आत्मबल ही सर्वतोमुखी समर्थता का मूल है

July 1977

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शक्ति के बल पर ही प्रयत्नपूर्वक साधन जुटाये जाते हैं और उनके सहारे सुख सुविधा पाने की अभिलाषा पूर्ण होती है। सामर्थ्य और पुरुषार्थ के अभाव में सुखी सम्पन्न बनने की आकांक्षा पूरी कर सकना कहाँ सम्भव होता है?

शरीर बल से श्रम करके कमाने, खाने और पचाने का लाभ मिलता है। बुद्धि बल से अधिक महत्त्व के उत्तरदायित्व सम्भालना और श्रेय साधन पा सकना बन पड़ता है। धन बल के सहारे ब्याज कमाने से लेकर व्यवसाय चलाने तक की सुविधाएँ मिलती है। समूह बल का प्रभाव हर क्षेत्र में देखा जा सकता है। संघ बल के आधार पर साधन हीन लोग भी मिल जुल कर बहुत कुछ कर गुजरते हैं। इसी प्रकार साधन बल के आधार पर अकुशल व्यक्ति भी बुद्धिमानों और अनुभवियों से भी अधिक सफलता प्राप्त करते देखे जाते हैं। यह सारे चमत्कार शक्ति के हैं। शक्ति की महत्ता समझी भी जाती है और हर क्षेत्र में उसके लिए प्रयत्न भी चलता है।

आश्चर्य यह है कि साधनों का महत्त्व मानने और उन्हें प्राप्त करने की बात भौतिक स्तर तक ही सीमित रखी जाती है और मात्र बलिष्ठता, शिक्षा, कुशलता, सम्पन्नता जैसी क्षमताएँ उत्पन्न करना ही पर्याप्त समझा जाता है। जबकि वास्तविक शक्ति को स्रोत आत्मबल में सन्निहित है।

मनुष्य की मूलसत्ता चेतन एवं आत्मिक है। उसी के तत्त्वावधान में साधनों का उपयोग सम्भव होता है। यदि अंतःप्रेरणा की प्रखरता में न्यूनता हो तो फिर उपलब्ध साधनों का समुचित सदुपयोग ही न हो सकेगा आन्तरिक दुर्बलता अन्यमनस्कता और निष्क्रियता बन कर छाई रहती है ऐसा व्यक्ति बहुत कुछ कर सकने योग्य होते हुए भी कुछ कर नहीं पाता। आलस्य और प्रमाद में ही उनकी बहुमूल्य जीवन सम्पदा गल जाती है। आन्तरिक प्रखरता के प्रभाव से ही शरीर में तत्परता एवं मन में जागरूकता उत्पन्न होती है। अपंग व्यक्तियों द्वारा आश्चर्यजनक पुरुषार्थ करने के अनेक प्रसंग सामने आते रहते हैं, पर निराश और निढाल व्यक्ति तो साधन सम्पन्न होते हुए भी अर्धमृतकों एवं मूर्छितों जैसी दयनीय स्थिति में पड़े हुए मौत के दिन पूरे करते हैं।

पैनी तलवार और मजबूत हाथ होते हुए भी साहस के अभाव में उसका प्रहार सम्भव नहीं हो सकता। अवसर होते हुए भी डरपोक मनुष्य लाभ उठाने के लिए कदम नहीं बढ़ा पाते। उपयुक्त योजनाओं को भी कार्य रूप में परिणित करने में तरह तरह की आशंकाएँ उठा करती हैं और अनिश्चित मनःस्थिति का असमंजस छाया रहता है। अनिर्णीत उथल पुथल चलती रहती है। इस स्थिति से उबरने के लिए मनोबल चाहिए। साहसी ही महत्त्वपूर्ण निर्णय कर सकने और प्राणप्रण से जुटने की तत्परता दिखा सकने में समर्थ होते हैं। सफलता ऐसे ही लोगों के कदम चूमती रही है।

उत्कृष्ट आदर्शवादिता के क्षेत्र में बढ़ चलने और महामानव स्तर की गरिमा प्राप्त करने के लिए जिस साहस की आवश्यकता होती है उसे आत्मबल कहते हैं। यही शक्ति शरीर में 'ओजस्' मनःक्षेत्र में ‘तेजस’ और भावना संदर्भ में ब्रह्मवर्चस् कहलाती है। इसी को पराक्रम संकल्प एवं श्रद्धा के नाम से जाना जाता है। शरीर में बलिष्ठता, मन में बुद्धिमत्ता और अन्तःकरण में सज्जनता के रूप में इसी सामर्थ्य को प्रस्फुटित होते देखा जा सकता है।

आत्मबल के अभाव में मनुष्य संशयी, संकोची और भयभीत बना रहेगा। जिसे अपने ऊपर विश्वास नहीं वह उज्ज्वल भविष्य पर भी विश्वास न कर सकेगा। संचित कुसंस्कारों का उन्मूलन और स्वभाव में सत्प्रवृत्तियों का संस्थापन ही ऐसा व्यक्तित्व विनिर्मित करता है जो अवरोधों को पैरों तले कुचलता हुआ प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँच सकने में सफल हो सके। आत्म-शोधन और आत्म निर्माण का कार्य अति कठिन है। पर जो उसे कर सके उसके लिए प्रगति के दोनों द्वार खुल जाते हैं। भौतिक हो या आत्मिक दोनों ही क्षेत्रों की सफलता ‘आत्म बल पर निर्भर है। उसका सम्पादन करके ही हम सच्चे अर्थों में समर्थ, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बन सकते हैं।


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