शरीर का परिशोधन परिमार्जन

April 1982

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आत्मिक प्रगति में मानसिक ही नहीं शारीरिक अवयवों की मलीनता एवं निष्क्रियता भी बाधक बनती है। स्थूल अंग−प्रत्यंगों के परिशोधन के लिए आसन, व्यायाम, बंध, मुद्रा के विविध यौगिक उपचारों का वर्णन योग ग्रन्थों में आता है। जो शरीर को स्वस्थ और निरोग रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सूक्ष्म शरीर नाड़ी −गुच्छकों से बना होता है। इन उपचारों की पहुँच उस तक नहीं होती। उसके परिष्कार के लिए प्राणायाम की विशिष्ट प्रक्रिया अपनानी पड़ती हैं। प्राण प्रक्रिया द्वारा नाड़ी शोधन होने से प्राण संचार की व्यवस्था ठीक बनती तथा मलीनताजन्य निष्क्रियता दूर होती है। फलतः आत्मिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त होता हैं। पर यह तथ्य सदा स्मरण रखा जाना चाहिए कि योग ग्रन्थों में प्रयुक्त किया गया नाड़ी शब्द शरीर शास्त्रियों द्वारा बताये गये नसों के लिए नहीं– नाड़ियों से संपर्क से चलने वाले प्राण प्रवाह के लिए उपयुक्त किया गया है।

शरीर शास्त्रियों के अनुसार शारीरिक नाड़ी संस्थान में जब गड़बड़ी होती है तो रक्त संचार में बाधा पहुँचती है तथा कई प्रकार के व्यतिरेक उत्पन्न होते हैं। ऐंठे अकड़े नाड़ी तन्तु रक्त कास दबाव ठीक प्रकार न सह सकने के कारण दर्द से पीड़ित रहते हैं। संचार व्यवस्था में व्यतिरेक से शरीर के प्रत्येक अंग−प्रत्यंग को समुचित परिमाण में रक्त की मात्रा नहीं मिल पाती। फलतः वे भी अशक्तता की स्थिति में अपना काम भली−भांति पूरा नहीं कर पाते। शरीर की गन्दगी का–विजातीय तत्वों का−निष्कासन न हो तो भीतर ही भीतर विषाक्तता बढ़ती है तथा क्रमशः जीवनी शक्ति घटती है। विषाक्तता के बढ़ते तथा जीवनीशक्ति के घटने से ही विविध रोगों का आक्रमण होता है तथा मनुष्य दुर्बल और रुग्ण बनता चला जाता है। ठीक इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर की विद्युत नाड़ियों उत्पन्न होने से भी ठीक ऐसी ही अव्यवस्था उत्पन्न होती है। इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि टेलीफोन अथवा बिजली के तारों में कहीं मध्यवर्ती अवरोध उत्पन्न हो जाने पर विद्युत प्रवाह रुकता तथा सप्लाई बन्द हो जाती है। सूक्ष्म नाड़ी मेंडल की अव्यवस्था का प्रभाव समूचे सूक्ष्म शरीर−प्राण शरीर के ऊपर पड़ता है। फलस्वरूप अनेकों प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक व्यतिरेक दिखायी पड़ते हैं जो साधक के साधना मार्ग के लिए चट्टान की भाँति अवरोधक सिद्ध होते हैं।

मन न लगने–जी उचटने–मन के चंचलमान होने जैसी कितनी ही शिकायतें अधिकाँश साधक करते रहते हैं। साधना सम्बन्धी विधि−विधानों का ठीक प्रकार पालन करते हुए भी व आगे नहीं बढ़ पाते। अध्यात्म विज्ञानियों ने इसका प्रमुख कारण बताया है–नाड़ियों के प्राण−संचार व्यवस्था की विकृति। अस्तु यह आवश्यक हो जाता है कि योगाभ्यास आरम्भ करते हुए सूक्ष्म नाड़ी संस्थान के परिशोधन कास प्रयत्न किया जाय। इसकी उपेक्षा करने से साधना के उच्चस्तरीय सोपानों पर चढ़ पाना तथा अभीष्ट लाभ उठा सकना कठिन पड़ता है। यह सच है कि मस्तिष्क में ध्यान धारण से, नादानुसंधान, प्राण सन्दोह, बाटक आदि से प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न होती है, पर उपरोक्त गड़बड़ी से सूक्ष्म अवयवों में ऊर्जा का समुचित वितरण नहीं हो पाता। यह अवरोध सूक्ष्म शरीर को बलिष्ठ बनाने के उद्देश्य से किये गये प्रयत्नों को सफल नहीं होने देता, यही कारण है कि जिस प्रकार शारीरिक परिशोधन में रक्त −संचार प्रणाली को ठीक करने पर महत्व दिया जाता है–उसी तरह आत्मविकास की साधनात्मक पद्धतियों में सूक्ष्म नाड़ी संस्थान के परिशोधन को प्राथमिकता दी जाती है।

आत्मवेत्ताओं के अनुसार मेरुदण्ड में अवस्थित ‘ऑटोनॉमिक नर्वस सिस्टम’ यद्यपि मस्तिष्क के साथ भी जुड़ा रहता है, पर उसकी मूलभूत गतिविधियाँ स्वसंचालित हैं। मस्तिष्क के साथ उसका सम्बन्ध होते हुए, भी घनिष्ठता एवं नियन्त्रण की स्थिति नगण्य है। शरीरगत महत्वपूर्ण गतिविधियाँ मेरुदण्ड से निकलकर सर्वत्र फैलने वाले स्नायु मण्डल से संचालित होती है। उनका संचालन सूत्र सुषुम्ना में अवस्थित है–मस्तिष्क में नहीं। इसलिए आत्मविज्ञान में मेरुदण्ड को भी एक तरह का मस्तिष्क मानना पड़ता है और उसे समाधान करना होता है। शरीर विज्ञानी सुषुम्ना को– मेरुदंड के भीतर दोनों और–नीचे से ऊपर तक समानान्तर चलने वाले स्नायु गुच्छकों की शृंखला मानते हैं। यह स्वसंचालित है। इसे अपना क्रिया−कलाप जारी रखने के लिए किसी बाह्य प्रेरणा की आवश्यकता नहीं पड़ती। इस शृंखला का वाम पार्श्व इड़ा, दाहिना पार्श्व पिंगला ओर मध्यवर्ती समन्वित भाग सुषुम्ना कहा जाता है। ये तीनों ही परस्पर एक−दूसरे से घनिष्ठतापूर्वक सम्बद्ध हैं, पर उनके भीतर चलने वाले विद्युत प्रवाह के आरोह−अवरोह को देखते हुए उपरोक्त वर्गीकरण किया गया है।

यों तो योग ग्रन्थों में 72 हजार नाड़ियों का उल्लेख किया जाता है, पर उनमें से प्रमुख 14 ही मानी गयी हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं–(1) सुषुम्ना (2) इड़ा (3) पिंगला (4) गान्धारी (5) हस्त जिह्य (6) कुहू (7) सरस्वती (8) पूषा (9) शंखिनी (10) यशस्विनी (11) वारुणी (12) अलम्बुसा (13) विश्वोधरा (14)पयस्विनी (योग चूड़ामणिउपनिषद्)।

इनमें भी सर्वोपरि तीन हैं–(1) इड़ा (2) पिंगला (3) सुषुम्ना। इन्हें तीन शरीर का–तीन लोकों का–प्रतिनिधि बताया गया हैं। इसका नामकरण इस आधार पर किया गया है कि उनकी विशेषताएँ, कार्यपद्धति एवं दिशाधाराएं क्या−क्या हैं? उनकी सहायता से किन प्रयोजनों की पूर्ति तथा किन सफलताओं की प्राप्ति होती है? उल्लेख आता है कि समुद्र−मन्थन से 14 रत्न उपलब्ध हुए थे। इन 14 नाड़ियों को उसी स्तर के अनुदानों के लिए सूक्ष्म जगत से सम्बद्ध सूत्र का काम करने वाली विद्युत धाराएँ कहा जा सकता है। इन प्राण धाराओं को सूक्ष्म शरीर के साथ ही सूक्ष्म जगत में काम करने वाली चेतन धारा कहा जा सकता है।

शरीरस्थ सूक्ष्म केन्द्रीय नाड़ी मण्डल मस्तिष्क ओर मेरुदण्ड को मिलाकर बना है। इन दोनों को जोड़ने वाला एक वाल्व है जिसमें शरीर शास्त्र में मेदुला आब्लाँगेटा कहते हैं। इस संस्थान का श्वास−प्रश्वास की स्वसंचालित प्रक्रिया से सीधा सम्बन्ध है। मेरुदण्ड में पायी जाने वाली भूरी और सफेद मज्जा में भी वही तत्व पाये हैं जो मस्तिष्क में हैं। दोनों में ही ग्रे तथा व्हाइट मैटर पाये जाते हैं। इस पदार्थ का मेरुदण्ड से सम्बन्ध ठीक वसा ही है जैसा कि मस्तिष्क का क्रेनियल केविटी से। मस्तिष्क एवं मेरुदण्ड दोनों में ही सेरेव्रो स्पाइनल द्रव्य तैरते रहते हैं। मेरुदण्ड के पोले भाग से होकर ब्रह्म नाड़ी मूलाधार से लेकर सहस्रार तक पहुँचती है। विशेष महत्वपूर्ण भौतिक तथा चेतन तत्वों का सूक्ष्म प्राण−संचार इसी पोले भाग में होकर होता है।

सूक्ष्म नाड़ी मण्डल का संक्षिप्त वर्णन इसलिए करना यहाँ अभीष्ट था, ताकि उसकी उपयोगिता, उपादेयता एवं महत्ता को भलीभाँति समझा जा सके। उनसे समुचित लाभ उठा सकना तभी सम्भव है जबकि उनमें बहने वाला प्राण−प्रवाह सुव्यवस्थित बना रहे तथा जमी विकृतियों का परिशोधन हो सके। नाड़ियों की मलीनता के कारण आत्मिक प्रगति सम्भव नहीं, ऐसा उल्लेख योग ग्रन्थों में मिलता हैं–

मलाकुलासु नाड़ीषु मारुतो नैव मध्यमः। कर्थ स्यादुन्भनीभावः कार्यासिद्धिः कर्थभवेत्॥ –योग संघ्या

जब तक नाड़ी मल से व्याप्त है तब तक प्राण मध्यम अर्थात् सुषुम्ना मार्ग में नहीं चल सकता किन्तु मल शुद्धि होने पर ही वह सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करेगा और जब तक मल नाड़ियों में विद्यमान है तब तक उन्मनी भाव कहाँ? पुनः मोक्ष रूप कार्य की सिद्धि कैसे हो सकती है?

मलाकुलासु नाड़ीषु मारुतो नैव गच्छति। प्राणायामः कथं सिद्धस्त तत्वज्ञानंकथं भवेत्॥ तस्मादादौ नाड़ी शुद्धि प्राणायाम ततोऽम्यसेत्। –महायोग विज्ञान

अर्थात्–मलों से भरी हुई नाड़ियों में प्राणवायु अवरुद्ध है। ऐसे अवरोधों की स्थिति में प्राणायाम कैसे सफल हो? इसलिए प्रथम नाड़ी शोधन करना चाहिए पीछे प्राणायाम।

शुद्धिमेति यदा सर्वनाड़ी चक्रं मलाकुलम्। तदैव जायते योगी प्राण संग्रहणे क्षमः॥ –गोरक्ष पद्धति

मलों से भरे हुए नाड़ी चक्रों की जब शुद्धि हो जाती है तो योगी प्राण संग्रह करने में समर्थ होता है।

प्राणायाम ततः कुर्यान्नित्यं सात्विकयाधिया। यथा सुषुम्ना नाड़ीस्था मलाःशुद्धि प्रयान्ति च॥ –हठयोग प्रदीपिका

अर्थात्–अतः सात्विक बुद्धि से नित्य प्रति प्राणायाम करना चाहिए जिससे सुषुम्नास्थित मल की शुद्धि होती जाय।

यदा तु नाड़ी शुद्धिः स्याद् योगिनस्तत्वदर्शिनः। तदा विध्वस्तदोषश्च भवेदाँरम्भ सम्भवः॥ –शिव संहिता

जब नाड़ी शुद्धि होगी तब दोष शुद्धि होगी। उसी स्थिति में योग का आरम्भ सम्भव है।

यदा तु नाड़ी शुद्धिस्या तथा चिन्हानिवाह्यतः॥ कायास्त कृशता कान्तिस्तदा जायते निश्चितम्॥ –हठयोग प्रदीपिका

नाड़ी शोधन प्राणायाम की संक्षिप्त विधि इस प्रकार है–

प्रातःकाल पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठें। पालथी मारकर सुखासन, पद्मासन अथवा सिद्धासन में अपने अभ्यास के अनुरूप बैठा जा सकता है। कमर सीधी हो तथा नेत्र अधखुले।

दाहिने नासिका छिद्र को बन्द रखें। बांए से साँस खींचे और धीरे−धीरे नाभिचक्र तक ले जाँय। ध्यान, करें कि नाभि स्थान में पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रमा के समानुपीतवर्ण शीतल प्रकाश विद्यमान है। खींचा हुआ साँस उसे स्पर्श कर रहा है।

जितने समय में साँस खींचा गया था उतने ही समय तक भीतर रोकें और ध्यान करते रहें कि नाभिचक्र में स्थित पूर्णचन्द्र के प्रकाश को खींचा हुआ श्वास स्पर्श करके उसे शीतल और प्रकाशवान बना रहा है।

जिस नथुने से खींचा था, उसी बाँए छिद्र से ही बाहर निकाले और ध्यान करें कि नाभिचक्र के चन्द्रमा को छूकर वापिस लौटने वाली प्रकाशवान एवं शीतल वायु इड़ा नाड़ी की छिद्र नलियों को शीतल एवं प्रकाशवान बनाती हुई वापिस लौट रही है। साँस छोड़ने की गति अत्यन्त धीमी हो। कुछ देर साँस बाहर रोकिए बिना श्वास के रहें। बांए से ही इस क्रिया को तीन बार दुहराएँ।

जिस प्रकार बांए नथुने से पूरक, कुम्भ व रेचक एवं बाह्य कुम्भक किया था, उसी प्रकार दाहिने नथुने से भी करें। नाभिचक्र में चन्द्रमा के स्थान पर इस बार सूर्य का ध्यान कीजिए तथा साँस छोड़ते समय भावना कीजिए कि नाभि स्थित सूर्य को छूकर वापिस लौटने वाली वायु श्वास नली के भीतर ऊष्णता और प्रकाश उत्पन्न करती हुई लौट रही है। बांए नासिका के छिद्र को बन्द रखकर दाहिने से भी क्रिया को तीन बार करें।

अब नासिका के दोनों छिद्र खोल दीजिए। दोनों से सहज क्रम में लम्बा श्वास खींचिए और थोड़ी देर भीतर रोककर तथा मुँह खोलकर साँस बाहर निकाल दीजिए। यह क्रिया मात्र एक बार ही करनी चाहिए।

इस तरह तीन बार बाँये नासिका छिद्र से साँस खीचते और छोड़ते हुए नाभिचक्र में चन्द्रमा का शीतल ध्यान, तीन बार दाहिने नासिका छिद्र से साँस खींचते−छोड़ते हुए सूर्य का उष्ण प्रकाश का ध्यान, एक बार दोनों छिद्रों से साँस खींचते हुए मुख से साँस निकालने की क्रिया, इन सबसे मिलकर एक पूर्ण नाड़ी शोधन प्राणायाम बनता है। आरम्भ तीन प्राणायाम से करना चाहिए, हर माह एक−एक क्रमशः बढ़ाते हुए सात माह में दस तक इसकी संख्या पहुँचायी जा सकती है।


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