर इस प्रारम्भिक प्रक्रिया को समग्र बनाया जाय।

योग दर्शन (पातंजल्कृत) के समाधिपाद में आसन को आठ योग के अंगों में तीसरे क्रम का प्रधान अंग माना गया है और व्याख्या की गयी है कि आसन का अभ्यास इसलिये आवश्यक है शरीर की रज रूपी चंचलता, अस्थिरता, तम रूपी आलस्य नष्ट होकर सात्विक प्रकाश तथा दिव्यता की उत्पत्ति होती है। अष्टाँग योग का यह बहिंसाधन है। इस आसन सिद्धि के बिना अगले उच्चस्तरीय प्रयोजन पूरे नहीं हो पाते। आसन सिद्धि के विषय में महर्षि पातंजलि कहते हैं–

प्रयत्न शैथिल्यानन्त समापत्तिभ्यास्।

अर्थात्– ”प्रयत्न की शिथिलता और परमात्मा में मन लगाने से ‘आसन सिद्धि’ होती है।”

वस्तुतः शरीर की स्वाभाविक चेष्टा अर्थात् डाँवाडोल होना, काँपना आदि से उपरत होना ही प्रयत्न की शिथिलता है एवं शरीर को सीधा स्थिर करके सुखपूर्वक साधन की दृढ़ता से शरीर सम्बन्धी सब चेष्टाओं को छोड़कर अनन्त परमेश्वर के ध्यान में तद्रूप हो जाना ही ‘आसन सिद्धि’ है। ऐसी स्थिति आने पर साधक अपने को भूलकर– बहिरंग से विमुख होकर अधिक समय तक सुखपूर्वक बैठ सकता है।

इस सूत्र में ‘आनन्त समापत्ति’ जो शब्द आया है, उससे अर्थ यह है कि चित्त वृत्ति रूप से हर समय अनेकों परिच्छन्न पदार्थों की ओर स्वभावतः घूमता रहता है, फलतः अस्थिर बना रहता है। अपरिच्छन्न आकाशादि में जो अनन्तता है उसमें जब चित्त को एकाकार कर दिया जाता है तो वह निर्विषय होकर स्थिर हो जाता है। तब ही आसन सिद्ध हुआ माना जाना चाहिए।

वस्तुतः यही आसन प्रक्रिया का उद्देश्य है। इसे बार−बार समझा जाना चाहिए कि आसन चित्त−वृत्ति को एकाग्र करने के लिये है, न कि अंगों को मोड़−मरोड़कर बिखरने के लिये। इसी दृष्टि से योगी महर्षि पातंजलि आध्यात्मिक योग साधन की दृष्टि से सिद्धासन, सुखासन व पद्मासन की महिमा बताते हैं। अन्तिम परिणति तीनों की एक ही है–

“ततो द्वन्द्वानभिघात।” 48/समाधिपाद−2

अर्थात्–जब आसन की पूर्ण सिद्धि हो जाती है तब सर्दी, गर्मी, भूख−प्यास नहीं सताते और शरीर में सहन शक्ति का प्रादुर्भाव होने से ध्यान समाधि में विक्षेप नहीं होता।”

ध्यान धारणा के प्रयोगों में सुखासन को कुण्डलिनी जागरण प्रयोगों, षट्चक्र भेदन तथा अन्य उच्चस्तरीय साधनाओं के लिये विभिन्न मुद्रा−बन्ध आदि का आश्रय लेकर सिद्धासन एवं पद्मासन को प्रयुक्त किया जाता है।

सुखासन की तथा ध्यान−प्रक्रिया में इसके प्रयोग की चर्चा पहले ही की जा चुकी! सिद्धासन को लगातार नहीं, कुछ देर के लिये ही किया जाता है। तीनों में यही क्लिष्ट है। जितनी देर शक्ति चालिनी मुद्रा एवं सूर्यवेधन प्राणायाम के प्रयोग किये जाते हैं, उतनी देर इसे लगाना लाभदायक माना जाता है। प्राण वायु को संयमित करने तथा तीनों बंधों को सिद्ध करने के कारण ही इसे सिद्धासन कहते हैं, ऐसा हठयोग प्रदीपिका का मत है। इसके अभ्यास से योग निष्पत्ति शीघ्र ही होती है एवं यह सिद्धिदायक है, शिव संहिता यह बताती है।

सिद्धासन में कमर सीधी रखी जाती है एवं ध्यान मुद्रा में बैठकर बाँया पाँव इस प्रकार मोड़ते हैं कि उसकी ऐड़ी का ऊपरी भाग मल−मूत्र छिद्रों के मध्यवर्ती भाग को दबाये। यही दक्षिण ध्रुव अर्थात् मूलाधार चक्र का स्थान है। दाँये पैर को बांये के ऊपर रखकर पालथी जैसी स्थिति बनायी जाती है। इस स्थिति में दाहिने पैर की ऐड़ी नाभि से लगभग चार अंगुली नीचे उसी की सीध में आ जाती है। यह मेढू देश है अर्थात् नाभिचक्र का स्थान है। देह को सरल स्थिति में रखकर दोनों भौहों के मध्य देश में दृष्टि स्थिर कर निश्चल भाव से बैठने का नाम ही सिद्धासन है। इस प्रकार बैठने से पैरों पर दबाव पड़ता है और ज्यादा देर तक बैठे रहा नहीं जा सकता, इसलिये आवश्यकतानुसार पैर को बदलते रहना चाहिए। इसका प्रयोग प्रयोजन की मूलाधार चक्र को प्रभावित एवं उत्तेजित करना है

पद्मासन इससे सरल है। इसकी सामान्य प्रचलित विधि में पैरों पर पैर रखकर हाथ सुविधानुसार घुटनों पर अथवा गोद में रखकर बैठने का क्रम है। चिकित्सा के रूप में जब इसे किया जाता है तो पीछे से हाथ ले जाकर अंगूठे को पकड़ते हैं।

मूलबन्ध में प्राणायाम के साथ गुदा के छिद्रों को सिकोड़कर ऊपर खींचे रहते हैं। प्राण का अधोगमन रुकता है व ऊर्ध्वगमन की प्रक्रिया गतिशील होती है। इसे मूल बन्ध इसलिये कहते हैं कि यह मूल में स्थित प्रवाह का बन्धन करता है। मूलाधार चक्र के चारों ओर का आयोनिक क्षेत्र इससे विस्तृत व सक्रिय होता है, वहाँ अवस्थित स्नायु संस्थान में स्फुरणा आती है तथा सूक्ष्म रस स्रावों में वृद्धि होती है जो ध्यान प्रक्रिया में सहायक होते हैं तथा तनाव को मिटाते हैं। प्रयोगों द्वारा पाया गया है कि मूलबन्ध का सतत् प्रयोग ‘प्लाज्मा कार्टीसोल’ का स्तर कम करता है। यह इस बात का सूचक है कि तनाव की स्थिति का अन्त हो रहा है। वीर्य के अधोगामी प्रवाह को रोककर स्थिरता लाने में भी इससे सहायता मिलती है। सम्मिलित प्रतिफल यही होता है कि काया के दक्षिण ध्रुव में स्थित शक्ति −केन्द्रों की प्रसुप्ति जागृति में बदलती है तथा विद्युतप्रवाह नीचे से ऊपर की ओर गतिशील होने लगता है।

पेट में अवस्थित आँतों को ऊपर की ओर खींचने की क्रिया उड्डियान बन्ध कहलाती है। यह मूलबन्ध का उत्तरार्ध कहा जा सकता है क्योंकि इसमें भी अधोमुखी को ऊर्ध्वगामी प्रवाह की ओर नियोजित करने का प्रयास किया जाता है। स्वाधिष्ठान चक्र को जागृत करने व विद्युतचुंबकीय प्रवाहों से वहाँ पर बैठे आटोनॉमिक संस्थान के नाड़ी गुच्छकों के उत्तेजित होने से सुषुम्ना का प्रसुप्त पड़ा द्वार खुलता है। शरीर में स्फूर्ति, जीवनी शक्ति में वृद्धि, आँतों में सक्रियता व अन्नमय कोष साधना के प्रारम्भिक अभ्यास पूरे होना इसके अतिरिक्त लाभ हैं। जालन्धर बन्ध अर्थात् मस्तक को झुकाकर ठोड़ी को कण्ठ से लगाना व ध्यान को स्थिर करना। चित्त वृत्ति को शाँत कर मस्तिष्क को तनाव रहित व ध्यान योग्य बनाने में, विशुद्धि चक्र के जागरण में जालन्धर बन्ध सहायक होता है। इसे मुख्य रूप से प्राणायाम में कुम्भक के साथ प्रयोग करते हैं। जब तीनों बन्ध एक साथ प्रयुक्त करते हैं तो इसे महाबन्ध की स्थिति कहते हैं। यह सभी चक्रों को जागृत करने में सहायक होती है, मानसिक सक्रियता बढ़ाती है, अतीन्द्रिय क्षमताएँ जागृत करती है।

मुद्राओं का विस्तार तो यहाँ नहीं दिया जा रहा। परन्तु इनकी महत्ता ध्यान−धारणा के प्रयोगों में तथा कुण्डलिनी− प्राणयोगों में सहायक साधना उपक्रमों के रूप में समझी जानी चाहिए। इन्हें आसन, मुद्रा, प्राणायाम के साथ ही प्रयुक्त किया जाता है। खेचरी, मुद्रा मूलतः ध्यान योग की लययोग साधना है जिसमें क्रिया का कम व भाव पक्ष का अधिक महत्व है। शक्तिचालिनी मुद्रा के अंतर्गत मल−मूत्र संस्थान को संकुचित कर बार−बार ऊपर खींचा व फिर शिथिल किया जाता है। मूल−बन्ध के साथ प्रयुक्त होने पर यह मूलाधार−शक्ति क्षेत्र को जागृत करने में सहायक की भूमिका निभाती है। चेतन, उन्मनी, विपरीत करणी आदि मुद्राओं की चर्चा प्रस्तुत विवेचन के साथ समीचीन न होगी। शिथिलीकरण मुद्रा का अभ्यास योग निद्रा–के साथ किया जाता है। इसे तथा खेचरी मुद्रा को पाठक अलग से इसी अंक में पढ़ सकेंगे। प्रस्तुत चर्चा में उद्धृत साधना प्रयोगों का मुख्य साधना उपचार के सहयोगी उपक्रमों के रूप में ही समझा जाय। साधक के आत्म−विश्वास को बढ़ाने तथा चित्त−वृत्ति निरोध के अभ्यास में, उच्चतर आयामों में प्रवेश की गति को और भी तीव्र बनाने में ये महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।


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