मनोमय कोश प्रतिभा और संकल्प शक्ति का केन्द्र

April 1977

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मनोमय कोश मस्तिष्क के मन और बुद्धि संस्थानों से सम्बन्धित है। उसकी साधना हमारी, बुद्धि, कल्पना स्मरण शक्ति आकद के क्षेत्रों को सुविकसित करती है। कालिदास, वरदराज जैसे मन्द मति प्रयत्न पुरुषार्थ से विद्वान, बुद्धिमान बने थे। यह अनपढ़ को सुगढ़ बनाने की प्रक्रिया है इसे प्रशिक्षण द्वारा विकसित करने का उपाय सर्वविदित है। अध्यात्मिक प्रयत्नों द्वारा इस प्रयोजन को किस प्रकार पूरा किया जाय, उसी के प्रयोग में मनोमय कोश की साधना सहायता करती है।

इस साधना का दूसरा क्षेत्र है। साहसिकता का संकल्प-शक्ति का-अभिवर्धन चिन्तन में उत्कृष्टता और क्रिया-कलाप में आदर्शवादिता का मनोवेश करने वाली वे सद्विचारणाएं भी क्षेत्र में विकसित होती है जो चरित्रनिष्ठा विकसित करने के लिए उत्तरदायी है।

शिक्षा के आधार पर ज्ञान सम्पदा बौद्धिक तीक्ष्णता एवं क्रिया कुशलता बढ़ाने के प्रयत्न होते हैं। इसके साथ संकल्प शक्ति का महत्व भी समझा जाना चाहिए, वे उपाय भी अपनाये जाने चाहिए जिनके आधार पर व्यक्ति संकल्पवान बनता है और प्रगति के पथ पर अग्रसर होने में सफल होता है। मनोमय कोश को जागृत करने के उपाय जो भी हों, पर संकल्प-शक्ति का उदय उसी क्षेत्र से होता है।

प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए-अभावों और असुविधाओं से लड़ने के लिए-प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदलने के लिए-न केवल साधन सामग्री की अभिवृद्धि आवश्यक है। वरन् यह और भी अधिक अभीष्ट है कि मानवी संकल्प-शक्ति को बढ़ाया जाय। मात्र साधनों की बहुलता से तो मनुष्य विलासी और आलसी भी बनता चला जायेगा। इससे उसकी अकर्मण्यता अशक्तता और अदक्षता ही बढ़ेगी। प्रगति के इतिहास में साधनों एवं परिस्थितियों का उतना योगदान नहीं है जितना कि विचारणा और आकांक्षा का। संकल्प इन्हीं के समन्वय को कहते हैं। संकल्प की प्रखरता ही प्रगति का पथ-प्रशस्त करती है। जहाँ इसकी कमी होगी वहाँ प्रगति का रथचक्र उतना ही अवरुद्ध एवं दलदल में फँसा दिखाई पड़ेगा।

विकासवाद के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में एक कोशीय एवं बहु कोशीय जन्तुओं की शरीर रचना बहुत ही सरल थी। प्राचीनतम प्राणी ‘प्रोटोजोन्स’ वर्ग के थे। वे एक कोशीय थे। अमीबा, यूग्लोना, पैरापीसियम, बर्टीमेला का आरम्भ इसी रूप में हुआ। पीछे उनमें संकल्प शक्ति जगी, वे सुरक्षा और सुविधा की आवश्यकता अनुभव करने लगे। इसके लिए उन्हें पारस्परिक सहयोग का उपाय सूझा और उसके लिए पारस्परिक सहयोग का उपाय सूझा और उनके लिए सम्मिलित प्रयास करने में जुट गये “बालकाक्स’ वर्ग के जीव छोटे परिवार बनाकर रहने लगे। उनने मिल-जुलकर काम करने की व्यवस्था बनाई। कर्तव्य और उत्तरदायित्व बाँटे। इनमें से कुछ आहार जुटाने में, कुछ सुरक्षा सम्भालने में, कुछ वंश-वृद्धि करने में, कुछ सुविधा सम्पादन में, कुछ व्यवस्था यहीं से आरम्भ हुई। सहयोग के आधार पर न केवल सुविधा बँटी, वरन् उनका निज का स्वरूप एवं अस्तित्व भी विकसित होता चला गया। एक कोशीय जन्तुओं ने अपना काय-कलेवर बहुकोशिय ‘मल्टी सेल्युलर’ वर्ग के जन्तुओं में विकसित कर लिया। वे सरल से जटिल होते गये। इसी चेतनात्मक स्फुरणा को प्रकृति की मौलिक क्रिया माना गया है। विकास के मूल में यही तत्व काम कर रहा है। इसी को संकल्प शक्ति का चमत्कार भी कह सकते हैं।

एक कोशीय जीवों की तुलना में बहुकोशिय जीवों की काया काफी समुन्नत-बनावट की दृष्टि से जटिल बनती हुई। स्पंज, हाइड्रा, जेलीफिश, कोरल, एनीमोन आदि बहु कोशीय जीवों की स्थिति तक पहुँचने पर भी उनके शरीरों में भोजन और मल विसर्जन के लिए एक ही छिद्र था। इन दो प्रयोजनों के लिए दो द्वार तो आगे चलकर बने। विकास का रथ मार्ग पर बढ़ता चला गया है। हड्डियाँ विकसित हुई, मेरुदण्ड बने, खोपड़ी वाले जीवों के शरीर में मस्तिष्कीय चेतना की उपयोगिता देखते हुए खोपड़ी के मजबूत किले बनकर खड़े हो गये। जलचरों ने थल में रहना सीखा। उनमें से कुछ तो हवा में उड़ने की हिम्मत करने लगे। यही विकास क्रम उद्धिज, स्वदेज, अंडज, जरायुज प्राणियों में अग्रसर हुआ है। प्राणियों की अनेक क्षमताएँ उनके कार्य विकास के साथ साथ बढ़ती चली आई है। इन्द्रियों की क्षमता और अवयवों की संरचना का क्रम गाड़ी के दो पहियों की तरह साथ-साथ बढ़ा ह। इसी मार्ग पर चलते हुए आदिम कालीन एक कोशीय जीवन वर्तमान स्थिति तक पहुँचा है। दोनों परिस्थितियों में जमीन आसमान जैसा अन्तर देखा जा सकता है।

विकास की इस प्रक्रिया के आधारभूत कारण खोजने में वैज्ञानिकों ने अपने-अपने ढंग से प्रयत्न किया है और अपने-अपने दृष्टिकोण-निष्कर्ष प्रस्तुत किये है। लेमार्क और हयू गोडिव्राइस ने इस सम्बन्ध में बहुत कुछ खोजा ओर बताया है। अपनी शताब्दी में चार्ल्स डार्विन ने बहुत सन्दर्भ में काफी खोजे हुई है। इन प्रतिपादनों में जीव तत्व को मात्र रासायनिक पदार्थ मान कर विज्ञान वेत्ता एक विचित्र उलझन में फँस गये है। ‘प्रोटोप्लाज्मा’ के काय-कलेवर को बनाने बौर चलाने की क्षमता तो है, पर क्रमिक विकास की ओर बढ़ सकने जैसी क्षमता उसमें किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होती। फिर विकास क्रम किस प्रकार निरन्तर अग्रसर होता चला गया?

नये वैज्ञानिक प्रतिपादनों के अनुसार प्रोटोप्लाज्मा के समतुल्य ही एक दूसरे जीव तत्व की सत्ता स्वीकार की गई है। वह है- ‘ईडोप्लाजमा’। वंश परम्परा में अब इन दोनों का समान योगदान माना जाने लगा है। वंशानुक्रम की मात्र रासायनिक पदार्थों के आधार पर व्याख्या अधूरी और असमाधानकारक ही रही है। अभिरुचियाँ, आस्थाएँ, भावनाएँ, मान्यताएँ, रसायनों के माध्यम से बनी रहने और परिष्कृत होते चलने का कोई तुक नहीं बैठता। ‘ईडोप्लाज्मा’ के संयोग से वह बात बनती है। यह दोनों तत्व एक नहीं है। उनकी सत्ता स्वतन्त्र है। ये एक दूसरे के पूरक भर है। यहाँ प्रोटोप्लाज्मा को-पदार्थ सत्ता का और ईडोप्लाज्मा को चेतना का प्रतिनिधित्व करते हुए पाया जाता है। गतिशीलता, समर्थता, आकांक्षा स्थिति के अनुरूप परिवर्तन, प्रजनन उत्साह, सुरक्षा के लिए संघर्ष, खाद्य पदार्थों को ऊर्जा के रूप में बदल लेना आदि कितने ही कार्य ऐसे है जिन्हें प्रोटोप्लाज्मा के हाथ से छीन लिया गया है। और उनका श्रय ईडोप्लाज्मा को दिया गया है। परमाणु निर्धारित हलचलें करते रह सकते हैं, पर वे उत्साह एवं परिवर्तन की स्फुरणा अपने भीतर से प्रकट नहीं कर सकते। जीवाणु की यही मौलिक विशेषताएँ है। जिनसे उसे पदार्थ वर्ग में रासायनिक संगठना में गिन लेने मात्र से समाधान नहीं हो सकता।

जीवन तत्व की रासायनिक व्याख्याएँ कभी बड़े उत्साह के साथ की जाती थी, पर अब वह जोश ठण्डा पड़ गया है और जीवन सत्ता के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रूप से सोचने और खोजने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। जीव विज्ञानी ई॰ के0 लेन कास्टर का कथन है-भौतिक जगत में चल रही हलचलों के साथ जीवन सत्ता का तालमेल नहीं बैठता। उस निरूपण के पक्ष में प्रस्तुत किये गये प्रतिपादन ओछे पड़ते हैं। जीवन का एक स्वतन्त्र विज्ञान होना चाहिए। पदार्थ विद्या के बटखरों से उसकी नाप-तौल ठीक प्रकार से हो सकता सम्भव नहीं दीखता।

पदार्थ में केवल अस्तित्व है। उसमें न तो जीवन है ओर न हलचल। वनस्पति में अस्तित्व के साथ-साथ जीवन भी है। प्राणियों में अस्तित्व, जीवन और अनुभूति तीनों है। किन्तु विवेचना बुद्धि ओर स्वतन्त्र इच्छा की न्यूनता है। जीवन निर्वाह के परम्परागत अनुभवों और आवश्यकताओं के अनुरूप हो उनके चिन्तर को गाड़ी एक बनी बनाई पर लुढ़कती जाती है। मनुष्य की चेतना सुविकसित स्तर पर पहुँची हुई इसीलिए मानी जाती है कि उसकी संकल्प शक्ति विवेचनात्मक क्षमता ने काफी प्रगति कर ली है। जबकि अन्य जीवधारी शारीरिक दृष्टि से अपेक्षाकृत अधिक बलिष्ठ होते हुए भी चेतना के क्षेत्र में पिछड़े हुए है। जड़ ओर चेतन की आणविक हलचलों में समानता हो सकती है। पर यह सम्भव नहीं दिखता कि पदार्थ कभी चेतना के समतुल्य प्रगति कर सकने में समर्थ हो सकेगा। क्या धातुएँ कभी पक्षियों के तरह आकाश में उड़ने चहचहाने तथा अण्डे देने में समर्थ हो सकेगी? जीवन को रासायनिक सिद्ध करने के प्रयत्नों से काम चलता न देखकर कोल्बिन, हैमरीज, किचनर, अरर्हेनिस, आदि ने अपने-अपने शब्दों में यह कहा है-जीवन किसी अन्य लोक से भूलता, ‘भटकता पृथ्वी पर आ पहुँचा है, पर वह है पदार्थ से भिन्न। यों उसकी सत्ता पदार्थ के समन्वय से ही चिन्तनात्मक प्रयोजन पूरे कर सकती है।

इससे एक कदम आगे बढ़कर पास्टयूर और टैण्डाल ने कहा है ‘जीवन पदार्थ से नहीं जीवन से ही उत्पन्न होता है, हो सकता है।” विकास इतिहास की पृष्ठभूमि का पर्यवेक्षण करते हुए वे कहते है-आदिम काल में सेल किसी दबाव से नहीं स्वेच्छा से वंश वृद्धि करते थे। पीछे वे नर और मादा के रूप में बँट गये। संयोग का आनन्द लेना और उत्तरदायित्व सम्भालना शुरू किया। ऐसी-ऐसी अनेक उलट-पुलट करते-करते जीवधारी वर्तमान स्थिति तक बढ़ते चले आये है। यह स्फुरण का ही चमत्कार है यही वह मौलिक अन्तर है जो जड़ ओर चेतन के बीच भिन्नता की दीवार खड़ी करता है।

आइन्स्टीन कहते थे-अणु सत्ता पर किसी अविज्ञात चेतना का अधिकार और नियन्त्रण है। पदार्थ मौलिक नहीं है उसका उद्भव चेतना की प्रतिक्रिया से ही सम्भव हुआ है। आज यह तथ्य प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं होते तो मेरा विश्वास है कि आज न सही कल यह सब सिद्ध होकर ही रहेगा।

जीवन का मूल स्वरूप उसकी चिन्तन स्फुरणा के साथ जुड़ा हुआ है। विचारणा और आकांक्षा के समन्वय से जो ‘संकल्प’ उठता है। उसी में प्रगति की समस्त संभावनाएँ सन्निहित है। विकासवादी प्रगति पर दृष्टिपात करने पर हमें इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है। वे एक जैसी परिस्थितियों में रहने पर भी एक की प्रगति दूसरे की यथास्थिति और तीसरे के अवगति का अन्तर देखकर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है। कि यह संकल्प शक्ति की न्यूनाधिकता का ही प्रभाव है। साधनों के अभाव में भी लोग आगे बढ़ते हैं। सहयोग के बिना भी प्रगति करते हैं। इसके पीछे उनकी प्रखर संकल्प-शक्ति ही काम करती है। आगे बढ़ने वालों के पीछे साधन भी बनता है। और सहयोग भी जुटता है। मोटर दौड़ती है तो उसके पीछे धूलिकण और पत्ते भी उड़ते चले आते हैं। संकल्प ही मानव जीवन की सर्वोपरि शक्ति है। उसके सहारे सामान्य स्थिति से आगे बढ़कर असामान्य स्तर तक पहुँचा जा सकता है। अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न करने की-निराशा में आशाजनक संभावनाएँ प्रस्तुत करने की क्षमता उसी में है ऊँचे उठने और आगे बढ़ने के लिए साधन जुटाने और सहयोग बनाने की आवश्यकता सभी मनः संस्थान ज्ञान, अनुभव एवं कौशल का ही नहीं प्रतिभा का भी क्षेत्र है। उत्कृष्टता के प्रति आस्था के बीज भी इसी भूमि में जमते हैं। संकल्प शक्ति का उद्गम केन्द्र यही है। मनोमय कोश की साधना द्वारा यदि इन विभूतियों का जागृत एवं उपलब्ध किया जा सकें तो इन विभूतियों को जागृत एवं उपलब्ध किया जा सकें तो उस दिशा में किया गया प्रयत्न सामान्य कार्यों की दौड़-धूप से कम नहीं अधिक ही लाभदायक और बुद्धिमत्तापूर्ण सिद्ध होगा।


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