आत्मिक पुरुषार्थ हेतु समर्थ अवलम्बन की अनिवार्यता

April 1982

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बीज में वृक्ष बनने की पूरी−पूरी सम्भावना विद्यमान रहती है। पर कुशल माली अथवा किसान का सहयोग न मिले तो उसके अंकुरित होने तथा विकसित होकर फल फूल देने योग्य बन चलने का सुअवसर नहीं मिल पाता। किसी प्रकार अपने पुरुषार्थ से हवा आदि के झोंके के सहारे वह कहीं भूमि में पड़ भी जाय तो भी उसका वह समग्र विकास नहीं हो पाता जो माली के सहयोग से हो सकता था। जो गरिमा उपयोगिता एवं उपादेयता सजे संवारे उद्यान में विकसित हुए पौधों एवं खेतों में लहलहाते पौधों को होती है वह झाड़−झंखाड़ों में किसी तरह प्रकृति के सहयोग से उग आये पुष्प एवं खाद्यान्न उत्पादन करने वाले पौधों की नहीं होती। विकसित होने की सभी विशेषताएँ अपने भीतर सन्निहित किये होने के बावजूद भी बीज को अभीष्ट सहयोग अपेक्षित होता है। वह मिलते ही बीज की सभी सम्भावना बनाएँ साकार होने लगती और पौधे के रूप में बदलते देरी नहीं लगती।

मनुष्य कितना भी समर्थ क्यों न हो वह एकाकी कुछ भी नहीं कर सकता। जन्मने से लेकर मरने तक उसे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष सहयोग किसी न किसी रूप में मिलता रहता है। जन्म के समय शरीर की सुरक्षा पोषण एवं विकास की जिम्मेदारी माता−पिता न सँभालें तो उसे अपना अस्तित्व बनाये रखना भी कठिन होगा। हजारों वर्षों का संचित ज्ञान, विज्ञान एवं अनुभव उसे कुछ ही समय में मुफ्त में ही प्राप्त हो जाता है। लिपि बनाते भाषा गढ़ने विज्ञान का आविष्कार करने, अनेकानेक साधनों का निर्माण करने, साहित्य, कला, इतिहास भूगोल, कृषि जैसी अनेकानेक ज्ञान की विद्याओं का नये सिरे से मनुष्य को अकेले अनुसंधान करना पड़े तो उसे एक जीवन तो क्या हजारों जीवन समूची उपलब्धियों को करतलगत करने के लिए खपाने होंगे। पर यह सौभाग्य ही कहना चाहिए कि पूर्वजों का संचित ज्ञान और उन ज्ञान की धाराओं की व्याख्या−विवेचना करने वाले मनीषियों का सहयोग उसे अनायास ही प्राप्त है। इस सहयोग को पाकर कितने ही व्यक्ति भौतिक क्षेत्र में योग्य, प्रतिभाशाली, विद्वान बनते देखे जाते हैं।

कहा तो जाता है कि मनुष्य सर्वसमर्थ है, तथा अपने प्रचण्ड पुरुषार्थ के सहारे बहुत कुछ कर सकता है। पर कब? जबकि उसे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष सामाजिक सहकार मिलता रहे। मौलिक क्षमता, प्रतिभा का अपना महत्व तो है, पर वह उपयुक्त परिस्थितियाँ पाकर ही उभरती हैं। जन्म से कोई कितना भी प्रतिभाशाली क्यों न हों? ज्ञानवान, विद्वान बनने के लिए अध्यवसाय करना पड़ता और अध्ययन के लिए विज्ञजनों के संचित ज्ञान एवं अनुभव का लाभ लेना पड़ता है। इस तथ्य की उपेक्षा करके कोई अपने पुरुषार्थ का दम्भ भरने लगे और विकास के लिये सारे सरंजाम स्वयं जुटाने का नये सिरे से प्रयत्न करने लगे तो प्रगति क्रम में वह अत्यन्त पिछड़ जायेगा।

एकाकी पुस्तकीय ज्ञान भी पर्याप्त नहीं होता, न ही वह मनुष्य के व्यावहारिक जीवन का मार्गदर्शन करने में सक्षम है। मात्र पुस्तकों के अध्ययन से कोई डॉक्टर, इंजीनियर वैज्ञानिक नहीं बन सकता। ऐसा सम्भव रहा होता तो हर व्यक्ति बाजार में उपलब्ध सम्बद्ध विषयों में दक्षता और प्रवीणता प्राप्त कर लेता। पुस्तकें सर्वसुलभ होते हुए मात्र उनके अध्ययन के बलबूते कोई विशेषज्ञ कहाँ बन पाता है? आशय यह है कि पुस्तकों के साथ−साथ अध्यापक का मार्गदर्शन, शिक्षण आवश्यक ही नहीं अनिवार्य होता है। विशेष प्रकार का तकनीकी ज्ञान प्राप्त करने–कला, साहित्य, विज्ञान आदि क्षेत्रों में विशेषता हासिल करने–के लिए अपने−अपने ढंग का प्रत्यक्ष मार्गदर्शन अपेक्षित होता है।

साधना क्षेत्र में भी यही सिद्धान्त लागू होता है। क्षेत्र की तुलना में आध्यात्मिक क्षेत्र कहीं अधिक अविज्ञात है और उतना ही रहस्यमय भी। भौतिक जगत एवं सम्बन्धित वस्तुएँ तो प्रत्यक्ष दिखायी पड़ती हैं, पर अध्यात्म का क्षेत्र तो पूर्णतया परोक्ष है। प्रत्यक्ष की तुलना परोक्ष में भटकाव की अधिक गुँजाइश रहती है। इस भटकाव की सम्भावना इसलिए भी अधिक रहती है कि साधना में आन्तरिक पुरुषार्थ करना पड़ता है। सर्वप्रथम स्वयं पर विजय प्राप्त करनी पड़ती है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव का विश्लेषण कर लेना सबसे अधिक कठिन कार्य है। उनके परिमार्जन एवं विकास के लिए साधन−उपचार ढूँढ़ लेना तो और भी कठिन पड़ता है। उँगली पर गिने जाने वाले बिरले ही होते हैं जो एकाकी अपने बलबूते स्वयं का निरीक्षण, परीक्षण कर लेने एवं आवश्यक सुधार आदि के उपक्रम में सफल हो जाते हैं। वे अपवाद हैं जो साधना क्षेत्र में अपने एकाकी पुरुषार्थ के सहारे बढ़ चलने और मंजिल तक पहुँच जाने में सफल होते हैं। उनकी सफलताओं में भी जन्म−जन्मान्तरों की साधना के संचित संस्कार एवं अनुभव ही सूक्ष्म रूप से प्रेरणा देते एवं मार्गदर्शन की भूमिका निभाते हैं। पर अपवाद तो अपवाद ही हैं वे जनसामान्य के अनुकरण के विषय नहीं हो सकते। इन अपवादों का अन्धानुकरण करने से तो असफलता ही हाथ लगती और साधना क्षेत्र में भटकाव ही पल्ले पड़ता है।

साधना क्षेत्र में प्रचण्ड पुरुषार्थी बुद्ध कभी−कभी प्रकट होते हैं जो बिना किसी की सहायता के ही आत्म−ज्योति को जला लेने में सफल हो जाते हैं। लगन एवं भक्ति भावना के धनी रामकृष्ण परमहंस जैसे साधक का अवतरण कभी−कभी होता है जिनका अन्तःप्रकाश स्वतः उनके साधना का मार्गदर्शन करता है आत्म−तत्व का अपने एकाकी पुरुषार्थ द्वारा साक्षात्कार कर लेने वाले संकल्प के धनी रामतीर्थ, रामदास तो कभी−कभी ही प्रकट होते हैं, अन्यथा साधना के रहस्यमय एवं अविज्ञात क्षेत्र में प्रविष्ट करने वाले अधिकाँश साधकों को प्रत्यक्ष मार्गदर्शन एवं संरक्षण अभीष्ट होता है।

यों तो साधना के विधि−विधानों, क्रियाओं एवं उनकी परिणतियों का विस्तारपूर्वक वर्णन धर्मग्रन्थों योगशास्त्रों में मिलता है पर मात्र उन्हें पढ़कर साधना आरम्भ कर देना संकट से खाली नहीं है। शास्त्रों, धर्मग्रन्थों की उपयोगिता उतनी ही है जितनी कि विद्यालय में शिक्षा प्राप्त कर रहे छात्र को सम्बन्धित विषयों की पुस्तकों की पड़ती है। सर्वविदित है कि एकाकी पुस्तकें किसी भी क्षेत्र का मार्गदर्शन करने में सक्षम नहीं हो सकतीं। तो फिर साधना जैसे अविज्ञात क्षेत्र का मार्गदर्शन अकेले शास्त्र कैसे कर सकते है? कहना न होगा मार्गदर्शन का गुरुतर दायित्व समर्थ गुरु ही संभाल सकता है।

गुरु की महिमा का गुणगान शास्त्रकारों, मनीषियों, धर्मग्रन्थों सभी न एक स्वर में किया है। गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करने वाले ऋषियों ने उसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश जैसे मूर्धन्य देवताओं से भी बढ़कर परब्रह्म के रूप में अभिनन्दित किया है। सद्गुरु की प्राप्ति के संदर्भ में एक सन्त का कहना है कि–

यह तनु विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान। सीस दिए जो गुरु मिले तो भी सस्ता ज्ञान॥

कबीरदास जी कहते हैं–

गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काको लागों पाय। बलिहारी गुरु आपनो गोविन्द दिये बताय॥

गुरु शिष्य का किस प्रकार निर्माण करता है इसका वर्णन करते हुए कबीरदास जी आगे कहते है–

‘गुरु कुम्हार सिस घट अहै, गढ़ि−गढ़ि काढै खोट। भीतर हाथ सहार दै, बाहर−बाहर चोट॥’

अर्थात्–”जिस तरह कुम्हार घड़ा बनाते समय मिट्टी को गढ़कर एक व्यवस्थित रूप देता है–उसी तरह गुरु भी शिष्य का कुपथ से हटाकर सुन्दर साँचे में ढाल देता है।”

सद्गुरु की महिमा गाते−गाते शास्त्रकार थकते नहीं। मनीषियों ने निरन्तर यही कहा है कि आत्मिक प्रगति के लिए गुरु की सहायता आवश्यक है। इसके बिना आत्म−कल्याण का मार्ग प्रशस्त नहीं होता। जिस गुरु तत्व की वन्दना−अभ्यर्थना शास्त्रकारों ने की है वह गुरु वस्तुतः मानवी अन्तःकरण है। निरन्तर सद्शिक्षण और उर्ध्वगमन का प्रकाश दे सकना इसी केन्द्र के लिए सम्भव है। अपने अन्तःकरण को निरन्तर कुचलते रहने, उसकी पुकार को अनसुनी करते रहने से आत्मा की आवाज मन्द पड़ जाती है। आत्मा की अवज्ञा करते रहने वालों की ही दुर्बुद्धिग्रस्त और दुष्कर्म लिप्त पाया जाता है अन्यथा सजीव आत्मा की प्रेरणा सामान्य स्थिति में इतनी प्रखर होती है कि कुमार्ग का अनुसरण कर सकना मनुष्य के लिए सम्भव ही नहीं होता। यह आत्मिक प्रखरता ही वस्तुतः वह तात्विक गुरु है जिसकी महिमा का गुणगान करते शास्त्र नहीं अघाते। गुरु दीक्षा का व्रत धारण इसीलिए किया जाता है कि हम अन्तरात्मा की प्रेरणा का अनुसरण करेंगे। ऐसा निश्चय करने वाला व्यक्ति मानवोचित चिन्तन और कर्त्तव्य से विरत नहीं हो सकता जैसे ही निकृष्ट चिन्तन मनःक्षेत्र में उभरता है वैसे ही प्रतिरोधी देवतत्व उसके दुष्परिणामों के सम्बन्ध में सचेत करता है। फलस्वरूप भीतर ही भीतर एक अन्तर्द्वन्द्व उभरता है। रक्त के श्वेत कण शरीर में रोग विषाणुओं के प्रविष्ट करते ही उनसे लड़ने के लिए एकत्रित हो जाते तथा उन्हें बाहर खदेड़ने के लिए प्रबल संघर्ष करते हैं। ठीक इसी प्रकार चेतना के क्षेत्र में अन्त करण यही भूमिका सम्पादित करता है। अनैतिक और निकृष्ट स्तर के विचार कभी भी उस मस्तिष्क में देर तक नहीं टिकने पाते जहाँ कि अन्तःकरण रूपी सद्गुरु सजग और तत्पर है। अन्तरात्मा के मूर्च्छित, अवसादग्रस्त होने पर ही दुर्विचारों को आधिपत्य जमाने तथा निकृष्टता अपनाने का अवसर मिलता है।

शास्त्रकारों ने सद्गुरु का वन्दन करते हुए उसे परमानन्ददायक परब्रह्म कहा है। यह अंतःकरण रूपी सद्गुरु का ही निरूपण है। गुरु को गोविन्द से भी बढ़ कर मानने की मान्यता अन्तरात्मा को परमात्मा का उपलब्धि आधार समझने के लिए ही प्रतिष्ठापित की गई है। निरन्तर परामर्श और अहिर्निशि साथ दे सकना अन्त सद्गुरु द्वारा ही सम्भव है। उसी की प्रखरता नियन्त्रण और अंकुश साधक हो भटकावों से बचाता है। अवाँछनीयताओं का डटकर प्रतिरोध कर सकना प्रखर अन्तरात्मा द्वारा ही सम्भव है।

पर इस अन्तःकरण रूपी सद्गुरु की भूमिका बाद में आरम्भ होती है। सामान्यतः कषाय−कल्मषों, मल−विक्षोभों के आवरण से अन्तःकरण ढका रहता है। फलतः उसकी प्रेरणा एवं प्रकाश साधक को नहीं मिल पाता है। शरीरधारी गुरु का वरण इसलिए आवश्यक हो जाता है। उसकी कृपा अनुकम्पा से ही अन्तःकरण का प्रकाश आलोकित होता है तथा आन्तरिक सद्गुरु भी अपनी भूमिका सम्पादित कर सकने में समर्थ बनता है। कहा जा चुका है कि बिरले ही हुए हैं जो आरम्भ से ही अपने एकाकी बलबूते अन्तःप्रेरणाओं के आधार पर साधना का कंटकाकीर्ण मार्ग पार करने और मंजिल तक जा पहुँचने में समर्थ हुए हैं अन्यथा अधिकाँश प्रत्यक्ष समर्थ शरीरधारी गुरु की ही सहायता, कृपा से लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ हो सके हैं।

वे बहुत सौभाग्यशाली हैं जिन्हें समर्थ गुरु का संरक्षण एवं मार्गदर्शन प्राप्त है। ऐसा गुरु–जो वशिष्ठ और विश्वामित्र की विशेषताओं से सम्पन्न हो, जिसने अपने प्रचण्ड तप द्वारा ईश्वरीय सत्ता का साक्षात्कार किया हो, जो बुद्ध की भाँति आत्मबल का धनी हो रामकृष्ण की तरह जिसके अन्तःकरण से भक्ति रस की धारा प्रस्फुटित होती हो, जो कृष्ण की भाँति योग विभूतियों से सुसम्पन्न हो सचमुच जिन्हें ऐसे समर्थ गुरु का प्रत्यक्ष मार्गदर्शन मिल गया समझना चाहिए कि जीवन लक्ष्य प्राप्ति के लिए की जाने वाली साधना की आधी मंजिल पूरी हो गयी तथा उत्तरोत्तर गति से आगे बढ़ने का एक सशक्त आधार−अवलम्बन मिल गया।

जननी की भाँति अपने प्राणों का अंश पिलाते रहने तथा पग−पग पर प्रस्तुत होने वाली प्रत्यक्ष गुरु का जिनको सम्बल मिल गया, सचमुच ही उनके भाग्य ही सराहना करनी होगी।


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