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April 1977

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पूर्वरात्रो परे चैव युञजानः सततं मनः। लध्वाहागे विशुद्धात्मा पश्यत्रात्मान्मात्मनि॥ प्रदीप्तेनेव दीपेन मनोदीपेन पश्यति। दृश्टवाडडत्मानं निरात्मानं स तदा विप्रभुच्यते॥

मनुष्य को चाहिये कि वह हल्का भोजन करे और अन्तःकरण को शुद्ध रखे। रात के पहले और पिछले पहर में सदा अपना मन परमात्मा के चिन्तन में लगावें। जो इस प्रकार निरन्तर अपने हृदय में परमात्मा के साक्षात्कार का अभ्यास करता है वह प्रज्वलित दीपक के समान प्रकाशित होने वाले अपने मनोमय प्रदीप के द्वारा निराकार परमेश्वर का साक्षात्कार करके तत्काल मुक्त हो जाता है।

न संस्तरोडश्मा न तृणं न मेदिनी, विधानतो नो फलको विनिर्मितः। यतो निरस्ताक्षकशायविद्विशः, सुधीभिरात्मैव सुनिर्मली मतः॥ न संस्तरों भद्र समाधिसाधनं, न लोक पूजा न च सन्धमेलनम्। यतस्ततोडध्यात्मरतो भवार्निशं, विमुच्य सर्वामपि बाहयवासनम्-अमितगति

अर्थात् ध्यान करने के लिये पाषाण की शिला, कुशा या पृथ्वी के आसन की आवश्यकता नहीं है। विद्वानों के लिये वह आत्मा ही स्वयं पवित्र आसन है, जिसने क्रोध आदि कषाय (कृवृत्ति) व इन्द्रिय-विषय-वासना रूपी शत्रु का संहार कर दिया है। हे मित्र! आत्म ध्यान के लिये न किसी आसन की न लोक पूजा की ओर न किसी सभा-सोसायटी की आवश्यकता है। जिस किसी प्रकार अपने हृदय से बाह्य वस्तुओं की वासना को निकाल कर, अपने ही स्वरूप में प्रतिक्षण लवलीन रहे, यही ध्यान एवं समाधि है।


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