अपने रहने की अपनी दुनिया आप बनायें

July 1977

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जिस दुनिया में हम रहते हैं उसमें श्रेष्ठता प्रयत्नपूर्वक तलाश करनी पड़ी है। निकृष्टता के तो हर दिशा में पहाड़ खड़े दिखाई देंगे। नैतिक, पराभव और पतन की परिस्थितियाँ मक्खी, मच्छरों की तरह उपजती , बढ़ती रहती है, पर उपयोगी प्राणियों को तो प्रयत्नपूर्वक ढूँढ़ना और पालना पड़ता है। सुसंस्कृत मनुष्य सदा अल्पमत में रहे हैं फिर श्रेष्ठता का प्रभाव क्षेत्र भी उतना विस्तृत नहीं होता जितना निकृष्टता का। पानी नीचे की ओर धकेलती ही नहीं, पृथ्वी की आकर्षण शक्ति की तरह अपनी ओर घसीटती भी है। सामान्य बुद्धि को साँसारिक विकृतियाँ ही प्रभावित करती है।

संकीर्ण स्वार्थपरता का इन दिनों दौर है। आदर्शों की ओर कदम बढ़ाने की अपेक्षा लोग निकृष्ट क्रिया कृत्यों की ही बात सोचते हैं। उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने की अपेक्षा लोगों को तात्कालिक लाभ कमाने में अधिक रुचि है भले ही उसके लिए अनीति का मार्ग ही क्यों न अपनाना पड़ता हो। परिस्थितियाँ कुछ ऐसी है कि धूर्तों में से कितने ही सफल और सुसम्पन्न भी दीखते हैं। अस्तु सहज ही सामान्य बुद्धि का रुझान नीतिमत्ता की दूरदर्शिता अपनाने की अपेक्षा किसी भी उपाय से तुरन्त लाभान्वित होने की ओर ही होता है। दृष्टि पसार कर हम अपने चारों ओर ऐसा ही वातावरण छाया देखते हैं। उसका प्रभाव भी पड़ता है। बहुमत का अनुकरण मनुष्य की एक ऐसी दुर्बलता है जिसे कठिनाई से ही रोकना और बदलना सम्भव हो पाता है।

श्रेष्ठता की दिशा में चलना हो, यदि उत्कृष्टता और आदर्शवादिता को लक्ष्य बनाना हो तो भी उसके लिए प्रेरक वातावरण बनाना पड़ेगा। ऐसा परिकर जहाँ हो वहाँ रहने का भी प्रभाव पड़ता है। श्रेष्ठ व्यक्तियों का निकटवर्ती वातावरण संपर्क में आने वालों को प्रभावित करता है और उनकी गतिविधियों में उपयोगी परिवर्तन प्रस्तुत करता है। पर ऐसा वातावरण हर जगह हर किसी के लिए कहाँ उपलब्ध होता है, फिर उसमें रह सकने की परिस्थितियाँ कितनों की होती है। जनसाधारण को तो आजीविका उपार्जन एवं परिवार पोषण के क्रियाकृत्यों में ही व्यस्त रहना पड़ता है। दो पाँच दिन कहीं चले भी जाय तो उतने भर से काम भी क्या बनेगा ? अधिक दिन सत्संग का लाभ लेने के लिए जा सकना आर्थिक तथा दूसरे कारणों से कहा बन पाता है।

ऐसी दशा में श्रेष्ठता की दिशा में अग्रसर कर सकने वाला प्रभावोत्पादक वातावरण अपने आप ही बनाना पड़ता है। मस्तिष्क पर छापा छोड़ने वाला एक ऐसा समानान्तर संसार विनिर्मित करना होता है जो स्वयं संलग्न दुनिया के प्रभाव को निरस्त कर सके। यह निर्माण प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष ही हो सकता है। स्वाध्याय और चिन्तन के सहारे यह निर्माण खड़ा किया जा सकता है। अपनी रुचि के भविष्य का मार्गदर्शन कर सकने वाले जीवन चरित्रों का संग्रह करना चाहिए। उन्हें ध्यान पूर्वक पढ़ना चाहिए और उनमें जो प्रेरक प्रसंग हो अपनी वर्तमान परिस्थितियाँ कार्यान्वित हो सकते योग्य हो, उन्हें अलग से नोट कर लेना चाहिए। जब भी अवकाश मिले उन प्रसंगों के कल्पना चित्र मस्तिष्क में एक सुनियोजित फिल्म का तरह प्रस्तुत करने चाहिए। श्रेष्ठ मार्ग पर चलते हुए समुन्नत स्थिति तक पहुँचे हुए महामानवों की जीवनियाँ, गतिविधियाँ, नीतियाँ आदि अपने कल्पना लोक में दृढ़तापूर्वक जड़े जमा सके और अनायास ही स्मरण आती रहे तो समझना चाहिए कि बाहरी दुनिया के पतनोन्मुख प्रभात को निरस्त कर सकने वाला स्वनिर्मित वातावरण बनकर तैयार हो गया।

अपनी मानसिक दुर्बलताएँ, अभ्यस्त आदतें, विकृत अभिरुचियाँ, निकृष्टता की ओर खींचती हैं। कुटुम्बियों के स्वार्थ, मित्रों के दबाव तथा चालू लोक प्रवाह अपनी संयुक्त शक्ति से सामान्य मनुष्य को वैसी ही गतिविधियाँ अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं जैसी कि दुनियादारों ने अपना रखी है। श्रेष्ठता को प्रेरणा भर देने वाले और उत्कृष्टता की ओर बढ़ चलने का मार्ग दर्शन करने वाले प्रेरक प्रसंगों को तो इतिहास के पृष्ठो पर ही खोजा जा सकता है। आज भी वैसे जो लोग है उनके साथ मानसिक सम्बन्ध ही बनाया जा सकता है। न तो अपने लिए उनके पास निरन्तर रहना सम्भव है और न वे ही अपना निवास अपने पड़ोस में बना सकते हैं। व्यावहारिक मार्ग एक ही है कि अपनी एक भावनात्मक दुनिया अलग ही बसाई जाय जिसमें श्रेष्ठ महामानवों को ही निवास करने के लिए आमन्त्रित किया जाय। उसमें प्रेरणाप्रद घटनाओं की हलचलें ही दृष्टिगोचर होती रहे, भले ही वे आज की न होकर भूतकाल में ही घटित क्यों न हुई हो। यही बात परमार्थ के सम्बन्ध में भी है। श्रेष्ठ सज्जनों से वार्तालाप कर सकना उनके साहित्य द्वारा बड़ी सरलता पूर्वक सम्भव हो सकता है। जीवित लोगों से परामर्श करने के लिए उनके पास जाने और उन्हें अवकाश होने न होने की भी कठिनाई आती है , पर स्वाध्याय के माध्यम से तो यह सुविधा हर घड़ी उपलब्ध हो सकती है। जिस भी महामानव से कुछ पूछताछ करनी हो उसके साहित्य में से अपने काम के प्रसंग ढूँढ़ने और पढ़ने का कार्य कठिन नहीं सरल है। यह अपनी सुविधा के समय कभी भी किया जा सकता है।

प्रस्तुत समस्याओं का समाधान और प्रगति पथ पर अग्रसर होने का पथ प्रदर्शन कर सकने वाली पुस्तकें खरीदने के लिए कुछ बजट नियत रखना चाहिए। शरीर ओर परिवार पर ढेरों समय और धन खर्च किया जाता है। यदि मन और अन्तःकरण का भी मूल्य महत्व समझा जा सके तो उनके परिपोषण पर कुछ खर्च करते रहना भी आवश्यक प्रतीत होगा। अनुपयोगी समझी जाने वाली बातें की उपेक्षा भी करनी पड़ती है और उन्हीं के लिए पैसे तथा समय की कमी बहाना खोजना पड़ता है। महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाली आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तो प्राथमिकता एवं प्रमुखता ही मिलती है। यदि बौद्धिक एवं भावना क्षेत्र का महत्व समझा जा सके और उसके परिष्कृत होने पर मिलने वाले लाभों की कल्पना की जा सके तो निश्चय ही उस प्रयोजन के लिए नियमित रूप से कुछ धन और समय लगाते रहने में तनिक भी कठिनाई प्रतीत न होगी। स्वाध्याय को आहार के समतुल्य ही महत्त्वपूर्ण समझा जाना चाहिए।

ऐसा सत्साहित्य समीपवर्ती पुस्तकालयों में भी मिल सकता है। थोड़ी नासिक फीस देते रहने पर उसकी सुविधा हो सकती है। सही रूप में वापिस लौटाने का विश्वास दिलाया जा सके तो अन्य उदार स्वाध्यायशील व्यक्ति भी अपनी पुस्तकें पढ़ने दे सकते हैं। सरसरी नजर से पढ़ने और पुस्तकें एक ओर पटकते जाने से बहुपठित होने का दावा तो किया जा सकता है, पर वह लाभ नहीं मिल सकता जो स्वाध्यायशीलों को मिला करता है। आवश्यक है कि प्रेरक प्रसंगों और संदर्भों की नोट बुक बनाकर रखी जाय और जो हृदयग्राही लगा हो उसे उसमें नोट करते चला जाय। यह सकल निश्चय ही समुद्र मन्थन के फलस्वरूप निकले हुए रत्नों की तरह बहुमूल्य होगा। इस संग्रह को अवकाश के समय बहुत ध्यानपूर्वक पढ़ा जाय और यह सोचा जाय कि इन प्रसंगों के अनुरूप कदम बढ़ा सकना किस प्रकार सम्भव हो सकता है। सद्विचारों को व्यवहार में उतारने में क्या कठिनाई पड़ेगी और उसका किस तरह किस सीमा तक निराकरण सम्भव हो सकता है।

स्वाध्याय से मार्ग दर्शन मिलता है। घटनाएँ सामने आती है और परामर्श मिलते हैं। पर बात इतने भर से ही नहीं बन जाती। सोचना यह भी होगा कि प्रगति पथ पर चलना आज को स्थिति में कितना और किस प्रकार सुलभ हो सकता है योजना तो हर काम की बनानी पड़ती है। उसके बिना तो छुट पुट दैनिक कार्य भी नहीं हो पाते । कृषि व्यापार आदि में योजनाबद्ध कदम उठाते हैं। सरकारें तो योजना निर्माण विभाग पर ढेरों साधन खर्च करती है। जीवन विकास की प्रक्रिया भी अनायास ही नहीं बन जाती और इस दिशा की प्रगति जादू की छड़ी घुमाने भर से सम्भव नहीं हो सकती। अनभ्यस्त को अभ्यास में उतारना निश्चय ही एक बड़ी बहादुरी का काम है। ढर्रे को बदल कर नये सिरे से कोई नये आधार खड़े करने में सुदृढ़ संकल्प शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। इस परिवर्तन में आने वाली कठिनाइयों की कल्पना करनी पड़ती है और उनके निवारण करने के उपाय खोजते होते हैं किस क्रम से, क्या कदम कब उठाये जाय और किस तरह लम्बी मंजिल को निश्चय और साहस के साथ पूरा किया जाय, इसकी सुव्यवस्थित रूप रेखा बनाकर चलने से ही अभीष्ट मनोरथ सिद्ध होता है।

श्रेष्ठता के मार्ग पर चलने के सत्परिणामों की कल्पना करने से उत्साह बढ़ता है और उस दिशा में उत्कंठा प्रबल होती है। मात्र कठिनाई और हानि की बात सोचते रहने से मन छोटा पड़ता है ओर अचेतन उसे टालने या अस्वीकार करने की भूमिका बना देता है, फलतः सपने ज्यों के त्यों धरे रह जाते हैं। कल्पनाएँ तो उठती है, पर ऐसे ही पानी के बुलबुलों की तरह दूसरे ही क्षण समाप्त हो जाती है। महामानवों ने आदर्शवादिता को दृढ़तापूर्वक अपनाये रहने पर अन्ततः जिन सत्परिणामों को प्राप्त किया है उन पर विचार करने और अपनी स्थिति भी कभी उन्हीं जैसी हो जाने का कल्पना चित्र यदि मनःक्षेत्र पर अधिक स्पष्ट रूप से उतारा जा सके तो उससे निश्चय ही उत्साहवर्धक प्रेरणा और उधर कदम उठाने का साहस बढ़ेगा।

तत्काल थोड़ा सा लाभ उठाने के प्रलोभन में भविष्य को अन्धकारमय बना लेने वाले लोगों के वृत्तांत तो अपने इर्द गिर्द ही खोजे जा सकते हैं। उनके लिए इतिहास पढ़ने या साहित्य पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। कितने ही व्यक्ति ऐसे है, जिन्होंने जिस तिस तरह कमाया तो बहुत पर वह दुर्व्यसनों में गँवाते रहे। जो बचा उसे कुपात्रों ने हड़प लिया। इन कुपात्रों में ठग, तस्कर भी हो सकते हैं और तथा कथित प्रिय जन भी। उपभोग वह जिससे हित साधन हो सके। अनुदान वह जिससे सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ सके। इन कसौटियों पर जो खरा नहीं उतरा वह उपयोग और अनुदान अबुद्धिमत्ता पूर्ण ही माना जाएगा। ऐसी ही विडम्बनाओं में उलझा और नष्ट हुआ जीवन किस प्रकार सफल कहा जायेगा। ओछा, हेय एवं निष्कृष्ट जीवन व्यतीत करते हुए किसी प्रकार मौत के दिन पूरे कर लेने में क्या समझदारी रही ? उचित और उपयुक्त यही है कि इस सुर दुर्लभ अवसर का ऐसा उपयोग किया जाय जिससे आत्म गौरव बढ़े अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत हो लोकश्रद्धा बरसे और ईश्वर की प्रसन्नता का आनन्द मिले। यह सार्थकता श्रेष्ठता के सम्मान पर चलने से ही सम्भव हो सकती है। स्पष्ट है कि ऐसे आदर्शवादी प्रेरणाओं से भरा पूरा भावनामय संसार अपने ही हाथों से गढ़ा और खड़ा किया है।


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