अपनों से अपनी बात

July 1977

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अपने 70 वर्ष के जीवन की सबसे बड़ी कमाई यह है कि संपर्क सौजन्य एवं भाव भरे आदान प्रदान के आधार पर एक लाख प्राणवान परिजनों का परिवार हमारे व्यक्तित्व के साथ जुड़ गया है। इसी परिवार की सक्रियता ने युग निर्माण की प्रवृत्तियों को इस स्तर तक व्यापक बनाया है कि उन्हें देखते हुए सर्वत्र एक स्वर से नव निर्माण की संभावनाओं को सुनिश्चित माना जाने लगा है। समूची मानवता का भविष्य उज्ज्वल बनाने वाले युग परिवर्तन में हमें अपने प्रतिभावान परिवार की कर्मठता पर भारी विश्वास है। इसी सहकार के आधार पर हमने मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न साकार करने का संकल्प किया है। यह विश्वास दिन दिन सुदृढ़ होता जाता है कि किसी समय जिसे उपहासास्पद और असम्भव सनक कहा जाता रहा, अब वह सुनिश्चित तथ्य ही बनकर रहेगा।

युग निर्माण परिवार यों चल तो बहुत समय से रहा था, पर उसके अनेकों मणि माणिक-कमल परिजात ऐसे ही लुके छिपे पड़े थे। अब इनमें से प्रत्येक को सजग,सुगठित,समुन्नत और सक्रिय बनाने का निश्चय किया गया है। अब तक जिज्ञासाओं का समाधान ही करते बन पड़ा। क्रियाशीलों को प्रोत्साहन भर दिया। अब निष्क्रियता का सक्रियता में परिणित करने का विचार है जो प्रतिभाएँ अब तक हमारे विचारों के प्रति श्रद्धा रखने तक सीमित रही हैं, अब उन्हें कन्धे से कन्धा और कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए कहा जायेगा। पुनर्गठन का यही प्रधान उद्देश्य है।

प्रस्तुत परिजनों की मन स्थिति एवं परिस्थिति का उतना परिचय विदित नहीं किया गया है जितना कि कौटुम्बिक कर्तव्यों के निर्वाह के लिए आवश्यक था। अब उस कमी की पूर्ति की जा रही है जीवन का जो थोड़ा समय शेष है उसमें हम अपने स्नेही स्वजनों को उस मिशन को सफल बनाने के लिए अनुरोध करेंगे जिसे एक शब्द में हमारा जीवन सत्य कहा जा सकता है।

गुरुपूर्णिमा के पवित्र पर्व पर अपने परिवार का पुनर्गठन आवश्यक समझा। उसके लिए हमारे मार्ग दर्शक का सन्देश मिला है। आशा की जानी चाहिए कि इस पुनर्गठन के दूरगामी परिणाम होंगे। उत्कृष्टता के उभार और सक्रियता के प्रवाह में इस पुनर्गठन से उत्साहवर्धक प्रगति होने की सम्भावना सोची गई है तो उसके लिए प्रस्तुत कदम उठाये जा रहे हैं।

शरीर नहीं चेतना के सम्बन्धी चाहिए-

अब हम युग निर्माण परिवार का प्रारम्भिक सदस्य उन्हें मानेंगे जिनमें मिशन की विचारधारा के प्रति आस्था उत्पन्न हो गई है, जो उसका मूल्य महत्व समझते हैं, उसके लिए जिनके मन में उत्सुकता एवं आतुरता रहती है। जिनमें यह उत्सुकता उत्पन्न न हुई हो उनका हमसे व्यक्तिगत सम्बन्ध परिचय भर माना जा सकता है, मिशन के साथ उन्हें सम्बन्ध नहीं माना जायेगा।

यहाँ इन दो बातों का अन्तर स्पष्ट समझ लिया जाना चाहिए कि हमारा व्यक्तिगत परिचय एक बात है और मिशन के साथ सम्बन्ध दूसरी। व्यक्तिगत परिचय को शरीरगत संपर्क कहा जा सकता है और मिशन के प्रति घनिष्ठता को हमारे प्राणों के साथ लिपटना। शरीर संबंधी तो नाते रिश्तेदारों से लेकर भवन निर्माण, प्रेस, खरीद फरोख्त आदि के सिलसिले में हमारे संपर्क में आने वाले ढेरों व्यक्ति हैं। वे भी अपने संपर्क का गौरव अनुभव करते हैं। किन्तु हमारे अन्तःकरण का हमारी आकांक्षाओं एवं प्रवृत्तियों का न तो उन्हें परिचय ही है और न उस नाते, सम्बन्ध सहयोग ही है। उसी श्रेणी में उन्हें भी गिना जायेगा जिन्होंने कभी गुरु दीक्षा अथवा भेंट वार्तालाप के नाते सामयिक संपर्क बनाया था। इस बहिरंग शरीरगत संपर्क को भी झुठलाया नहीं जा सकता। उनके स्नेह, सद्भाव के लिए हमारे मन में स्वभावतः जीवन भर कृतज्ञता एवं आभार के भाव बने रहेंगे। किन्तु जो हमारे अन्तःकरण को भी छू सके हैं, छू सकते हैं, उनकी तलाश हमें सदा से रही है, रहेगी भी।

यदि किसी को हमारा वास्तविक परिचय प्राप्त करना हो तो नवयुग के प्रतीक प्रतिनिधि के रूप में ही हमारे समूचे जीवन का-समूचे व्यक्तिगत का मूल्यांकन करना चाहिए। हमारे रोम रोम में चेतना के रूप में बसा हुआ भगवान यह रास रचाए हुए हैं। पन्द्रह वर्ष की आयु में अपना जीवन जिस भगवान-जिस सद्गुरु को समर्पित किया था, वह शरीर सत्ता नहीं, वरन् युग चेतना की ज्वलन्त ज्वाला ही कही जा सकती है। उसके प्रभाव से हम जो कुछ भी सोचते और करते हैं उसे असंदिग्ध रूप से भजन कहा जा सकता है। यह भजन मानवी आदर्शों को पुनर्जीवित करने का विविध प्रयोगों के रूप में समझा जा सकता है। हमारी दैनिक उपासना भी इसी का एक अंग है। उसके माध्यम से हम अपनी सामर्थ्य पर-अन्तरात्मा पर प्रखरता की धार रखते हैं, इसलिए उसे साधना भर कहा जायेगा। साध्य तो वह भगवान है,

जिसकी झाँकी स्थूल शरीर में सत्कर्म, सूक्ष्म शरीर में सद्ज्ञान एवं कारण शरीर में सद्भाव के रूप में भासित होती है। एक वाक्य में कहना हो तो हमारा प्राण स्पंदन और मिशन, एक ही कहा जा सकता है। इस तथ्य के आधार पर जिनकी मिशन की विचारधारा के प्रति जितनी निष्ठा और तत्परता है, उन्हें हम अपने प्राण जीवन का उतना ही घना सम्बन्धी मानते हैं। भले ही वे व्यक्तिगत रूप से हमारे शरीरगत संपर्क में कभी न आये हों, हमारी आशा भरी दृष्टि उन्हीं पर जा टिकती है।

उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर हम युग निर्माण परिवार का पुनर्गठन कर रहे हैं। हम हर माह आत्ममंथन से जो कुछ उपार्जित करते हैं, उसे भाव भरे नवनीत की तरह स्वजनों को बाँटते हैं। यह वितरण नियमित रूप से मिशन की पत्रिकाओं के माध्यम से किया जाता है। जिन्हें यह रुचिकर लगता है, जो उत्सुकतापूर्वक उसकी प्रतीक्षा करते हैं, उन्हें हम अपने सुख दुःख-दर्द सम्वेदना का साथी-सहभागी मानते हैं। आज वह चेतना जहाँ उत्सुकता के रूप में है, वहाँ कल तत्परता भी उत्पन्न होकर रहेगी, ऐसी आशा करना निरर्थक नहीं-तथ्यपूर्ण है। आज जो हमारी सम्वेदनाओं में सम्मिलित हैं कल वे हमारे कदम से कदम और कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने का भी साहस करेंगे, इस आशा का दीपक हम मरण के दिन तक सँजोये ही रहेंगे।

पुनर्गठन का स्वरूप-

निर्णय किया गया है कि जो नियमित रूप से इस विचारधारा के संपर्क में रहने के लिए आतुर रहते हैं, समय पर यह आहार न मिलने से बेचैनी अनुभव करते हैं और तलाश के लिए हाथ पैर पीटते हैं, उन सबको परिजन सदस्य मानेंगे। नये नामांकन उन्हीं के होंगे और उन्हीं के व्यक्तिगत परिचय सुरक्षित रजिस्टर में नोट किये जावेंगे। इन परिचयों के आधार पर उनकी स्थिति समझना एवं विचारों का आवश्यक आदान प्रदान भी सम्भव हो सकेगा।

कर्मठ कार्यकर्ताओं की श्रेणी इससे ऊँची है। उन्हें व्रतधारी कह सकते हैं। न्यूनतम एक घण्टा समय और दस पैसा प्रतिदिन ज्ञान यज्ञ के लिए जो लगाते हैं उनकी श्रद्धा ने कर्मक्षेत्र में प्रवेश पा लिया ऐसा माना जा सकता है।

संक्षेप में भविष्य के युग निर्माण परिवार में तीन प्रकार के परिजन होंगे-१-सहयोगी समर्थक स्नेही परिचित(2)पत्रिकाओं के सदस्य नियमित पाठक एवं सुनने वाले(3) अंशदान प्रस्तुत करके मिशन की सक्रिय सहायता करने वाले। इन तीनों में से सहयोगी श्रेणी का नामांकन स्थानीय शाखाओं में ही नोट रहेगा। इनका पंजीकरण हमारे लिए सम्भवं नहीं। इनकी संख्या तो लाखों की संख्या पार करके करोड़ों तक पहुँचेगी। शान्तिकुञ्ज एवं गायत्री तपोभूमि में(1)पत्रिकाओं के नियमित सदस्यों, पाठकों का तथा(2)अंशदान करने वाले व्रतधारी कर्मनिष्ठों का ही रिकार्ड रहेगा। इन दोनों को मिलाकर स्थानीय संगठन की इकाइयाँ बना दी जायेगी। परिवार का पुनर्गठन इसी आधार पर होगा। विभिन्न प्रकार के आदान प्रदानों की शृंखला इसी परिवार के बीच चलेगी। मिशन के भविष्य का उत्तरदायित्व इन्हीं प्राणवान परिजनों के कन्धे पर डाला जायेगा। इस हस्तान्तरण के उपरान्त ही हम अपनी निकटवर्ती विदाई के लिए शान्तिपूर्वक महाप्रयाण कर सकेंगे।

पुनर्गठन की योजना यह है कि जहाँ श्री अखण्ड ज्योति, युग निर्माण, महिला जागृति आदि मिशन की पत्रिकाओं के न्यूनतम 10 सदस्य हैं, वहाँ उनका एक युग निर्माण परिवार गठित कर दिया जाय। इसी दृष्टि से पत्रिकाओं के सदस्यों का सर्वेक्षण प्रारम्भ भी कर दिया गया है। संख्या को महत्व न देकर हमें स्तर की गरिमा स्वीकार करनी होगी। अस्तु विचार है कि जो मिशन का स्वरूप ठीक तरह समझते हैं और सही दिशा में कदम बढ़ाने के लिए सहमत हैं, उन्हें ही साथ लेकर चला जाय।

उत्तरदायित्व समझें और निवाहें-

पुनर्गठन के साथ साथ सदस्यों को कुछ निश्चित उत्तरदायित्व सौंपे गये है। पत्रिकाएँ मँगाने वालों से अनुरोध किया गया है कि वे

उन्हें स्वयं तो ध्यान से पढ़े ही, साथ ही दस नहीं तो न्यूनतम पाँच अन्य व्यक्तियों को भी पढ़ाने या सुनाने का भाव भरा श्रमदान तो करते ही रहें। हर सदस्य ज्ञान यज्ञ में इतना तो योगदान करे ही,

ताकि हर अंक से कई व्यक्ति लाभ उठायें और मिशन का सन्देश अधिक क्षेत्र में फैलता चला जाय।

जो अंशदान करने का व्रत ले चुके है, उन्हें न्यूनतम 10 पैसा एवं एक घण्टा समय नित्य बचाकर मिशन के प्रसार में लगाना चाहिए। अपने संपर्क क्षेत्र में झोला पुस्तकालय चलाना इसका सर्वश्रेष्ठ ढंग है। विचारशील व्यक्तियों की सूची तैयार कर ली जाय। किस दिन किस के यहाँ जाना है ? यह क्रम बना लिया जाय। ज्ञान घट के संचित धन से मिशन का साहित्य खरीदा जाय, पुरानी पत्रिकाओं पर कवर लगाकर उनका भी उपयोग किया जाय।

इतने से ही घर घर ज्ञान सिंचन का क्रम चल सकता है। घर बैठे, बिना मूल्य नव जीवन देने वाली ज्ञान गंगा का लाभ भला कौन न उठायेगा ? जरूरत इतनी भर है कि साहित्य जबरदस्ती थोपा न जाय, उसका महत्व समझाते हुए, पाठक की रुचि जगाते हुए उसे पढ़ने का अनुरोध किया जाय। जैसे जैसे रुचि बढ़े वैसे वैसे अधिक महत्त्वपूर्ण साहित्य देने का सिलसिला चलाया जाय।

संपर्क क्षेत्र में झोला पुस्तकालय चलाने के लिए बहुत समय से आग्रह किया जाता रहा है। जिनने नव निर्माण की विचारधारा का महत्व समझा वे आलस्य, प्रमाद के संकीर्ण अहंकार को आड़े नहीं आने देते वरन् इस परमार्थ में तत्पर रहते हुए आत्म गौरव एवं आन्तरिक सन्तोष का अनुभव करते हैं। ज्ञान के कर्म में परिणत होने का यह प्रथम चरण है कि ज्ञान यज्ञ को-विचार क्रांति को समर्थ बनाने के लिए अपने समय एवं साधन का नियमित अनुदान प्रस्तुत करते रहा जाय। झोला पुस्तकालय चलाने के लिए ज्ञान घट की स्थापना और एक घण्टा समय तथा दस पैसा नित्य का अनुदान देना, देखने में कितना ही सरल एवं स्वल्प क्यों न हो, पर हमारे सन्तोष के लिए उतना भी बहुत है। ऐसे व्रतधारी कर्मनिष्ठ परिजनों से आज नहीं तो कल हम बड़ी बड़ी आशाएँ करना आरम्भ कर सकते हैं। उनका दर्जा स्वभावतः ऊँचा है। मात्र ज्ञान का शुभारम्भ है। कर्म के साथ संयुक्त हो जाने पर उस बीज को वृक्ष बनाने का आश्वासन देने वाला अंकुर कह सकने में हमें किसी प्रकार का संकोच नहीं है।

दस पैसा और एक घण्टे की न्यूनतम शर्त भावनापूर्वक पूरी करने वालों का स्तर निश्चित रूप से विकसित होता चलेगा। अपने अन्दर बढ़ते हुए देवत्व की प्रखरता के आधार पर वे दिव्य प्रयोजन के लिए क्रमशः बड़े अनुदान प्रस्तुत करने का गौरव प्राप्त कर सकेंगे। माह में एक दिन की आय तथा प्रतिदिन 4 घण्टे का समय देना और अन्ततः कर्मयोगी वानप्रस्थ के स्तर तक पहुँच जाना उन्हीं के लिए सम्भव हो सकेगा।

संगठित परिवार की विधि व्यवस्था-

नयी व्यवस्था के अनुसार जहाँ भी कम से कम 10 सदस्य सूत्रबद्ध हो सके वहाँ परिवार शाखा की स्थापना की जानी चाहिए तथा उसकी समुचित व्यवस्था बनाई जानी चाहिए-

अपनी श्रद्धा एवं तत्परता के आधार पर अंशदानी व्रतधारी परिजन, वरिष्ठ सदस्य कहे जावेंगे उन्हीं में से न्यूनतम पाँच एवं अधिकतम दस सदस्यों की एक कार्यकारिणी समिति बनायी जायेगी। उन्हीं में से एक को कार्यवाहक नियुक्त कर दिया जाय। सबसे योग्य व्यक्ति ही कार्यवाहक बने यह आवश्यक नहीं। जो पर्याप्त समय दे सके तथा सबसे संपर्क सूत्र बनाये रख सके, ऐसे ही किसी प्रामाणिक कर्मठ सदस्य को कार्यवाहक मान लिया जाय। अन्य वरिष्ठ सदस्य उसे सहयोग एवं मार्ग दर्शन देते रहे। बड़े स्थानों पर जहाँ एक ही व्यक्ति को संपर्क सूत्र बिठाने में कठिनाई होती हो, वहां एक से अधिक कार्यवाहक भी नियुक्त किए जा सकते हैं।

जहाँ परिवार शाखा में सदस्यों की संख्या अधिक हो वहाँ उन्हें कई टोलियों में बाट लेना चाहिए। टोलियाँ दस से बीस व्यक्तियों तक की रहे। हर टोली किसी सुनिश्चित क्षेत्र एवं सुनिश्चित कार्यों का उत्तरदायित्व सँभालें। महिला जागरण के लिए महिलाओं की टोलियाँ भी बनाई जाये। महिला जागरण भी युग निर्माण परिवार के कार्यों का ही एक अंग है, अतः हर परिवार शाखा का इसके लिए भी कटिबद्ध होना ही चाहिए। महिलाओं में महिलाएँ ही ठीक से कार्य कर सकती है। इसलिए महिला टोलियों का गठन तथा महिला कार्यवाहिका की नियुक्ति भी की जानी चाहिए।

कार्यवाहक-कार्यवाहिका की नियुक्ति मथुरा से कराई जाय। कभी परिवर्तन की आवश्यकता हो तो किसी केन्द्रीय प्रतिनिधि की उपस्थिति में यह कार्य सहज भाव से कर लिया जाय। अपने संगठनों को चुनाव के झंझट एवं पदलोलुपता के विष से बचाना आवश्यक है। सारे कार्य परिवार भाव से चलाये जाने चाहिए। परिवार शब्द हमें अत्यन्त प्रिय है। उसमें वे सभी विशेषताएँ जुड़ी हुई है जो इस धरती पर स्वर्ग के अवतरण के लिए आवश्यक है। हम सदैव से परिवार संस्था की गरिमा बखानते रहे हैं। आदर्श परिवार, व्यक्तित्व निर्माण की पाठशाला एवं नररत्नों की खदान सिद्ध हो सकते हैं। व्यक्ति ओर समाज को जोड़ने वाली शृंखला भी यही है। स्वस्थ पारिवारिक भावना जितनी व्यापक होती जाएगी, उसी अनुपात से मनुष्यों के बीच आत्मीयता एवं सहकारिता बढ़ेगी और उदार आदान प्रदान का पथ प्रशस्त होगा।

आदर्श परिवार वही है जिसके सदस्य एक दूसरे का हित साधन ही अपना सर्वोत्तम स्वार्थ समझते हो तथा अधिकार छोड़ने एवं कर्तव्य पालन के लिए तत्पर रहते हो। यह दिव्य वृत्तियाँ परिवारों में ही विकसित हो सकती है। आरम्भिक अभ्यास, व्यक्तिगत परिवार की छोटी व्यायामशाला में भी किया जा सकता है। किन्तु मात्र इतना ही पर्याप्त नहीं। वंश परिवार को विश्व परिवार के रूप में विकसित करना होगा। वसुधैव कुटुम्बकम् के आदर्श जब व्यवहार में उतरेंगे तभी सतयुग का पुनरागमन होगा। पारिवारिकता की भावना का उत्थान अभ्युदय ही समाज निर्माण का, विश्व शान्ति का, मानवी उज्ज्वल भविष्य का एकमात्र आधार है।

परिवार शब्द हमारी नस नस में उत्साह भर देता है। उसका निखरा हुआ स्वरूप कही भी बनता दिखे, तो आँखें चमकने लगती है। गायत्री परिवार, युग निर्माण परिवार, नामकरण हम इसी दृष्टि से करते रहे हैं। इस नामकरण के साथ ही हम वह भाव भी पिरो देना चाहते हैं, जो हमें पुलकित करता रहता है। हम अपने पीछे ऋषि परम्परा के अनुकूल एक आदर्श परिवार छोड़ जाना चाहते हैं। इसलिए उसके सदस्यों में ऐसे लोगों को ही सम्मिलित करना चाहते हैं, जिनमें उर्वरता के व उत्कृष्टता के, जीवन और जागृति के कुछ चिन्ह पहले से ही विद्यमान हो, इन मौलिक गुणों के चिन्ह जहाँ होगे, वहाँ अपने परिश्रम का भी कुछ परिणाम निकलेगा। इन दिनों, इस गुरु पूर्णिमा पर हम अपने परिवार का पुनर्जीवन इसी दृष्टि से कर रहे हैं। उनके विकास तथा पुष्टि के लिये कुछ सुगम किन्तु प्रभावशाली कार्यक्रम नियमित रूप से अपनाने का आग्रह भी किया गया है।

जन्म दिन मनाने की परिपाटी-

युग निर्माण परिवार के सदस्यों में प्रेम परिचय बढ़े। घनिष्ठता स्थापित हो उसके लिये जन्म दिन मनाने की परम्परा विकसित की जाय। अपने व्रतधारी और सामान्य सदस्यों का जन्म दिन किस तारीख को पड़ता हे, इसका वर्ष के 360 दिनों का अनुक्रम से रजिस्टर तैयार कर लिया जाये तथा उसकी एक एक कार्बन कापी अथवा छपी कापी प्रत्येक सदस्य के पास रहे, ताकि उस दिन नियमित रूप से हर सदस्य उस सदस्य के घर बिना स्मरण दिलाये पहुँच जाया करे। जन्म दिवसोत्सवों में परिचितों, पड़ोसियों और सम्बन्धियों को भी अलग से आमंत्रित किया जाता रहे, इससे कुछ ही समय में सैकड़ों नये व्यक्तियों तक मिशन का प्रकाश अनायास ही पहुँच सकता है।

तैयारी सर्वत्र एक सी रहे इस परम्परा को लोकप्रिय बनाया जाना है, अतएव निर्धन और धनी वर्ग सब सीमित खर्च उठाये। पूजन सामग्री एवं उपकरणों की व्यवस्था शाखा अथवा टोली में रहे। स्वागत सत्कार में भी न्यूनतम खर्च हो। प्रसाद के लिये चीनी की गोली, चिनौरियाँ और सत्कार के लिये कटी सुपारी, तली-भुनी सौंफ पर्याप्त है। सम्भव हो तो, यह व्यवस्था भी शाखा में विद्यमान रहे। समय, प्रातः काम पर जाने से पूर्व, अन्यथा रात को रखा जाये और इतने समय से उसे सम्पन्न कर लिया जाये कि घर लौटने, काम पर जाने या रात्रि विश्राम में विलम्ब न हो।

एक घण्टे में यज्ञादि धर्मानुष्ठान, आधा घण्टा संगीत एक घण्टा प्रवचन प्रतिज्ञा, इस प्रकार दो ढाई घण्टे पर्याप्त है। सर्वतोमुखी पवित्रता का जल अभिसिंचन, पूजा वेदी पर देव पूजन, स्वस्ति वाचन, संक्षिप्त हवन, उपस्थित लोगों द्वारा शुभकामना, अक्षत पुष्प उपहार, अभिवादन, आशीर्वाद, भजन कीर्तन, प्रवचन, मार्गदर्शन जल इलाइची से सत्कार इतना कार्यक्रम पर्याप्त है। पूजा के मंत्र सभी पढ़े लिखे पुस्तकों से सामूहिक रूप से बोले। प्रवचन कर्ता कई तरह के प्रवचन तैयार रखे, ताकि यदि एक ही दिन कई जन्म दिन मनाने पड़े तो भी रुचि भिन्नता बनी रहे। अपने स्त्री बच्चों तथा मुहल्ले के जन्म दिन लोग स्वयं मनायें, उसमें शाखा सदस्यों का समय नहीं लगना चाहिए। इस तरह इस परम्परा के द्वारा पारस्परिक स्नेह सद्भाव के विकास का सुर सुलभ मनुष्य शरीर का लाभ किस प्रकार लिया जा सकता हे, थोड़े में ही यह उद्देश्य पूरा किया जा सकता है।

जन्म दिन संस्कार से पारिवारिक स्नेह सद्भाव की वृद्धि और व्यक्ति निर्माण की आवश्यकता पुरी होती है, जन समुदाय को भी यह लाभ देने की दृष्टि से प्रत्येक शाखा को (1)आदर्श वाक्य लेखन (2)चल पुस्तकालय (3)धर्म फेरी तीर्थयात्रा-यह तीन कार्य क्रम अनिवार्य रूप से चलाना चाहिए।

आदर्श वाक्य लेख बनाम बोलती दीवारें-

वाक्य लेखन निर्जीव दीवारों को सजीव बना देता है। उधर से गुजरने वाले इनसे अनायास ही प्रभावित होते, प्रेरणाएँ हृदयंगम करते हैं। वह क्षेत्र सजीव प्राणवानों का क्षेत्र लगने लगता है, तैयारी भी कुछ अधिक नहीं करनी। वाक्यों के टीन के कटे हुये स्टेंसिल पहले ये तैयार रहे। एक डिब्बे में गोद या सरेस मिली काली या गेरू की लाल स्याही बनाली जाये, लिखने को ब्रश खरीद लिये जाये, बस इतना पर्याप्त है। अक्षर चमकाने के लिये लिखने वाले स्थान को चूने से पोत लिया जाय। थोड़ा परिश्रम किया जाये तो ऊबड़ खाबड़ दीवारें समतल भी बनाई जा सकती है। कोई भी नेक व्यक्ति अपनी दीवार पर सद्वाक्य लिखाने से मना नहीं करेगा।

यह कार्य अकेले भी हो सकता हे, पर अच्छा काम टोलियों में सामूहिक रूप से होता है। दिन में अवकाश के समय तथा छुट्टियों में यह कार्य उत्साह पूर्वक चलाना चाहिए। कुछ चुने हुये वाक्य यह है-

चल पुस्तकालयों की अनिवार्य आवश्यकता-

इन दिनों की लोक रुचि घटिया मनोरंजन साहित्य पढ़ने भर की है इस कारण स्वाध्याय से चिन्तन को मिलने वाला पौष्टिक तत्व तो नहीं, उल्टे मनोभूमि में निकृष्टता बढ़ती जाती है। जहाँ तहाँ पुस्तकालय भी है, पर वह साहित्य अलमारियों में ही बन्द सड़ता रहता है। युग निर्माण साहित्य का सृजन मनो संस्थानों में व्याप्त कुविचारों के परिमार्जन के टानिक के रूप में गढ़ा गया है, पर उसकी उपयोगिता तब है जब यह साहित्य जन जन तक पहुँचे। चल पुस्तकालय अथवा ज्ञान रथ इस आवश्यकता को पूरा करेंगे।

ज्ञान रथ प्रत्येक शाखा के पास हो। उतरे साइकिल या रिक्शे के पहियों से एक धकेल सस्ते में बना ली जाये। उसे आकर्षक बनाने के लिये सजाया भी जा सकता है। इसी में युग निर्माण साहित्य तथा पत्रिकाओं की जिल्द बँधी पुरानी प्रतियाँ रहे। इन्हें लेकर गली गली मुहल्ले मुहल्ले जाया जाये तथा लोगों को आग्रह पूर्वक पढ़ने को यह साहित्य दिया जाए। एक कापी में उनके नाम नोट रहे। अगले सप्ताह उनसे वापिस लेने और नई पुस्तकें देने का क्रम बना रहे। विक्रयार्थ साहित्य भी रखा जा सकता है। सहायक आजीविका के रूप में या किसी बेकार व्यक्ति को थोड़ा वेतन देकर भी धकेले चलाई जा सकती है। इससे हुई छोटी आय से उस व्यक्ति का काम चल जायेगा। लोगों को इस साहित्य की उपयोगिता भी समझाई जा सके। तो यह धकेल सोने में सुगन्ध की कहावत चरितार्थ कर सकती है।

तीर्थ यात्रा धर्म प्रचार फेरी-

युग निर्माण परिवार के लिए ऐसी तीर्थ यात्राओं का प्रचलन करना चाहिए, जिसमें परिजन टोलियाँ बनाकर समीपवर्ती गाँवों में जाया करे, रास्ते में आदर्श वाक्य लेखन करे, दिन में जनसंपर्क और रात्रि को विचार गोष्ठी या छोटे से यज्ञायोजन के लिये आमंत्रण देना। भजन कीर्तन तथा प्रभात फेरियों का क्रम रखा जा सकता है। और सायंकाल जाकर रात्रि में विचार गोष्ठी दूसरे दिन एक छोटा सा आयोजन भी सम्पन्न किया जा सकता है। यात्रा टोलियाँ अवकाश के दिनों का तो इस पुण्य प्रयोजन में उपयोग करे ही। पीले वस्त्र, नियत झोला तथा अपने मिशन की परिचय सामग्री लेकर चला जाये तो अपना उद्देश्य अधिक सार्थक होगा ।

यह कार्य सदस्यों के ज्ञान घट की संचित राशि, उदारमना व्यक्तियों के सहयोग और चंदे से संग्रहित पूँजी-किसी भी प्रकार से सम्पन्न किये जा सकते हैं, पर इनकी उपयोगिता और उपादेयता को असंदिग्ध मानकर यह कार्य क्रम प्रत्येक शाखा को सम्पन्न करने ही चाहिए।

बसन्त पर्व व गुरुपूर्णिमा के दो स्थानीय कार्यक्रम-

प्रत्येक शाखा को वर्ष में न्यूनतम दो आयोजन भी स्थानीय स्तर पर स्थानीय लोगों की सहायता से सम्पन्न करने चाहिए। (1)बसन्त पर्व (2)गुरुपूर्णिमा। दोनों के मध्य लगभग 6 माह का अन्तर पड़ता है। इतनी अवधि में किये गये कार्यों का सिंहावलोकन तथा अगले 6 माह के कार्य क्रमों का निर्धारण इन पर्वों के समय करना चाहिए। बसन्त पर्व माघ सुदी पञ्चमी तथा गुरुपूर्णिमा आषाढ़ सुदी पूर्णिमा को मनायी जाती है।

यह पर्व जन्म दिन मनाने की तरह ही सामूहिक रूप से मनाये जाये। पूजन व प्रवचन के विषय और उसमें मिशन की सम्बद्धता का स्वरूप भर भिन्न रहेगा। शेष व्यवस्थायें ज्यों की त्यों रहेगी, इस तरह-इन पर्वों की प्रेरणाओं के साथ सैकड़ों लोगों को मिशन के विचार संपर्क का लाभ मिलता रह सकता है। जहाँ सम्भव हो वहाँ अन्य पर्व भी मनाये जा सकते हैं।

केन्द्रीय व्यवस्था के दो आयोजन-

दो आयोजन शाखा सदस्यों को अपने बलबूते पर स्थानीय लोगों की सहायता से अनुभव एवं अभ्यास के लिये केन्द्रीय प्रतिनिधि के मार्ग निर्देशक में करने होगे, (1)साधना सत्र(2)स्थानीय शाखाओं का क्षेत्रीय सम्मेलन। इनसे जन जागृति एवं लोक शक्ति के उद्भव का दोहरा लाभ इन आयोजनों से मिलना सुनिश्चित है।

साधना सत्र केन्द्रीय प्रतिनिधि चलायेंगे, पर उनमें अधिक से अधिक लोगों को सम्मिलित कर जो लोग हरिद्वार के साधना सत्रों में नहीं पहुँच पाते उनकी कमी पूरी करनी चाहिए। ?

क्षेत्रीय सम्मेलन भी शाखाएँ प्रतिवर्ष सम्पन्न करे। जिनमें समीपवर्ती शाखाएँ भाग ले व प्रतिनिधियों के आवास, भोजन आदि की व्यवस्था भी रहे। दस मील परिधि की सभी शाखाएँ इनमें भाग ले के इस तरह परस्पर विचारों के आदान प्रदान के साथ साथ पारस्परिक स्नेह सद्भाव की वृद्धि होगी और भविष्य के महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों की भूमिका बनेगी।

महिला जागरण शाखाओं का स्वरूप व स्थिति-

महिला शाखाएँ भिन्न नहीं होगी। वह युग निर्माण शाखाओं का ही एक अंग होगी। पुरुष कार्यक्रमों में महिलाएँ जा सकती है, पर महिला कार्यक्रमों में पुरुष नहर, इसी दृष्टि से महिला शाखाओं का स्वरूप पृथक् रखा गया है, इससे उनके पारस्परिक प्रचार संगठन एवं रचनात्मक प्रयास ठीक तरह चलते हैं। पर चलेंगे वे पुरुषों के ही सहयोग से। पुरुष कार्यकर्ता ही अपने अपने घरों की विचारशील महिलाओं को आगे लाकर उन प्रयत्नों को अग्रगामी बनायेंगे, इससे ही यह शाखाएँ जड़ पकड़ सकेगी।

पिछले तीन वर्षों में अनेक शाखाएँ महिला सम्मेलन सफलता पूर्वक सम्पन्न कर चुकी है। उनमें शान्तिकुञ्ज की देव कन्याओं के जत्थे भेजे गये, यह क्रम आगे भी चलेगा। यह सम्मेलन भविष्य में इस तरह चलेंगे कि साधना सत्र भी इसी में सम्पन्न हुआ करेंगे। कन्याओं के साथ गाड़ी में दो संरक्षक कार्यकर्ता जाया करेंगे, वे प्रातःकाल साधना सत्र, तीसरे प्रहर जन संपर्क का प्रयोजन भी पूरा कर लिया करेंगे। रात्रि की सभाओं में प्रतिदिन देव कन्यायें छः संगीत गाएगी, दो भाषण करेंगी। एक भाषण पुरुष संरक्षक का होगा। इस प्रकार महिला जागृति अभियान की प्रमुखता रहते हुये भी यह सम्मेलन नर और नारी दोनों के लिये समान रूप से उपयोगी सिद्ध होते रहेंगे। जहाँ महिला सम्मेलन होगे, वहाँ साधना सत्र अलग से करने की आवश्यकता नहीं रहेगी।

लोक रंजन व लोक मंगल के साधन-

किन्हीं भी कवियों की प्रेरणाप्रद रचनाएँ मधुर स्वर में सुनाने का नाम कविता सम्मेलन तथा गीत गायन वाद्य यंत्रों सहित गाने का नाम संगीत सम्मेलन- ऐसे सरस आयोजन के माध्यम से भी मिशन की विचारधारा प्रवाहित की जा सकती है। इसके लिये छात्र छात्राओं की भी टोलियाँ तैयार की जा सकती है।

स्लाइड प्रोजेक्टरों के माध्यम से भी सस्ते सिनेमा का मनोरंजन और मिशनरी आदर्शों के प्रसार की आवश्यकता खेल खेल में पूरी की जा सकती है। युग सन्देश देने वाले इन कार्यक्रमों की भी व्यवस्था शाखाएँ कर सकती है।

टेप रिकार्डर भी ऐसा ही एक साधन हे, जिसके माध्यम से प्रामाणिक व्यक्तियों के सन्देश तथा भाव भरे गीतों का प्रसारण लाउडस्पीकरों की सहायता से किया जा सकता है। इस वर्ष हमारे कुछ प्रवचन तथा देव कन्याओं के संगीत के टेप तैयार किये गये है। अन्य भाषाओं में भी यह टेप कुछ दिनों में उपलब्ध होने लगेंगे। यह प्रचार माध्यम भी शाखाओं के पास रहे तो उससे नव युग निर्माण का प्रकाश हजारों लाखों लोगों तक सहज ही पहुँचाया जा सकता है।

साधना सत्र वार्षिकोत्सव-

पत्रिकाओं के इन दिनों एक लाख से अधिक नियमित सदस्य है। पाठकों की संख्या पाँच लाख के लगभग हो सकती हैं क्योंकि प्रायः सभी सदस्य उसे स्वयं पढ़ने के बाद दूसरों को पढ़ने देने की प्रक्रिया चलाते हैं। औसतन एक पत्रिका को पाँच से कम नहीं पढ़ते। चार भी मान ले तो चार लाख पाठक और एक लाख सदस्य मिलकर पाँच लाख होते हैं। इनका युग निर्माण परिवार के रूप में गठन, प्रशिक्षण एवं रचनात्मक कार्यों में सहयोग का क्रम चल पड़े तो एक ऐसी युग शक्ति का उदय होगा। जिसका उज्ज्वल भविष्य के नव निर्माण में भारी योगदान हो सकता है। यह कार्य मात्र लेख बद्ध मार्ग दर्शन मात्र से सम्भव नहीं हो जायेगा। साहित्य एवं पत्र व्यवहार का महत्व कितना ही अधिक क्यों न हो, बिना निकटवर्ती आदान प्रदान के कोई बड़ी बात बन नहीं सकती। परिजनों का व्यक्तित्व उभरना और उनकी क्षमताओं का एक अंश नव निर्माण के लिए प्रयुक्त होना एक बड़ा काम है। इसके लिए मिलन, विचार विनिमय, एवं प्रकाश साहस के अनुदान की आवश्यकता बनी ही रहेगी।

पिछले दिनों से यह कार्य शान्तिकुञ्ज में चल रही सत्र प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होता रहा है। जीवन साधना के दस दस दिवसीय और लोकसेवी युग सैनिकों के एक एक महीने वाले सत्र पिछले पाँच साल से शान्तिकुञ्ज में लगते रहे हैं कन्या प्रशिक्षण के एक एक वर्ष के और महिलाओं के एक एक महीने के शिविर भी साथ साथ चलते रहते हैं। यह क्रम आगे भी यथावत चलता रहेगा। साथ ही गायत्री की उच्च स्तरीय साधना के लिए ब्रह्मवर्चस की योग साधना एवं तपश्चर्या पद्धति की व्यवस्था अलग से चलती रहेगी। पंच कोशों का अनावरण एवं कुण्डलिनी जागरण यह दो धाराएँ ब्रह्मवर्चस साधना के अंतर्गत आती है। मानवी चेतना का परिष्कृत करना पंच कोश साधन हैं ओर प्राण क्षमता को प्रखर बनाना कुण्डलिनी जागरण। यह दोनों ही कार्य शिक्षण और अभ्यास सही स्तर का होने पर सफल हो सकते हैं अस्तु इस आवश्यकता की पूर्ति अधिकारी साधक ब्रह्मवर्चस आरण्यक में निवास करते हुए सम्पन्न कर सकेंगे।

किन्तु सान्निध्य संपर्क का प्रयोजन इतने से भी पूरा नहीं हो सकता। यह मिलन विनिमय एक वर्ष में कम से कम एक बार तो होना ही चाहिए। किन्तु देश के कोने कोने में समस्त संसार में बिखरे हुए इन पाँच लाख परिजनों का हर साल शान्तिकुञ्ज आ सकना सम्भव नहीं। समय की कमी, आर्थिक कठिनाई एवं दूसरे अनेक ऐसे कारण है जिनसे इतने सारे लोग हरिद्वार आ नहीं सकेंगे। आना भी चाहे तो उनके निवास एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था भी नहीं हो सकती। वर्तमान आश्रम को कम से कम सौ गुना बढ़ा दिया जाय तो ही कदाचित उतने बड़े शिविर चल सकें। फिर व्यक्तिगत परामर्श की बात तो वैसा होने पर भी नहीं बनेगी। हमारा कही बाहर जाने और दौरा करने का कोई कार्यक्रम नहीं है।


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