मोह सीमाबद्ध होता है, प्रेम नहीं

July 1977

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भौतिकता के प्रवाह ने आज साँस्कृतिक धरातल को बौना और भ्रष्ट कर दिया है। प्रेम जैसे विशुद्ध आत्म-तत्व का भी अर्थ आज संकीर्ण हो गया है। आज प्रेम का अर्थ युवा नर-नारियों के बीच चल रही वासनात्मक गतिविधियाँ हो गया है। कला के सभी वर्तमान रूपों में-चित्र काव्य, कथा, उपन्यास, सिनेमा आदि में प्रेम को वासनात्मक माँसलता, यौनावेग तथा उच्छृंखल मनस्तरंगों के ही रूप में चित्रित किया जाता है। यह ऐसा ही है, जैसे कोहरे को धुँआ समझ लिया जाय, या मरुभूमि में प्रकाश की झिलमिलाहट को जल समझ बैठा जाय! काम वस्तुतः प्रेम का आभास तथा भ्रम है। दोनों में बहुत अन्तर है। प्रेम के विकास के साथ साथ काम संकीर्ण होता जाता है। काम सृजनात्मक शक्ति की पतनोन्मुख प्रक्रिया है। प्रेम सृजनात्मक शक्ति का ऊर्ध्वीकरण है। पूर्ण प्रेम में काम शून्य ही रह जाता है। बीच की स्थितियाँ भी इसी क्रम से उच्च या निम्न होती है। जहाँ काम जितना ही न्यून होगा, वहाँ प्रेम उतना ही अधिक होगा। लेकिन काम की यह न्यूनता दमन द्वारा नहीं लाई जा सकती। दमित काम से प्रेम नहीं प्राप्त होगा, कुंठाएँ और रोग ही प्राप्त होगे।

प्रेम और काम दोनों है-मन की ही स्थितियाँ। अतः मन के प्रशिक्षण पर ही दोनों का स्वरूप निर्भर है। प्रेम का विकास अपने परिवार से भी प्रारम्भ हो सकता है। प्रेम का अर्थ है-जिससे प्रेम किया जाय उसकी जीवन प्रक्रिया में स्वयं भी सहभागी बनने की प्रचण्ड आकांक्षा उसके जीवन स्पन्दन से स्वयं भी स्पन्दित होने की इच्छा। इस प्रकार प्रेम का अर्थ हुआ अपनापन। आत्मीयता। यह अपना आपा जितना अधिक विस्तृत होता जाएगा, उतने तक ही प्रेम की परिधि फैलती जाएगी।

प्रेम के अंकुर परिवार के माध्यम से भी पल्लवित विकसित हो सकते हैं। किशोर को अपने ही मजे मौज की चिन्ता होती है। बड़े होने पर मात्र अपनी नहीं, पत्नी के भी शोक मौज की चिन्ता वैसी ही होने लगती है। फिर यह क्षेत्र बच्चों में फैलता है। अपने को दूध न मिले, कोई बात नहीं, बच्चों को मिलना ही चाहिए। खुद सस्ते, फटे पुराने कपड़े पहनेंगे, पर बच्चों की ड्रेस, फीस पुस्तकों का खर्च जुटाना ही चाहिए। इस प्रकार परिवार प्रेम प्रशिक्षण की प्राथमिक पाठशाला बन जाता है। शौक, मौज से फैलकर बात अपने व परिवार के सदस्यों के व्यक्तित्व परिष्कार तक जा पहुँचती है।

पर यहीं तक सीमित रह जाना तो प्यार को सड़ाना है। प्रेम का आन्तरिक अक्षय प्रवाह सीमित कर दिए जाने पर पक्षपात से जुड़ जाता है। फिर ध्यान प्रेम पर नहीं-प्रिय पदार्थ या व्यक्ति पर जा टिकता है। यह विस्मृत कर दिया जाता है कि प्रेम का अमृत निर्झर तो अपने चित्त में सदा प्रसन्नता प्रफुल्लता ही उत्पन्न करता है। साथ ही वह प्रिय पात्र को भी पवित्र उत्कृष्ट बनाता है। प्रिय पात्र के दोषों को यह प्रेम प्रवाह परिमार्जित करे, तभी वह प्रेम है। यदि दोषों दुर्गुणों को धोने के स्थान पर, उन्हें बढ़ाने की इच्छा होने लगी, तब वह प्रेम की सड़न ही कहलायेगी। इसे ही मोह कहते हैं। इस मनोदशा में न तो स्वयं का चित्त प्रसन्न मुक्त रहता है न ही प्रियपात्र की आन्तरिक प्रसन्नता बढ़ती है। दोनों ओर जहाँ गन्दगी, दुर्गुण ही बढ़े, वह मोह का गन्दा नाला ही हो सकता है, प्रेम गंगाजल कदापि नहीं। अवांछनीयताओं के साथ समझौता मोह कर सकता है, प्रेम का तो संकल्प और उद्देश्य अवांछनीयताओं को धो बहाना ही होता है। किसी वस्तु से भी यदि प्रेम किया जाता है, तो उसे स्वच्छ, सुन्दर, सुरक्षित और सुव्यवस्थित रखने के लिए सदा जागरूक रहा जाता है। फिर व्यक्ति तो वस्तु से बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। उसकी श्रेष्ठताएँ बढ़ाने के प्रयास क्यों नहीं किए जायेंगे? यदि दोषों को ही बढ़ाया गया। तब तो यही अर्थ निकला कि उस व्यक्ति को हम जिन विशेषताओं के आधार पर तौलते हैं तथा याद करते हैं, वे उसकी उत्कृष्टताएँ नहीं, अपितु वे मलिनताएँ ही हैं, जिन्हें हम बढ़ा रहे

हैं। गहरे अर्थों में यह उस व्यक्ति का भी तिरस्कार ही है, स्वयं अपना तिरस्कार तो है ही। इसे प्रेम कदापि नहीं कहा जा सकता। प्रेम प्रगतिशील होता है आगे बढ़ता तथा बढ़ाता है। प्रतिगामी नहीं हो सकता। ऐसी मैत्री प्रेमतत्व को कलंकित ही करती है, जो प्रियपात्र को पतन के गर्त से न निकाल सके। सघन मित्रता एवं सद्भाव रखते हुए भी प्रेम की अवांछनीयताओं को सहयोग देना तो दूर, उन्हें सहने से भी इंकार किया जा सकता है। यदि प्रेम सच्चा हुआ, तो सम्बद्ध व्यक्ति उससे वंचित होने की तुलना में अपने बड़े से बड़े दुर्गुण से वंचित होने का साहस दिखलाना ही अधिक पसन्द करेगा। यदि ऐसा नहीं होता, तो उसे मैत्री और प्रेम नहीं, पारस्परिक सन्तुष्टि का छलावा मात्र ही माना जाना चाहिए।

सच्चा प्रेम कभी भी असफल नहीं होता क्योंकि वह प्रतिदान पर टिका ही नहीं होता। प्रेम अपने आप में परिपूर्ण है। सेवा-सहायता ही उसका प्रयोजन है।

प्रेम वस्तुतः आदर्शों से किया जाता है। मनुष्य उसके माध्यम हो सकते हैं। पर प्रेम होता आदर्शों से ही है। इसीलिए वह निःस्वार्थ होता है। उसमें न तो असफलता की सम्भावना है, न शिकायतों का अवसर। वह किसी व्यक्ति से आरम्भ तो हो सकता है, पर वही सीमाबद्ध नहीं रह सकता। सीमित तो मोह ही रहता है।

यह मोह स्वयं को त्रास ही देता है। उल्लास नहीं। आन्तरिक उल्लास प्रेम से उत्पन्न होता है, मोह से नहीं। मोह एक तरह की ग्रन्थि है, मन की कुटिल जटिल दशा है। प्रारम्भ में उसमें भी आनन्द की ही अनुभूति होती है, क्योंकि है वह प्रेम का ही विकृत प्रतिबिम्ब। जन्मजात परिवेश में पारिवारिक सदस्य ही अधिक समीप होते हैं। फिर जीवनक्रम में अन्य अनेकों वस्तुओं-व्यक्तियों से भी सम्बन्ध के अवसर आते हैं। सम्बन्ध हुए, तो उनके प्रति ममत्व जुड़ता है। अनुकूल प्रतिक्रिया प्राप्त होने पर यही ममत्व घनीभूत होता जाता है। यह घनीभूत ममत्व जब उचित अनुचित की मर्यादा और विवेक को भुला बैठता है तो वह राग ओर मोह बन जाता है। राग अपने भीतर पक्षपात की दुष्प्रवृत्ति को फैलाता है। साथ ही दूसरों के मन में द्वेष का कारण बन जाता है। जिसके प्रति राग या मोह होता है, उसकी विकृतियों को व्यक्ति सहता है। इस तरह राग मोह प्रियपात्र में विकृतियों के ही उभार का कारण बनता है। फिर जब उस प्रियपात्र से की गई अपेक्षाएँ पूरी नहीं होती, तो स्वयं को निराशा एवं ग्लानि का अनुभव करना पड़ता है। इस प्रकार मोह अविवेक एवं असंतुलन से उत्पन्न मानसिक प्रतिक्रिया है। जबकि प्रेम सर्वत्रव्यापी सर्वोच्च सत्ता की अविकल अनुभूति है। वह आत्मा का स्वाभाविक गुण है और आत्मीयता की निश्छल सम्वेदना है। आत्मा आनन्द का स्रोत है। इसलिए आत्मीयता की परिधि जितनी अधिक विस्तृत की जायेगी, आनन्द का अनुपात उतना ही बढ़ता जायेगा। घट घट में व्याप्त आत्मसत्ता से एकाकार हो जाने पर आनन्दमात्र ही जीवन व्याप्त विस्तृत हो जाता है। आत्मा का प्रकाश पड़ते ही सभी कुछ सुन्दर व आनन्दप्रद दीखने लगता है। सर्वत्र आलोक उल्लास ही बिखरा दिखाई पड़ने लगता है। आनन्द का मूल स्रोत प्रेम ही है।

प्रेम सर्वोत्कृष्ट साधना है। साधना का अर्थ है स्तरोन्नयन। धन की साधना का अर्थ आज जितने धनी है, कल उससे भी अधिक धन सम्पन्न होना। स्वास्थ्य साधना तथा अन्य सभी साधनाओं की भी यही स्थिति है। प्रेम की साधना का भी अर्थ है- प्रेम के क्षेत्र का निरन्तर विस्तार। जिसने अपनी प्रेमभावनाओं का विकास कर लिया, उसके जीवन में उल्लास, उत्साह, उमंग, सक्रियता, सहयोग सेवा ओर आनन्द भरा रहता है। अहिर्निशि प्रेम भावनाओं में डूबी अंतर्दशा ही सच्ची आस्तिकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles