प्रतीकोपासना एवं ध्यान प्रक्रिया की पृष्ठभूमि

April 1982

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प्रतीकोपासना एवं ध्यान धारणा को समझने के पूर्व आस्तिकता के उस स्वरूप को पहले आत्मसात् करना होगा जो स्तर के अनुरूप मनोभूमि बनाता है और हर साधक के लिये अलग−अलग निर्धारण करता है। इस पूर्व भूमिका के विभिन्न पक्षों की जानकारी लिए बिना ध्यान साधना की सीढ़ियाँ चढ़ना सम्भव नहीं हो पाता।

यह मानना ही होगा अपनी प्रारम्भिक आवश्यकताओं की पूर्ति योग्य सामर्थ्य हर जीवधारी में ईश्वरीय अनुदान के रूप में विद्यमान है। जैसा जिनका स्तर होता है, वैसी ही उसकी जरूरतें भी होती है। सभी ईश्वर के अंश होने के नाते अपने निर्वाह के सामान्य क्रम को पूरा करने योग्य अनुदान तो सतत् परमपिता से पाते ही रहते हैं। मात्र मनुष्य की ही यह विशेषता है कि वह इस निर्वाह क्रम से ऊँचा उठता है, प्रगति करता है तथा अपने चेतनात्मक पुरुषार्थ के बलबूते आत्मोत्थान का पथ−प्रशस्त करता है।

साधना−उपासना उसी पुरुषार्थ का नाम है जो मनुष्य को हर जीवधारी की तुलना में अतिरिक्त रूप से अनुदान रूप में सहज प्राप्त है, जिसे सम्पादित कर स्थूल रूप में भौतिक समृद्धि तथा थोड़ा और ऊँचे उठने पर सूक्ष्म स्वरूप में आत्मिक विभूतियों को करतलगत करना सबके लिये सम्भव है। मनुष्य−मनुष्य में जो अन्तर पाया जाता है वह इन तीनों स्तरों के कारण ही होता है। कुछ तो भौतिक व आत्मिक दोनों ही क्षेत्रों में पिछड़े होते हैं व अन्य प्राणियों से कुछ श्रेष्ठ तो क्या गतिविधियों के क्षेत्र में उनसे भी हेय होते हैं। दूसरा स्तर स्थूल साधना का है। व्यायाम, अध्ययन, अनुभव शिल्पकला, वाणिज्य जैसे विषयों में कुशलता अर्जित कर ऐसे व्यक्ति अपना लौकिक जीवन सफल बनाते हैं, वैभव को प्राप्त होते हैं।

सूक्ष्म साधना−उपासना वह स्तर है जिसमें मनुष्य और भी ऊँचा उठकर अपने गुण, कर्म, स्वभाव, दृष्टिकोण को परिष्कृत करता है– प्रसुप्त सामर्थ्यों को जगाता है। व्यक्ति अपनी आकाँक्षाओं, मान्यताओं एवं भावनाओं को उच्चस्तरीय बनाता है। इस सूक्ष्म उपासना को सम्पादित करने वाला अपना ही नहीं, अपने संपर्क क्षेत्र के अनेकानेक व्यक्तियों का हित कर जाता है।

पंचतत्वों की काया वाले मनुष्य के निर्वाह तथा प्रशिक्षण हेतु भौतिक उपादान ही काम में आने योग्य हैं। मस्तिष्क को सुविकसित तथा शरीर को बलिष्ठ बनाकर स्थूल साधना के माध्यम से भौतिक क्षेत्र में प्रगति करते हम नित्य अनेकों व्यक्तियों को देखते हैं। पर यह तो अध्यात्म का पहला चरण है। इससे अन्तरात्मा के उत्थान की बात नहीं बनती। वह लक्ष्य तो सूक्ष्म साधना उपासना से ही पूरा होता है भौतिक स्तर की स्थूल साधना जहाँ लोक−व्यवहार की एक सामान्य प्रक्रिया है वहाँ आत्मिक प्रगति की सूक्ष्म साधना वह पुरुषार्थ है जिसमें साधक को अपना अन्तः का स्तर ऊँचा उठाना होता है। इन प्रयासों को ही अध्यात्म साधना कहते है। इसके लिए प्रधान अवलम्बन ईश्वर को बनाना होता है। चेतना की उच्चस्तरीय संवेदना को ही प्रकारान्तर से ईश्वर कहते हैं। उपासना प्रक्रिया में इसी महत् सत्ता से अपना संपर्क जोड़कर अपनी जीव सत्ता को तद्रूप बनाया जाता है।

परन्तु मुख्य उलझन तब आती है जब ईश्वर का स्वरूप समझने व उसके अनुरूप बनने के लिए प्रयास किये जाते हैं। महत् तत्व की अनेकानेक नाम दिये जाने के कारण प्रारम्भिक स्थिति के साधक की यह कठिनाई होना स्वाभाविक भी है। ध्यान प्रक्रिया सम्बन्धी सारे ऊहापोह इसी ताने बाने को लेकर चले हैं कि ईश्वर के तो विभिन्न रूप हैं, प्रतीक है। अपनी आत्मिक उन्नति के लिये उनमें से कौन-सा बुना जाय व ध्यान की प्रक्रिया क्या हो? इसी का समाधान करने के लिये मनीषियों–तत्व दृष्टाओं ने साधक की मनःस्थिति के अनुरूप की ध्यान प्रक्रिया का निर्धारण किया है।

मूर्ति अथवा प्रतीक पूजा तथा इष्ट के साकार ध्यान की दो विद्यालय स्तर की कक्षाएँ है। मूर्ति पूजा को प्राथमिक तथा इष्ट के ध्यान को माध्यमिक स्तर का कह सकते हैं। भक्ति भावना उत्पन्न करने, चेतना को चेतना के साथ घनिष्ठता के सूत्रों में बाँधने के लिये तथा निष्ठा की परिपक्वता के लिये कल्पित देव प्रतिमाओं को यथार्थ मानने की मनःस्थिति प्रतीक पूजा में बनायी जाती है। इष्ट का साकार ध्यान इससे उच्चस्तर की सूक्ष्म प्रतीक पूजा है जिसमें श्रद्धा, समीपता की वैसी ही भावना की जाती है जैसी की मूर्ति पूजा में स्थूल प्रतिमा की। यह एक प्रकार की मानस पूजा है एवं प्रारम्भिक अभ्यास तथा श्रद्धा−समर्पण के भाव परिपक्व करने के लिए आवश्यक मानी जाती है।

इन दोनों से आगे स्नातक स्तर की कक्षा आरम्भ होती है जिसे निराकार ध्यान साधना कह सकते हैं। भगवान की इसमें मनुष्य रूप में, देवी−देवता विशेष के रूप में कल्पना नहीं की जाती और न ही उसके स्वागत सत्कार का प्रबन्ध ही करना होता है। कर्मकाण्ड जिस उद्देश्य से बनाये गये है वे मात्र श्रद्धा भावना को परिपक्व करने के लिये ही हैं। संग्रहित श्रद्धा को परिपुष्ट करने के लिये इस उच्चस्तरीय कक्षा में पहुँचे साधक भी नित्य कर्म में प्रतीक पूजा को छोड़ते नहीं–सतत् अपनाये रहते हैं।

निराकार ध्यान में भगवान व्यक्ति नहीं, शक्ति बन जाता है। उसे किस रूप में अपने मानस पटल पर लाया जाय, संपर्क जोड़ा जाय–इस विद्या का ही अष्टाँग योग की ‘ध्यान’ नामक स्थिति विशेष में विवेचन किया जाता है। परब्रह्म, सृष्टा, भगवान, ईश्वर, परमात्मा आदि अनेकानेक नामों से उस महत् तत्व की विवेचना की जाती रही है। ब्राह्मी चेतना के इस विशाल सागर का स्वरूप इतना बड़ा है कि ‘ससीम’ बुद्धि वाले मानव के लिये उसकी जानकारी प्राप्त कर संपर्क जोड़ पाना सम्भव नहीं। “नेति−नेति” कहकर वेदान्त दर्शन में इसीलिये उसे अचिन्त्य, अनिर्वचनीय, अगम्य बताया गया है। फिर उसका ध्यान किया कैसे जाय? इसी का समाधान करते हुए मनीषी निर्देश देते हैं कि जीवसत्ता की अन्तरात्मा को स्पर्श करने वाले ब्राह्मी अंश को ही पहचाना व अपनाया जाय। यही उपास्य देव, इष्टदेव, परमेश्वर है। अनुग्रह–वरदान इसी से मिलते हैं। हलचलों से भरे महत् सागर की अनेकानेक तरंगों में से एक यह परमात्म सत्ता भी है जो मानवी काय−कलेवर में स्थिति को प्राप्त कर अनेकानेक साधकों ने चमत्कारी सफलताएँ पायी हैं। यह तथ्य इसी सत्य का उद्घाटन करता है कि देवताओं का स्वतन्त्र अस्तित्व बल एवं उपासनात्मक विधि−विधान नहीं साधक के व्यक्तित्व का परिष्कार, अन्तः की निश्छलता–पवित्रता एवं उपास्य अन्तराल के प्रति गहन श्रद्धा ही सारे चमत्कारों–आत्मिक सफलताओं के मूल कारण हैं। ध्यान साधना से इसी प्रयोजन को पूरा किया जाता है।

उपासना मूलतः भाव विज्ञान की उच्चस्तरीय स्थिति है जिसमें मनःस्थिति के अनुरूप साधक को अपना माध्यम चुनना होता है। सतत् परिष्कृति एवं प्रगति के सोपानों पर चढ़ते हुए साधक ऐसी स्थिति विशेष में जा पहुँचता है जहाँ उसे फिर किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं रह जाती। प्रतीकोपासना, इष्ट के साकार ध्यान की प्राथमिक सीढ़ियों को पारकर वह जब निराकार ध्यान की स्थिति में पहुँचता है तो परम सत्ता को सम्वेदनाओं की श्रेष्ठता के रूप में अनुभव करता है। सद्भाव भरी स्थिर आतुरता ही ध्यान की पराकाष्ठा है। ईश्वर निराकार भी है, साकार भी। इस समग्र ब्रह्म का दर्शन ने तो सम्भव है, न आवश्यक, न ही उपयोगी। यदि इसका दर्शन करना ही हो तो ज्ञान और इच्छा शक्ति के रूप में उसे हर जीवधारी में संव्याप्त देखा जा सकता है और भी स्पष्ट–उत्कृष्टतम स्वरूप उसका ऋतम्भरा प्रज्ञा, निस्वार्थ आत्मीयता एवं कर्त्तव्य निष्ठा के रूप में विद्यमान है वहाँ उतने ही अधिक प्रखर परमेश्वर का–उसके अंश का दर्शन किया जा सकता है। अवतारों की कलाओं का अन्तर यही बताता है कि उन अवतारी आत्माओं में श्रेष्ठता की ऊर्जा कितनी ऊँची थी। जब साधक अपने अन्दर भी इस प्रकाश की मात्रा बढ़ते देखता है तो समझना चाहिए कि उतने अनुपात में वह परमेश्वर का अंश बन गया।

निराकार ईश्वर की प्रेरणाएँ अपने अन्दर किस मात्रा में प्रवेश कर रही हैं, इसका ‘मीटर’ एक ही है। अपने को अधिकाधिक परिष्कृत एवं उदार बनाने की आकाँक्षाओं का जागना और इसके लिये तीव्र आतुरता का विकसित होना। इस प्रेरणा के द्विमुखी प्रभाव साधक के अन्दर परिलक्षित होते हैं। एक दुष्प्रवृत्तियों से जूझने का सत्साहस, दूसरे उत्कृष्टता सम्वर्धन के लिये व्यग्रता का विकास। ईश्वर का अवतार जब भी मानवी काया में होता है–इन्हीं दो प्रयोजनों के लिये। व्यक्ति के अन्तः में इन दो हलचल−प्रवाहों को उभरते देखकर यह कहा जा सकता है कि इस साधक में ईश्वर अवतरण की प्रक्रिया चल रही है। संक्षेप में इसे कहना हो तो आदर्शवादी जीवन के लिये उठती हुई उत्कृष्ट अभिलाषा एवं प्रबल पुरुषार्थ परायणता के रूप में ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन इसे समझा जा सकता है।

आँखें जड़ तत्वों से बनी हैं। उनसे मात्र जड़ पदार्थों को ही देखा समझा जा सकता है। चेतना जड़ नहीं है। परमेश्वर के स्वरूप की इसी कारण कल्पना भर की जा सकती है। देखना नेत्रों का गुण है और अनुभव करना चेतना का। जीव, चूँकि ईश्वर का अंश है, इसलिये वह ईश्वरीय अनुभूति मात्र कर सकता है। इस अनुभूति के लिये ही ध्यान साधना का आश्रय लिया जाता है। मोटेतौर से विश्वास किसी बात पर तभी होता है जब उसे देखा या सुना गया हो। पंच कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से यही किया जाता है। ईश्वर दर्शन चाहे चर्मचक्षु से साकार उपासना के रूप में कल्पित किया जाय अथवा ज्ञान चक्षु के माध्यम से निराकार रूप में–उद्देश्य दोनों का एक ही है।

साकारोपासना के लिये प्रतीक मूर्ति को आधार बनाया जाता है तो निराकारवादी मत में ध्यान में प्रकाश ज्योति, सविता देवता इत्यादि का सहारा लेते हैं। पर यह स्पष्ट ध्यान रखा जाना चाहिए कि ध्यान विग्रह के लिये स्थापित ईश्वर प्रतीक के पीछे कोई चरित्र विशेष न जोड़ा जाय वरन् उसे सद्गुण सम्पन्न पूर्ण मानव का स्वरूप भर माना जाय। प्रतीकों की आकृति में अन्तर हो सकता है, पर अन्तिम स्वरूप तो सबका एक ही है। दैववाद सम्बन्धी सारी भ्रान्तियाँ मिटाकर यथार्थता को जानना चाहिए कि एक व्यापक ब्रह्म की विभिन्न देव शक्तियों को ही देव संज्ञा दी गयी है। उपासना का उच्च स्तरीय दर्शन है “विराट् स्वरूप” से साक्षात्कार। साकार व निराकार दोनों ही उपासना में आदर्शवादी उत्कृष्टता से सम्बन्ध दृढ़ बनाकर उस विराट् की ही साधना की जाती है।

जब साधक यह मानकर चलता है कि समस्त विश्व ब्रह्माण्ड ईश्वर की साकार प्रतिमा है तो अनायास ही लोक मंगल की, जनसेवा की, सारी जगती के हित की आकाँक्षा उभर कर आती है। अर्जुन ने ईश्वर दर्शन किये पर दिव्य चक्षु−ज्ञान नेत्रों से ही तथा विराट् ब्रह्माण्ड के रूप में। कौशल्या तथा काकभुशुंडि के राम के तथा यशोदा ने कृष्ण के दर्शन उनके साकार व्यक्ति स्वरूप में नहीं–विराट् के रूप में ही किये थे। इस समस्त विश्व को परमेश्वर की झाँकी मानने की प्रतिक्रिया यही होती है कि जड़−चेतन के प्रत्येक घटक के प्रति हमें उच्चस्तरीय मान्यता रखनी चाहिए और सदैव अपने व्यवहार में उदार आत्मीयता का समावेश करना चाहिए। विराट् ब्रह्म की उपासना करने वाला अपने को विश्व नागरिक मानता है और सृष्टि के इस उद्यान को और अधिक सुन्दर, सुविकसित बनाने का प्रयास करता है। उपासना का सच्चा स्वरूप, आस्तिकता की ‘विराट् दर्शन’ वाली मान्यता ही है। यदि इस आस्तिकता को अन्तरात्मा में स्थान मिल सके तो उपासना सार्थक हुई समझी जाती है। अनुशासन ही रस्सी से बँधा, देव मर्यादाओं का पालन करने वाला व्यक्ति ही आस्तिक है और ऐसा व्यक्ति ही विराट् का दर्शन करने का सच्चा अधिकारी है। इस स्वरूप को भली−भाँति समझने वाला व्यर्थ के प्रपंच में न पड़ अध्यात्म पथ पर बढ़ चलता है तथा सामान्य ने असामान्य बन जाता है। ईश्वर अंश जीव को तद्रूप बनने के लिये उपासना के जिस तत्वदर्शन को आत्मसात् करना अति अनिवार्य है, उसी का विवेचन साधना विज्ञान के ज्ञाता करते रहे हैं।


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