दीनबन्धु ऐंड्रूज (kahani)

July 1977

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दीनबन्धु ऐंड्रूज भारत जाने की तैयारी में व्यस्त थे। घर में सारा सामान बिखरा पड़ा था। किसी के द्वार खटखटाने की आवाज सुनाई पड़ी। उन्होंने दरवाजा खोला।

अरे! आप आ गये। इस समय बहुत आवश्यक कार्य था। ऐंड्रूज ने अन्दर आ जाने का संकेत करते हुए कहा।

पर आपने यह समय घूमने के लिए निर्धारित किया था और मुझे बुलाया भी इसी उद्देश्य से था। आगन्तुक ने पास ही पड़ी एक कुर्सी पर बैठते हुए कहा।

दीनबन्धु जैसे पूर्व निश्चित कार्यक्रम को भूल ही गये हो। कुछ विचारते हुए बोले अब चलना सम्भव नहीं है। आपको जो कष्ट हुआ उसके लिये मैं क्षमा चाहता हूँ। मुझे भारत शीघ्र ही पहुँचना है। बात यह है कि मैं जब वहाँ होता हूँ तो इंग्लैण्ड की याद आती है और यहाँ आ जाता हूँ तो ऐसा प्रतीत होता है मानो सात समुद्र पार बैठे भारत के दीन दुःखियों का स्वर मेरे कानों से टकरा रहा है।

उन्हें मेरी सेवाओं की आवश्यकता है यहाँ तो मेरी कुछ जरूरत भी नहीं है।


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