मानवी विद्युत का प्रचण्ड प्रवाह-प्राण शक्ति में

April 1977

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संस्कृत में प्राण शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘अन्’ धातु से होती है। ‘अन्’ धातु (प्राण ने) जीवनी शक्ति-चेतना बोधक है। इस प्रकार प्राण शब्द का अर्थ चेतना शक्ति होता है। जीवधारियों को प्राणी इसीलिए कहते हैं। प्राण और जीवन दोनों एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। प्राण आत्मा का गुण है। यह परम आत्मा से-परे ब्रह्म से निसृत होता है। आत्मा, परमात्मा का ही एक अविच्छिन्न घटक है। वह अंश रूप है। तो भी उसमें मूल सत्ताधीश के सारे गुण विद्यमान् है। व्यक्तिगत प्राण धारण करने वाला प्राणी गुण विद्यमान् है। व्यक्तिगत प्राण धारण करने वाला प्राणी जब सुविकसित होता है। तो वह भी बूँद के समुद्र में पड़ने पर सुविस्तृत होने की तरह ही व्यापक बन जाता है।

जड़ जगत में शक्ति तरंगों के रूप में संव्याप्त सक्रियता के रूप में प्राण शक्ति का परिचय दिया जा सकता है और चेतन जगत में उसे विचारणा एवं संवेदना कहा जा सकता है। इच्छा, ज्ञान और क्रिया के रूप में वह जीवधारी में काम करती है। जीवन्त प्राणी इसी के सहारे जीवित रहते हैं। इस जीवनी शक्ति की जितनी मात्रा जिसे मिल जाती है वह उतना ही अधिक प्राणवान कहा जाता है। चेतना की विभु सत्ता समस्त विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है। चेतना प्राण कहलाती है। उसी का अमुक अंश प्रयत्न पूर्वक अपने में धारण करने वाला प्राणी-प्राणवान एवं महाप्राण बनता है। यह प्राण जड़ पदार्थों में सक्रियता के और चेतन प्राणियों में सजगता के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जड़ चेतन जगत की सर्वोपरि शक्ति होने के कारण उसे जयेसत एवं श्रेष्ठ कहा गया है।

प्राणें व व ज्येश्ठश्र श्रेश्टश्र। - छांदोग्य॥

यह तत्त्व अनादि और अनन्त है। इसी में सृष्टि बार बार विलीन और उत्पन्न होती रहती है। सृष्टि से पूर्व यहाँ क्या था। इसका उत्तर देते हुए शास्त्र कहता है-

असद् वा इद मग्न आसात् तदाहुः किं तदसदासी दित्यृशयो वा व। तेडग्नेडसदा सीत्, तदाहुः के ते ऋशय इति प्राणा वा ऋषय-शतपथ

पूछा गया-ऋषि से पहले क्या था? उत्तर दिया-ऋषि थे। पूछा- यह ऋषि क्या थे। उत्तर दिया- वे प्राण थे। यह प्राण ही ऋषि है।

सृष्टि के आरम्भ में सर्व प्रथम प्राण तत्त्व के उत्पन्न होने का वर्णन है। जड़ जगत में पंच तत्त्वों का और चेतन प्राणियों में विचार शक्ति का आविर्भाव उसी से हुआ है।

‘स प्राणमसृजत, प्राणच्छद्धां, रव वायुर्ज्योति रूपः पृथिविन्द्रिय मनोडन्नम्-प्रश्नोपनिषद-/

अर्थात् उस ब्रह्म ने प्राण उत्पन्न किया। प्राण से श्रद्धा, बुद्धि, मन एवं आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी पंच तत्त्वों की उत्पत्ति हुई तब अन्न उत्पन्न हुआ।

अथर्व वेद के प्राण सूत्त में आता है।

प्राणाय ननों यस्य सर्वमिदं वशे, यो भूतः सर्वस्येश्वरों यस्मिन् सर्व प्रतिष्ठितम्

अर्थात् उस प्राण को नमस्कार, जिसके वंश में सब कुछ है। जो सब प्राणियों का अधिष्ठाता है जो सब में समाया है, जिसमें सब समाये है।

वैदिक विवेचना में प्राण के साथ ‘वायु’ का विशेषण भी लगा है। उसे कितने ही स्थानों पर प्राण वायु कहा गया है। इसका तात्पर्य आक्सीजन, नाइट्रोजन आदि वायु विकारों से नहीं वरन् उस प्रवाह से है। जिसकी ‘गतिशील विद्युत तरंगों, के रूप में भौतिक विज्ञानी चर्चा करते रहते हैं। अणु विकिरण-ताप ध्वनि आदि की शक्ति धाराओं के मूल में संव्याप्त सत्ता भी उसे कहा जा सकता है। यदि उसके अध्यात्म स्वरूप का विवेचन किया जाय तो अँगरेजों के लेटेन्ट लाइट-डिवायन लाइन्ट आदि शब्दों के संगति बैठती है। जिसमें उसके दिव्य प्रकाश के समतुल्य होने को संकेत मिलता है। प्रश्नोपनिषद् में प्राण का उद्गम केन्द्र सूर्य को माना गया है। “सं एव वैश्वानरो विश्व रूपः प्राणेडग्निरुदयत।” अर्थात् प्राणाग्नि विश्वव्यापी है। उसका केन्द्र उदीयमान सूर्य है।

प्राण विद्युत के सम्बन्ध में शरीर विज्ञानी हम निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि पेशियों में काम करने वाली स्थिति तक ऊर्जा-पोटोन्शियल का तथा उसके साथ जुड़े रहने वाले आवेश-इन्टेन्सिटी का जीवन संचार में बहुत बड़ा हाथ है। इन विद्युत धाराओं का वर्गीकरण तथा नामकरण सीफेली ट्राइजेमिल न्यूनैलाजिया की व्याख्या चर्चा के साथ प्रस्तुत किया जाता है। ताप विद्युत संयोजन-थर्मोलैरिक कपलिंग-के शोधकर्ता अब इसी निष्कर्ष पर पहुँचे है कि मानव शरीर का सारा क्रिया कलाप इसी विद्युतीय संचार के माध्यम से गतिशील रहता है।

पृथ्वी के इर्द गिर्द एक चुम्बकीय वातावरण दूर दूर तक फैला हुआ है। धरती का गुरुत्वाकर्षण ही सब कुछ नहीं है यह चुम्बकीय वातावरण उसके साथ मिलकर अपने लोक में संव्याप्त कितनी ही क्षमताओं को जन्म देता है। उनके आधार पर संसार की अनेक गतिविधियों तथा प्राणियों को कितनी ही आवश्यकता पूरी करने वाले सुयोग बनते हैं। यह चुम्बकत्व आखिर आता कहाँ से है? उसका उद्गम स्रोत कहाँ है? इसकी खोज अन्तर्ग्रही अनुदानों के रूप में की जा रही थी पर अब यह पता चला है कि यह पृथ्वी के अपने ही गहन अन्तराल से निकलने वाला शक्ति प्रवाह ही है। लोहे की सुई यदि धागे में बाँधकर अधर लटकाई जाय तो उसका एक सिरा उत्तर की ओर दूसरा दक्षिण की ओर रहेगा दिशानिर्देशक यंत्र-कम्पास-इसी आधार पर बनते हैं। प्राणियों के कितने ही क्रिया कलाप इसी चुम्बकीय निर्देशन पर विनिर्मित होते हैं।

मनुष्य शरीर में बिजली काम करती है। यह तथ्य सर्व विदित है। इलेक्ट्रो काड्रियों ग्राफी तथा इलेक्ट्रो इनसिफैलों ग्राफी द्वारा इस तथ्य को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। हमारी रक्त नलिकाओं में लौह युक्त होमोग्लोबिन भरा पड़ा है। लौह चूर्ण और चुम्बक जिस प्रकार परस्पर चिपके रहते हैं। उसी प्रकार हमारी जीवन सत्ता भी जीव कोशों को परस्पर संबद्ध किये रहती है। उनकी सम्मिलित चेतना से वे समस्त क्रिया कलाप चलते हैं जिन्हें हम जीवन संचार व्यवस्था कहते हैं।

शरीर में जो चमक, स्फूर्ति ताजगी, उमंग, साहस, उत्साह, निष्ठा, तत्परता जैसी विशेषताएँ है। मनस्वी, ओजस्वी, तेजस्वी, तपस्वी, आदि शब्द इसी क्षमता का बाहुल्य व्यक्त करते हैं। ऐतिहासिक महामानवों में यही विशेषता प्रधान रूप से रही है।

ऊर्जा के सहारे ही यंत्रों का संचालन होता है। मनुष्य शरीर भी एक यंत्र है। उसके संचालन में जिस विद्युत की आवश्यकता पड़ती है। उसे प्राण कहते हैं। प्राण एक अग्नि है जिसे ज्वलंत रखने के लिए आहार की आवश्यकता पड़ती है। आधुनिक वैज्ञानिक ने इसे ‘जीव विद्युत नाम दिया है।

निद्रा मात्र थकान मिटाने की, विश्राम प्रक्रिया मात्र नहीं है। वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुसार निद्रा में मस्तिष्क का सचेतन भाग अचेतन की स्थिति में इसलिए जाता है कि उस स्थिति में अन्तरिक्ष में प्रवाहित रहने वाली विद्युत धाराओं में से अपने उपयोग का अंश संग्रह सम्पादित कर सकने का अवसर मिल जाय। ‘एरियल’ रेडियो तरंगों को पकड़ता है! निद्रावस्था में हमारा अचेतन मस्तिष्क उसी स्थिति का बन जाता है। और आकाश से इतनी विद्युतीय खुराक प्राप्त कर लेता है। जिससे शारीरिक और मानसिक क्रिया कलापों का संचालन ठीक प्रकार संभव हो सके। निद्रा की पूर्ति न होने पर शारीरिक और मानसिक स्थिति में जो गड़बड़ी उत्पन्न होती है। उस अभीष्ट मात्रा में विद्युतीय खुराक न मिलने को चेतनात्मक ‘दुमुक्षा’ कहते हैं। इसके बने रहने पर मनुष्य विक्षिप्त या अर्थ विक्षिप्त बन जाते हैं। पागलपन छा जाने से पूर्व प्रायः कुछ दिन पहले से अनिद्रा रोग उत्पन्न होता है। अनिद्रा में इस विद्युतीय आहार की ही कमी पड़ती है।

भौतिक लौह चुम्बक से सभी परिचित है। पर यह तथ्य कम ही लोगों को मालूम है कि उससे भी कही अधिक उच्च स्तर का एक जैव चुम्बक भी होता है। जिस वैज्ञानिकों की भाषा में ऐनिमल मैगनेट कहा जाता है। अध्यात्म विज्ञान के अनुसार इसका उपयोग, वरदान, आशीर्वाद स्तर के आदान-प्रदान में होता रहा है। छोटे अपने बड़ों के चरणस्पर्श करके अभिवादन करते हैं। इस चरणस्पर्श में बड़ों की शुभेच्छा सम्पन्न विद्युत शक्ति का अनुदान दोनों को मिलता है। गुरु शिष्य परंपरा में भी यह परिपाटी चलती है। इसका एक प्रकार शिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देना भी है। छोटों के द्वारा बड़ों के पैर दबाने और बड़ों के द्वारा छोटों का आलिंगन, चुम्बन, गोदी में लेना, पीठ, आदि पर हाथ फिराना भी इसी विद्युतीय अनुदान प्रक्रिया के अंतर्गत आता है। बड़ों की विद्युत छोटों की ओर-समर्थों की असमर्थों की ओर दौड़ती है। इस प्रकार इस स्पर्श में छोटे ही प्रमुखता लाभ लेते हैं। देने का संतोष बड़ों के हिस्से में भी आता है।

शरीर संचार की समस्त गतिविधियाँ तथा मस्तिष्कीय उड़ाने मास जैसे साधना से उस विद्युत प्रवाह के द्वारा संभव होती है। जो जीवन तत्त्व बनकर रोम रोम में संव्याप्त है। इसी को मानवीय विद्युत कहते हैं। ओजस्वी, मनस्वी और तेजस्वी उसी विशेषता से सुसम्पन्न लोगों को कहते हैं। प्रतिभाशाली प्रगतिशील लोगों ओर शूरवीर साहसी लोगों में इसी क्षमता की बहुलता पाई जाती है।

यह जैव विद्युत उस भौतिक बिजली से भिन्न है। जो विद्युत यंत्रों में प्रयुक्त होती है। बैटरी, मैगनेट, जनरेटर आदि का स्पर्श करने पर बिजली का झटका लगता है। उसके सम्पर्क से बल्ब, पंखे, रेडियो, हीटर आदि काम करने लगते हैं। जीव विद्युत का स्तर भिन्न है इसलिए वह यह कार्य तो नहीं करती पर अन्य प्रकार की प्राणी की अति महत्त्वपूर्ण आवश्यकता पूरी करने वाले कार्य सम्पन्न करती देखी जा सकती है।

कभी कभी इस प्रक्रिया में व्यतिरेक भी होते देखा जा सकता है। भौतिक बिजली जीव विद्युत तो नहीं बन सकती पर जीव विद्युत के साथ भौतिक बिजली का सम्मिश्रण बन सकता है। ऐसी विचित्र घटनाएँ कई बार देखने में आई है जिनमें मानवी शरीरों को एक छोटे जनरेटर या डायनेमो की तरह काम करते देखा गया है।

सोसाइटी आफ फिजीकल रिसर्च की रिपोर्ट के अनुसार केवल अमेरिका में ही 20 से अधिक बिजली के आदमी पाये गये है। तलाश करने पर वे संसार के अन्य देशों में भी मिल सकते हैं। कोलराडी निवासी डबल्यू० पी० जोन्स ओर उनके सहयोगी नार्मन लोग ने इस संदर्भ में लम्बी शोधें की है और इस नतीजे पर पहुँचे है। कि इसमें कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं हैं सामान्य या शारीरिक व्यक्तिक्रम है। शरीर की कोशाओं के नाभिकों की बिजली आवरण ढीले पड़ने पर ‘लीक’ करने लगती है। तब शरीर की बाहरी परतों पर उसका प्रवाह दौड़ने लगता है। वस्तुतः नाभिकों में अनन्त विद्युत शक्ति का भण्डार तो पहले से ही विद्यमान् है। इन शोधकर्ताओं का कथन है कि स्थान और उपयोग की भिन्नता से प्राण विद्युत और पदार्थ विद्युत के दो भेद हो जरूर गये है, पर तात्त्विक दृष्टि से उनमें मूलभूत एकता ही पाई जाती है।

शोधकर्ता जोन्स स्वयं भी एक विद्युत मानव थे। उन्होंने नंगे पैरों धरती पर चलकर भू-गर्भ की अनेकों धातु खदानों का पता लगाने में भारी ख्याति प्राप्त की थी। उनके स्पर्श से धातुओं से बनी वस्तुएँ जादूगरों के खिलौनों की तरह उछलने खिसकने की विचित्र हलचलें करने लगती थी। छूते ही बच्चे झटका खाकर चिल्लाने लगते थे।

अमेरिका के मोन्टाना राज्य के मेडारिया कस्बे की जेनी मोरन नामक लड़की एक चलती फिरती बैटरी थी। जो उसे छूता वही झटका खाता। अंधेरे में उसका शरीर चमकता था। अपने प्रकाश से वह घोर अँधेरे में भी मजे के साथ मात्रा कर लेती थी। साथ उसके चलने वाले किसी जीवित लालटेन के साथ चलने का अनुभव करते थे। उसके शरीर के स्पर्श से 100 वाट तक का बल्ब जल उठता था। यह लड़की 30 वर्ष की आयु तक जीवित रही और अस्पर्श बनी एकान्त कोठरी में दिन गुजारती रही।

कनाडा के ओन्टोरियों क्षेत्र बोण्डन गाँव में जन्मी एक लड़की 17 वर्ष तक जीवित रही। धातु का सामान उसके शरीर से चिपक तक जीवित रही। धातु का सामान उसके शरीर से चिपक जाता था। इसलिए उसके भोजन पात्र तक लड़की या काँच के रखे जाते थे।

मास्को निवासी कुमारो माइखोनोवा रूसी वैज्ञानिकों के लिए एक दिलचस्प शोध का विषय रही है। वह अपने दृष्टिपात से चलती घड़ियाँ बन्द कर देती थीं अथवा सुइयाँ आगे पीछे छुपा देती थीं इसके करतत्रों की फिल्म बना कर कितनी ही प्रयोगशालाओं में भेजी गई ताकि अन्यत्र भी उस विशेषता के संबन्ध कार्य चलता रह सकें। वैज्ञानिकों ने इसे मस्तिष्कीय विद्युत की चुम्बकीय शक्ति-इलेक्ट्रो-फार्म की विद्यमानता निरूपित किया है। वे कहते हैं यह शक्ति हर मनुष्य में मौजूद है। परिस्थिति वश वह किसी में भी अनायास ही प्रकट हो सकती है और प्रयत्नपूर्वक उसे बढ़ाया भी जा सकता है। रूसी वैज्ञानिक लाखमोव से हर मनुष्य के शरीर से निकलने वाले विद्युत विकिरणों को अंकित कर सकने वाला एक यंत्र ही बना डाला है।

विश्व के अनेक भागों में पाई जाने वाली ईल मछली के शरीर में प्रायः 15 अरब शक्ति तक की बिजली आँकी गई है। इससे वह एक घातक अस्त्र की तरह अपने शरीर पर प्रहार करती है। यदि ईल की बिजली का उपयोग हो सके तो उससे एक अच्छा खासा कारखाना चल सकता है।

विश्वव्यापी विद्युत चुम्बक के कौन कितना लाभ उठाने यह उस प्राणी की शरीर रचना एवं चुम्बकीय क्षमता पर निर्भर है कितने ही पक्षी ऋतु परिवर्तन के लिए झुण्ड बनाकर सहस्रों मील की लम्बी उड़ाने भरते हैं वे धरती के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा पहुँचते हैं। इनकी उड़ानें प्रायः रात को होती है। उस समय प्रकाश जैसी कोई सुविधा भी उन्हें नहीं मिलती, यह कार्य उनकी अन्तः चेतना पृथ्वी के इर्द-गिर्द फैले हुए चुम्बकीय घेरे में चल रही हलचलों के आधार पर ही पूरा करती है। इस धारा के सहारे वे इस तरह उड़ते हैं मानो किसी सुनिश्चित सड़क पर चल रहे हों।

टरमाइन कीड़े अपने घरों का प्रवेश द्वार सदा निर्धारित दिशा में ही बनाते हैं। समुद्री तूफान आने से बहुत पहले ही समुद्री बतखें आकाश में उड़कर तूफानी क्षेत्र से पहले ही बहुत दूर निकल जाती है। चमगादड़ अंधेरी रात में आँख के सहारे नहीं अपनी शरीर विद्युत के सहारे ही वस्तुओं की जानकारी प्राप्त करते हैं। और पतले धागों से बचकर उपयोगी रास्ते पर उड़ते हैं। मेंढक मरे और जिंदे शिकार का भेद अपनी शारीरिक विद्युत के सहारे ही जान पाता है। मरी और जीवित मक्खियों का टेर सामने लगा देने पर वह मरी छोड़ता और जीवित खाता चला जायेगा। उल्लू की शिकार दबोचने की क्षमता उसकी आँखों पर नहीं विद्युत संस्थान पर निर्भर रहती है। साँप समीपवर्ती प्राणियों के शरीरों के तापमान का अन्तर समझाता है। और अपने रुचिकर प्राणी को ही पकड़ता है। भुनगों की आँखें नहीं होती वह अपना काम विशेष फोलों सेलों से बनाते हैं। अपने युग में अनेकों वैज्ञानिक यंत्र प्राणियों की अद्भुत विशेषताओं को छानबीन करने के उपरान्त उन्हीं सिद्धान्तों के सहारे बनाये गये है। प्राणियों में पाई जाने वाली विद्युत शक्ति ही उनके जीवन निर्वाह के आधार बनाती है। इन्द्रिय शक्ति कम होने पर भी वे उसी के सहारे सुविधापूर्वक समय गुजारते हैं।

यूनान के चिकित्सा विज्ञानी ‘पैपिरस’ ने रोगों की उपचार प्रक्रिया में चिकित्सक द्वारा रोगी के सिर पर हाथ फिराकर अच्छा करने की प्रक्रिया को शास्त्रीय रूप दिया था। सम्राट पाइरस और बैस पैसियन को ऐसे ही उपचारों के कष्टसाध्य रोगों से मुक्ति मिली थी। फ्राँस के शाही परिवार में फ्राँसीसी प्रथम से लेकर चार्ल्स दशम तक की चिकित्सा में जीव चुम्बक का प्रयोग शक्तिशाली प्रक्रियाओं द्वारा होता रहा है। हाथ का स्पर्श ओर विशिष्ट दृष्टिपात इस प्रक्रिया में विशेष रूप से प्रयुक्त हुआ है।

विद्वान स्काचमेन मैक्सवेल ने सन् 1600 से यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया था कि ब्रह्माण्ड व्यापी एक ‘जीवनी शक्ति’ का अस्तित्व मौजूद है। प्रयत्न करके उसकी न्यूनाधिक मात्रा अपने में भरी जा सकती है और उसे स्व पर उत्कर्ष के अनेक प्रयोजनों में प्रयुक्त किया जा सकता है।

मैकसवेल से पहले महामनीषी गोक्लेनियस अनेक तर्कों और प्रमाणों से यह सिद्ध कर चुके थे कि मनुष्य के आत्मबल का प्रमुख आधार यह जीवनी शक्ति ही है जिसे ‘जैक’ चुम्बकत्व’ के स्तर का समझा जा सकता है। बान हेलमान्ट इस शक्ति का उपयोग करके शारीरिक ओर मानसिक रोगियों को कष्ट मुक्त करने में ख्याति प्राप्त कर चुके है। महाप्रभु अपनी इसी क्षमता के कारण अपने जीवन काल में ही सिद्ध पुरुष गिने जाने लगे थे।

इटली के वैज्ञानिक सेटानेली ने अठारहवीं सदी के आरम्भ में अनेक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया था कि मनुष्य शरीर में प्रचंड विद्युतीय विकिरण का अस्तित्व विद्यमान है।

सन् 1734 से सन् 1815 तक लगभग पूरे जीवन में डाक्टर फैडरिक मैस्मर ने प्राणशक्ति के अस्तित्व एवं उपयोग के सम्बन्ध में शोध कार्य किया उन्होंने अपने अनुसंधानों के निष्कर्षों की क्रमबद्ध बनाया और मैस्मिरिज्म नाम दिया। आगे चलकर उनके शिष्य काँसटेट सुसिगर ने उसमें सम्मोहन विज्ञान की नई जोड़ी और कृत्रिम निद्रा लाने की विधि को ‘हिप्नोटिज्म नाम दिया फाँस के अन्य विद्वान भी इन दिशा में नई खोजे करते रहें। ला फान्टेन एवं डा. ब्रेड ने इन अन्वेषणों को और आगे बढ़कर इस योग्य बनाया कि चिकित्सा उपचार में उसका प्रामाणिक उपयोग संभव हो सकें।

पिछले दिनों अमेरिका में न्यू आरलीन्स तो ऐसे प्रयोगों का केन्द्र ही बना रहा है। इस विज्ञान को अमेरिकी वैज्ञानिक डारलिंग ओर फ्राँसीसी डा. द्रुराण्ड डे ग्रास की खोजो ने वान जगत को यह विश्वास दिलाया कि प्राणशक्ति का उपयोग अन्य महत्वपूर्ण उपचारों से किसी भी प्रकार कम लाभदायक नहीं है। इस प्रक्रिया को इलेक्ट्रोवायो-लाजिकल्स नाम दिया गया है। ली वाल्ट की जीव विद्युत के आधार पर चिकित्सा उपचार पुस्तक की प्रामाणिकता भी मिली ओर सराहना भी हुई। इस संदर्भ में जिन तीन प्रमुख संस्थानों ने विशेष रूप में शोध कार्य किये है उनके नाम (1) दि स्कूल आफ नेन्सी (2) दि स्कूल ऑफ चारकोट (3) दि स्कूल आफ मेसमेरिस्ट। इनके अतिरिक्त भी छोटे बड़े अन्य शोध संस्थान व्यक्तिगत एवं सामूहिक अन्वेषणों को प्रोत्साहन देते रहें है।

विज्ञानी मोडात्युज तथा काउण्ट पुलीगर के शोधों ने यह सिद्ध किया है कि प्राण शक्ति द्वारा उपचार तो एक हल्की सी खिलवाड़ मात्र है। वस्तुतः उसके उपयोग बहुत ही उच्च स्तर के हो सकते हैं। उसके आधार पर मनुष्य अपने निज के व्यक्तित्व में बहुमुखी प्रखरता उत्पन्न कर अनेकों मंजिलें पर कर सकता है। पदार्थों को प्रभावित करके अधिक उपयोगी बनाने तथा इस प्रभाव से जीवित प्राणियों की प्रकृति बदलने के लिए भी प्रयोग हो सकता है। जर्मन विद्युत विज्ञानी रीकन वेक इसे एक विशेष प्रकार की ‘अग्नि’ मानते हैं। उसका बाहुल्य वे चेहरे के इर्द-गिर्द मानते हैं। और ‘ओरा’ नाम देते हैं। प्रजनन अंगों में उन्होंने इस अग्नि की मात्रा चेहरे से भी अधिक परिमाण में पाई है। दूसरे शोधकर्ताओं ने नेत्रों में तथा उँगलियों के पोरवों में उसका अधिक प्रवाह माना है।

हाँगकाँग को अमेरिकी डॉक्टर आर्नोल्ड फास्ट ने सम्मोहन विधि से निद्रित करके कई रोगियों के छोटे आपरेशन किये थे। पीछे डेन्टल, सर्जनों ने यह विधि अपनाई और उन्होंने दाँत उखाड़ने में सुन्न करने के प्रयोग बद करके सम्मोहन विधि प्रयोग को सुविधा जनक पाया। दक्षिण अफ्रीका जोहन्सवर्ग के टारा अस्पताल में डा. बर्नार्ड लेविन्सन ने बिना क्लोरोफार्म सुँघाये इसी विधि से कितने ही कष्ट रहित आपरेशन करके यह सिद्ध किया कि यह विधि कोई जादू मंतर नहीं वरन् विशुद्ध वैज्ञानिक है। अंग्रेज विज्ञानी जेम्स ब्राइड ने भी नाड़ी संस्थान में पाई जाने वाली विद्युत शक्ति की क्षमता को मात्र शरीर निर्वाह तक सीमित न रहने देकर उसमें अन्य उपयोगी कार्य संभव हो सकने का प्रतिपादन किया है।

द्वितीय महायुद्ध के समय लोगों के मनों में से छिपे हुए रहस्य उगलवा लेने के लिए प्राण विद्युत के प्रयोग की रहस्यमयी विधियाँ खोजी गई थी। मनोविज्ञानी जे0एच॰ एट्स ब्रुक ने इस संदर्भ में कई नये सिद्धान्त खोज निकाले थे और उनका प्रयोग जासूसी विभाग के अफसरों को सिखाया था। इसके लिए तब जर्मनी में एक ‘हिम्नोटाइज्ड इन्टेलीजेन्स’ विभाग ही अलग से बनाया गया था। उसके माध्यम से कितनी ही अद्भुत सफलताएँ भी मिली थी।

प्राणशक्ति के वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में अभी प्राथमिक जानकारियाँ ही उपलब्ध हो सकती है। उसके थोड़े से सूत्र निर्धारित किये गये है और यत्किंचित् उपयोग उपचार जाने गये है। आत्म विज्ञानी मानवी चेतना में सन्निहित इस अद्भुत सामर्थ्य की गरिमा आरम्भ से ही गाते रहें है और कहते रहे है कि जो प्राण विद्या को जान लेता है, उसके लिए इस संसार में ऐसा कुछ भी अनुपलब्ध नहीं रह जाता जो समृद्धि प्रगति और सुख शान्ति के लिए आवश्यक है।


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