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April 1977

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गुंरौभनुश्यबुद्धि च मन्त्रे चाक्षरवाचितम्। प्रतिमासु शिला बुद्धि कुर्वाणों नरकं ब्रजेत्॥

गुरु में मनुष्य, मंत्र में अक्षर और प्रतिमा में प्रसार-बुद्धि रखने वाला नरक गामी होता है।

अशुचिर्वा शुचिर्वापि गच्छंन्सितश्ठन् स्वपत्रपि। मन्त्रैकशरणौ विद्वान् मनसै व समभ्यसेतृ॥ न दोशों मानसे जापे सर्वदेशेडपि सर्वदा। जपनिश्ठाकें द्विजश्रेश्ठोंडखिंल यज्ञफलं लमेत्॥

जो विद्वान निरन्तर मन्त्रों के जप करने का व्रत ग्रहण कर चुके है, उनके लिए सोते-जागते चलते-फिरते पवित्र तथा अपवित्र किसी अवस्था में किसी देश या काल में मानसिक जप करने में दोष नहीं है, वे अपने मानसिक जप का अभ्यास चालू रख सकते हैं। इस प्रकार निरन्तर जप परायण श्रेष्ठ द्विज समस्त यज्ञों के फल के भागी होते हैं।


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