आत्मा को उत्कृष्ट वातावरण का लाभ दिया जाय

July 1977

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आमतौर से भौतिक जीवन ही व्यवहार में आता हे और उसी की भली बुरी प्रतिक्रियाएँ मन पर छाई रहती है। संसारी लोगों की प्रमुख अभिरुचि शारीरिक वासना के उपभोग तथा मानसिक संग्रह तृष्णा में जकड़ी रहता है। अहंकार का परिपोषण ही महत्त्वाकांक्षाओं का केन्द्र होता है। निर्वाह की आवश्यकताएँ स्वल्प होते हुए भी मनुष्य वासना, तृष्णा और से प्रेरित होकर निरन्तर व्यस्त रहता है। इनकी पूर्ति के साधन जितने जुटते हैं, अहंता आकांक्षाओं की आग उतनी ही तीव्र होती जाती है। फलतः मनुष्य जीवन जैसे सुर दुर्लभ अवसर का अधिकांश सार तत्व इसी की भगदड़ एवं आपाधापी में लग जाता है। स्वजन सम्बन्धियों से लेकर मित्रों और हितैषियों का सारा परिकर अपने विविध विधि दबाव डालकर इसी रीति नीति को अपनाये रहने के लिए बाध्य करता है। चारों ओर का घटनाक्रम, अप्रत्यक्ष रूप से अन्तः चेतना पर वही संस्कार डालता है कि शौक मौज के साधन जुटाना ही एक मात्र जीवन लक्ष्य है। पूजा पाठ की कुछ चिह्न पूजा चलती है तो उसका उद्देश्य भी इतना भर होता है कि किसी प्रकार इन सस्ते कर्मकाण्डों की उलट पुलट करके देवी देवताओं को रिझाया जाय और उनसे मनोकामना पूर्ति का वरदान पाया जाय। इस प्रकार नैतिक, अनैतिक, क्रिया कलापों द्वारा आकांक्षा और चेष्टा मात्र भौतिक सुख साधन सम्पादित करते रहने की ही होती है। भौतिकता की प्रवृत्ति स्वभाव का अंग बन जाती है। इसलिए उससे ऊँचे उठकर आत्मा की समस्याओं एवं आवश्यकताओं को समझ सकना सम्भव ही नहीं हो पाता।

यदि व्यक्तित्व का वह अश् जिसे अन्तरात्मा कहते हे-को भी महत्व दिया जाय और उसके परिष्कार एवं परिपोषण की भी आवश्यकता समझी जाय तो फिर नये वातावरण में अपने को रखते रहने के साधन जुटाने पड़ेंगे। बहिरंग जीवन बाह्य परिस्थितियों और व्यक्तियों से ही बनता, ढलता है। आमतौर से मनुष्य का व्यक्तित्व, गुण, कर्म, स्वभाव उसी ढाँचे में ढला होता है- जैसा कि वातावरण उसे मिला है। यदि आध्यात्मिक जीवन का महत्व समझा गया है और उसकी उपलब्धियों के प्रति आकर्षण उत्पन्न हुआ है तो उसका एकमात्र उपाय यही है कि उच्चस्तरीय वातावरण में रहने का भी साधन जुटाया जाय। ऐसी प्रभावोत्पादक परिस्थितियों का निर्माण किये बिना मात्र पढ़ने सुनने से व्यक्तित्व को भौतिकता की प्रगाढ़ जकड़ से छुड़ा कर आत्मिक चेतना उभारने की दिशा में प्रगति कर सकना किसी भी प्रकार सम्भव न हो सकेगा।

कठिनाई यह है कि प्रभावोत्पादक आध्यात्मिक वातावरण कही ढूँढ़े नहीं मिलता। तथाकथित योगाश्रमों का बाह्य स्वरूप भर आध्यात्मिक लगता है। भीतर घुसते ही वहां भी वे ही प्रवृत्तियाँ नये परिवेश में काम कर रही होती है जिनसे छूटने के लिए इन आश्रमों का सहारा लिया गया था। एकान्त गुफा में रहने की कल्पना और भी जटिल है। वहां निर्वाह की सामान्य आवश्यकताएँ भी स्वावलम्बन पूर्वक नहीं जुट सकती। इसके लिए किन्हीं का सहारा तकना पड़ता है। फिर सामान्य जीवन में अनेक काम परिवार के लोग कर देते थे अथवा पैसा देकर दूसरों से करा लिये जाते थे। पर एकान्त जीवन में वह सारे अनभ्यस्त झंझट स्वयं ही ओढ़ने पड़ते हैं। शरीर यात्रा की आवश्यकताएँ ही इतनी बढ़ी बढ़ी होती है कि एकाकी जीवन का अधिकांश समय उसी का ताना बाना बुनने में लग जाता है। इससे उस प्रयोजन में भारी अड़चन उत्पन्नं होती है। जिसके लिए कि घर छोड़ने और एकान्त में रहने का जोखिम उठाया गया था। प्राचीन काल की परिस्थितियाँ अब नहीं रही, ऋषि मुनियों के समय वाले सुविधाजनक वन जंगल नहीं रहे और न वैसी स्वल्प संतोषी कष्टसाध्य क्रम अपनाकर भी प्रसन्न रह सकने की मन स्थिति है। ऐसी दशा में आत्मिक वातावरण प्राप्त करके अन्तःचेतना के परिष्कार का उपयुक्त साधन जुटा पाना बड़ा कठिन पड़ता है।

कुछ सन्त, सज्जन, मनीषी, तत्व ज्ञानी संसार में है तो, पर उनकी एक कठिनाई अत्यधिक व्यस्तता होती है। स्पष्ट है कि जिसने जीवन का मूल्य समझा है वह अपनी श्वाँसों में से प्रत्येक को रत्न राशि से बढ़कर मानेगा और एक एक क्षण का श्रेष्ठतम उपयोग करने के लिए योजनाबद्ध रीति नीति अपनाये होगा। उसे निश्चित रूप से समय की कमी रहेगी। कम से कम इतना अवकाश उसे किसी भी प्रकार न मिलेगा जब किसी अध्यात्म मार्ग के जिज्ञासु की सुविधा एवं इच्छा के अनुरूप अपना समय देता रह सके। ऐसे महामानवों के दर्शन, प्रणाम, आशीर्वाद, जितने स्वल्प संपर्क से ही जनसाधारण को सन्तोष करना पड़ता है। कभी सामूहिक प्रवचन का लाभ भी मिल सकता है, पर प्रभावोत्पादक वातावरण तो निरन्तर एकाकी संपर्क से ही सम्भव होता है।

आत्मिक प्रगति के आवश्यक साधनों में ऐसा प्रभावोत्पादक संपर्क एवं वातावरण आवश्यक है जिसके सहारे लगभग वैसे ही संस्कार बन सके जैसे कि संसारी वातावरण ने अन्तःचेतना को भौतिकता के रंग में सराबोर कर दिया है, और लोभ मोह के बन्धनों में मजबूती के साथ जकड़ दिया है। सच्चा आत्मोत्कर्ष इस प्रकार की सुविधा जुटाये बिना और किसी प्रकार सम्भव हो ही नहीं सकता।

इस दिशा में प्रथम चरण स्वाध्याय का है। महामानवों , तत्त्वदर्शियों के साथ संपर्क मिलाना और उनके अन्तःकरण के साथ चाहे जिस समय चाहे जितनी देर तक लिपटे रहना इसी सरल उपाय से सम्भव हो सकता है, जिसे स्वाध्याय के नाम से जाना जाता है। मृतक अथवा जीवित निकटस्थ अथवा दूरस्थ मनीषियों के साथ चाहे जिस विषय पर खुले मन से विचार विनिमय करते रह सकना इसी उपाय से सम्भव हो सकता है। इसलिए शास्त्रकारों ने स्वाध्याय का महत्व भजन से कम नहीं वरन् बढ़कर बताया है। स्वाध्यायान्मा प्रमदतव्य श्रुति वचन में सदुद्देश्य रीति नीति अपनाने वालों के प्रति कठोर अनुशासन निर्दिष्ट किया है कि किसी भी कठिनाई में स्वाध्याय से प्रमाद मत करो। जिस प्रकार नित्य स्नान, मंजन, कपड़े धोना, बुहारी लगाना, बर्तन साफ करना नित्य कर्म में सम्मिलित रहते हे, उसी प्रकार स्वाध्याय को भी अध्यात्म परिष्कार का दैनिक अनिवार्य धर्म कृत्य माना जाना चाहिए।

मूढ़ता हर उपयोगी तत्व को निरर्थक बना देती है। गुड गोबर होने की उक्ति को मूढ़ मति ही चरितार्थ करती है। स्वाध्याय के नाम पर कथा पुराणों के पन्ने उलटते रहने वालों की भी कमी नहीं। ऐसे विवेकवान कम है जो यह समझकर स्वाध्याय करते हैं कि आज की अपनी आन्तरिक विकृतियों और समस्याओं का समाधान करने के लिए युग के अनुरूप आदर्शवादी विचार प्रक्रिया क्या हो सकती है? हर युग का अपनी स्थिति होती है। अब से हजारों वर्ष पूर्व जो परिस्थितियाँ थी उसके अनुरूप कथा, पुराण बने है। अब न तो वे परिस्थितियाँ है और न उन समाधानों से कोई काम चलता है। ऐसी दशा में स्वाध्याय के लिए सामयिक समाधान प्रस्तुत करने वाले साहित्य को बुनने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं। घिसी पिटी लकीर पीटते रहने और अमुक पुस्तक को बार बार घोंटते पीसते रहने से स्वाध्याय का लाभ तो मिलेगा नहीं समय की बर्बादी भर होगी। इतने से ही कोई आत्म प्रवंचना करके सन्तुष्ट हो ले तो बात दूसरी है।

अन्तरात्मा को उच्चस्तरीय भाव सम्वेदना उत्कृष्ट विचारणा एवं आदर्शवादी क्रिया कलाप अपनाने की प्रेरणा देने वाले तीनों तत्व जिसमें अन्न, जल और वायु की तरह मिले हुए हो तो समझना चाहिए आत्मिक क्षुधा निवृत्ति और समीचीन प्रगति के साधन जुटे। यह कार्य सत्साहित्य के सहारे जितनी अच्छी तरह हो सकता है उतना और किसी प्रकार नहीं। स्वाध्याय का एक तरह पाठन और दूसरा श्रवण है। कथा, प्रवचन, सत्संग का प्रवचन इसी प्रयोजन के लिए हुआ है। अशिक्षा की कठिनाई एवं स्वयं निष्कर्ष निकालने में असमर्थता की कठिनाई का हल इन उपायों से सरलतापूर्वक निकल आता है। इसलिए कथा, प्रवचनों का पुण्य एवं माहात्म्य पूरे उत्साह के साथ बताया गया है। अभी धर्म क्षेत्र में कथा पुराणों का पठन, श्रवण श्रद्धापूर्वक पुण्य फलदायक माना जाता है और उस प्रकार के प्रयोजनों में बहुत समय तथा धन लगाया जाता है स्वाध्याय दृश्य प्रक्रिया है। उसमें नेत्रों के सहारे पुस्तक पढ़ी जाती है। कथा श्रव्य है। उसमें सद्विचारों को कान के सहारे मस्तिष्क तक पहुँचाया जाता है। दोनों का प्रतिफल एक ही है-मानसिक चेतना को उत्कृष्ट वातावरण प्रदान करना विकृतियों और दृष्प्रवृत्तियों का परिमार्जन करना। दोनों ही उपायों से चेतना पर सुसंस्कार डाले जाते हैं, प्रस्तुत परिस्थिति में जो पतनोन्मुख प्रेरणाएँ अनवरत रूप से अनायास ही मिलती रहती है उन्हें काटने के लिए इस उपाय को तीखी तलवार की तरह काम में लाया जा सकता है।

स्वाध्याय स्थूल है। वह पुस्तकों के रूप में सम्पन्न होता है। सत्संग भी स्वाध्याय की श्रेणी में ही आता है। इन दोनों के लिए साहित्य एवं व्यक्ति विशेष की आवश्यकता पड़ती है। सुविधा का समय भी चाहिए और शिक्षा इतनी होनी चाहिए कि इन दोनों का लाभ उठाया जा सकना सम्भव हो सके। मनन और चिन्तन इन दोनों से सूक्ष्म है। इनके सहारे आत्म समीक्षा और आत्म निर्माण के दोनों महा प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं। इसके लिए यों तो प्रायः चारपाई पर से उठने का समय और रात्रि को बिस्तर पर जाने के बाद का समय अत्युत्तम है, पर रोक किसी भी समय नहीं है। उन्हें किसी भी समय और किसी भी परिस्थिति में कितनी ही देर किया जा सकता है।

मनन में आत्म समीक्षा मुख्य विषय रहता है। उसमें गुण अवगुण दोनों पर बारीकी से, निष्पक्ष भाव से विचार किया जाता है। अब तक के जीवन क्रम की अवांछनीय गतिविधियों पर दो चार दिन में ही दृष्टि डाली जा सकती है। उन पर पश्चाताप किया जा सकता है और दण्ड स्वरूप दुष्कर्मों से समाज को पहुँचाई गई क्षति की पूर्ति करने के लिए अपराधों को तोल के अथवा न्यूनाधिक मात्रा में पुण्य कर्म किये जा सकते हैं। दण्ड प्रायश्चित इसी प्रकार सम्भव होता है। दो चार दिन व्रत उपवास,गंगा स्नान, थोड़ा सा कथा कीर्तन करने जैसे कर्मकाण्डों से पापों का भार कटता नहीं। उसके लिए क्षति पूर्ति के रूप में समाज को अनुदान देना आवश्यक होता है। प्रायश्चित इसी को कहते हैं। इसे कर लेने से दुराव की पाप ग्रन्थियाँ कट जाती है और उनके कारण जो चित्र विचित्र मनोरोग एवं शारीरिक कष्ट उठते रहते हैं उनसे छुटकारा मिल सकता है। किन्तु यह प्रक्रिया सदा तो नहीं चल सकतीं भूतकाल का चिन्तन और उसका समाधान यह कार्य उन्हीं दिनों पूरा हो जाता है जिस समय कि आत्म समीक्षा आरम्भ की जाती है। दण्ड प्रायश्चित अनुदान वाली प्रक्रिया समय साध्य होती है। वह कार्य एक दिन में नहीं हो जाता वरन् प्रायश्चित अनुदानों को चिरकाल तक जारी रखना होता है। इससे पाप कटते हैं और पुण्य बढ़ते हैं। इस प्रकार लगी हुई ठोकर भी अच्छी चेतावनी तथा सुधार प्रक्रिया में सहयोग देने वाली बन जाती है। विष को अमृत बना लेना इसी को कहते हैं।

आत्म समीक्षा, मनन, दैनिक कृत्य कर दिया जाना चाहिए। शरीर से दुष्कर्म मन से अशुभ चिन्तन और अन्तःकरण से दुर्भाव की अवांछनीयता तो नहीं बरती जा रही है। इसका निरन्तर ध्यान रखा जाय। जब भी इन तीनों क्षेत्रों में जो गड़बड़ी उत्पन्न हो रही हो उसे तत्काल अत्यन्त कठोरतापूर्वक रोक दिया जाय। मन में संचित कुसंस्कार प्रायः उठते रहते हैं कभी कभी वे अत्यधिक प्रबल हो उठते हैं। विवेक खो जाता है और शिर पर चढ़ा कुसंस्कारों का भूत मनुष्य को कठपुतली की तरह नचाने लगता है। ऐसी स्थिति का सामना करने के लिए पहले से ही तैयार रहना चाहिए। प्रातःकाल ही अनुमान लगाना चाहिए कि आज किस समय, किस प्रसंग में क्या अवांछनीयता सिर पर चढ़ सकती है। उसकी काट पहले से ही तैयार रखनी चाहिए। बचने और लड़ने के दोनों शस्त्र संभाल कर रखने चाहिए। यह सारा प्रसंग मनन प्रक्रिया के अंतर्गत आता है।

चिन्तन वह पक्ष है जिसमें दुर्बलताएँ हटाने और विभूतियाँ बढ़ाने की क्रमबद्ध योजना बनती है और उत्कृष्टता को कार्य रूप में परिणत करने का ढाँचा खड़ा किया जाता है। दोष दुर्गुणों को छोड़ देना तो फूटे बर्तन के छेद बन्द करने के बराबर है। इससे अपव्यय और अनर्थ रुकता हो किन्तु आत्मोत्कर्ष के लिए जिन दिव्य विभूतियों की, गुण कर्म स्वभाव की, उत्कृष्टता की आवश्यकता पड़ती है उनका अभाव ही बना रहा तो छेद बन्द करने से भी तो लक्ष्य पूर्ति के लिए आवश्यक क्षमता का संग्रह न हो सकेगा। अस्तु चिन्तन में अपने सुधार, कायाकल्प, की योजनाएँ रहनी चाहिए। सुधार परिवर्तन किस क्रम से लाया जाय और उसके लिए वर्तमान गतिविधियों में रीति नीतियों में आदत अभ्यासों में रुचि आकांक्षाओं में किस प्रकार है हेर फेर किया जाय? यह विचार योजनाबद्ध रीति से किया जाना चाहिए। महामानवों ने जिस स्तर का उत्कृष्ट, चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाया है, उसी के अनुरूप अपने को ढाला जाय। इसके लिए सर्व प्रधान आवश्यकता इस बात की है कि श्रेष्ठ सज्जनों की प्रकृति में जिन सद्भावनाओं, सत्प्रवृत्तियों का समावेश होता आया है उसी के अनुरूप आकांक्षाओं को जगाया और आदतों को बढ़ाया जाय। चिन्तन इसी योजना प्रक्रिया का नाम है।

आत्मिक प्रगति के लिए उपासनात्मक व्यायाम है-ध्यान यह भी अन्तःचेतना को एक विशेष वातावरण में रखने की शिक्षा प्रक्रिया है। इसके कई चरण और कई प्रकार है जिन्हें साधक की मनःस्थिति एवं परिस्थिति के अनुरूप बताया और कराया जाता है। इसमें अनुभवी मार्ग दर्शन की आवश्यकता पड़ती है।


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