प्राण शक्ति एक जीवन्त ऊर्जा

April 1977

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मनुष्य शरीर में विद्युत शक्ति का विपुल भण्डार भरा पड़ा है। मस्तिष्क से विचारों के कम्पन विद्युत प्रवाह के रूप में ही निकलते हैं। शरीर की आन्तरिक क्रिया प्रक्रिया नाड़ी समूह के साथ साथ प्रवाहित होते रहने वाले विद्युत प्रवाह के द्वारा ही संभव होती है। मस्तिष्कीय विद्युत में मन ओर बुद्धि के द्वारा देखे जाने वाले अनेकानेक चमत्कार आये दिन सामने आते हैं। साहस और उत्साह के रूप में-स्फूर्ति ओर उमंगों के रूप में इसी क्षमता के उभार उफनते दीख पड़ते हैं। विज्ञानवेत्ता प्राण की व्याख्या इसी मानवी विद्युत के रूप में करते हैं।

मनुष्य के काम करने वाला यह विद्युत प्रवाह भौतिक बिजली के समतुल्य नहीं है। बादलों के कड़कने वाली बिजली और धूप से अनुभव होने वाली गर्मी के समकक्ष उसे नहीं माना जा सकता यह बिजली घरों में उत्पन्न की जाने वाली ‘शक्ति’ के समान भी नहीं है। भौतिक बिजली में धक्का मारने, आगे बढ़ने एवं फैलाने की क्षमता है। उसकी गणना अश्व ‘शक्ति’ के रूप में की जाती है। किन्तु मानवी विद्युत की क्रिया पद्धति इससे भिन्न है उसमें व्यक्तिगत के बहुमुखी विकास की अनेकानेक संभावनाएँ जुड़ी हुई है। इतना ही नहीं वह अन्य प्राणियों को-पदार्थों को प्रभावित करती है। और वातावरण पर अपना असाधारण प्रभाव छोड़ती है।

अध्यात्म विवेचना में उसका वर्णन ‘प्राण’ के रूप में किया जाता है। ह्यूमन मैगनेटिज्म एवं मेटाबोलिज्म उसे कहा जाता है। इसी का जीवनी शक्ति एवं मानवीय विद्युत कहा जाता है।

“प्रोजोक्टिज्म आफ एस्ट्रल बॉडी” ग्रन्थ में मानवी काया की अद्भुत संरचना ओर विचित्र कार्य पद्धति पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए वहाँ गया है कि इतना अद्भुत होते हुए भी यह यंत्र काम कर सकने में इस क्षमता को आधार पर ही समर्थ होता है। जिसे मानवीय विद्युत कहा जाना चाहिए। इसकी मात्रा एवं स्थिति यदि दुर्बल होगी, तो उनका प्रभाव शरीर संरचना सब प्रकार उपयुक्त होते हुए भी निराशाजनक ही देखा जा सकेगा। लेखन का कथन है कि सौर-मण्डलीय परिवार की तथा अन्यान्य ग्रह नक्षत्रों की ज्ञात और अज्ञात किरणें धरती पर आती है। उनका प्रभाव पदार्थों पर तो पड़ता ही है। मानवी काया भी उस अनुदान में से अपना भाग ग्रहण करती है। सामान्यतया पदार्थों की तरह जीव धारियों को भी उस अभिवर्षण का लाभ अनायास ही मिलता रहता है किन्तु यदि संकल्प शक्ति की प्रखरता हो तो व्यक्तिगत चुम्बकत्व प्रचंड होता चला जायेगा और उस आकर्षण से वह अन्तर्ग्रही सामर्थ्य प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होती चली जायेगी।

गामा, बीटा, एक्म, लेसर, आल्ट्रा वायलेट, अल्फज्ञ वायलेट आदि कितने ही स्तर की शक्ति किरणें भू-मण्डल के भीतर और बाहर काम करती है। उन सब का समुचित समावेश मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में हुआ है। स्थूल शरीर जड़ पदार्थों की बन्धन रज्जुओं से जकड़ा होने के कारण ससीम है। पर सूक्ष्म शरीर में सम्मिलित शक्तियों का कोई अन्त नहीं। उसका निर्माण ऐसी इकाइयों से हुआ है। जिनकी हलचल ही इस वातावरण में विविध-विधि क्रियाकलाप उत्पन्न करती है। इस दृष्टि से मनुष्य बाहर से एक जीवधारी मात्र दीखते हुए भी वस्तुतः असीम सामर्थ्यों का पुँज है। कठिनाई एक ही है। कि वे सामान्यतया प्रस्तुत स्थिति में पड़ी रहती है जिन्हें अधिक मात्रा में आकर्षित करने और व्यावहारिक भूमिका का निर्वाह कर सकने योग्य बनाने में व्यक्तिगत रूप से प्रबल प्रयत्न करने पड़ते हैं।

ब्रह्माण्ड-व्यापी महाशक्तियों में ग्रहों की गुरुत्वाकर्षण क्षमता सर्वविदित है। आकाश में अवस्थित सभी ग्रह नक्षत्र गुरुत्वाकर्षण आखिर है क्या? इसका सूक्ष्म अन्वेषण करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि यह मूलतः इलेक्ट्रो मैगनेटिक विद्युत चुम्बकीय क्षमता है। जो ग्रह-नक्षत्रों की भ्रमणशीलता और आकर्षण शक्ति के उभय-पक्षीय प्रयोजन पूरे करती है। प्रकाश, ताप, ध्वनि, विद्युत इसी के स्वरूप है। अणुओं की हलचलों से लेकर रासायनिक परिवर्तनों का सरंजाम वही जुटाती है। ईश्वर के ब्रह्माण्ड -व्यापी महासागर पर इसी विद्युत चुम्बक का आधिपत्य छाया हुआ है। यह शक्ति जड़ नहीं है। यदि वह जड़ रही होती, तो अणु-परमाणुओं की संरचना ओर हलचलों में अद्भुत व्यवस्था दिखाई पड़ती और उसके दर्शन न होते।

यही विद्युत चुम्बक ‘प्राण’ है। मनुष्य में वह तेजोवलय के रूप में काया के इर्द-गिर्द फैला हुआ देखा जा सकता है। शरीर में ऊर्जा के रूप में उसका अस्तित्व है। जीवाणुओं की-अवयवों की विभिन्न हलचलें इसी के सहारे संचारित होती है। मस्तिष्क की मशीन अपने आम में अद्भुत है, पर वह स्वसंचालित नहीं है। यदि उसकी अपनी सामर्थ्य रही होती तो फिर मृत शरीर का मस्तिष्क भी अपना काम करते रह सका होता। यह ‘प्राण्’ है जो मस्तिष्क की चेतन ओर अचेतन परतों पर छाया हुआ है और उन्हें अपने निर्धारित क्रिया-कलाप करते रहने के लिए आवश्यक सामर्थ्य प्रदान करता है।

ग्रहों में अपना-अपना गुरुत्वाकर्षण है। फिर भी वह उनका निजी उत्पादन नहीं है। ब्रह्माण्ड-व्यापी विद्युत चुम्बकीय क्षमता में से ही यह ग्रह-नक्षत्र अपना हिस्सा बँटाते हैं और गुरुत्वाकर्षण दूसरे शक्ति संचारों से भरे रहते हैं। यह सम्मिलित पूँजी है जिसमें से विश्व परिवार के सभी घटक अपना-अपना भाग पाते और गुजारा करते हैं। यही बात प्राण-शक्ति कि सम्बन्ध में भी है। विश्व व्यापी ‘महाप्राण’ एक तथ्य है। उसी विशाल वैभव में से पृथ्वी के जीवधारी अपनी-अपनी पात्रता और आवश्यकता के अनुरूप भाग बँटाते हैं। मनुष्य की यह विशेषता है कि वह इस सामान्य वितरण में से उपेक्षापूर्वक उसे गँवाता रह सकता है। जो उसके लिए सहज सुलभ है। इसी प्रकार उसके लिए यह भी सम्भव है कि प्रयत्न करे। उत्साह, सँजोये और संकल्पबल के सहारे व्यापक प्राण-शक्ति में से बड़े से बड़ा भाग अपने लिए उपलब्ध कर सकें। प्राणयोग की साधना-प्राणायाम प्रक्रिया इसी प्रयोजन की पूर्ति का एक सुनिश्चित-विज्ञान सम्मत आधार है।

प्राण एक चेतन विद्युत ऊर्जा है जिसकी मात्रा बढ़ी-चढ़ी होने पर बहिरंग और अन्तरंग जीवन के दोनों पक्षों में उसका चमत्कारी प्रभाव देखा जा सकता है। यह प्राण शक्ति ही व्यक्तिगत जीवन में साहस और उत्साह के रूप में चमकती है। उसे दृढ़ता और तत्परता के रूप में देखा जा सकता है। संकल्प शक्ति के रूप में उसी का परिचय प्राप्त किया जाता है निश्चय को पूर्ण करने के लिए मनुष्य इसी क्षमता के सहारे अनेकानेक कठिनाइयों को चीरता-अवरोधों से जूझता श्रम-साध्य और समय साध्य मंजिल को पार करता है, प्रतिकूलताओं के बीच भी जो, अनुकूलता उत्पन्न करने का प्रबल प्रयास कर रहा है-निराशाजनक परिस्थितियों में जिस आशा की क्षीण किन्तु सुनिश्चित किरणें दीख पड़ती हों उसे प्राणवान कहा जा सकता है। लोक-प्रवाह के विपरीत जो अपनी राह एकाकी बना सके-अपने बलबूते अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करने का शौर्य दिखा सके-उसमें आत्म-विश्वासी प्राण शक्ति की उपयुक्त मात्रा काम करते हुए देखी जा सकती है।

ऐतिहासिक महामानवों में इसी, प्राणतत्त्व की समुचित मात्रा रही है। इसी के सहारे उन्होंने महत्वपूर्ण निर्णय लिए और अपने स्वतन्त्र भाव निश्चय घोषित किये तो कुटुम्बी, सम्बन्धी और तथाकथित हितैषी एक जुट होकर उनका उपहास, असहयोग और विरोध करने पर उतारू हो गये। उनने प्रवाह के विपरीत चलने में खतरे की आशंका देखी ओर शुभ-चिन्तक के नाते उस खतरे से बचने का परामर्श दिया, किन्तु प्राणवानों को तो आदर्शवादी मार्ग अपनाने में-संकटों के साथ आँख-मिचौली खेलने में-ही मजा आता रहा है। खतरों के बीच ही प्रगतिशीलता पनपती है।

महामानवों की सफलताएँ उतनी महत्वपूर्ण नहीं जितनी कि उसके साहस प्रदर्शन की स्मृतियाँ। सफलताएँ तो कइयों को संयोगवश भी मिल जाती है। उन्हें छल-बल से भी उपार्जित किया जा सकता है। महत्व उन घटनाओं का है। जिनमें साहस के आधार पर घनघोर अँधेरे में प्रकाश जलाया गया और आँधी-तूफान के बीच उन आलोक को बुझने से बचाया गया।

लिंकोलन के राजा रिचार्ड ने तत्कालीन विशपहयूगो को आदेश भेजा कि वे अपनी सेनाएँ नारमण्डी युद्ध के लिए भेजे। विशप ने इस आज्ञा को मानने से इनकार कर दिया। स्पष्ट था कि ऐसी अवज्ञा क्रोधी रिचर्ड सहन न करेगा और विशप को पदच्युत करने से लेकर मौत तक का कोई दण्ड देगा। किन्तु विशपहयूगो इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए, वरन् वे सीधे दनदनाते हुए राजमहल में चले गये। राजा उस समय भोजन कर रहे थे। विशप को देखते ही वे आग बबूला हो गये और उनकी ओर से मुँह फेर लिया।

विशप ने कड़क कर कहा-उठो विशप का अभिवादन करो।” राजा चुप रहा। इस पर हयूगो ने राजा का कन्धा पकड़ कर बुरी तरह झकझोर डाला ओर आज्ञा पालन का आदेश दिया।

रिचार्ड सत्र रह गये। वे उठे और अभिवादन किया। भोजन के बाद परामर्श का क्रम चला ओर जैसे विशप चाहते थे, वैसा ही समाधान बन गया। रिचार्ड ने अपने एक संस्मरण में स्वयं लिखा है- विशप में कुछ विलक्षण शक्ति है। उनसे आँख मिलाते ही मनुष्य स्वयमेव पराभूत हो जाता है।

क्या भौतिक सफलताएँ पाने वाले, क्या आत्मिक प्रगति करने वाले सभी के व्यक्तित्व का तात्त्विक विश्लेषण करने पर उनकी विलक्षणता के पीछे प्राण-प्रतिभा ही झाँकती पाई जायगी। नैपोलियन, सिकन्दर, सरीखे पराक्रमी ओर लिंकन, वाशिंगटन जैसे प्रगतिशील अपने संकल्पों को पूरा करने में प्राणपण से जुटे रहने के कारण ही कुछ कहने लायक प्रगति कर सके थे।

आत्मिक क्षेत्र की समस्त सिद्धियों का स्रोत यही सत्साहस और प्रबल पुरुषार्थ है जिसे वैज्ञानिक शब्दों में प्राण-शक्ति का चमत्कार कह सकते हैं आत्म संयम नहीं के प्रवाह को रोकने की तरह है, उसमें इन्द्रियों के उद्दण्ड घोड़ों की लगाम कसकर पकड़नी होती है। मन एक दुर्दान्त दैत्य है। उसे वशवर्ती बना लेना, सरकस के हिंसक पशुओं से विलक्षण खेल कराने वाले प्रशिक्षक द्वारा दिखाये जाने वाले दुस्साहस की तरह है। जबकि हर जगह सुविधाओं की पुकार है। तब तप-तितीक्षा का स्वेच्छा संकल्प कितना कठिन ओर कितना जटिल समझा जा सकता है। संग्रह ओर उपभोग के लिए सर्वत्र बिखरी आकुलता के बीच जो त्याग ओर बलिदान की बात सोचते ही नहीं उसे कर दिखाने के लिए भी कटिबद्ध हो जाते हैं, उन्हें प्राणवान ही कहा जा सकता है। उन्हें जो उपहार मिलते हैं। उन्हें उस साहसिकता का ही पुरस्कार कह सकते हैं, जिसकी व्याख्या प्राण-शक्ति के नाम से भी की जा सकती है।

पनडुब्बी गहरे समुद्र में डुबकी लगाकर मोती बीनते हैं। बहुमूल्य खनिज प्राप्त करने के लिए धरती को गहराई तक खोदते जाने ओर उस विभीषिका के मुख में प्रवेश करने का साहस जुटाना पड़ता है। अपनी प्रस्तुत शक्तियों के जाग्रत करने के लिए-अन्तःचेतना ही गहरी परतों में उतरने के लिए-अद्भुत धैर्य और अविचल प्रयत्न करने होते हैं। यह सब अनायास ही नहीं हो जाता, वरन् अग्नि परीक्षा में गुजरने पर ही सफलता का श्रेय प्राप्त होता है। सोते सर्व ओर सोते सिंह को जगाने में जितना पराक्रम चाहिए उतना ही अन्तःचेतना के सूक्ष्म संस्थानों को जगाते समय भी चाहिए। वन्य पशुओं को पालतू ओर प्रशिक्षित करना धैर्यवान् लोगों का काम हैं मरुस्थल को उर्वर बना लेने के लिए दूर-दर्शिता अथक श्रम-शीलता और साधन सामग्री जुटानी पड़ती है। अनपढ़ व्यक्तिगत सुगढ़ ओर सुसंस्कृत बनाने के लिए कलाकारों जैसा कौशल विकसित करना पड़ता है। शत्रु का मित्र बना लेने की प्रशंसा है। अनर्थ में संलग्न विकृत कुसंस्कारों को आमूलचूल परिवर्तित करके श्रेय साधक बना देना विष से अमृत निकालने के समतुल्य है। ऐसे मार्ग पर चलने के लिए अजस्र प्राण-शक्ति चाहिए। अध्यात्म साधनाओं संचय करने की आवश्यकता इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए बताई गयी है।


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