स्वप्न और उनका रहस्यवाद

July 1977

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स्वप्नों के सम्बन्ध में चित्र विचित्र मान्यताएँ प्रचलित है। समझा जाता है कि स्वप्नलोक कुछ अलग वस्तु है। कहा जाता है कि सोते समय जीव इस शरीर से निकल कर कहीं अन्यत्र चला जाता है और वहाँ के चित्र विचित्र दृश्य देखकर निद्रा भंग होने तक शरीर में फिर वापिस लौट आता है। एक लोक मान्यता यह भी है कि-स्वप्नों में अदृश्य संकेत रहते हैं, कोई मृतात्माएँ तथा देवता अपना छद्म परिचय देते हैं। ऐसा भी अनुमान लगाया जाता है कि उनमें भविष्य के संकेत रहते हैं। इस प्रकार की अनेकों मान्यताएँ प्रचलित है। स्वप्नों को एक रहस्यवाद तो ही कोई समझता है। और जानना चाहता है कि आखिर वे है क्या? उनका आधार किन तथ्यों पर अवलम्बित है।

अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों की तरह स्वप्न संदर्भ में भी विज्ञान ने शोध प्रयत्न किये है और एक हद तक रहस्योद्घाटन में सफलता पाई है। जो अब तक जाना जा चुका है मनोविज्ञान शास्त्र के अंतर्गत आता है। विशेषतया अचेतन मन की गतिविधियों से उसका सम्बन्ध समझा गया है। यह शोध क्षेत्र परामनोविज्ञान-पैरा साइकोलॉजी के अंतर्गत माना गया है और पिछली एक शताब्दी से विज्ञान क्षेत्र में इसकी काफी खोज बीन हुई है। जो तथ्य सामने आये है उनके आधार पर कुछ प्राथमिक निष्कर्ष निकल आये है और उनके सहारे खोज टटोल करते हुए आगे बढ़ चलने का उपक्रम किया जा रहा है।

नींद को दो भागों में विभक्त किया गया है-(1) शान्त निद्रा (2)क्रियाशील निद्रा। क्रियाशील निद्रा को वैज्ञानिक भाषा में “रेपिड आई मूवमेन्ट” या “रैम” कहा जाता है। स्वप्न सदैव क्रियाशील निद्रा में ही आते हैं। जैसा कि नाम द्वारा स्पष्ट है, इस अवस्था में आँखों की गतिविधि तीव्र होती है। “इलेक्ट्रॉन एसेफेलोग्राफ”(ई॰ ई॰ जी॰) नामक यन्त्र द्वारा जाना गया है कि क्रियाशील निद्रा की स्थिति में व्यक्ति व्यग्र तथा परेशान रहता है। स्वेद ग्रन्थियाँ अधिक सक्रिय हो जाती है।

सोने के बाद पहला स्वप्न घण्टे भर के बाद ही दिखाई देता है। प्रत्येक व्यक्ति प्रति रात्रि स्वप्न अवश्य देखता है। वे उसे याद रहे अथवा नहीं। स्वप्नों की तीव्रता और आवेग के क्रम से नेत्रों की पुतलियाँ भी घूमती चलती है। सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति हर रात 5-6 स्वप्न औसतन देखता है। एक स्वप्न दर्शन की अवधि में व्यक्ति करवट कभी नहीं बदलता। स्वप्न दर्शन के समय पुतलियों की गतिविधि वैसी ही होती है जैसी कोई फिल्म देखते समय।

आधुनिक स्वप्न शास्त्रियों के अनुसार स्वप्न भी दो तरह के है-सक्रिय (2)निष्क्रिय। सक्रिय स्वप्न वे है जिनमें व्यक्ति स्वयं को किसी कार्य में संलग्न देखता है। निष्क्रिय स्वप्न वे है, जिनमें व्यक्ति दर्शन की तरह स्वप्न दृश्य देखता है स्वयं को कोई क्रिया करते नहीं देखता है इसी स्थिति में व्यक्ति को कभी कभी नूतन विचार प्राप्त हो जाते हैं।

स्वप्न देखते समय जो शक्ति व्यय होती है, वह प्राप्त लाभ की तुलना में अत्यल्प होती है। वस्तुतः स्वप्नों के द्वारा हम अवचेतन के तनावों से मुक्ति पा जाते हैं।

स्वप्न के समय भी मस्तिष्क में ‘अल्फा’ तरंगें क्रियाशील होती है, जो कि जागृत एवं अर्द्ध जागृत दशा में ही चलती है, गहरी निद्रा में नहीं। इससे विदित यही होता है कि स्वप्न दशा जागृति की सर्वथा विरोधी दशा नहीं है। जिसे हम जागृति कहते हैं, वह चेतन मस्तिष्क की सक्रियता की स्थिति है। जब कि स्वप्न अवचेतन की सक्रियता अवधि का नाम है। इस सक्रियता के विभिन्न लाभ एवं उपयोग सम्भव है।

सामान्य दैनन्दिन जीवन में अधिकांश काम जो हम करते हैं, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से वे अर्ध निद्रा की ही स्थिति में सम्पादित होते हैं। अनुमानतः प्रति 1 घण्टे में मात्र 1 मिनट ही सामान्य व्यक्ति कोई ऐसा कार्य करते हैं, जिसके लिए पूर्ण एकाग्रता की आवश्यकता पड़ती हो। सोने के 8 घण्टे निकाल दिए जाये, तो दिन रात में शेष रहे सोलह घण्टों में से हम केवल 16 मिनट के ही लिए सच्चे अर्थों में वतन व जागृत रहते हैं। इसी प्रकार अवचेतन का पूर्ण जागरण भी कभी कभी ही होता है।

नोबेल विजेता प्रो0 एडगर एड्राइन के अनुसार सोने के समय हमारे मस्तिष्क का अवचेतन क्रमशः सक्रिय होता है क्योंकि उस पर से दबाव धीरे धीरे हटता जाता है। चेतन मस्तिष्क जिस क्रम से शिथिल होता चलता है, अवचेतन उसी क्रम से सक्रिय।

सोने के लिए लेटने पर आँखें बन्द करने के बाद मस्तिष्क-तरंगों का कंपन क्रम बदलता है-अपेक्षाकृत हल्के स्वर तरंगित होने लगते हैं। जब दिन भर की घटनाओं पर मस्तिष्क तेजी से दौड़ता है, तो मस्तिष्क तरंगें एक विशेष गति से चलती है। थोड़े उतार चढ़ाव के बाद मस्तिष्क की तरंगें तेजी से थर्राने लगती है, यदि उन्हें ई॰ ई॰ जी0 यन्त्र पर अंकित देखा जाए, तो उनकी प्रति सेकेंड आवर्तता बढ़ चुकी होती है। यह प्रारम्भिक निद्रा की स्थिति है। क्रमशः यन्त्र पर मस्तिष्क तरंगें समतल सी अंकित होने लगती है, यह गहरी निद्रा की स्थिति है।

अचेतन मन की शक्ति असीम है। चेतन बुद्धि संस्थान उसकी तुलना में अत्यन्त तुच्छ है। सोचने, समझने, निष्कर्ष निकालने, कल्पनाएँ करने में बुद्धि संस्थान अपना काम करता है। उसी आधार पर कौशल एवं चातुर्य की उपलब्धियाँ प्राप्त होती है। किन्तु आश्चर्य यह है कि इतने पर भी ठोस और स्थिर कार्य कर सकना इस संस्थान के लिए सम्भव नहीं होता। यहाँ विचारों के आधी तूफान चलते रहते हैं। वे प्रायः विसंगत और कभी कभी परस्पर विरोधी भी होते हैं। ऐसी दशा में मनःस्थिति हवा के झोंकों की तरह उड़ते फिरते रहने वाले पत्ते की तरह होती है। उमंगें पानी के बबूले की तरह उठती, उछलती और बात की बात में ठण्डी होती रहती है। अधिकांश मनुष्यों की यही स्थिति होती है। कई बार वे बड़ी ऊँची ऊँची कल्पनाएँ करते और योजनाएँ बनाते हैं। उत्साह आवेश में कुछ कदम भी आगे बढ़ाते हैं। पर जोश देर तक काम नहीं देता। कुछ ही दिन में शिथिलता आने लगती है और आदर्शवादी योजनाएँ ठप्प हो जाती है। जीवन क्रम पुराने ढर्रे की धुरी पर घूमने लगता है। महत्त्वपूर्ण निर्णयों की प्रायः ऐसी ही दुर्गति होती है। उत्कृष्ट जीवन जीने और महत्त्वपूर्ण काम करने की आकांक्षाएँ अनेकों के मन में अनेकों बार उठती है। पर वह कल्पना बनकर रह जाती है। कारण कि कार्य करने-स्थिरता रखने और निरन्तर प्रेरणा देने को क्षमता का केन्द्र अंतर्मन है। उसका स्तर जिस प्रकार का बन गया होगा उसी पटरी पर जीवन रेल के पहिये लुढ़कते चले जाते हैं।

सिंह जब स्वतन्त्र होता है तो वन का राजा कहलाता है। किन्तु जब वह सरकस वालों के चंगुल में फँस जाता है तो दुर्बल से रिंग मास्टर की उंगली के इशारे पर उसे नाचना पड़ता है। यही स्थिति अंतर्मन की है। बुद्धि जागृत रहने पर यह दवा रह जाता है किन्तु जैसे ही सोते समय जागृत मस्तिष्क प्रसुप्ति अवस्था में जाता है वैसे ही उसे स्वतन्त्रता की साँस लेने का अवसर मिल जाता है और स्वेच्छाचारी क्रीड़ा विनोद करने लगता है। यही स्वप्नावस्था है।

चूँकि उस समय सभी इन्द्रियाँ सोई पड़ी रहती है। इसलिए उनके सहारे जागृत अवस्था की तरह अनुभूतियाँ लेने, देखने, सुनने आदि के बुद्धि संगत एवं वास्तविक अवसर तो मिल पाते किन्तु मस्तिष्क क्षेत्र में जो असंख्य कल्पना चित्र छिपे पड़े रहते हैं उनको खिलौना बनाकर अंतर्मन अपनी बाल क्रीड़ा आरम्भ कर देता है। विगत दृश्यों, घटनाओं, स्मृतियों एवं जानकारियों को रंग-बिरंगी गेंदें कहा जा सकता है। खेल इन्हीं की उठक पटक से शुरू होता है और स्वप्नों का सिनेमा दीखना शुरू हो जाता है। उस स्थिति में अंतर्मन निर्भय और निश्चिन्त होकर जो कुछ कर रहा होता है उसे स्वप्न स्थिति समझना चाहिए। अस्तु इस मुफ्त की फिल्मों का विश्लेषण करते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यक्तित्व के अंतरतम स्थल पर क्या कुछ बन या पक रहा हैं। यह जानकारी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उससे रोग परीक्षा में रक्त, मल, मूत्र आदि का विश्लेषण करके निदान करने की तरह चेतना की परतों के सम्बन्ध में भी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। तद्नुरूप आत्म परिष्कार की उपयुक्त पृष्ठभूमि बनाई जा सकती है। शक्ति का केन्द्र अंतर्मन है। वही समूचे व्यक्तित्व का संचालन करता है। यदि स्वप्नों के आधार पर आन्तरिक दुर्बलताओं और क्षमताओं की वर्तमान स्थिति जानी जा सके तो परिशोधन और उन्नयन का द्वार खुल सकता है। इस प्रकार स्वप्न विज्ञान के आधार पर वही लाभ उठाया जा सकता है जो स्वास्थ्य विज्ञान एवं चिकित्सा शास्त्र के आधार पर शरीर की दुर्बलता एवं रुग्णता हटाने के लिए होता रहता है।

रूसी स्वप्न शास्त्री डाक्टर वासिली ने विभिन्न प्रयोगों तथा अध्ययनों के बाद यह पाया है कि हमारे मस्तिष्क में, शरीर में घटने वाली सूक्ष्मतम क्रियाओं को भी जान लेने की सामर्थ्य विद्यमान है। परिवेश और परिस्थितियों की सूक्ष्मता से छानबीन कर वह हमें भारी दुर्घटनाओं-दुःखों से बच सकने के उपाय भी सुझाता है। मस्तिष्क द्वारा स्वप्न में प्रतीकों द्वारा ऐसे उपायों का संकेत किया जाता है। ये संकेत अवचेतन मस्तिष्क द्वारा दिए जाते हैं।

मन का 88 प्रतिशत हिस्सा अवचेतन होता है और मात्र बारह प्रतिशत ही चेतन। चेतन मन भी पूर्ण चेतना के साथ हममें सामान्यतः क्रियाशील नहीं रहता और सामान्यतः व्यक्ति अपने अधिकांश क्रिया कलाप अर्धमूर्छित स्थिति में करते हैं। तब अवचेतन मन की क्रियाओं का ज्ञान भला कैसे हो ?

हमें ज्ञान भले न हो, पर अवचेतन अपना कर्तव्य निभाता है और स्वप्न प्रतीकों द्वारा हम तक अपनी जानकारी सम्प्रेषित करता रहता है। अवचेतन हमारा उदार गुरु है, निर्देशक है।

अनुभवी चिकित्सकों का यह कहना है कि सदी, ज्वर, नजला जुकाम, फोड़े फुंसी जैसे शारीरिक विक्षोभों विकारों की सूचना एक दो रात पूर्व ही रोगी को सपनों द्वारा मिल जाती है। अधिक गम्भीर रोगों जैसे मिरगी, संग्रहणी आदि का पूर्वाभास स्वप्न प्रतीकों द्वारा एक डेढ़ सप्ताह पूर्व ही हो जाता है। तपेदिक, कैंसर जैसे जटिल रोगों के आगमन का पूर्व संकेत तो दो तीन माह पूर्व ही स्वप्नों द्वारा मिल जाता है। पर सामान्यतः रोगी या तो इन प्रतीकों संकेतों को समझ नहीं पाता या इनमें निहित चेतावनियों को भूला देता है।

रोग सम्बन्धी स्वप्न डरावने होते हैं। किन्तु जिस शारीरिक अवयव से सम्बन्धित रोग हो उसी अंग से सम्बन्धित स्वप्न होते हैं। जैसे आँतों के किसी रोग की सूचना-स्वप्न में कच्चा या सड़ा गला भोजन दिखाई पड़ सकता है। किसी श्वास रोग के रोगी को डूबते समय या कि पर्वत पर चढ़ते समय साँस फूल जाने का स्वप्न दृश्य दिख सकता है।

ये तो हुई शारीरिक रोगों की बातें मानसिक रोग तो पूरी तरह मन के विकार मात्र होते हैं। अतः इनका स्वप्नों द्वारा ज्ञान तो हो ही सकता है, उनकी चिकित्सा भी मुख्यतः इसी जानकारी के आधार पर होती है। मनोरोगी को मनोचिकित्सक उसके स्वप्नों की व्याख्या द्वारा ही मानसिक विकृति का स्वरूप समझा देते हैं तथा उसके आधार की भी विवेचना कर देते हैं। रोगी को जब यह ज्ञात हो जाता है कि मेरा यह रोग तो स्वयं मेरी विचार विकृतियों का ही परिणाम है, तो फिर प्रयास पूर्वक उसे रोग मुक्त होने में अधिक समय नहीं लगता।

सामान्यतः व्यक्ति तनाव की दशा में जीते हैं और विक्षुब्ध- विभ्रान्त चित्त स्थिति में अपनी मानसिक क्रियाओं के प्रति जागरूक नहीं रह पाते। तनाव की इस दशा में अवचेतन के विश्लेषण का प्रयास आत्मबल ही सिद्ध होगा। क्योंकि अवचेतन की क्रिया तो इससे सर्वथा विपरीत है। तनावों दबावों से मुक्ति दिलाने में ही तो अवचेतन की धन्यता है। जब हम अपने ही मनस्ताप से श्रान्त क्लान्त हो उठते हैं, तब अवचेतन का विशाल वट वृक्ष हमें अपनी शीतल स्निग्ध छाया में समेट कर, थपकियाँ देकर सुला देता है।

सचेतन मस्तिष्क पर लगने वाले बौद्धिक सम्वेदनात्मक आघातों के लिए गहरी निद्रा और स्वप्न शृंखलाएं मर हम का कार्य करती है, क्योंकि स्वप्नों में अवचेतन क्रियाशील होकर चेतन को विश्राम का अवसर दे देता है और समुचित विश्राम के बाद चेतन मस्तिष्क पुनः स्फूर्ति युक्त हो उठता है।

जिन्हें गहरी नींद नहीं आती और चेतन मस्तिष्क का अवचेतन पर से दबाव नहीं हटता और उनके अवचेतन को उन्मुक्त क्रीडा का जब समय नहीं मिल पाता, तो यह स्फूर्ति उपलब्ध नहीं हो पाती। तब चेतन मस्तिष्क तनावों दबावों के असह्य भार से कुन्द और अस्वस्थ होने लगता है, अवचेतन अपने प्रभाव के प्रदर्शन के लिए आकुल हो उठता है और नींद में मौका पाते ही श्रान्त शिथिल चेतन मस्तिष्क को एक कोने में बैठाकर स्वयं प्रभुत्व जमा बैठता है। जब अवचेतन नींद में इस अस्वस्थ रीति से प्रभावशाली हो उठता है, तो वह “निद्रा भ्रमण” नामक रोग को जन्म देता है। यह एक गम्भीर रोग है। इंग्लैंड के गुप्तचर विभाग स्काटलैंड यार्ड के एक अधिकारी को यह रोग हो गया था, परिणामस्वरूप वे स्वप्न दशा में एक विशेष रीति से हत्या कर आते और जागने पर स्वयं इस तथ्य से सर्वथा अनभिज्ञ रहते। उनके द्वारा की गई हत्याओं की जाँच का काम भी उन्हें ही सौंप दिया गया और उन्हें ज्ञात ही नहीं हो सका कि वे अपने अपराधों की खोज ही कर रहे थे। उनके साथियों ने जो इस खोज में सहयोगी थे, उनने उन्हें पकड़ा, तब मानस शास्त्रियों के परीक्षण से यह ज्ञात हुआ कि अधिकारी महोदय निद्रा भ्रमण रोग से ग्रस्त है।

इसी रोग से ग्रस्त आस्ट्रेलिया की एक प्रौढ़ महिला ने स्वप्न दशा में अपनी 19 वर्षीया पुत्री की हत्या कर दी थी। ऐसे ऐसे निद्राचारी व्यक्ति भी हुए हैं जो सोने के बाद स्वप्न दशा में ही जागृति की अनुभूति कर घर से नदी तट पहुँचते, बँधी नाव खोलते, रात भर नाव खेते हुए किसी तूफानी नदी को पार करते और स्वप्न टूटने पर प्रातः स्वयं ही विस्मित हो उठते कि उन्हें वहां कौन छोड़ गया। जगने पर उन्हें कभी भी यह ज्ञात न होता कि स्वप्न में उन्होंने क्या क्या किया है ? दक्षिण भारत के एक गाँव की एक नव वधू रात सोने के बाद, स्वप्न दशा में ही ससुराल से चलकर मायके पहुँच जाती थी। मानस शास्त्रियों के अनुसार निद्राचारी व्यक्तियों का अवचेतन मन उस समय अर्धचेतन होता है। कुछ निद्राचारियों की आँखें भ्रमण के समय खुली रहती हैं, तो कुछ की आँखें बन्द रहती है और वे उस स्थिति में ही जागृत दशा की तरह कार्य करते हैं।

नेत्र बन्द रखते हुए भी जागृत दशा की तरह चल फिर सकने और कार्य सम्पादित कर सकने की क्षमता से अवचेतन की सामर्थ्य का पता चलता है।

वस्तुतः हममें से अधिकांश व्यक्ति अपने अपने ढंग के निद्राचारी होते हैं। ऐसे काम करते रहते हैं, जिनके लिए विवेक जागृत होने की स्थिति में भारी पश्चाताप होता है और लज्जा आती है। यह स्थिति कुछ समय तो रहती है, पर फिर वह विवेक सो जाता है और पुरानी आदतें खुल खेलने लगती है। नशेबाज दिन में कई बार अपनी आदत से होने वाली हानियों पर सोचते और दुःखी होते हैं किन्तु फिर जब भूत बवण्डर भीतर से उठता है तो पैर सीधे मद्यगृह तक चलते ही चले जाते हैं और जी भर कर पी लेने पर ही चैन पड़ता है। यही बात अन्य दुष्प्रवृत्तियों के बारे में है। यह निद्राचार नहीं तो और क्या है? विवेक के प्रतिकूल होने वाली सभी कार्य इसी श्रेणी में आते हैं।

प्रायः स्वप्न किसी अन्य लोक के भेजे गये उपहार नहीं, वरन् अपनी ही वर्तमान एवं भूतकालीन स्थिति के परिचायक होते हैं। कई बार तो तात्कालिक शारीरिक अनुभूतियों एवं निकटवर्ती परिस्थितियों का ही भला बुरा प्रभाव स्वप्नों की सृष्टि कर देता है। कई बार ऐसा भी होता है कि भूतकाल की स्मृतियों अथवा भविष्य की सम्भावनाओं का आभास उनके द्वारा मिले।

स्वप्नों पर आस पास के वातावरण का, जिनमें व्यक्ति की दैहिक स्थिति भी सम्मिलित है, स्पष्ट प्रभाव इस तथ्य का परिचायक है कि उस समय हमारा सशक्त अवचेतन सक्रिय रहता है तथा वह अपने संस्कारों के अनुरूप उनकी अनुभूति करता है। यदि आहार ज्यादा कर लिया गया हो तो आमाशय एवं मस्तिष्क अधिक रक्त प्रवाह उत्तेजित रहते हैं। यह उत्तेजना स्वप्नों के रूप में व्यक्त होती है और स्वप्नों का स्वरूप व्यक्ति मन के ढाँचे के अनुसार भिन्न भिन्न होता है।

दो महिलाओं के सोते समय एक प्रयोग के अधीन पैर के पास गर्म मोमबत्ती ले जाई गई। एक ने स्वप्न में देखा कि वह तपते रेगिस्तान में सहसा आ पड़ी है, दूसरी ने स्वप्न देखा कि उसका पैर झुलस रहा है।

एक अन्य प्रयोग में कई व्यक्तियों की हथेलियों को रुई से सहलाया गया। फलस्वरूप स्वप्न में किसी ने देखा कि वह अपनी प्रेमिका का शरीर सहला रहा है तो दूसरे ने देखा कि वह मालिश करवा रहा है, तीसरे ने देखा कि वह स्केटिंग कर रहा है यानी बर्फ पर फिसल रहा है, चौथे ने देखा कि उसके शरीर से एक झबरी बिल्ली अपनी देह रगड़ रही है। एक अन्य प्रयोग में एक ही व्यक्ति के हाथ में दो बार अन्तराल से मोमबत्ती रखने पर पहली बार हाकी स्टिक से खेलने काक, दूसरी बार मुगदर घुमाने का स्वप्न देखा। स्पष्ट है कि अवचेतन का कौन सा तार कब झंकृत हो उठा है, यही स्वप्न दृश्यों का आधार बनता है। स्वप्न स्थिति में भी व्यक्ति मन का बाह्य जगत से संपर्क बना रहता है। यह मन चेतन न होकर अवचेतन होता है।

स्वप्न देखे जाते हैं और देखने के लिए चित्रों, प्रतिमाओं, दृश्यों की विधि ही हम अपनाते हैं। हम जो भी देखते, सुनते, बोलते, छूते, सूँघते हैं, उसकी हमारे मस्तिष्क में दृष्टि, श्रवण, स्पर्श तथा गन्ध प्रतिमान बनती और संचित होती रहती है। स्वाद विशेष की स्वाद प्रतिमाएँ और पीड़ा आदि भाव सम्वेदनाओं की भी संवेदन प्रतिमाएँ मस्तिष्क में अंकित संस्कारित होती रहती है। दृश्यात्मक स्वप्न में यही प्रतिमाएँ और प्रतीक चित्रवत् दिखाई पड़ते हैं।

चित्त तल पर यदि उथल पुथल जारी रही तो इन प्रतीकों को समझ पाना सम्भव नहीं होता। अशान्त चित्त दशा में तो व्यक्ति का दिन भी विवश गति चक्र में बँधा सा व्यतीत हो जाता है और क्रिया कलापों की विवेचना का उसे अवसर ही नहीं रहता तथा स्पष्ट स्मृति भी नहीं रहती। ऐसे में स्वप्नों की स्मृति अत्यल्प ही रहे, यह स्वाभाविक ही है।

स्वप्नावस्था में नेत्र, नासिका, कर्ण, रसना आदि सचेतन ज्ञानेन्द्रियाँ निष्क्रिय रहती है। क्योंकि हमारा सचेतन मन उस समय दन्ता रहता है। किन्तु इन इन्द्रियों पर वातावरण के जो प्रभाव पड़ते हैं, उन्हें अवचेतन मन अनुभव करता-जानता रहता है। इसीलिए मोमबत्ती या रुई छुआने कान के पास तीव्र ध्वनि करने आदि का निश्चित प्रभाव उस समय के स्वप्नों पर पड़ता है। स्वप्नों के समय सक्रिय चित्त तल का जितना अंश चेतन भाग को छूता रहता है, उतने अंश में शारीरिक प्रतिक्रियाएँ भी होती है जैसे हँसना, रोना, बड़बड़ाना, मुट्ठियों का खुलना, भिंचना, करवटें बदलना आदि। स्वप्न जब पूर्णतः अवचेतन की अनुभूतियों से सम्बन्धित होते हैं, उस समय व्यक्ति की देह शिथिल, शान्त पड़ी रहती है व्यक्ति विशेष या कि सम्पूर्ण मानव जाति के अतीत अथवा भविष्य के परिचायक स्वप्न व्यक्ति को सदा ऐसी ही स्थिति में आते हैं। यह स्थिति उसी प्रकार विरल होती है जैसे हमारे दैनन्दिन जीवन क्रम में चेतन मन की जागृति विरल ही होती है।

सात्विक आचरण द्वारा व्यक्ति का चेतना स्तर ज्यों ज्यों बढ़ता है, उसका अवचेतन भी उसी रूप में प्रखर एवं उत्कृष्ट बनता जाता है। सामान्यतः तो हम मूर्च्छना की ही स्थिति में जीवन व्यतीत कर देते हैं। नर वानर की इस चित्त दशा में अवचेतन की अठखेलियों का अर्थ भी समझ में नहीं आ पाता और स्वप्न संकेत व्यर्थ चले जाते हैं।

यदि स्वप्न विज्ञान पर शास्त्रीय ढंग से विचार किया जाय और उनके आधार पर मिलने वाली जानकारियों के सहारे आन्तरिक स्तर को सुधारने, संभालने का प्रयत्न किया जाय तो यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। उसे शारीरिक स्वास्थ्य सुधार एवं संवर्द्धन में भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है क्योंकि शरीर से मस्तिष्क की क्षमता अधिक है। मस्तिष्क में भी शक्ति केन्द्र अंतर्मन है। स्वप्न हमें उसी क्षेत्र का परिचय देते हैं और चेतनात्मक परिष्कार का द्वार खोलते हैं।


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