यह बात सही है कि मन स्वभावतः ही बड़ा चंचल और प्रमथनशील है। उसकी एक दिशा में ही देर तक गति बनाए रखना बहुत कठिन होता है। ऐसा कर सकना ही एकाग्रता कहलाता है। अभ्यास द्वारा तथा कुछ उपायों द्वारा एकाग्रता सम्भव होती है।
मन एक बार में एक ही काम कर सकता है, इस तथ्य को सदा ध्यान में रखा जाय, तो फिर यह बात भी समझ में आ जाएगी कि तमाम निरर्थक और निरुपयोगी बातों में उलझे रहने से कोई प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं तथा संसार की उन अनेक छोटी मोटी बातों में जिनका जीवन में कोई उपयोग नहीं, व्यर्थ उलझे रहने से हानि ही है। अतः इन सबसे मन को हटा कर एक निश्चित लक्ष्य और प्रयोजन में लगाये रहना ही सार्थक है।
वस्तुतः एकाग्रता सिद्धि का सर्वोत्तम उपाय यही है कि मन को व्यर्थ की उलझनों समस्याओं से दूर रखा जाए। जिनसे अपने लक्ष्य का सीधा सम्बन्ध हो ऐसी ही बातों और विचारों तक सीमित रहा जाए। अधिकांश लोग घर, परिवार ,मुहल्ले, समाज, देश ,राष्ट्र आदि की ऐसी छोटी छोटी बातों में अपने को व्यस्त बनाए रखते हैं, जिनका न तो स्वयं के मुख्य प्रयोजन से कोई सम्बन्ध होता और न ही घर, परिवार ,मुहल्ले, देश ,आदि की ही गति व्यवस्था में उनका कोई उल्लेखनीय योगदान होता है। ऐसी व्यर्थ की बातों में उलझने की वृत्ति निरर्थक उत्सुकता की वृत्ति कही जाती है। यह निरर्थक उत्सुकता की वृत्ति विचारधारा को संकीर्ण एवं विश्रृंखल बनाती है। इसमें उलझने से मन अस्त व्यस्त, छिन्न भिन्न और चंचल ही बना रहता है तथा उसकी एकाग्रता शक्ति विकसित नहीं हो पाती। वाचाल और गप्पी लोगों की दुनिया भर की बातें सुन-सुन की उन्हीं में उलझे रहना मनःशक्ति का अपव्यय ही है। ऐसे लोगों का संग करने से धीरे-धीरे स्वयं का विचार स्तर बनता जाता है।
विचारधारा का प्रकार एवं स्तर संगति तथा साहित्य से ही विनिर्मित होता है। जैसे लोगों के साथ व्यक्ति रहता है और जिस तरह का साहित्य वह पढ़ता है, वैसी ही उसकी विचारधारा बनती चलती है। अखबारों में ढूँढ़कर सनसनीखेज बातें और विचित्र समाचार पढ़ना, जासूसी कहानियाँ उपन्यास कामोत्तेजक साहित्य पढ़ना यह सब मन की चञ्चलता को बढ़ाता है। एकाग्रता वस्तुतः वैचारिकता द्वारा ही सम्भव है। गम्भीर, शालीन, उच्चकोटि के लोगों का साथ और श्रेष्ठ साहित्य का अध्ययन वैचारिक स्तर को क्रमशः निखारता चलता है और उसी क्रम से मन की एकाग्रता का भी अभ्यास बढ़ता जाता है। वस्तुतः एकाग्रता का अर्थ गहराई तक प्रवेश करने की प्रवृत्ति ही है। एकाग्रता का यह अर्थ न समझकर कई लोग मन को एक जगह बाँध कर रखने का अभ्यास करने में जुट जाते हैं। निश्चय ही वैसी एकाग्रता का भी उपभोग और लाभ है,पर वह आरम्भ की नहीं, बाद की सीढ़ी है और उस विशेष एकाग्रता में दिन रात उपयोग की जरूरत भी कभी किसी को नहीं पड़ती। विशेष योग साधनाओं में वैसी एकाग्रता अपेक्षित हो सकती है, उस स्तर तक पहुँच जाने पर वैसी एकाग्र साधना कुछ कठिन भी नहीं होती। पर वैसी एकाग्रता में कुछ ऊल-जलूल चमत्कार पढ़
सुनकर प्रारम्भ में ही उसे पाने का प्रयास करने लगने पर विफलता, निराशा और तनाव से उत्पन्न अस्त व्यस्तता ही साथ लगने वाली है।
जिस एकाग्रता का नित्य प्रति के जीवन में समावेश सफलता की ओर ले जाता है। वह दार्शनिकों वैज्ञानिकों डाक्टर, कवियों, कलाकारों, गणितज्ञों, लेखकों की एकाग्रता ही है। एक ही निश्चित विषय क्षेत्र में गहराई तक तीव्रता से विचारशील रहे आना ही वह एकाग्रता शक्ति है, जिससे वैज्ञानिक जटिल गूढ़ वैज्ञानिक गुत्थियाँ सुलझाता और नई खोजे करता है, कवि काव्य सृजन करता है, लेखक एक ही विषय पर लम्बे लेख लिखता है, कलाकार एक ही भाव दशा का चित्रण प्रस्तुतीकरण कर पाता है, संगीतज्ञ राग की गहराई को छू पाता है, दार्शनिक गम्भीर ऊहापोह कर निष्कर्ष निकालता है, डाक्टर शल्यक्रिया या निदान एवं चिकित्सा में निपुण बनता है। मन की एकाग्रता का अर्थ विचारों की यह एकतानता, एक दिशाधारा ही है।
इसके लिए सर्वप्रथम तो अपने विचारों के प्रति जागरूक रहने की आवश्यकता है। मन में विचार तरंगें निरन्तर उठती ही रहती है। पर वे सदैव उठती रहती है, अपने पास सहज ही विचार शक्ति है, इसीलिए उसकी उपेक्षा नहीं कर देना चाहिए। ये विचार तरंगें कोई व्यर्थ की वस्तु नहीं है। कर्म जो आँखों से दिखाई देता है, वह इन अदृश्य किन्तु अतिसमर्थ विचारों का ही तो दृश्य रूप है। अतः इस बात के प्रति पूरी तरह सतर्क रहना आवश्यक है कि हमारे मन मस्तिष्क में किस प्रकार के विचार आ जा रहे हैं, अन्यथा गन्दे और निरुपयोगी विचार मन मस्तिष्क में उठकर ही नहीं रह जाने वाले है वे वैसे ही गन्दे, निरुपयोगी कामों में भी मनुष्य को नियोजित करा कर रहेंगे।
ऐसे विचारों को रोकने और निकाल फेंकने में प्रारम्भ में तो कठिनाई अवश्य होगी, किन्तु थोड़े से ही अभ्यास से यह कार्य सरल हो जाता है। सावधान रहने और सक्रिय रहने का कुछ दिनों तक लगातार अभ्यास करने पर मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा बन जाता है कि उसकी चिन्तनधारा में अनावश्यक विचारों का प्रवेश नहीं हो पाता। सतर्कता और क्रियाशीलता, निरुपयोगिता और अस्तव्यस्तता की विरोधी स्थितियाँ है। मन दोनों स्थितियों में एक साथ नहीं रह सकता। विचार ही विचारों को बुलाते और भगाते रहते हैं। सतर्कता क्रियाशीलता में विचार गन्दे निरुपयोगी विचारों को भगाकर ही रहते हैं, ठहरने नहीं दे सकते । इसके विपरीत यदि सस्ती संगति में रहा गया, अस्त व्यस्त मनोदशा रहने दी गई और सस्ता साहित्य पढ़ा गया तो मन में प्रमाद ओर शरीर में आलस्य तथा पतनोन्मुखता की वृद्धि होती जाएगी। सतर्कता क्रियाशीलता कम होती जाएगी। चंचलता मन को अस्त व्यस्त बनाती है और इससे उसकी स्फूर्ति समाप्त होती जाती है। स्फूर्ति नाम है शक्ति के सही और व्यवस्थित उपयोग का। शक्ति को निखर जाने दिया जाय, तो उसकी उतनी ही मात्रा लगा देने पर भी एक भी प्रयोजन पूरा न हो पाएगा, जितनी लगाने पर कई कार्य सम्पादन हो सकते हैं। इस व्यर्थ के बिखराव से ढीलापन आता है। यही स्फूर्ति हीनता की स्थिति है। जब मनःशक्ति को एक ही दिशाधारा में केन्द्रित रखते हैं, तब उस दिशा विशेष में जो प्रत्यक्ष प्रगति होती है, वह मन में स्फूर्ति और उल्लास को अधिकाधिक बढ़ाती जाती है। इससे मनुष्य के अन्दर सोई शक्तियाँ जाग उठती है और वह असम्भव दीखने वाले कामों को भी सम्भव कर दिखाता है। बिखरे मन और विश्रृंखल शक्ति से विश्व का कोई कार्य पूरा नहीं हो पाता। इसीलिए कार्यसिद्धि कि एक ही विधि है- मन की एकाग्रता। मन की एकाग्रता से सुव्यवस्था संभव होती है सुव्यवस्था से ही नए-नए कार्य संभव होते हैं। चित्र-पटल में भिन्न भिन्न रंगों के ब्रश से पोत दिया जाय, तो उनका वैसा प्रभाव न होगा, जैसा कि उन्हीं रंगों को एक विशेष क्रम में व्यवस्थित कर सजा देने पर पड़ा करता है। यह सुव्यवस्था ही तो चित्रकला है। केनवास पर बिखरे रंगों को कोई चित्रकला नहीं कहेगा। उन्हीं रंगों को एक व्यवस्थित क्रम में किसी निश्चित प्रयोजन से सजा दिया जाय, तो सभी चित्र कृति को देखकर प्रसन्न होंगे और प्रशंसा करेंगे।
कोई व्यक्ति भले ही संगीत जानता हो किन्तु यदि वह सरगम के भिन्न भिन्न स्वरों का यदा कदा यों ही आलाप करता रहे, तो उस ओर या तो कोई ध्यान न देगा, या फिर ध्यान दिया तो उपहास करेगा। उन्हीं के स्वर को सुव्यवस्थित क्रम से किसी निश्चित लय ताल में बाँध देने पर राग सम्वेदनाओं की अनुभूतियाँ श्रोताओं में उत्पन्न होने लगेंगी और लोगों को उससे आनन्द प्राप्त होगा।
मन में उठने वाली विचार तरंगें भी स्वर लहरियों और रंगों जैसी ही हैं। उन्हें एक निश्चित प्रयोजन से निश्चित क्रम में सुव्यवस्थित कर देने पर वे सफलता, सन्तोष और सुख का आधार बन जाती हैं। अव्यवस्थित रहने देने पर उपहास उपेक्षा ही दिलाती है। रंगों और स्वर लहरियों के बिखराव से कई गुना अधिक हानिकारक होता है, मन का बिखराव पतन और पीड़ा का कारण बनता है। प्रमोद और पाप बिखरे मन में ही पनपते फूलते हैं। मन का उपजाऊपन इतना अधिक होता है कि वह कोई न कोई परिणाम उत्पन्न करता ही रहता है। यह परिणाम सीधे शरीर एवं व्यक्तित्व पर पड़ता है।
अनियन्त्रित मन प्रयोग रूप में अनेकों आकांक्षाएँ बनाता बिगाड़ता रहता है। पहलवान बनने, नेता बन जाने, प्रतिष्ठा पाने, धनी होने, भोग भोगने, विद्वान् होने आदि की तरह तरह की कल्पनाएँ आकांक्षाएँ उसमें उठती मिटती रहती हैं। ये कल्पनाएँ आकांक्षाएँ सुव्यवस्थित हो, स्थिर हो, तो कोई बात भी बने। औरों के जीवन की प्रतिक्रिया स्वरूप होने से ये अस्थिर व्यवस्थित होती है। उनके क्रम निर्धारण और उन्हें योजनाबद्ध रूप देने के लिए तो गम्भीरता की आवश्यकता होती है। अनियंत्रित मन में ऐसी गम्भीरता का अभाव ही होता है। अतः ऐसी समस्त आकांक्षाएँ लालच भरे सपने बनकर रह जाती हैं।
अभीष्ट प्रगति के लिए अपनी समस्त आकांक्षाएँ को परस्पर पूरक बनाना आवश्यक होता है। इच्छाएँ जीवन के विशिष्ट पहलुओं और परिस्थितियों से बँधी होती हैं। उनमें परस्पर पूरकता लाने पर ही वे शक्ति का आधार बन सकती हैं। परस्पर विरोधी इच्छाएँ व्यक्ति को कही का नहीं रहने देतीं।
इसीलिए मन को साधने की आवश्यकता सर्वोपरि है। सधा हुआ मन रुचिपूर्वक लक्ष्य पूर्ति में लगा रहता है, तो कठिनाइयाँ सरल होती जाती हैं , मार्ग निकलता जाता है और मनुष्य अभीष्ट सफलता प्राप्त कर लेता है।