उपासना की फलश्रुति–परिष्कृत एवं विभूति सम्पन्न व्यक्तित्व

April 1982

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बहुधा यह देखने में आता है कि अपना घर−परिवार सब छोड़कर पूरा समय ईश्वराधना में लगाने वाले व्यक्ति साधना आरम्भ करने के बाद पूर्व से भी गई−गुजरी स्थिति को प्राप्त हुए−उनके अन्तरंग व बहिरंग में कहीं भी उपासना का चमत्कार दिखाई नहीं दिया। न उन्हें सुख मिला न शान्ति। स्वास्थ्य, यश, सम्मान, वैभव किसी भी दृष्टि से उन्हें ऊँचा उठा हुआ नहीं कहा जा सका, आत्मबल वृद्धि की बात तो बहुत दूर की है। इससे स्वाभाविकतः मन में असमंजस उठता है कि ऐसा क्यों होता है? प्रक्रिया वही–फिर अवलम्बन लेने वालों में से एक को लाभ व दूसरे को हानि क्यों? एक को सिद्धि मिलती है तो दूसरा और भी घटिया हो जाता है। जब जल हर किसी की तृष्णा को शान्त करता है, सूरज सबको गर्मी व प्रकाश देता है तो उपासन क्रम में फलित होने वाली प्रतिक्रियाएं अलग−अलग क्यों होती है?

इस ऊहापोह पर व्यापक विचार मन्थन करने के उपरान्त इसी निष्कर्ष पर पहुँचना होता है कि देवता, भगवान, मन्त्र या विधि−विधान में जितनी अलौकिकता दृष्टिगोचर होती है, उससे लाभ पा सकने की पात्रता साधक में होना नितान्त अनिवार्य है। मात्र उपासनात्मक कर्मकाण्डों की लकीर पीट लेना अपर्याप्त ही नहीं–ईश्वर के प्रति अनास्था बढ़ाना भी है। तेजधार की तलवार सिर काट सकती है, पर यह तथ्य भी अपनी जगह अटल है कि चलाने वाले का साहस, कौशल व शरीरबल भी पर्याप्त हो। बिजली तो हाईटेन्शन लाइनों में बराबर दौड़ती रहती है, परन्तु उस अपने घर लाने व उससे यन्त्र चला सकने के लिये आवश्यक व्यवस्था बीच में बना लेना भी जरूरी है। यन्त्र तो घर में हों व लाइन भी सामने से जा रही हो तो यह कल्पना करना ही उससे यन्त्र चल सकेंगे, बाल कौतुक ही कहा जायगा। घृत सेवन का लाभ वही उठा पाता है जिसकी पाचन क्रिया ठीक हो। यदि अपच के निर्बल रोगी द्वारा इसमें जीवनी शक्ति बढ़ा सकने की बात विचारी गयी तो उल्टे जान के लाले पड़ जायेंगे। औषधि का लाभ उन्हें ही मिलता है जो बताये हुए अनुपात और पथ्य का ठीक तरह उपयोग करते हैं। देव उपासना पर भी यही तथ्य पूर्णरूपेण लागू होता है। देवता की शक्ति व मन्त्रों के चमत्कार से वे ही लाभान्वित हो सकते हैं जिन्होंने अपने व्यक्तित्व को भीतर और बाहर से−विचार ओर आचार से परिष्कृत बनाने की साधना कर ली है। यह न करने पर तो उपासनात्मक विधि−विधानों में नष्ट किये समय व पुरुषार्थ के अभाव से साधक और भी गयी−गुजरी स्थिति में पहुँच जाता है। इसी लिये पहले आत्मोपासना और फिर देव उपासना की शिक्षा ब्रह्मविद्या के श्रेयार्थियों को दी जाती है।

होता यह है कि लोग उतावली में मन्त्र और देवता के, भगवान और भक्ति के पीछे पड़ जाते हैं। परन्तु इससे पूर्व उन्हें आत्मशोधन रूपी जिस प्राथमिक इन्टरव्यू का सामना करना होता है, उसकी आवश्यकता पर ध्यान नहीं देते। फलतः असफलता ही हाथ लगती है और ऐसे लोग दैव को, कर्मकाण्डों को और यहाँ तक कि भगवान–देवी देवता को दोष देते देखे जाते हैं। बादल कितना ही जल बरसायें, जिसके पास जिस क्षमता का पात्र होगा, उसे उतना ही मिलेगा। औंधे मुँह रखा पात्र खाली ही रहेगा। वह परिस्थितियों को कितना ही दोष दे जब तक प्रयत्न करके सिर नहीं उठाता उसे अनुदान मिलने वाला नहीं। देवताओं से बरसने वाले दैवी अनुदानों को पाने के लिये भी इसी प्रकार पात्रता संवर्धन अत्यन्त आवश्यक है–इसके अभाव में निराशा ही हाथ लगती हैं।

भगवान बुद्ध प्रव्रज्या कर रहे थे। उसी अवधि में उनके पास एक धनिक आत्मज्ञान की प्राप्ति व मुक्ति की आकाँक्षा से उनके पास आया। दूसरे दिन उसके घर आकर ही उत्तर देने का आश्वासन भगवान ने उसे दिया। स्वयं तथागत पधार रहे हैं, यह सोचकर उसने मेवा युक्त खीर बनवायी। कमण्डल लिए बुद्ध अगले दिन उसके द्वार पहुंचे। धनिक ने कमण्डल आगे बढ़ते ही श्रद्धावनत हो खीर डालने के लिये हाथ बढ़ाया। पर सहसा उसका हाथ रुक गया। कमण्डल गोबर से भरा था। बोला–”देव! इसमें तो पहले से ही गोबर भरा है। इस अस्वच्छ पात्र में देने से तो खीर खाने योग्य रहेगी भी नहीं।” इतना कहकर उसने पात्र हाथ में लिया व उसे रगड़−रगड़ कर साफ किया व फिर उसमें प्रसाद डाला।

तथागत पूरा क्रम देखते रहे और बोल उठे–”वत्स! आत्मज्ञान प्राप्ति के लिये भी इसी तरह तुम्हें अपने आत्मा रूपी पात्र को साफ करना होगा– कषाय–कल्मषों का परिशोधन करना होगा। आत्मज्ञान जैसी महान उपलब्धि बिना पात्रता के विकास के प्राप्त नहीं होती।”

हर साधक यदि गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से–आचरण और चिन्तन की दृष्टि से स्वयं को उत्कृष्टता से, सुसम्पन्न कर ले तो वे अपनी कषाय−कल्मषों की कालिमा मिटाकर अपने अन्तःकरण को शुद्ध, पवित्र व स्वच्छ बना सकते हैं। ऐसे निर्मल अन्तःकरण में भगवद् कृपा स्वतः बरसती है। ऐसे साधक मन्त्र,उपासना एवं तपश्चर्या का समुचित लाभ उठाते हैं और दैवी अनुग्रह के अधिकारी बनते हैं। आसुरी भूमिका पर कोई भौतिक सिद्धि मिल भी जाय तो अंततः वह घातक ही सिद्ध होगी। रावण, हिरण्यकश्यपु, भस्मासुर, बाणासुर, हिरण्याक्ष जैसे कितनों को चमत्कारी सिद्धियों प्राप्त थीं, पर पात्रता न होने से उन्होंने उनका दुरुपयोग ही किया। अन्ततः स्वयं भी घाटे में रहे और जब तक जीवित रहे आतंक और अत्याचार फैलाते रहे। यह एक अनुभूत सत्य है व हमेशा रहेगा कि स्वच्छ व्यक्तित्व सम्पन्न साधक किसी भी उपासना उपचार का आशाजनक लाभ सहज ही प्राप्त कर सकता है।

हमारी संस्कृति का पुरातन इतिहास देखने से पता चलता है कि कितने ही साधकों ओर तपस्वियों ने कठिन उपासनाएं करके अद्भुत विभूतियाँ−उपलब्धियाँ अर्जित की। वे स्वयं भी समर्थ बने तथा दूसरों को भी अपनी साधना का एक अंश देकर वरदान, आशीर्वाद से लाभान्वित कर सके। मात्र भारतवर्ष नहीं− अन्यान्य धर्मों के महापुरुषों व पुराण साहित्य में वर्णित घटनाक्रमों का अवलोकन करने पर पता चलता है कि अधिकाँश की सामर्थ्य और विशेषताएँ दैवी सत्ता की कृपा के रूप में उन्हें प्राप्त हुई थी। सर्वसाधारण के लिये जो सम्भव नहीं हो पाता, वह उन्हें प्राप्त हो सका व वे साधारण स्थिति से ऊँचा उठकर महामानव, देव−पुरुष बन सकने में सफल हुए। साथ ही यह भी ज्ञात होता है कि उन्हें जो सिद्धियाँ मिली−वे उनके साधना पुरुषार्थ के बलबूते−आत्मबल सम्पादन के आधार पर ही मिली, संयोगवश नहीं। भूल यह होती है कि सिद्धि बरसाने वाला पक्ष तो देखा जाता है, पर अपने को उस योग्य बना लेने की साधना की अवहेलना कर दी जाती है। यही अन्ततः निराशा का कारण बनती है। इनकी तुलना में वे कम से कम भौतिक दृष्टि से सुखी पाये जाते हैं जो श्रम−साधना व लौकिक पुरुषार्थ की उपेक्षा न कर सतत् लगे रहते हैं, भले ही उन्होंने उपासनात्मक कर्म−काण्डों को कभी अपनाया न हो।

उपासना करते हुए भी जो विपन्न और दुःखी बने रहते है, वे सच्चे उपासक नहीं। प्रभु के पास उनका जाना व याचना करना ठीक उसी प्रकार है जैसे कि कोई बच्चा मन्दिर की प्रार्थना में प्रसाद के लालच में शामिल होने जाता है। ऐसे लोलुप व्यक्ति न तो वह आनन्द पाते हैं, नहीं वे अनुदान जो प्रभु को सम्पूर्ण समर्पण करने पर स्वयमेव मिलते चले जाते हैं।

यदि यह उधेड़ बुन मन में बनी हो कि भगवान और देवता कहाँ होते हैं? किस स्थिति में होते हैं, उनकी शक्ति कितनी है व कैसे वे कृपा भक्त पर बरसाते हैं तो उनके लिये समाधान यही है कि वे उनकी सारी गतिविधियाँ असंख्यों जीवधारियों की–जड़−चेतन की बहुमुखी हलचलों को सम्भालने–सुव्यवस्थित करने में नियोजित रहती है। एक सुसंचालित नियम व्यवस्था की तरह भगवत् सत्ता का क्रिया व्यापार चलता रहता है। न तो वे व्यक्ति गत संपर्क में किसी के आ पाते हैं। न ही भावनाओं के उतार−चढ़ाव पर ध्यान दे पाते हैं। यदि वह सत्ता ऐसा करती भी है तो अपने प्रतिनिधि जीव सत्ता के माध्यम से जो उसी का एक अंश है, दिव्य सत्ता का प्राकट्य मानवी काया के जर्रे–जर्रे में चेतन प्रवाह के रूप में होता है तथा भावनाओं की उत्कृष्टता से प्रेरित सत्कार्यों उदार−परमार्थ परायणता व सद्चिन्तन के रूप में समाज संपर्क में प्रतिभासित होता है। वरदान मिलते है तो इसी दिव्य आत्म सत्ता के माध्यम से तथा शाप मिलते हैं तो आत्म−प्रताड़ना के रूप में इसी आत्मदेव से। इस मूलभूत तथ्य को समझना बहुत जरूरी है।

वस्तुतः अपने उपास्य से प्रतिनिष्ठा व श्रद्धा की प्रगाढ़ता ही देव अंश को समर्थ बनाती है, वरदान बरसाने पर विवश करती है। एक साधक की निष्ठा में गहराई व व्यक्तित्व में प्रखरता हो तो उसका देवता समुचित पोषण पाकर अत्यन्त सामर्थ्यवान बनता है और साधक की आश्चर्यजनक सहायता करता है। दूसरा साधक आत्मिक सम्पदा से रहित होने के कारण अपनी पूजा को भावना रहित बना देता है। विधिपूर्वक मन्त्र जप करते हुए भी वह समुचित लाभ नहीं उठा पाता।

एकलव्य ने अपनी निष्ठा−आस्था को अपने गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति पर आरोपित कर उसे साकार बना लिया व धनुर्विद्या में निष्णात हो सका। रामकृष्ण परमहंस की काली आज भी विद्यमान है, पर वह पुजारी को वैसे भोजन नहीं कराती जैसे अपने भक्त रामकृष्ण परमहंस को कराया। इसी काली ने विवेकानन्द को आत्मशक्ति से सम्पन्न बनाकर महामानवों की पंक्ति में ला खड़ा किया। उसके बाद कितने ही व्यक्ति दक्षिणेश्वर की इस काली की मूर्ति के दर्शन कर चुके हैं–याचना कर चुके हैं, पर कोई नया विवेकानन्द बन नहीं पाया। दूसरे तान्त्रिक, अघोरी, कापालिक, ओझा उसी प्रकार की काली मूर्ति की उपासना कर छुटपुट उद्देश्यों की पूर्ति भर कर लेते हैं। विराट् महाकाली तो मात्र एक ही है। जहाँ रामकृष्ण के अन्तरंग में परिपोषित काली अंश की क्षमता उनके अनुरूप थी–अपनी प्रगाढ़ निष्ठा से वे तद्नुरूप हो गये थे, वहाँ ओझा, अघोरी लोगों की काली बहुत दुर्बल ओछे किस्म की होती है।

अर्जुन के कृष्ण सारथी बने, उसके सखा बने। वही मीरा तथा सूर के कृष्ण अलग थे। रासलीला करने वालों के–मन्दिर के पुजारियों के कृष्ण अलग है। आकृति और प्रतिमा तो एक हो सकती है, पर इष्ट को सामर्थ्य में असाधारण अन्तर होता है। यह अन्तर साधक के अन्तरंग पर निर्भर करता है। इस तथ्य की उपेक्षा करने वाले मात्र बाह्योपचारों तक सीमाबद्ध होकर रह जाते हैं। नास्तिकता इसी उपेक्षा की प्रतिक्रिया कही जा सकती है। एक ही मंत्र विधि−विधान को अपनाने वाले क्यों सफल−असफल होते हैं, इसमें विधि−विधान को–देवता एवं भाग्य को नहीं अपने अन्तः के इष्टदेव की प्रसन्नता रुष्टता को आधार मानना चाहिए। तथ्य यही है कि हमने अपनी साधना को अधूरा रखा, अपने इष्टदेव को इतना परिपुष्ट नहीं बनाया कि वे हमारी प्रार्थना के अनुरूप उठ खड़े हों और सुनने को तैयार हो जायें। हमने अपनी पुकार को द्रौपदी जैसा नहीं बनाया कि हमारे आर्तनाद को सुनकर कृष्ण दौड़े चले आयें और माया में भटके इस जीव का उद्धार करें।

यह मानकर चलना चाहिये कि उपासना जादूगरी नहीं है। हमारे देवता इतने ओछे नहीं है कि नगण्य से उपहारों पर रीझ जायें और मनचाहे वरदान ही देते चले जाये। इसके लिये हमें अपनी मनोभूमि व बाल स्तर से ऊँचा उठाना होगा। उपासना को एक सर्वांगपूर्ण विज्ञान–एक विद्या की तरह मानकर चलना होगा जो नियमों से व सुनिश्चित उद्देश्यों को लेकर बनायी गयी है। सबसे पहला प्रयोग अपने मूर्च्छित आत्मदेव को समर्थ–बलवान बनाने के रूप में यदि हम करने लगे तो कोई कारण नहीं कि हमारे ऊपर देव अनुदान न बरसें। जिन्होंने ये लाभ अपने जीवन में पाया वे भी इसी पथ पर चले है। इसके लिए कोई ‘शार्टकट’ नहीं। हमें भी इसी मार्ग का अवलम्बन कर अध्यात्म पर बढ़ना होगा।


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