पंच कोशों की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि

April 1977

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पाँच कोश मानवी चेतना के ही पाँच स्तर है। मनुष्य के सूक्ष्म शरीर के पाँच कलेवर है-(1) अन्नमय कोश (2) प्राणमय कोश (3) मनोमय कोश (4) विज्ञानमय कोश (5) आनन्दमय कोश। आत्मा-परमात्मा के मध्य अगणित आदान-प्रदान इन्हीं पाँच कोशों के द्वारा होते हैं। जो व्यक्ति जितने अधिक कोशों पर अधिकार कर लेता है-वह शक्तिहीनता तथा तुच्छता से उतना ही ऊपर उठता जाता है। पाँच कोशों पर अधिकार कर लेने वाला व्यक्ति देवपुरुषों की श्रेणी में जा विराजता है। इसका यह अर्थ नहीं कि वह चाहे, वह करने लगता है। यह सत्य है कि देवसत्ताओं की तरह वह भी उन कामों को सरलता से सम्पन्न कर सकता है, जिन्हें सामान्य व्यक्ति असम्भव ही माने रहता है। पर वह स्वेच्छाचारी नहीं हो जाता। देवसत्ताएँ भी सार्वभौम नियम-व्यवस्था के ही अनुसार कार्य करती है। उस श्रेणी तक पहुँचे हुए महापुरुष की भी कोई ‘वैयक्तिक इच्छा’ नहीं रह जाती। वह शाश्वत सत्ता की नियम-व्यवस्था से एकाकार हो जाता है। इसीलिए वह सामान्यतः असम्भव लगने वाले कार्य कर सकता तथा अदृश्य प्रतीत होने वाले दृश्य देख सकता है। यह चेतना-धरातल को उठाकर समष्टि-चेतना से तादात्म्य स्थापित कर लेने की स्थिति है। इस सम्पूर्ण सृष्टि में तथा उससे परे भी, सर्वत्र चेतना-प्रवाह विद्यमान् हैं इस इस चेतना की अनन्त परतें है। प्रत्येक चेतना-स्तर अपने ढंग का अनूठा है। सामान्य मनुष्य जिस चेतना धरातल का स्पन्दन ग्रहण कर पाने में अक्षम हो, वहाँ चेतना है ही नहीं, यह बात तार्किक दृष्टि से तो मान्य नहीं ही है, आधुनिक पदार्थ विज्ञानी भी अब इसी निष्कर्ष पर पहुँच चुके है कि चेतना के अनन्त समुद्र में हमारी पैठ अत्यल्प नगण्य है।

चेतना का विशाल सागर इस ब्रह्माण्ड में विस्तृत है। उसी ने पदार्थ को उत्पन्न किया है। पदार्थ भौतिक विज्ञानी ने पदार्थों में ही सत्य को सन्निहित मान सत्यान्वेषण प्रारम्भ किया और अब वह प्रकृति के सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तरों में प्रवेश करता हुआ विस्मित हो उठा है पदार्थ की ही सत्ता संदिग्ध हो उठी है। और अपना सम्पूर्ण बोध ही एक भ्रम या आभास मात्र प्रतीत होने लगा है। अभी हम जो मानते हैं, वह सब हमारे बोध की परिधि में सिमटे सृष्टि-रूपों की झलक मात्र है। अर्थात् उसे आभास ही कहा जा सकता है, सत्य नहीं। यह आभास हमारे लिए ज्ञान चेतना-धरातल की परिधि में बद्ध है। यदि किसी प्रकार हमारी चेतना, जो भी बोध है, वह तब पूरी तरह बदल ही जाएगा। जिसे आज सर्वथा सत्य मान रहें है। कल वही एक भ्रम मात्र लगने लगेगा।

आइन्स्टीन ने चेतना के इसी आयाम को, “बोध” के नये धरातल को ‘चतुर्थ आयाम’ की संज्ञा दी थी। आज वैज्ञानिकों को चतुर्थ आयाम सम्बन्धी अनेक साक्ष्य प्राप्त हो रहें है।

मृत्यु के समय मानव-शरीर से तथा अन्य प्राणियों के भी शरीर से विद्युत-धाराएँ निकलती देखी गई है। वे धाराएँ कहाँ चली जाती हैं, यह वैज्ञानिक अभी तक नहीं जान सके है। त्रिआयामी विश्व की वैज्ञानिकों को जो जानकारी अभी है, उसके अनुसार तो ये निश्ट-सी ही हो जाती है, पर ऊर्जा अविनाशी है। अतः माना यह जा रहा है कि किसी चौथे आयाम में ये विद्युत धाराएँ पहुँच जाती हैं उसी प्रकार सहसा कुछ विद्युत-धाराएँ अज्ञात सी प्रकट होती देखी-पाई गई है, जिनका स्रोत नहीं जाना जा सका हैं ऊर्जा का यह अज्ञात क्षेत्र से प्रवाहित होना और अज्ञात क्षेत्र से प्रवाहित होकर यहाँ आना चौथे आयाम का प्रमाण माना जा रहा है जो विद्युत-धाराएँ सहसा प्रकट होती देखी गई है, उनका कारण नहीं जाना जा सका हैं अर्थात् वे ज्ञात जानकारियों के अनुसार “कारण रहित काय” है यह कारणता के सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत है। प्रत्येक कार्य का कोई कारण अवश्य होता है। अतः विद्युत प्रवाहों के आकस्मिक प्राकट्य रूपी कार्य का कारण चतुर्थ आयाम से सम्बन्धित माना जा रहा है।

चतुर्थ आयाम की अवधारणा से अवगत होने के लिए उसे जो समझा जा सकता है। हमारा सम्पूर्ण बोध तीन आयामों तक सीमित है। जो कुछ भी हम देखते-जानते समझते-सोचते हैं, वह त्रिआयामी वस्तु-जगत से सम्बन्धित होता है। ये तीन आयाम है-पहला लम्बाई, दूसरा चौड़ाई, तीसरा मोटाई, गहराई अथवा ऊँचाई। यह तो हो सकता है कि किसी वस्तु का कोई आयाम अधिक हो, कोई कम। जैसे किसी सन्दूक की लम्बाई, चौड़ाई तथा ऊँचाई तीनों ही अधिक होती है, किन्तु कागज की मात्र लम्बाई-चौड़ाई ही अधिक होती है, केश या बाल की लम्बाई ही अधिक होती है, जबकि किसी धूलि-कण के तीनों आयाम बहुत छोटे होते हैं। ये तीनों आयाम देश या ‘स्पेस’ में होते हैं। आइन्स्टीन के अनुसार चौथा आयाम है। ‘टाइम्स’ या काल।

सामान्यतः तीन आयामों तक ही हमारा बोध-क्षेत्र हैं चतुर्थ आयाम का बोध होते ही हमारे सामने ज्ञान का एक अनन्त क्षेत्र खुल सकता है। तब यह संसार एक सर्वथा भिन्न रूप में नजर आने लगेगा। ऐसा बहुत कुछ जिसे हम यथार्थ, वास्तविक और सत्य मानने-जानते हैं, वह अयथार्थ और एक भ्रान्ति मात्र है, यह स्पष्ट हो जायेगा।

इसे क्रमशः इस तरह समझा जा सकता है-एक बिन्दु को लें। यद्यपि प्रत्येक बिन्दु कुछ न कुछ स्थान घेरता ही है, पर गणित में बिन्दु कुछ न कुछ स्थान घेरता ही है, पर गणित में बिन्दु वस्तुतः उसे ही कहते हैं, जिसका कोई स्थान तो हो, पर आकार न हो या कह सकते हैं रूप तो हो पर आकार न हो। अब कोई 10 सेंटीमीटर लम्बी रेखा को लें। इस रेखा में असंख्य बिन्दु समाहित हो सकते हैं, क्योंकि बिन्दुओं का तो कोई ‘साइज’ या आकार होता नहीं। यह 10 सेंटीमीटर लम्बी रेखा, ‘स्पेस’ की एक ही दिशा ‘लम्बाई’ का प्रतिनिधित्व करती है। यह हुआ एक आयाम। एक वर्ग जिसमें लम्बाई व चौड़ाई दोनों है, पर गहराई मोटाई या ऊँचाई नहीं, उसमें लम्बाई और चौड़ाई के दो आयाम हुए। जैसे किसी कागज के पन्ने की ऊपर सतह। जबकि किसी कमरे में, जिसमें लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई तीनों होती है, तीनों आयाम उपस्थित रहते हैं किसी सतह पर नाली में रहने वाले दो ऐसे कीड़ों की कल्पना कीजिए तो सिर्फ एक ही आयात लम्बाई जानते हो, चौड़ाई भी कोई वस्तु होती है, वह जानते ही न हों। इसका अर्थ है कि यदि वे संयोगवश आपने-सामने आ पड़ते हैं, तो वे एक दूसरे से बचकर नहीं निकल सकते। क्योंकि अगल-बगल जैसी कोई चीज वे जानते ही न होंगे। वे तो बस उसी रेखा में, उसी सीध में या तो आगे जा सकते हैं या पीछे आ सकते हैं। वही उनका संसार है।

किसी पुस्तक का पृष्ठ यदि चेतन हो उठे, पर उसका बोध-क्षेत्र लम्बाई और चौड़ाई इन दो ही आयामों तक सीमित हो तो वह उसी पुस्तक के दूसरे पृष्ठों के अस्तित्व को कभी भी नहीं जान सकता।

अपने त्रिआयामी बोध-सामर्थ्य के कारण जब हम किसी छाया-चित्र को देखते हैं, तो उसमें गहराई की स्वयं ही कल्पना कर उस चित्र को समझ लेते हैं। जबकि सामान्यतः यदि किसी कुत्ते को उसका या उसके स्वामी का छाया-चित्र दिखाया जाय, तो यह उसके लिए अर्थहीन होगा। उस पर इसकी कोई प्रतिक्रिया न होगी। लेकिन उस चित्र में गति आ जाने पर वही कुत्ता प्रतिक्रिया करेगा। क्योंकि तब जैसे उसकी चेतना में कोई स्मृति बोध जाती है गति का नया घटक स्थिति को बदल देता है। चल-चित्र आदि को देखकर इसीलिए कुत्ता भौंकने लगता है।

दो आयामों वाले चित्रों को देखने की अभ्यस्त हमारी जागृत मनश्चेतना त्रिविमितीय स्तर के छाया चित्रों को देखकर किस तरह विभ्रान्त हो उठती है, उस होलोग्राफी के जानकार लोगों को विदित हैं लेजर किरणों की कृपा से “होलोग्राफी’ के आधार पर त्रिविमितीय सिनेमाओं का निर्माण कई विकसित देशों में प्रारम्भ भी हो चुका है। जहाँ पर्दे पर मनुष्य, मोहर, घोड़े, रेलगाड़ी, भालू, शेर आदि यथार्थवत् चलते, दौड़ते दिखाई पड़ते हैं और अनभ्यस्त सिनेमा दर्शक प्रारम्भ में भ्रमित हो जाते हैं।

इस प्रकार तीसरे आयाम का ही नये सन्दर्भ में नवीन बोध जब हमें विस्मित-विमुग्ध कर दे सकता है, तब चतुर्थ आयाम की जानकारी तो पूरे बोध-क्षेत्र को ही उलट-पुलट देगी और हमारी वर्तमान निर्विवाद धारणाएँ भी जड़-मूल से उखड़ जायेगी।

आइन्स्टीन ने जब सर्व प्रथम सापेक्षता-सिद्धान्त की व्याख्या की तो सम्पूर्ण विश्व में केवल बारह वैज्ञानिक उसे समझ पाये थे। ऐसा कहा जाता है। फिर जब प्रोफेसर स्मिथ ने सर्वे सामान्य को समझाने के लिए सापेक्षता सिद्धान्त पर एक पुस्तक लिखी, तो एक विनोद ही चल निकला कि आइन्स्टीन ने सर्व प्रथम व्याख्या की, तो उसे बारह मय पाये, किन्तु प्रोफेसर स्मिथ की व्याख्या तो एक भी व्यक्ति नहीं समझ पाया। अँगरेजी में इस सन्दर्भ में एक हास्य-कविता भी है, जिसका मनोरंजक भावानुवाद यों होगा-

“एक थी लड़की- नाम जोन ब्राइट, चलती दिन उमंग में, प्रकाश से भी प्रखरतर वेग से चली वह आइन्स्टाइनी ढंग से, लौटकर आई तो थी पिछली “नाइट”।

किन्तु आत यह बात विनोद नहीं रह गई है। काल की गति पीछे की दिशा में भी लौट सकने की बात अब वैज्ञानिक जगत में सर्व स्वीकृत होती जा रही है। असीम वेग से चलने वाले कणों की जानकारी बढ़ती जा रही है। 1976 में गेराल्ड फीनवर्य ने काल्पनिक मात्रा के इन कणों को ‘टेकियान’ नाम दिया। टेकियान का प्रापर मास’ काल्पनिक होता है एवं उनका वेग प्रकाश-वेग से भी ज्यादा होता, प्रकाश-वेग से कम तो नहीं ही हो सकता। यद्यपि अभी ऐसे उपकरणों का अभाव है, जिनके द्वारा टेकियान को प्रदर्शित किया जा सकें, किन्तु वैज्ञानिकों द्वारा यह तथ्य मान्य हो चुका है कि ‘टेकियान’ विद्यमान् है।

1968 में टेक्सास विश्वविद्यालय, संयुक्त राज्य अमरीका में अनुसन्धान कार्य कर रहें डॉ0 दर्शन ने फीनवर्ग की परिकल्पना को सही सिद्ध कर दिया। ये तो हुए प्रकाश-वेग से अधिक तीव्रगति टेकियान, जिन पर अनुसन्धान जारी है। प्रकाश-वेग से गतिमान कणों को ‘लक्सान’ कहते हैं, जिनका ‘प्रापर मास’ शून्य रहता है। फोटोन, न्यूट्रिनो व एन्ट्रीन्यूट्रिनो स्थायी होते हैं। इन कणों की खोज ने काल सम्बन्धी एक नई अवधारणा को वैज्ञानिकों के बीच प्रतिष्ठित कर दिया है। और वे मानने लगे है कि समय मात्र आगे ही नहीं जाता, पीछे की तरफ भी लौट सकता है। फोटोन कणों का वेग प्रकाश- वेग के बराबर होता है, अतः उनके लिए तो काल-गति शून्य है। भूत, वर्तमान और भविष्य में कोई अन्तर नहीं हैं प्रकाश-वेग से अधिक गति वाले के सर्वथा विपरीत हो जाती है। हम अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य की काल-यात्रा करते हैं, किन्तु उन कणों की यात्रा भविष्य से वर्तमान और वर्तमान से अतीत में होती हैं। यही है काल के चतुर्थ आयाम की आइन्स्टीन की धारणा।

जब अतीत में लौटना भी सम्भव हो जाएगा तो हमारा वर्तमान बोध किस प्रकार अस्त-व्यस्त हो जाएगा, यह हम भली-भाँति समझ सकते हैं। उदाहरणार्थ हमारी वर्तमान धारणा है कि राम एवं कृष्ण, महात्मा गाँधी आदि मर गये। लेकिन तब हम स्पष्ट उन्हें उसी रूप में देख सकेंगे, जैसे कि वे उस समय थे। इससे जन्म-मृत्यु की भौतिकवादी धारणा पूरी तरह ध्वस्त हो जाएगी और भारतीयों की जो मान्यता अभी जन सामान्य प्रत्यक्षतः सत्य दिखाई देगी तब। यह स्पष्ट हो जायेगा कि जन्म या मृत्यु चरम अर्थों में एक भ्रान्ति मात्र है। यह हुआ काल के चतुर्थ आयाम की जानकारी का एक प्रभाव परिणाम। हमारे सम्पूर्ण बोध-क्षेत्र में ही ऐसी ही उथल-पुथल मच जायेगी। जिसे नष्ट होना मान बैठते हैं, वह रूप, परिवर्तन मात्र प्रतीत होगा। जिसे आज अपना बेटा, अपनी पत्नी मानते हैं, यह अतीत का अपना भाई, मित्र या शत्रु भी है। यह स्पष्ट दिख जाने पर रिश्तों के प्रति वर्तमान दुराग्रही मोह टूट जायेगा, क्योंकि वह एक मूर्खता पूर्ण भ्रान्ति मात्र है, यह स्पष्ट हो जायेगा।

यह सब अत्यन्त निकट है। रूसी वैज्ञानिक एलेक्जेन्डर बोलगोव का कहना है कि यह सुनिश्चित सम्भावना है। उनके अनुसार ‘आर्कियोविडयोफोन’ नामक संयन्त्र निर्मित किया जा सकता है, जो टेलीविजन-सेट जैसा होगा। यह संयन्त्र जिस व्यक्ति के पास होगा वह व्यक्ति अपने परिवार सम्बन्धी पात्रों या सम्बन्धियों के छाया-चित्रों आदि के आधार पर अपने दादाओं, परदादाओं की आकृतियाँ इस संयन्त्र के पर्दे पर देख सकेगा और उनसे वार्तालाप भी कर सकेगा। यह हुई काल के चतुर्थ आयाम के बोध की एक करामात।

पाँचवें आयाम में मस्तिष्क और चेतना के अकल्पित क्रिया, व्यापार सम्भव होगे। उस आयाम की खोज से आत्माओं की अवधारणा भी विज्ञान के सामने स्पष्ट हो सकती है तथा अनन्त लोकों की नवीन जानकारियों का द्वार खुल सकता है। अभी विश्व की जानकारी जितनी है, उसमें यांत्रिक माध्यमों से उच्चतर आयाम के अन्वेषण की विधि ज्ञात नहीं है। किन्तु मानव जाति ऐसी मनः नियन्त्रण की शक्ति अर्जित, विकसित कर सकती है। जिससे कि उक्त नवीन आयाम का बोध प्राप्त हो सके, भले ही यांत्रिक उपकरण वैसे सुलभ या सम्भव न हो सके।

भारतीय मनीषियों के मन की ऐसी ही साधना कर चेतना के विविध आयामों का बोध प्राप्त किया था। पंच कोश इन्हीं पाँच चेतना आयामों के ही नाम है। शरीरस्थ इन पाँच आणविक विद्युत भण्डारों को अन्तरिक्ष के संव्याप्त असंख्य शक्तिधाराओं के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाले शक्तिशाली इलेक्ट्रानिक संयन्त्र के रूप में प्रयुक्त कर ज्ञान और शक्ति का अनन्त विस्तार किया जा सकता है। मनुष्य में समस्त देवशक्तियों का अंश विद्यमान् है, अतः वह अपने भीतर निहित इनमें से किसी भी शक्ति का अथवा सभी ताकि अनेक शक्तियों के समन्वित स्वरूप का विकास कर सकता है। पदार्थवाद अभी तक इस मार्ग में बाधा बनने का प्रयास कर रहा था। अब वही इस मार्ग का नया व्याख्याकार बनने जा रहा है।

अन्नमय कोश को ‘मैटर’ प्राणमय कोश को ‘सेल’ मनोमय कोश को “माइन्ड” विज्ञानमय कोश का “पार्टनालिटी” तथा आनन्दमय कोश को “इण्ट्यूशन” कहा जा सकता है। “मैटर” के बारे में विज्ञान उल्लेखनीय जानकारियाँ जुटाने में सफल हुआ है और इन्हीं जानकारियों ने उसे चतुर्थ आयाम की सम्भावनाओं के द्वार पर ला खड़ा किया है। “सेल” तथा “माइन्ड” के क्षेत्र में अभी वह कुछ ही कदम बढ़ा पाया है। शीघ्र ही इस दिशा में भी उल्लेखनीय प्रगति की आशा की जा सकती है। आवश्यकता है “पर्सनालिटी” और ‘इण्ट्शन’ के क्षेत्र में अन्वेषण प्रगति की। सामान्य मानसिक क्रियाशीलता की भी सभी सूक्ष्म गतिविधियाँ ऐन्ट्रिक अनुभवों द्वारा नहीं जानी जा सकती। फिर चेतना के उच्चतर आयामों के लिए तो ऐन्द्रिक अनुभव-परक उपकरणों की सीमाएँ स्पष्ट है।

आइन्स्टीन चतुर्थ आयाम से भी आगे एक पंचम आयाम की सम्भावना देखते हैं। चतुर्थ आयाम के अस्तित्व को अतीन्द्रिय ज्ञान की असंख्य घटनाएँ प्रमाणित करती रहती है। प्रेत शरीर के बारे से स्वप्नों को सही संकेतों के रूप में-दूर-दर्शन दूर श्रवण, विचार संचार आदि के रूप में हम अदृश्य जगत की सत्ता को प्रत्यक्ष वत् देखते हैं यह चौथे आयाम की पुष्टि है। पाँचवाँ आयाम वह है जिसमें ब्रह्माण्डीय चेतना और आत्म-चेतना का परस्पर सम्बद्ध करके मानवी सत्ता को ईश्वर तुल्य बनाया जा सकना और उतना ही शक्ति सम्पन्न सिद्ध कर सकना, सम्भव हो जाएगा। प्रति विश्व, प्रति कण, आदि के रूप में ही संसार से बिलकुल सटे एक ऐसे विश्व का अस्तित्व अगले दिनों सिद्ध होने जा रहा है जिसे पौराणिक काल के दैत्य-लोक के समतुल्य कहा जा सकें। यह क्षेत्र भी पंचम आयाम की परिधि में ही आ जाएगा।

लम्बाई, चौड़ाई, गहराई के तीन आयामों का अस्तित्व हमारी आँखें ही प्रत्यक्ष देखती है। ‘होलोग्राफी’ के आधार पर अब उसका उपयोग आश्चर्यजनक फोटोग्राफी के रूप में आ चुका है। चतुर्थ आयाम अतीन्द्रिय चेतना का है, जिसे परामनोविज्ञान आदि अनेक विज्ञान धाराएँ अपनी खोज का विशय बना चुकी है और उसकी प्रामाणिकता पर पूरी तरह विश्वास करने लगी है। बात इतनी ही जानना शेष है कि उस क्षमता को हस्तगत कर सकना और लाभ उठाया जा सकना कैसे सम्भव हो सकता है। वस्तुतः यह प्रसंग भी भौतिक भाग ही है। सूक्ष्म जगत अपने स्थूल जगत का ही अदृश्य भाग है। थोड़ा प्रयत्न करने पर उसका अस्तित्व आसानी से जाना जा सकता है। प्रकृति के रहस्यों की परतें खुल रही है। अदृश्य को खोजते-खोजते ही है, अणु शक्ति, लेजर किरण, ईथर, रेडियो विकिरण, कास्मिक किरणें आदि का अन्वेषण और उपयोग सम्भव हो सकता है। अतीन्द्रिय क्षमताएँ मनुष्य के मस्तिष्क केन्द्र में उत्पन्न होती है। वे आती इसी अपने संसार के अदृश्य क्षेत्र से है। इसलिए यह सब प्रकृति का अदृश्य-अविज्ञात क्षेत्र कहा जा सकता है। सामान्य प्रचलन में न रहने वाली हर बात अद्भुत लगती है। चतुर्थ आयाम के आश्चर्यजनक लगने का भी यही कारण है।

संक्षेप में आयामों को स्थूल और सूक्ष्म प्रकृति का क्षत्र कह सकते हैं। स्थूल की अनुभूतियाँ स्थूल शरीर और सूक्ष्म उपकरणों से होती है, सूक्ष्म के लिए मस्तिष्क-प्राण जैसे उच्चस्तरीय चेतना-युक्त औजार प्रयुक्त करने पड़ते हैं।

पाँचवाँ आयाम विशुद्ध चेतनात्मक है। उसे ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ जीव-चेतना के साथ जोड़ने की ओर उस स्थिति का असाधारण लाभ उठाने की प्रक्रिया कहा जा सकता है। आत्मा और परमात्मा का मिलना कितना आनन्ददायक कितना शक्तिशाली कितना प्रभावोत्पादक हो सकता है। इसकी आज की समुचित चर्चा कर सकना भी अपनी भौतिक मनःस्थिति में सम्भव नहीं है। पर तत्त्वज्ञानी सूक्ष्मदर्शी उसका रसास्वादन कर रहे है। इसी आधार पर वे देवात्मा बने है और दूसरों को अपनी नाव पर बिठा कर पार लगाया है।

पंचम आयाम में भी शिव और शक्ति का, विष्णु और लक्ष्मी का संयोग है। ब्रह्म ओर प्रकृति का वहाँ भी समन्वय है। अति सूक्ष्म, प्रकृति को शक्ति, लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती आदि कह सकते हैं। अति सूक्ष्म-ब्रह्म को शिव, विष्णु, ब्रह्मा आदि कहा जाता है। इन देवी-देवताओं की उपासना से जीव किस स्थिति तक जा पहुँचता है इसकी चर्चा पौराणिक कथा-गाथाओं में अलंकारिक रूप से विस्तारपूर्वक होती रही है। वह वस्तु स्थिति है। बुद्धिवाद और अनुभव न कर सके फिर भी संवेदनाओं ओर अनुभूतियों के क्षेत्र की विशिष्टता अस्वीकार नहीं की जा सकती। नर-पशुओं और नर-नारायणों के बीच देखा जाने वाला अन्तर भी अकारण नहीं होता। उसमें पंचम आयाम की विशेषताएँ ही काम कर रही होती है।

पाँच कोश इन्हीं पाँच आयामों का प्रतिनिधित्व करते हैं। पंचकोशी साधना का महत्त्व इसी दृष्टि से है कि हम जड़ के भीतर हर क्षेत्र में काम कर रहे चेतन के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ सके। पदार्थ का स्थूल उपयोग कर सकना ही पर्याप्त नहीं, उसकी मूल-सत्ता को हस्तगत किया जा सकें तो ही वास्तविक लाभ है। पाँच कोशों में प्रथम विशुद्ध पदार्थ परक है। दूसरे को पदार्थ का ऊर्जा क्षेत्र कह सकते हैं। प्रथम अन्नमय और दूसरा प्राणमय कोश है।

आगे चेतना का क्षेत्र आरम्भ होता है। व्यक्ति का ज्ञान क्षेत्र दो भागों में विभक्त है एक ज्ञात। दूसरा अविज्ञात। ज्ञात को मनोमयकोश कहते हैं। उसका प्रशिक्षण संवर्द्धन उपयोग, विचार-विमर्श एवं बौद्धिक आदान प्रदान के सम्भव हो जाता है। उस क्षमता के विकसित होने पर मनुष्य बुद्धिमान कहा जाता है और बुद्धि शक्ति के सहारे जो लाभ मिल सकते हैं, उन्हें उठाता है। उसे मनोमय कोश समझा जाना चाहिए।

विज्ञानमय कोश मनःचेतना की गहरी परत है। ‘चित्त’ और अहंकार के रूप में इसी की व्याख्या की जाती है। अतीन्द्रिय क्षमता का क्षेत्र यही हैं। सूक्ष्म जगत में प्रवेश करके अपने संसार की कारणभूत स्थिति के साथ सम्बन्ध जोड़ सकना इसी आधार पर सम्भव होता है। सिद्ध पुरुष इसी प्रक्रिया में प्रवीण होते हैं। ऋद्धि-सिद्धियाँ यही से उपलब्ध होती है।

व्यक्ति सत्ता का एक वर्गीकरण स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के रूप में भी होता रहा है। पंच तत्त्वों से बना और प्रत्यक्ष होने के कारण यही अपना काम-काजी शरीर स्थूल कहलाता है। प्राण-शक्ति की इसी को सामर्थ्य है। इसलिए अन्नमय और प्राणमय कोशों का सम्मिलित स्वरूप स्थूल-शरीर कहा जाता है। मनोमय कोश ओर सूक्ष्म शरीर पूर्णतया एक ही है। कारण शरीर को विज्ञानमय कोश समझा जाना चाहिए। भाव सम्वेदना का, मस्तिष्क की अतीन्द्रिय चेतना का समावेश यही है। आनन्दमय कोश का उतना अंश इसी क्षेत्र में आता है। जिसमें जीव-सत्ता और परम-सत्ता के मिलन की आत्म साक्षात्कार, ब्रह्म साक्षात्कार जैसी दिव्य अनुभूतियाँ होती है। स्थिति प्रज्ञ, अवधूत, ब्रह्मज्ञानी, तत्त्वदर्शी, जीवन मुक्त इसी स्थिति में परिपक्व होते हैं।

यह सारे क्षेत्र शरीर स्थिति में सम्बन्धित है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण यह तीनों ही शरीर से सम्बन्धित है। स्थूल, सूक्ष्म, और कारण यह तीनों ही शरीर है। जीव चेतना का स्वतन्त्र अस्तित्व रहने तक ही इनकी स्थिति है इसके उपरान्त जब तीनों शरीरों से मुक्ति मिल जाती है तब वह अनिर्वचनीय स्थिति आती है। जिसमें जीव और ब्रह्म का अन्तर समाप्त होता है। द्वैत मिट कर अद्वैत बनता है।

गायत्री के पाँच मुख-पाँच कोशों के प्रतीक है। इस साधना को पूरी करते हुए हम पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचते हैं। इन्हें परीक्षा के पाँच वर्ग एवं स्तर कह सकते हैं। विज्ञान के क्षेत्र में इन्हीं की पाँच आयामों के रूप में व्याख्या की जाती है। आत्मिक प्रगति के पथ पर हम जितने-जितने आगे बढ़ते हैं, उतने ही उतने दिव्य-विभूतियों से सुसम्पन्न बनते चले जाते हैं। ब्रह्म वर्चस् साधना प्रक्रिया द्वारा इसी मार्ग पर आज की स्थिति के अनुरूप साधन, विधान बताकर प्रगति पथ पर अग्रसर करने का प्रयत्न किया जा रहा है।


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