मनुष्य जीवन में सुख शान्ति की उपलब्धि के लिए जो सबसे अधिक आवश्यक एवं उपयोगी तत्त्व है उसे लोग धर्म के नाम से जानते हैं। सदाचार एवं कर्तव्य पालन की प्रेरणा, जिओ और जीने दो का सन्देश धर्म की आत्मा के पर्याय है। धर्म का अर्थ किसी वस्तु अथवा व्यक्ति की प्रकृति, गुण, कर्म एवं स्वभाव है। कवीन्द्र रवीन्द्र ने इसकी शाश्वत अनुभूति कर अभिव्यक्त किया है कि-धर्म अन्तः प्रकृति है, वही समस्त वस्तुओं का ध्रुव सत्य है, धर्म की चरम लक्ष्य है जो हमारे अन्दर कार्य करता है।” अतएव यह कहा जा सकता है कि जिस पथ पर चलकर अपने अभीष्ट की उपलब्धि सम्भव हो उसे ही धर्म कहते हैं। क्योंकि धर्म का उद्देश्य मानव जीवन का प्राण ही कहना चाहिए। धर्म का अभाव मनुष्य को पशु से भी गया बीता बना देता है, बल्कि अधार्मिक व्यक्ति को पशु कहना, पशु का अपमान करना है क्योंकि पशु का भी तो अपना धर्म होता है जिसे पाश्व धर्म कहा जाता है। किन्तु मनुष्य यदि मानवीय धर्म का पालन नहीं करता अथवा अपने धर्म कर्तव्य का परित्याग कर देता है तो उसे हेय दृष्टि से ही देखा जाता है। समादरणीय व्यक्ति अथवा सम्मान के अधिकारी व्यक्ति वही है जो धर्म कर्तव्य से विमुख नहीं है। शास्त्रोक्ति है कि “जो धर्म का पालन करता है उसकी धर्म की रक्षा करता है, पर जो उसे नष्ट कर देता है उसका नष्ट किया हुआ धर्म ही नाश कर देता है।” इस सिद्धान्त में दो मत नहीं हो सकते। जो व्यक्ति धर्म से विमुख हो जाता है वह श्री समृद्धियों एवं विभूतियों से वंचित हो जाता है। दुःख दारिद्र एवं दुर्भाग्य धर्म विमुख के संगी सहचर बन जाते हैं। नारकीय यंत्रणा की अग्नि में वे सतत् जलते एवं येन केन, प्रकारेण जिन्दगी के दिन पूरे करते रहते हैं।
धर्म का निवास वहाँ होता है जहाँ सदाचार एवं कर्तव्य पालन का समादर किया जाता है इसलिए सदाचार एवं कर्तव्य पालन को धर्म के प्रधान प्रतीक कहना अतिशयोक्ति न होगी। धर्म की भव्य संरचना हेतु मानवोचित आदर्शों एवं उत्तरदायित्वों को सुचारु रूप से संपादित करने की महती आवश्यकता होती है।
आस्तिकता, उपासना, शास्त्र श्रवण, पूजा पाठ, कथा कीर्तन, सत्संग, प्रवचन, व्रत, उपवास, नियम, संयम, तीर्थयात्रा, पर्व एवं संस्कार आदि समस्त प्रक्रियाएँ धर्म भावना को परिपक्व करने के उद्देश्य से विनिर्मित हुई हैं। ताकि मनुष्य अपने जीवन के महारिपुओं-वासना एवं तृष्णा, लोभ, मोह तथा आकर्षणों एवं प्रलोभनों से मुक्त होकर अपने कर्तव्य पथ पर अबाध गति से अग्रसर हो सके। साथ ही यदि वह इन धर्म के साधनों को साध्य मान बैठने की-गलती कर लेता है तो उसके समस्त धार्मिक कर्मकाण्ड जो धर्म के कलेवर मात्र है-धर्म के प्राण से कोसों दूर ले जाते हैं। कलेवर अपने आप में पूर्ण नहीं है, कलेवर का महत्व प्राण से है और प्राण का कलेवर से। सुस्पष्ट है दोनों एक दूसरे के परस्पर पूरक है। साधन और साध्य का एक दूसरे से अन्योन्याश्रित संबंध है। यदि साधन को मात्र साध नहीं समझा जावे, साधनों चित महत्व ही प्रदान किया जावे।
ईश्वर की सत्ता सर्वव्यापक, निष्पक्ष, न्यायकारी तथा सुनिश्चित कर्मफल प्रदान कर, सृष्टि की नियामक एवं नियन्त्रक है। उसकी अनुभूति अपने इर्द गिर्द करना ही ईश चिन्तन, मनन, ध्यान एवं भजन का उद्देश्य है। पाप कर्मों के दण्ड से भयभीत रहे और मर्यादाओं का उल्लंघन करने पर उसके कठोर प्रतिफल का ध्यान रखते हुए अनीति एवं अन्याय न करे। उपासक अथवा धर्म भीरु के लिए यह अनिवार्य आवश्यकता है कि उसकी ईश्वरीय न्याय और कर्मफल की सुनिश्चितता में आस्था हो, अन्यथा उसकी समस्त भक्ति भावना निरर्थक ही सिद्ध होगी।
धर्म कर्मों से स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, वरदान, देवकृपा, सुख-शान्ति समृद्धि, साक्षात्कार आदि लाभ होते हैं जिन्होंने धर्म के मर्म एवं उसके वास्तविक स्वरूप को भली-भाँति समझ लिया है, साथ ही उसे अपने जीवन में व्यावहारिक रूप प्रदान कर अपने व्यक्तित्व एवं चरित्र को उज्ज्वल बनाया है। समस्त विभूतियाँ भले ही वे लौकिक या लोकोत्तर हों सदाचार द्वारा ही सुलभ होती हैं। यही कारण है कि धर्म को सदाचार का प्रेरणोत्पादक तत्त्व माना गया है। यह निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि धर्म विभूति एवं सुख-शान्ति का जनक है। सदाचार के प्रति अनास्थावान् होकर काई व्यक्ति मात्र बाह्य क्रिया-कलापों से सुख-शान्ति का स्वप्न देखे तो उसे मात्र दिवास्वप्न की संज्ञा दी जायेगी। सदाचार में आस्था, कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों और मर्यादाओं का विधिवत् पालन ही धर्म की आधारशिला है। सदाचार को धर्म का मूल कहा जा सकता है। मूलोच्छेदन के बाद किसी वृक्ष में लगने वाले फूलों और फलों की आशा करना निरर्थक है।
मध्य काल के अन्धकार युग में वह भ्रांति फैली कि अमुक धार्मिक कर्मकाण्ड करने मात्र से समस्त पापों से मुक्ति मिल जाती है। लोग भी उसी लकीर के फकीर बने हुए हैं। इस प्रकार की निराधार मान्यताएँ फैलाने में तत्कालीन पुरोहित वर्ग का अपना वर्चस्व बनाये रखने वाला स्वार्थ प्रधान था। जिसके माध्यम से जीविकोपार्जन हेतु दान दक्षिणा और पूजा प्रतिष्ठा यजमानों से सहज रूप में प्राप्त हो जाती थी। जो लाभ सदाचार की कष्टमय कसौटी पर खरा उतर कर उपलब्ध होता है उसे मात्र बाह्य प्रक्रियाओं से पुण्य लाभ के प्रलोभन देकर सत्ता बना दिया।
मनुष्य के उत्थान एवं पतन का कारण उसकी भावना होती है, अतएव भावना स्तर को मानवीय आदर्शों के अनुरूप बनाये रहने में धर्म के समस्त क्रिया कलाप सहायक होते हैं। इसी कारण भावना को प्रधानता मिली हुई है। आदर्श जीवन एवं उत्कृष्ट विचार ही सजीव धर्म की शाश्वत साधना है।
प्राचीन काल में संत, ब्राह्मण और साधु अपरिग्रहशील जीवनयापन करते थे, फलस्वरूप लोकसेवा का उत्तरदायित्व अपने कन्धे पर उठने में समर्थ होते थे। उनकी त्याग भावना उन्हें लोकश्रद्धा का पात्र बना देती थी। दान दक्षिणा से प्राप्त धन को वे अपने व्यक्तिगत कार्य में व्यय न करके लोक कल्याण के कार्य में लगा देते थे। जिस प्रकार आजकल लोकनायकों को रक्षा कोषादि के लिए दी जाने वाली थैलियाँ उनकी व्यक्तिगत निधि नहीं मानी जाती। प्राप्तकर्ता उसे राष्ट्रीय हित के कार्यों में व्यय हेतु समर्पित कर देते हैं। प्राचीन काल में धर्मात्मा, लोकसेवी साधु, ब्राह्मण उदर पूर्ति के उपरान्त शेष राशि को सद्ज्ञान, सद्भाव, सदाचार एवं सद्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार में लगा देते थे। मन्दिर जन जागरण के केन्द्र थे, किन्तु आज मठों एवं मन्दिर में प्रचुर सम्पत्ति विद्यमान् होने के बाद भी उसका सदुपयोग नहीं हो पा रहा है, जन मानस परिष्कार एवं उत्कर्ष, साँस्कृतिक लोक शिक्षण में यदि यह धर्म निधि सुलभ हो सकी तो आज हमारी स्थिति कुछ और ही होती तब आज का वातावरण ही भिन्न प्रकार का परिलक्षित होता।
मानवीय अन्तःकरण में सन्निहित श्रेष्ठता को विकसित करने मात्र से ही सुधार निर्माण एवं प्रगति का पथ-प्रशस्त हो सकता है। इस पुनीत कार्य में हम जितना सफल हो सकेंगे उसी अनुपात में बहिरंग जीवन की समस्त संसार की असंख्य समस्याओं का हल अपने आप होता चलेगा। साथ ही विकास के अगणित साधना सूत्र सरलतापूर्वक उपलब्ध होते चलेंगे।
धर्म परस्पर प्रेम, दया, करुणा, सेवा, उदारता, संयम, सद्भावना एवं सहयोग को बढ़ाता है। एतदर्थ धर्म का सच्चा स्वरूप सदाचार एक कर्तव्य निष्ठा में निहित है।