इस युग की मूलभूत आवश्यकता

April 1982

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इन दिनों धर्म क्षेत्र में घुसी विकृतियों और निरंकुश−शुष्क बुद्धिवाद के नाम पर पनपी भ्रान्तियों ने अश्रद्धा की भावनात्मक अराजकता उत्पन्न कर दी है। फलतः व्यक्ति क्रमशः नर कीटक बनता चला जा रहा है। अंधश्रद्धा ने भ्रान्तियों के जंजाल में मानवी चिन्तन को बुरी तरह उलझाया और कष्ट कारक भूल भुलैयों में भटकाया है। श्रद्धा दोहन हेतु अनगिनत आडम्बरधारी गुरु व स्वनाम धन्य भगवान धर्म क्षेत्र में अवतरित हो गये हैं। ऐसे धूर्त भोले भावुक लोगों को अन्ध श्रद्धा के रस्से में बाँध कर विकृत मान्यताओं के गड्ढे में ढकेलते हैं। संसार अन्ध−श्रद्धा की अन्धेर नगरी बन गया है व निहित स्वार्थों का व्यवसाय भली प्रकार चल रहा है। एक तरफ भीरुता है तो दूसरी और बौद्धिक कुटिलता। इस दलदल में जादू–टोना, देवी−देवता, भूत−पलीत, ज्योतिष, चमत्कार सिद्धि से लेकर सामाजिक कुरीतियों जैसी अनेकानेक विकृतियाँ धँसी पड़ी है। अश्रद्धा व अन्ध श्रद्धा दोनों ही मिलकर उस आस्था संकट का नाम देते हैं जो इन दिनों समस्त मानवता को अपने चंगुल में लिये हुये हैं। अश्रद्धा अर्थात् आदर्शवादिता की अवमानना। अन्ध श्रद्धा अर्थात् व्यक्ति, वस्तु, क्रिया विशेष या देव भूतों की विलक्षणता में बुरी तरह आसक्ति।

इस आस्था संकट का समाधान एक ही है–समग्र मानवता को प्रभावित करने वाली उच्चस्तरीय आस्थाओं की पुनर्स्थापना। यह कार्य अध्यात्म मंच द्वारा ही सम्भव है। उपासना, साधना, आराधना के तत्वदर्शन को सही स्वरूप में प्रस्तुत करके ही अगले दिनों प्रज्ञायुग की सम्भावनाओं को साकार किया जा सकेगा। इस प्रज्ञायुग में श्रद्धा तत्व को मानवी अन्तराल में प्रविष्ट प्रतिष्ठित होने का अवसर मिलेगा। जो साधक जितना अधिक इस उपलब्धियों से सम्पन्न होगा, उसी अनुपात में उसे अपने दृष्टिकोण–स्वभाव–आचरण के स्तर को ऊँचा उठाने का सुवर्ण सौभाग्य प्राप्त होगा। इस सौभाग्य के सहारे ही व्यक्तित्व प्रखर बनता है व आत्मिक विभूतियों तथा भौतिक सफलताओं का पथ−प्रशस्त होता है। यह तथ्य भली−भाँति हृदयंगम कर लेना चाहिए कि आत्म−कल्याण का सौभाग्य वे ही प्राप्त करते हैं जो अश्रद्धा व अंधश्रद्धा दोनों से विमुख हो श्रद्धा तत्व को सच्चे अर्थों में अपने जीवन में उतारते हैं।

श्रद्धा–संयम, अनुशासन के माध्यम से शरीर को स्वास्थ्य व दीर्घ आयुष्य देती है। सद्विचारणा व सद्भावना से अभिपूरित श्रद्धा को अपनाने पर सामान्य स्तर का मस्तिष्क भी ऋषि कल्प मेधायुक्त हो जाता है। चन्दन की तरह महकता और वातावरण को शीतल बनाता ऐसा व्यक्तित्व ही उपासना का सत्पात्र तथा भगवत् कृपा का श्रेयाधिकारी बन पाता है। साधना क्षेत्र में पग रखने वाले हर पथिक को यह जानना ही होगा कि चिन्तन की उपयुक्त दिशाधारा ही व्यवहार में उत्कृष्ट दिशाधारा में बदलती है और इसके परिणाम उस स्तर की सफलता बनकर सामने आते हैं जिसे सामान्यतया वरदान या चमत्कार की संज्ञा दी जाती है।

आस्था संकट का निवारण–सद्भावनाओं का अभिवर्धन यदि सचमुच ही अभीष्ट है तो उसके लिए चिन्तन में ब्रह्मविद्या का तथा व्यवहार में आध्यात्म धारणा का आश्रय लेना होगा। अध्यात्म ही वह एक उपकरण है जिसकी पहुँच आत्म क्षेत्र तक है। धन, बल, बुद्धि का ही चमत्कार आज सर्वत्र दिखाई पड़ता है, पर फिर भी धनिक, बलिष्ठ, बुद्धिमान उच्च अन्तःकरण से रहित पाये जाते हैं–वहाँ मात्र मलीनता व कालिमा ही दिखाई देती है। विडम्बना यह है कि धर्म आध्यात्म के क्षेत्र में भी अनास्था ने व्यापक स्तर पर घुसपैठ कर ली है। यदि व्यक्ति का अन्तराल गुण, कर्म, स्वभाव न बदले तो अध्यात्म कहाँ रहा? ऐसे में प्रवचन, शिक्षण, कथा–कीर्तन स्तवन आस्था बढ़ाते नहीं घटाते ही हैं। आज का सबसे पुनीत पुरुषार्थ–युग कर्त्तव्य यही है कि धर्म−धारणा –श्रद्धा दर्शन– उपासना विज्ञान पर छाये छद्म एवं मलीन आवरण को मिटाया जाय व इनका बोधगम्य तथा सही स्वरूप जन−मानस के सम्मुख प्रस्तुत किया जाय। आर्ष स्तर की ऋषि प्रणीत धर्म चेतना का सच्चे अर्थों में आज उद्धार ही होना है। यदि ऐसा न हुआ तो बाह्योपचारों व अविश्वासों से ग्रस्त मूढ़ जन−मानस धीरे−धीरे नास्तिक होता चला जायेगा अथवा साधना विज्ञान का क्रमिक रूप में अवसान ही हो जायेगा।

इन उपासना दर्शन प्रधान प्रज्ञायोग विशेषाँकों का उद्देश्य यही है कि व्यक्ति को आस्थाओं के उन्नयन से धर्म−धारणा के सम्वर्धन की, विद्या की जानकारी करायी जाय। कर्मकाण्डों, उपासनात्मक विधि−विधानों, कथा–प्रसंगों तथा धर्मानुष्ठानों के बहिरंग स्वरूप को सीधी तरह समझने−समझाने में कठिनाई होती है। जब इन में सन्निहित प्रेरणाओं के भाव−भरे वातावरण में हृदयंगम होने और चमत्कारों से भरे सत्परिणाम उत्पन्न होने की प्रतिक्रिया सामने आती है तो समझ में आता है कि यह निरर्थक-सी लगने वाली प्रक्रिया कितनी मर्मस्पर्शी, व्यक्तित्व का काया कल्प कर डालने वाली प्रभावोत्पादक विद्या है।

दैनिक उपासना द्वारा दिव्य−चेतना से घनिष्ठता बनाना, योगाभ्यास द्वारा प्रस्तुत शक्तियों को जगाना तथा तप साधना के माध्यम से अतिमानवी शक्तियों का उन्नयन तो साधना विज्ञान का एक अंग है ही। दूसरी महत्वपूर्ण आवश्यकता है सूक्ष्म वातावरण परिशोधन हेतु सामूहिक ध्यान धारणा की। जिस सन्धि बेला से विश्व मानस आज गुजर रहा है, ऐसे सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता और बढ़ जाती है। ऐसे प्रयोग सम्मिलित आत्मशक्ति को उभारने के लिये किये जाते हैं। नैष्ठिकता साधना−महापुरश्चरणों की इस प्रक्रिया में लाखों साधक अपनी संकल्प शक्ति एक साथ, एक समय विशेष में एक लक्ष्य की पूर्ति के लिये नियोजित करते हैं। अदृश्य जगत पर छाई विभीषिकाओं के निवारण व भावी विपत्तियों के परित्राण हेतु प्रज्ञा परिवार का यह ब्रह्मास्त्र युग विभीषिकाओं का तो निवारण करेगा ही, उज्ज्वल भविष्य की रूपरेखा भी बनायेगा। ध्यान−धारणा सम्बन्धी विवेचन मार्च अंक में विस्तार से किया गया है। उसे सभी साधक ध्यान से पढ़े व क्रियान्वित करें। प्रस्तुत अंक में साधना के अन्यान्य उच्चस्तरीय प्रयोगों की चर्चा की जा रही है जो आगे भी जारी रहेगी।


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