मलाई को तैर कर ऊपर आने का आमन्त्रण

April 1982

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मनुष्य जीवन में कभी कदाचित् ही ऐसे अवसर आते हैं जब उसे त्रिविधि सुयोगों का लाभ मिल सकें। (1) आत्म−कल्याण एवं पूर्णता की प्राप्ति (2) लोक सम्मान जन सहयोग, यशस्वी अमरता एवं आत्म−सन्तोष (3) दैवी अनुग्रह एवं आधार पर महामानव, ऋषि अग्रदूत देवात्मा जैसे उच्चस्तरीय अनुदान वरदान। जहाँ तक आत्मा की सम्बन्ध है उसके लिये यह तीन ही विभूतियाँ प्रमुख हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे कि भौतिक जगत में बलिष्ठता, बुद्धिमत्ता एवं सम्पदा को महत्वपूर्ण गिना जाता है। इच्छा रहते और प्रयत्न करने पर भी भौतिक क्षेत्र की सम्पत्तियाँ, सिद्धियाँ एवं आत्मिक क्षेत्र की विभूतियाँ बड़ी कठिनाई से यत्किंचित् मात्रा में ही हस्तगत होती हैं। अन्यथा लोग ऐसे ही असफलताओं का रोना रोते, दुर्भाग्य को कोसते, दिन बिताते रहते हैं। उन्हें भाग्यशाली ही कहना चाहिए जिन्हें उपरोक्त उपलब्धियों की कोई सन्तोषजनक मात्रा हस्तगत हो सके।

इतिहास की चाल भी विलक्षण है। कभी ऐसा समय आता है के तनिक से प्रयत्न में बड़े लाभ उठाने का अवसर लाटरी खुलने की तरह हाथ लगता है कभी ऐसा प्रवाह बहता है कि मानवीय प्रयत्नों का कोई मूल्य महत्व नहीं रह जाता और परिस्थितियों का तूफानी अन्धड़ सब कुछ उलट−पलट कर रख देता है। पराक्रमी, विचारशील और दूरदर्शी एक कोने पर खड़े रह जाते हैं और समय की अपनी अनगढ़ता ऐसी विचित्र होती है जिसमें ज्वारभाटे जैसे उफान मनुष्य की इच्छा और चेष्टा को ताक पर उठाकर रख देते हैं। जिन्होंने महायुद्धों हिमयुगों, महामारियों−−प्रकृति प्रकोपों, यादवी अन्त कलह का इतिहास पढ़ा है वे जानते हैं कि सर्व−समर्थ समझा जाने वाला मनुष्य कितना निरीह है इसके विपरीत जब अनुकूल अवसर आते हैं तो गढ़ा खजाना पाने वाले, लाटरी खुलने से लाभान्वित होने वाले, अमीरों की उत्तराधिकार में सम्पदा पाने वालों की तरह किस प्रकार बिना किसी योग्यता या प्रयत्नशीलता के अनायास ही वह सुयोग प्राप्त कर लेते हैं जो अनेकों को अपनी समूची प्रतिभा झोंक देने पर भी हस्तगत नहीं होते।

किसी को यदि काल ज्ञान की दूरदर्शिता मिली हो तो उसे यह समझने में तनिक भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि व्यक्तिगत भाग्योदय को तथा इतिहास−प्रवाह के अनुकूल होने की दृष्टि से यह समय ऐसा है जिसका लाभ उठाया जाना ही चाहिए। जो चूकेंगे वे पछतायेंगे। समय मनुष्य की इच्छा या चेष्टा की प्रतीक्षा नहीं करता। वह आता है और बिजली की तरह कौंध कर चला जाता है जो उसे पहचानते हैं उसे पकड़ने का प्रयत्न करते हैं। वे अपनी सूझ−बूझ की सराहते रहते हैं। दीर्घसूत्री प्रमादी सदा ही घाटे में रहते हैं, पर जिन्हें असाधारण समय को पहचानने तथा उसे पकड़ने, प्रयुक्त करने में भूल होती है वे अनन्त काल तक पछताते ही रहते हैं।

ऐसे अलभ्य अवसर प्रायः युग सन्धि बेला में ही आते हैं और परिवर्तन की सूत्र संचालन करने वाले अक्तार तन्त्र के साथ ही जुड़े हैं। रामावतार के समय रीछ, वानरों ने–गीध गिलहरियों ने–केवट भीलनी ने तनिक से पुरुषार्थ के बदले जो ऐतिहासिक यशस्विता कमाई वह अवसर निकल जाने पर उससे कहीं अधिक त्याग करने वालों को भी उपलब्ध नहीं हो सका। कृष्णावतार में पाण्डवों से लेकर सुदामा तक को, कुब्जा से लेकर राधा तक को तनिक से सहयोग के बदले जो लाभ मिले वे अविस्मरणीय ही रहेंगे। गोवर्द्धन उठाते समय लाठी लेकर आ खड़े होने वाले ग्वाल−बालों का इतना बड़ा पुरुषार्थ नहीं था जिसके लिए यह घटना अनन्त काल तक चित्रित होती रह सकें। गाँधी के साथियों में से कितने ही अविस्मरणीय रहेंगे। विनोबा से लेकर मीराबेन तक असंख्यों ऐसे हैं जिन्हें गाँधी जी से अलग करके देखा जाय तो वो उसकी तुलना में कहीं अधिक हल्के रह जाते हैं जितने कि आँके गये। बुद्ध और उनके साथी सहचरों को पृथक−पृथक करके देखा जाय तो उनके निर्धारित मूल्यों में जमीन आसमान जितना अन्तर दिखाई देगा। वेश्यावृत्ति छोड़कर साध्वी हो जाने में भी है तो प्रशंसा की बात, पर यदि आम्बपाली और बुद्ध के संयोग से उसे पृथक करके देखा जाय तो बात उतनी बड़ी नहीं रह जाती जितनी की बन पड़ी।

साधारण समय और विशेष समय में–साधारण व्यक्ति और विशेष व्यक्ति में एक विशिष्ट अन्तर होता है। साधारण की चाल धीमी होती है और विशिष्ट की तत्काल निर्णय करने से लेकर कदम उठाने तक की प्रक्रिया सम्पन्न करनी होती है। धीरे−धीरे सोचते विचारते–अनुकूल अवसर ढूँढ़ते–साथियों की सलाह मशविरा करने में ढेरों समय लग जाता है और जो उत्कृष्टता का पक्षधर उत्साह उठा था वह समय बीतते−बीतते ठण्डा ही नहीं समाप्त भी हो जाता है।

असंख्यों की आदर्शवादी योजनायें इसी प्रकार मटियामेट हुई हैं। इसके विपरीत असाधारण व्यक्ति समय को पहचानने में अपनी तीखी सूझ−बूझ का परिचय देते हैं। बिजली की तरह चमकते और तलवार की तरह टूट पड़ते हैं, असमंजस उनके आड़े नहीं आता। व्यापारी जैसा हानि लाभ का हिसाब लगाने और ब्याज बट्टे की फैलावट जोड़ने,घटाने को उन्हें फुरसत नहीं मिली। करना तो करना– न करना तो न करना– की नीति ही उदीयमान साहसियों को अपनानी पड़ी है। अवाँछनीय कृत्यों के लिये बार−बार सोचने समझने और मुहूर्त निकालने तक ठहराने का शास्त्रीय निर्देश है किन्तु तब किसी उच्चस्तरीय साहस का प्रश्न उपस्थित हो तो ईसा की वह उक्ति स्मरण कर लेना चाहिये, जिसमें वे कहते थे−” यदि देने का मन आये तो बांये हाथ की वस्तु उसी स्थिति में दे डाल। उसे दाहिने हाथ तक पहुँचाने का प्रयत्न न कर। ऐसा न हो कि इस थोड़ी-सी ही देर में शैतान बहका दे और तेरे देने के इरादे को बदल दे।”

इतिहास साक्षी है कि संसार के सभी महत्वपूर्ण इसी वज्र प्रहार जैसी भावभरी साहसिकता के साथ सम्पन्न हुए हैं। आगा–पीछा बहुत सोचने वाले व्यक्ति वाणिज्य क्षेत्र में सही हो सकते हैं, पर जहाँ तक आदर्शवादी पराक्रमों का सवाल है, वे कभी प्रेरणाप्रद इतिहास का सृजन कर सकने में समर्थ नहीं हुए है। उच्चस्तरीय भावनाएँ कभी−कभी दैवी प्रेरणा की तरह स्वांति बूँद बनकर बरसती हैं, किन्तु दुष्टता का दुर्भाग्य तो वायु प्रदूषण, कोलाहल और धुँध घुटन की तरह हर घड़ी सर्वत्र छाया रहता है। हर साँस के साथ घातक धूलिकण फेफड़ों में प्रवेश करते रहते हैं।

समूचा समाज और उसका मान्य प्रचलन बुरी तरह दुष्टता और भ्रष्टता से भरा पड़ा है। उसे वहन करते रहने और गले उतारने रहने की अभ्यास कुसंस्कारिता तभी उखड़ती है जब उसके विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया जाय। दुस्साहसी आदर्शवादियों में से प्रत्येक को प्रायः यही नीति अपनानी पड़ी है। मित्र संबंधियों का सहयोग समर्थन प्राप्त करके जो आदर्शवादी कदम उठाना चाहते हैं, वे बाल में से तेल निकालने वालों–आकाश कुसुम तोड़ने वालों की तरह अव्यावहारिक लोगों में से होते हैं और कल्पना−जल्पना के स्वप्न लोक में तैरने डुबकने का मनोविनोद करते रहते हैं मनोरथ सफल न होने की भविष्य वाणी कोई भी व्यवहार बुद्धि वाला आदमी छाती ठोंककर कर सकता है वास्तविकता यही कि साहसी लोगों ने आदर्शवादी निर्णय अपनी अन्तःप्रेरणा से किये हैं। ईमान और भगवान् का परामर्श लेने के अतिरिक्त किसी तीसरे से पूछताछ करने की ऐसे लोगों का आवश्यकता पड़ती ही नहीं।

दुनियादारों में भला कौन ऐसा हो सकता है जो तथाकथित हितैषी होने का दावा भी करे और आदर्शवादिता के साथ जुड़ी हुई असुविधा अंगीकार करने की सहमति भी प्रदान करे। इस मित्र मण्डली में ऐसे अवसरों पर उपहास, असहयोग, विरोध–विग्रह खड़ा करने की आशा करनी चाहिये। जब जन्म−जन्मान्तरों के साथी सहचर कुसंस्कार तक ऊँचा सोचते ही असंख्यों कुकल्पनायें खड़ी कर देते है और वैसा न करने के पक्ष असंख्यों कारण बताते हैं तो कारण नहीं कि सम्बन्धी लोग भी वैसी ही गति न अपनाये। जिस प्रकार कुसंस्कारों से जूझना पड़ता है ठीक उस प्रकार इन शुभ चिन्तकों से भी आँखें चुरानी पड़ती है। कर्त्तव्य और व्यामोह की लड़ाई में–कर्त्तव्य का जो पक्ष समर्थन कर सके उन्हीं के लिये यह सम्भव होता है कि प्रचलनों का व्यतिरेक करते हुए अनुकरणीय आदर्शों की स्थापना कर सकने वाला कदम उठा सकें।

युग सन्धि में भयावह वर्तमान को गलाने और उज्ज्वल भविष्य को ढालने की महान् योजना प्रज्ञा पुरुष न अपने हाथों में ली है। वे उसे पूरा करने के लिये आवश्यक वातावरण बना रहे हैं और प्रेरणाएँ उभार रहे हैं। किन्तु निराकार होने के नाते इस पुण्य प्रयोजन का श्रेय एवं उत्तरदायित्व तो उन्हें भी शरीरधारी जागुन आत्माओं को ही सौंपना पड़ रहा है। यही भूत में भी होता रहा है। हनुमान, अंगद, नल−नील, जटायु, जामवन्त निजी स्तर पर नगण्य-सी सामर्थ्य वाले थे, पर जब वे राम−काज के लिए कटिबद्ध हो गये तो उस संकल्प के साथ ही उनकी सामर्थ्य में उभार आया और जैसे थे उसका तुलना में असंख्य गुनी सामर्थ्य से सम्पन्न हो गये। मिस्टर गाँधी का आरम्भिक जीवन तथा महात्मा गाँधी का देवोपम वर्चस् देखकर कोई भी इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है कि राम−काज में निरत होना जहाँ आरम्भिक असमंजसों से आच्छादित है वहाँ उसके अगले ही चरण इतने शानदार हैं जिनकी तुलना में आरम्भिक असमंजस एवं दुस्साहस के लिये किये गये कष्ट सहन को नगण्य ठहराया जा सके। हर क्षेत्र के महामानवों में से हर एक का विश्लेषण करते चला जाय तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि वैयक्तिक योग्यता, सम्पन्नता एवं पारिवारिक स्तर की दृष्टि से गये−गुजरे होते हुये भी जब उनने आदर्शवादी साहसिकता अपनाई तो प्रामाणिकता का प्रारम्भिक परीक्षा देने में जो अड़चन आती है उसे पार करते ही वे आसमान चूमने वाली सफलता प्राप्त करने लगे और दसों दिशाओं से उन पर अजस्र सद्भाव−सहयोग बरसने लगा।

पिछले दिनों घटिया लोगों न घटिया पूजा उपक्रम अपनाया, उनके लिए न तो धर्म नाम की कोई चीज है और न ईमान−भगवान जैसी किसी चीज से किसी का कोई सरोकार है। सड़ी सुपाड़ी, घुने नारियल, अगरबत्ती, अक्षत चढ़ाकर चित्र−विचित्र मनोकामनायें पुरी कराने की ही सबको सनक सवार है। इस जंजाल को नमस्कार करते हुए ब्रह्म विद्या के तत्वज्ञानियों को इस शाश्वत तथ्य को हृदयंगम कर ही लेना चाहिए कि भौतिक सम्पदाओं की तुलना में आध्यात्मिक विभूतियों का प्रत्यक्ष एवं परीक्षा परिणाम हजारों गुना अधिक है। वह नकद धर्म है–’इस हाथ दे उस हाथ ले’ की पूरी और पक्की गुंजाइश उसमें है व्यक्तित्व को परिष्कृत करना इतना बड़ा लाभ है जिसके हुण्डी प्रत्यक्ष या परोक्ष दोनों क्षेत्रों में हाथोंहाथ भुनाई जा सकती है, पर इस बहुमूल्य सम्पदा को खरीदने के लिए उसका उचित मूल्य चुकाये बिना कोई गति नहीं। उत्कृष्ट चिन्तन–परिष्कृत चरित्र और लोक मंगल के लिए उदार अनुदान यह तीनों ही लक्ष्य ऐसे हैं जो मिलकर त्रिवेणी संगम की तरह तीर्थराज बनते हैं और अवगाहन करने वालों को तुरन्त काया−कल्प करने जैसा प्रतिफल प्रदान करते हैं।

इन दिनों ऐसे ही उदार चेताओं की अत्याधिक आवश्यकता है। महाकाल का युग निमन्त्रण उन्हीं के लिए उतरा है। युग सन्धि के इस पुण्य पर्व पर उन्हें आगे आना चाहिए। अन्तःप्रेरणा का अनुसरण करना चाहिए और मानवीय भविष्य का दो टू फैसला होने की इस निर्णायक बेला में युग पुरुषों जैसा रोज अदा करना चाहिए। इस उदार साहसिकता को अपनाने में जो कृपण जैसे असमंजस में हैं उन्हें झाडू से बुहार कर कूड़े–कर्कट के ढेर में ले जा पटकना चाहिए। युग धर्म के निर्वाह में समयदान, अंशदान की दुहरी आवश्यकतायें पूर्ण करनी होगी। उन्हें ऋषि रक्त से भरे गये घड़े की तरह हमें भी पहल करनी होगी ताकि युग संस्कृति की सीता का अभिनव सृजन हो सके। त्याग बलिदान की पुण्य परम्परा जागृत आत्माओं को अपने ही जीवन क्रम से आरम्भ करनी होगी। दूसरों से याचना करने से पहले यही न्यायानुकूल है कि पहले अपनी ही पोटली खाली की जाये, भले ही वह सुदामा के बगल में दबे हुए थोड़े से चावल ही क्यों न हों। युग सृजन में अगले दिनों हर व्यक्ति को संयमी एवं उदार बनना होगा। इसका शुभारम्भ जागृत आत्मायें अपने आप से करें तभी बात बनेगी ‘पर उपदेश कुशल’ अपनी अच्छी वक्तृता तो दे सकते हैं, पर उनका अनुकरण करने के लिए एक भी कदम आगे बढ़ने वाली नहीं है। युग सृजन का अभियान अत्यन्त व्यापक है। उसमें हर योग्यता के भावनाशील एवं चरित्रवान और कर्मनिष्ठा व्यक्ति की आवश्यकता है। शांतिकुंज में इन दिनों उन्हीं का आह्वान किया जा रहा है किसे क्या काम करना है इसे समाने पड़े कार्यों को देखकर किया जायगा। पहले से ही शर्त लगाना कि हम विदेश के दौरे पर जाना चाहते हैं– नितान्त उपहासास्पद है। हर आत्मज्ञानी को झाडू लगाने और टट्टी साफ करने जैसी छोटी प्रक्रिया अपनाने में वैसी ही प्रसन्नता अनुभव करनी होगी जितनी कि राजमुकुट पहनाकर उसे सिंहासन पर बिठाकर जुलूस बनाकर घुमाये जाने पर। ऐसे विनम्र और समर्पित व्यक्ति ही मिशन की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के काम आ सकते हैं। अपनी शर्तें लादने वाले तो भार ही बनेंगे और हैरानी तथा विग्रह ही खड़े करेंगे। उनके लिए आरम्भ से ही द्वार बन्द रखना उचित समझा गया है।

युग संधि के इस तीसरे वर्ष में न्यूनतम एक हजार कार्यकर्त्ताओं की आवश्यकता अनुभव की जा रही है जिनकी मनःस्थिति और परिस्थिति उपयुक्त हो वे शान्ति कुँज से संपर्क साधें और विचार विनिमय कर लें। मनःस्थिति यह कि ब्राह्मणोचित निर्वाह की व्यवस्था बनाकर पूरे मन से युग निमन्त्रण में अपने को खपा देना है, परिस्थिति यह कि बहुत बड़े कुटुम्ब का इतना व्यय भार मिशन के कन्धों पर न लदे जिससे सेवा के लाभ से समाज को कहीं अधिक व्यय−भार वहन करना पड़े। यों अपने साधनों को लगाने से अतिरिक्त जो कमी पड़े उसकी पूर्ति मिशन की ओर से करने का प्रबन्ध किया जा रहा है। छोटा परिवार हो तो उसके निवास−निर्वाह प्रशिक्षण एवं बच्चों के बड़े होने पर उनके विवाह स्वावलंबन की एक सुविस्तृत और सुनिश्चित योजना बनाई गई है जिसके आधार पर कोई भी व्यक्ति पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निश्चित हो कर युग धर्म के परिपालन में अपनी भावभरी–अनुकरणीय– अभिनन्दनीय मूर्धन्य भूमिका निभा सकें। सड़े–गले सनकी आलसी−दुर्गुणी तो हर जगह से दुत्कारे जाते हैं और उनके स्वागत का यहाँ भी कोई प्रबन्ध नहीं है।

प्रज्ञा परिवार इन दिनों भी बहुत बड़ा है। उनकी संख्या लाखों को पार कर करोड़ों की सीमा को स्पर्श कर रही है इतने बड़े समुदाय में से एक हजार सुयोग्य एवं कर्मनिष्ठ व्यक्ति इन्हीं दिनों निकल सकें इसकी आवश्यकता अनुभव की गई है। योग्यता इतनी होनी चाहिये कि स्वयं भार न बनें, वरन् अपनी क्षमता से समाज को कुछ दे सकने की स्थिति में हों। भजन करने वाला−सिद्ध पुरुष बनने वाला–गुरु जी की सेवा करने वाला एक भी नहीं चाहिये। चाहिये। सिर्फ वे लोग जो पसीने की धारा बहा सकें। अनुशासन पाल सकें और अपने सद्गुणों से जहाँ भी रखे जाँय वहाँ वातावरण बना सकें। योग्यता न्यूनाधिक हो तो काम चल जायगा, पर सद्गुणों की कसौटी पर उन्हें खरा उतरना ही चाहिये।

ऐसे लोगों के लिये शान्ति−कुँज में निर्वाह से लेकर प्रशिक्षण तक की और आवश्यकता के अनुरूप काम देने की पूरी व्यवस्था है। जिनके ऊपर परिवार का भार नहीं है या न्यूनतम है, ऐसे नर−नारियों को प्राथमिकता दी जायेगी, पर इसका यह अर्थ नहीं है कि जिनके परिवार हैं उन्हें लिया ही नहीं जायगा। वेतन तो किसी का कुछ नहीं पर निर्वाह के लिये ब्राह्मणोचित प्रबन्ध सभी का करने की बात सोची जा रही है। संग्रही पूँजी से कुछ काम चलाया जाय और कुछ काम चलाया जाय और कुछ मिशन से ले लिया जाय तो उस मिली−जुली व्यवस्था में प्रायः सभी भावनाशील कर्मनिष्ठों की ऐसी व्यवस्था बन सकती है जिसके आधार पर वे घर की घुटन भरी परेशानियों की तुलना में अपने को अपने परिवार को कहीं अधिक सुखी समुन्नत बना सकें।

युग सन्धि के इस तृतीय वर्ष में एक हजार सुयोग्य कार्यकर्त्ताओं की आवश्यकता अनुभव की गई है। उनके लिए यह माँग इस आशा से परिजनों के सामने प्रस्तुत की गई है कि इस परिकर में अभी भी अन्य सभी समुदायों की तुलना में जीवट का अंश कहीं अधिक परिमाण में विद्यमान है उसे गरम किया जा रहा है तो मलाई की तरह जहाँ भी विशिष्टता, वरिष्ठता होगी उछलकर ऊपर आ जायेगी और दूध के ऊपर तैरती दिखाई देगी।


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