शरीर की उत्पत्ति काम बीज में है। फाइड के अनुसार वह बालकपन में दुग्ध-पान से लेकर साथियों की छेड़छाड़ के अनेक रूपों में विकसित होता है। किशोरावस्था में वह जोश बनकर उभरता है होश को पीछे छोड़कर जोश की जो तूफानी लहरें उठती है उनमें मनोविज्ञानी काम तत्व की प्रबलता देखते हैं। लड़कों में नये स्थान पर नये केश उत्पन्न होने- जननेन्द्रिय में प्रौढ़ता बढ़ने के रूप में उसकी अभिवृद्धि प्रकट होती है। लड़कियों में रजो-दर्शन तथा वक्षस्थल का उभार इसी का प्रमाण है। कल्पना क्षेत्र में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षक कल्पनाओं के आँधी-तूफान उठने लगते हैं। आगे चलकर इसकी परिणति प्रणय में होती हैं दाम्पत्य सूत्र जुड़ते हैं आदान-प्रदान के भाव भरे रसास्वादन मिलते हैं और सन्तानोत्पत्ति का क्रम चल पड़ता है। एक नये गृहस्थ का-नये परिवार का श्री गणेश होता है। और पति-पत्नी को उसी की विविध-व्यवस्थाएँ जुटाने में अपनी लगभग पूरी शक्ति झोंकनी पड़ती है यह काम बीज से उत्पन्न वट-वृक्ष है, जिसका विस्तार भली या बुरी व्यस्त क्रिया प्रक्रियाओं में होता है। जीवन सम्पदा का उत्सर्ग इसी वेदी पर होता देखा गया है। बीज-बीच में उच्छृंखल यौनाचार की कल्पनाएँ अथवा क्रियाएँ अपने अलग ही कुहराम मचाती रहती है उन पर सामाजिक नियन्त्रण न हो तो उस स्वेच्छाचार की प्रतिक्रिया से सामाजिकता का, पारिवारिकता का, सभ्यता का, मानवी प्रगति का अन्त हुआ ही समझना चाहिए। अपराधों के घटना-क्रम में काम-विग्रह का-उसकी विकृत प्रतिक्रिया का-जितना हाथ रहता है उतना सब अनाचारों से मिलकर भी नहीं होता। नीति मर्यादाओं का उल्लंघन इसी प्रबल प्रेरणा से आये दिन होता रहता है।
इतने प्रेरक तत्व को तुच्छ मानकर नहीं चलना चाहिए। उसकी सामर्थ्य असीम है। एक शरीर से दूसरे का उत्पन्न होना इस सृष्टि का अभ्यस्त किन्तु अद्भुत आश्चर्य है। मानव तत्व की भावना, विचारणा एवं क्रिया को अपने जाल-जंजाल से समेट बटोर कर बैठ जाना इसी आकर्षण का काम है। भव-बन्धनों की चर्चा जब-तब होती रहती है। प्रकारान्तर से वह संकेत काम-विग्रह के लिए ही किया गया होता है गीता के कर्मयोग में निष्काम होने पर जोर दिया गया है। यों उसका मोटा अर्थ कामनाओं से पीछा छुड़ाकर कर्तव्य-परायण होना है, पर गहराई में उतरने पर उसमें ‘काम’ रहित होने पर उच्च स्तरीय आत्मिक प्रगति होने-आत्म-कल्याण एवं ईश्वर दर्शन का लाभ मिलने का तथ्य सामने आ खड़ा होता है।
ब्रह्मचर्य का महत्व सनातन धर्म के रूप में सभी सम्प्रदायों ने समान रूप से बताया है। उसके कई प्रकार के लाभ सत्परिणाम बताये है। ब्रह्मचर्य का मोटा अर्थ संयोग से बचना बताया गया है। यह शारीरिक मर्यादा है। पर इसका लाभ भी तभी होता है जब उसे मानसिक रूप से भी निबाहा जाय। सच तो यह है कि वह प्रसंग शारीरिक कम और मानसिक अधिक है। मन में कामुकता छाई रहे तो शरीर संयम निरर्थक ही नहीं कई बार तो हानिकारक ही होता है। शरीर शास्त्री काम निरोध को हानिकारक भी बताते हैं। यह बात उस स्थिति में सही भी है जब मानसिक असंयम तो बनाये रहा जाय किन्तु शरीर को हठपूर्वक नियन्त्रित किया जाय। ऐसी दशा में स्वप्न दोष होने लगेंगे अथवा गुप्त कुकृत्यों का सिलसिला चल पड़ेगा। इसमें प्रत्यक्ष मैथुन से कम नहीं अधिक ही हानि है। इसके विपरीत यदि धर्म-पत्नी के साथ, मित्र, सहचर, सहोदर के भाव से रहा जाय और आवश्यकतानुसार मर्यादित काम सेवन क्रम भी चलता रहे तो उसकी कोई बुरी प्रतिक्रिया न होगी। सच तो यह है कि उससे कुकल्पनाओं और कुचेष्टाओं को निरस्त करने में सहायता भी मिलेगी। देवताओं, ऋषियों और महामानवों को भी जब विवाहित जीवन-चक्र अपनाते देखते हैं तो लगता है यह कोई गर्हित कृत्य नहीं है। यदि ऐसा होता तो वे इस मार्ग पर क्यों चलते?
यहाँ विवाहित रहने या अविवाहित रहने की उपयोगिता के पक्ष-विपक्ष के कुछ नहीं कहा जा रहा है। व्यक्ति विशेष की मनःस्थिति, परिस्थिति एवं कार्य-पद्धति को देखते हुए दोनों ही मार्ग उपयोगी है। जिन्हें उच्च आदर्शों में निरत रहना है उन्हें अपनी शक्तियाँ बचाकर लक्ष्य के लिए अधिक कुछ कर सकना तभी हो सकता है। जब गृहस्थ का भार ढोने से अवकाश मिले। प्राचीन काल के साधु परम्परा यह रास्ता अपनाती रही है। परिव्राजक कार्य-पद्धति में, न्यूनतम निर्वाह में, चिन्ता मुक्त रहने में उन्हें सुविधाएँ अविवाहित रहकर ही मिलती थी। इसके विपरीत जिन्हें आश्रम चलाने पड़ते थे वे सुविधा देखते थे। जो हो यह प्रसंग यहाँ नहीं उठना है। चर्चा काम प्रक्रिया की हो रही थी। वह शरीर क्षेत्र से कम और मनः क्षेत्र से अधिक सम्बन्धित है। शरीर का ब्रह्मचारी मन से व्यभिचारी रहे तो उसे इस प्रति बन्धन की विडम्बना का कोई लाभ न मिल सकेगा। इसके विपरीत यदि मन पवित्र रहे तो गृहस्थ भी एक योगी बन सकता है। तब घर में तपोवन का वातावरण बना देना कुछ कठिन न होगा। वासना और विलासिता का स्थान यदि स्वच्छ सहकार और बालकोपम् हास्य-विनोद ग्रहण कर ले तो उसे बाधित ब्रह्मचर्य से कम नहीं अधिक लाभदायक ही कहा जायेगा।
समस्या यहाँ आकर अटक जाती है कि यदि काम बीज जीवन चेतना की इतनी गहराई में घुसा बैठा है उसकी शक्ति इतनी प्रबल और जड़ इतनी गहरी है तो फिर उससे बच सकना कैसे हो सकता है? तब ब्रह्मचर्य के लाभों से लाभान्वित कैसे हुआ जा सकता है? यदि संयम न बरता जाय तो ओजस् की क्षति होती है। यदि बरता जाय तो दमित मानस विकृत ग्रन्थियों का हानिकारक संग्रह करता है। इधर खाई, उधर कुआँ। आखिर किया जाय तो क्या किया जाय?
मनीषियों ने इसका उत्तर कुण्डलिनी जागरण की साधना के रूप में दिया है। इसका कर्मकाण्ड और विधिविधान जितना चमत्कारी है उससे अधिक महत्वपूर्ण है उसका तत्व दर्शन। कुण्डलिनी विधान जानने से पहले उसका दर्शन जानना आवश्यक है। प्रतिपादन यह है कि काम-कला को ब्रह्म विद्या के रूप में परिवर्तित किया जाय। इसे विज्ञान की भाषा में - ट्रान्सफार्मेशन-रूपान्तरण कहते हैं काम को कला में परिणत, परिष्कृत किया जा सकता है भक्ति भावना उसी प्रयास का उत्कृष्ट रूप है, ललित कलाओं में, उद्देश्य पूर्ण शौर्य, साहस में, पारमार्थिक सेवा साधना में जो उच्चस्तरीय उल्लास उपलब्ध होता है। उसे ‘काम’ तत्व की परिष्कृत भाव भूमिका कह सकते हैं। चिन्तन की दिशा धारा मोड़ देने से यह परिवर्तन सम्भव हो सकता है। वर्षा का जल यदि अनियन्त्रित फैले तो खेतों, घरों को डुबाकर हानिकारक सिद्ध होगा। पर यदि नदी लाले के माध्यम से बाँध बनाकर संग्रह किया जाय ओर नहरों के माध्यम से सिंचाई के लिए खेतों तक पहुँचाया जाय तो इससे हर प्रकार लाभ ही लाभ है अनियन्त्रित काम प्रवृत्ति का निरोध इसी प्रकार उचित है उसे हठ पूर्वक नष्ट कर देने की बात न सोची जाय, वरन् ऐसे प्रयोजन में लगा दिया जाय जिसमें उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति हो।
पौराणिक कथा में कामदेव भगवान शंकर पर प्रकोप करता है, उन्हें अपनी उँगली के इशारे पर नचाना चाहता है। शिवजी अपने दूरदर्शी विवेक से -तृतीय नेत्र से इसके दुष्परिणामों को समझने का प्रयत्न करते हैं। वस्तु स्थिति समझ में आती ही, तृतीय नेत्र खुलते ही सम्भावना समाप्त हो जाती है। कामदेव जलकर भस्म हो जाता है। यह विवेकशीलता की-पशु प्रवृत्ति पर प्रत्यक्ष विजय है। कुविचारों को सद्विचारों से ही निरस्त किया जाता है। लोहे से लोटा कटता है कामुकता से दुष्परिणामों और संयम से सत्परिणामों पर विस्तारपूर्वक विचार किया जाय तो विवेक का निर्णय औचित्य के पक्ष में होगा। चोर की घात तो तब लगती है जब घर मालिक सोये हुए हों जब उनमें से कोई बच्चा रोने लगे-बुड्ढा खाँसने लगे तो बलिष्ठ चोर की भी हिम्मत टूट जायगी और उसे उलटे पैरों भागना ही पड़ेगा। कामुकता सम्मत समस्त कुविचारों के सम्बन्ध में यही बात लागू होती है। यदि आदर्शवाद के समर्थक तर्कों, तथ्य, प्रमाण और उदाहरणों की सेना सजा ली जाय और जब भी शत्रु शिर उठाये तभी वह सेना लड़ा दी जाये तो समझना चाहिए कि औचित्य ही जीतेगा। कल्मषों के उन्मूलन का यही एकमात्र मार्ग है महाभारत युद्ध की घटना को लेकर जीव रूपी अर्जुन को-दुरित दुर्जनों को परास्त करने के लिए जिस सैन्य सज्जा के लिए कहा गया है उसे अन्तःसधर्म ही समझना चाहिए। शिवजी का काम दहल भी इसी तथ्य के समर्थक में एक प्रेरणाप्रद प्रसंग है।
पीछे काम पत्नी, रजि, सरसता विलाप करती है। विधवा के दुःख को-भगवान आशुतोष सहन नहीं कर पाते। वे द्रवित होते हैं और वरदान देते हैं। कि भस्मसात् कामदेव शरीर समेत तो जीवित नहीं हो सकते, पर वे सूक्ष्म रूप से फिर सजीव हो जायेंगे और उच्च आत्माओं पर भी अपना अस्त्र छोड़ने की अपनी कामना पूरी करेंगे।
इस वरदान का अभिप्राय यही है कि पशु-प्रवृत्तियों को भड़काने वाली और जीवन सम्पदा को कुमार्गगामी बनाने वाली कामुकता को परिष्कृत किया जा सकता है। उसे भावनात्मक श्रेष्ठ सम्वेदनाओं से लगा कर स्थूल यौनाचार के आकर्षण से विरत किया जा सकता है।
कुण्डलिनी के स्वरूप चक्र को बताया गया है। स्पष्ट है। काम केन्द्र मूलाधार चक्र को बताया गया है। यह जननेन्द्रिय के मूल में है। इसे अग्नि कुण्ड, अग्नि, समुद्र शक्ति समुद्र भी कहा गया है। उमंगें और उत्साह भरने की क्षमता वहाँ केन्द्रित है। इस स्थिति में उसकी संबा सर्पिणी की है सर्प दंश और सर्प विष की भयानकता सर्वविदित है। सामान्य स्थिति में अधोगामी और बहिर्मुखी रहती है उसके क्षरण-स्राव-जननेन्द्रिय मार्ग से नीचे की ओर टपकते हैं। उसका प्रत्यक्ष रूप त्वचा तल से ऊपर उभरा रहता है। नर और नारी की जननेन्द्रियों की स्थिति इस दृष्टि से लगभग एक जैसी ही है। इसे कुण्डलिनी की गर्हित, मूर्छित, अधःपतित स्थिति समझा जाना चाहिए।
कुण्डलिनी जागरण साधना में समुद्र मंथन जैसे प्रयत्न करने पड़ते हैं। फलतः प्रसुप्ति जागृति में बदलती है। तप की उष्णता पाकर अन्तः ऊर्जा उभरती है और ऊपर की ओर चलने का प्रयत्न करती है। गर्मी से वायु, जल आदि सभी का विस्तार होता है। वे ऊपर की ओर उठते हैं। ग्रीष्म में चक्रवात गरम हवा के द्वारा ही उठते हैं। पानी से भाप गर्मी ही ऊपर की ओर उठाती है मूलाधार से जगी हुई व्यक्ति ऊर्जा, प्राण-शक्ति कुण्डलिनी ऊपर को उठती है। मेरुदण्ड मार्ग से सर्पिणी की तरह लहराती हुई ब्रह्मरंध्र की ओर चलती है, बिजली की यही चाल है। यह ऊर्जा मस्तिष्क में पहुँचती है सहस्रार कमल से सम्बन्ध बनाती है और उसी में लय हो जाती है। कमल सात्विकता का, कला का, दिव्य सौंदर्य का केन्द्र माना गया है। भगवान के अंगों का -अवयवों का-वर्णन कमल उपमा के साथ किया जाता रहा है। लक्ष्मी कमलासन पर विराजमान् है। गजेन्द्र ने ग्राह से मुक्ति पाने के लिए कमला लक्ष्मी का दूसरा नाम है। विष्णु के चार हाथों के चार उपकरण है। शंख, चक्र, गदा के उपरान्त चौथा ‘पद्य’ ही आता है। इस प्रकार पौराणिक संगतियों में कमल को दिव्यता की प्रतीक माना गया है। मस्तिष्क के मध्य क्षेत्र में -ब्रह्मरंध्र में-सहस्रार कमल अवस्थित है। उस पर कही विष्णु की, कही शिव की, कही सद्गुरु की स्थापना और ध्यान का उल्लेख है। यह प्रतिपादन यही इंगित करता है कि कामुकता में संलग्न अन्तः ऊर्जा को उस पतन के गर्त से निकाल कर ब्रह्म चेतना में-उत्कृष्ट प्रदान करने वाली ब्रह्म विद्या में-नियोजित किया जाना चाहिए।
इस परिवर्तन परिष्कार को-उत्कर्ष उन्नयन को कुण्डलिनी जागरण कहा गया है। ब्रह्मचर्य की तात्त्विक साधना यही है। इसी में अध्यात्म तत्व ज्ञान के समस्त सूत्र संजोये हुए है। इस ट्रान्सफार्मेशन का-रूपान्तर का सत्परिणाम, महान् जागरण, महान परिवर्तन दिव्य जीवन के पक्ष में सामने आता है। काम बीज का यह ब्रह्म समर्पण कितना श्रेयस्कर होता है इसे कुण्डलिनी महाविज्ञान की जागरण साधना एवं तत्व भावना को अपना कर ही जाना जा सकता है।
*समाप्त*