आनन्दमय कोश-शिव शक्ति का संगम

April 1977

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आत्मसत्ता का मूल स्वरूप सत्य, शिव, सुन्दर कहा गया है। परमात्मा सत्ता की व्याख्या सत्-चित् आनन्द रूप में होती है। दोनों ही स्थितियाँ परम सुखद है। सर्वभाव है जीवन को सुखद, सन्तोषजनक और आनन्दमय होना चाहिए।

बहिरंग जगत में चारों और सौंदर्य बिखरा पड़ा हैं प्रकृति की आकृति और प्राणियों की प्रकृति की गहराई में यदि प्रवेश किया जा सके तो वहाँ अन्तरात्मा को पुलकित कर देने वाली शोभा दिखाई पड़ेगा। वस्तुओं की उपयोगिता को सिद्ध करने में ही तो सारा विज्ञान क्षेत्र लगा हुआ है। प्रकृति कामधेनु है, उसमें से एक से एक बढ़े-चढ़े अनुदान प्राप्त किये जा सकते हैं।

अन्तरंग जगत पर दृष्टि डालते हैं, तो उसकी संरचना का कण-कण आनन्द की निर्झरिणी बहाता दिखता है। इन्द्रियों की सम्वेदना इतनी सुखद है कि उनका उपभोग करने में कई बार तो मनुष्य स्वास्थ्य, यश, धन, परलोक आदि की बाजी लगाकर भी किसी भी मूल्य पर अपनी ललक-लिप्सा पूरी करने में आतुरता दिखाता है। मस्तिष्क अपना इच्छित कल्पना-लोक इतना सुन्दर गढ़ सकता है कि उसे वास्तविक जगत से किसी भी प्रकार कम प्रेरणाप्रद नहीं कह सकते। भगवान का बनाया अपना संसार जितना अपने सृष्टा के लिए वास्तविक है, मनुष्य द्वारा अपनी भावना और आस्था के सहारे जैसा भी संसार गढ़ लिया है वही उसकी अनुभूतियों का केन्द्र है। मकड़ी अपना जाला स्वयं बुनती और स्वेच्छा से उसमें निवास करती है। मनुष्य अपने लिए-अपनी आस्थाओं के सहारे अपनी एक नई दुनिया बनाता है और उसमें स्वतंत्रतापूर्वक निवास करता है। अपनी दुनिया भली बनाये या बुरी- स्वर्ग रचे या नरक- यह उसकी इच्छा और क्रिया पर अवलम्बित है। तथ्य जहाँ का तहाँ है। शरीर अपनी तत्परता के-कर्मनिष्ठा के-सहारे हमारे मनोरथ पूरे कराने में कल्प-वृक्ष का काम करता है तो मनःशरीर को कामधेनु कह सकते हैं। हमारी विचारणा, भावना यदि उत्कृष्टता का अवलम्बन पकड़े रहे तो इसका प्रतिफल यह है कि मनुष्य इस धरती पर निवास करते हुए भी स्वर्ग सम्वेदनाओं के रसास्वादन का लाभ हर घड़ी लेता रह सकता है।

कारण शरीर की भाव अभिव्यंजना का तो अन्त ही नहीं। करुणा आत्मीयता जैसी दिव्य सम्वेदनाएँ यदि उमड़ती रहें तो फिर मनुष्य अपने उसी आत्म अनुदान की प्रतिक्रिया से हर घड़ी भाव-विभोर स्थिति में रह सकता है। आत्म-बोध एवं आत्म-जागृति की स्थिति इतनी उच्चस्तरीय है कि मनुष्य अपनी गरिमा को देवात्मा स्तर की- परमात्मा स्तर की अनुभव कर सकता है। उतना ही गौरवान्वित रह सकता है, जितना कि देव सत्ता एवं परमात्मसत्ता अपने को अनुभव करती होगी। यह अध्यात्मिक दृष्टिकोण ही अमृत है। इसे प्राप्त करने पर अजरता, अमरता, प्रौढ़ता, सुन्दरता, प्रखरता की दिव्य विभूतियाँ हर घड़ी अपने को अमृतत्व का मिठास देती रहती है।

जीव साधारणतया सीमाबद्ध रहता है। उसकी ज्ञानेन्द्रिय सीमित रसास्वादन दे पाती है और कर्मेन्द्रियों द्वारा सीमित सम्पदा का उपार्जन हो सकता है। किन्तु मनुष्य के अन्तराल में बीज रूप में इतनी सम्भावनायें भरी पड़ी है जितनी कि इस ब्रह्माण्ड में गुप्त या प्रकट रूप में विद्यमान है। स्थूल जगत कलेवर है, सूक्ष्म जगत उसका प्राण है। कलेवर से प्राण की क्षमता अधिक ही होती है। दृश्यमान पदार्थों की तुलना में ताप, ध्वनि, विद्युत, ईथर आदि की अदृश्य शक्तियाँ अधिक प्रबल है। इस अदृश्य प्रकृति से भी सूक्ष्म जगत की समर्थता असंख्य गुनी बढ़ी-चढ़ी है। उसके साथ सम्बन्ध प्राप्त कर सकने के पश्चात् सीमा-बन्धन समाप्त हो जाते हैं और असीम सामर्थ्य का उदय होता है। अतीन्द्रिय सम्भावनायें ही अभी अपने सामने है। उनके कुछ कौतुक ही कभी-कभी देखने को मिलते और चकित करते रहते हैं। यदि सचमुच उस क्षेत्र में कुछ अधिक प्रवेश मिल सके- दिव्य विभूतियों का उपार्जन एवं उपयोग जाना जा सकें तो उसकी विलक्षणता सिद्ध पुरुषों जैसी हो सकती है। तब मनुष्य में देवत्व का उदय और नर में नारायण का दर्शन हो सकता है। यह परम आनन्द की स्थिति ही होगी।

उपरोक्त कथन का तात्पर्य यह है कि बाह्य जगत और अन्तर्जगत् के दोनों ही क्षेत्र असीम दिव्य संवेदनाओं से भरे पड़े है। उनकी सुखद सम्वेदनाओं का अन्त नहीं। वस्तु स्थिति यही है। अपनी भ्रान्तियों में उलझ कर उपलब्धियों का लाभ नहीं-लिया यह दूसरी बात है कस्तूरी का मृग नाभि में सुगन्ध के भण्डार का समझ नहीं पाता, वह उसे बाहर ढूँढ़ता है और प्राप्त करने के प्रयास में जितनी ही भाग-दौड़ करता है उतना ही थकता और निराश होता है। इस दुर्भाग्य पर दाता को दोष नहीं दिया जा सकता। उसने तो कस्तूरी प्रचुर मात्रा में निकटतम स्थान नाभि में ही भर दी, करतलगत उपलब्धियों का लाभ लेने में भी बुद्धि समर्थ न हो सके तो कोई क्या करे? मृग-तृष्णा के भटकाव में प्रकृति का नहीं कुछ का कुछ और समझने वाले का ही दोष है।

परमेश्वर ने अपने जेष्ठ पुत्र राजकुमार मनुष्य को अपने इस दिव्य उद्यान में -संसार में आनन्द लेने के लिए भेजा है। यहाँ आनन्द की सभी सम्भावनायें एवं सुविधाएँ मौजूद है। दुःख तो हमारे विकृत दृष्टिकोण ओर निकृष्ट क्रिया-कलाप की प्रतिक्रिया मात्र है। यहाँ सुख स्वाभाविक और दुःख कृत्रिम है। परमात्मा ने मनुष्य को अपने इस सुरम्य उद्यान में दुःख भोगने के लिए नहीं आनन्द पाने और आनन्द बिखेरने के लिए भेजा है। इस संसार को अधिक सुन्दर, समुन्नत, समृद्ध एवं सुसंस्कृत बनाने के प्रयास में संलग्न रहकर वह अपने ईश्वर प्रदत्त आनन्द को अपने उपार्जन को जोड़कर अधिकाधिक सुखी, आनन्दित रह सकता है। इसके लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाना पड़ता। इसके लिए मात्र अपनी दुर्बुद्धि का निराकरण और दुष्प्रवृत्ति का निवारण पर्याप्त होता है। आनन्द मनुष्य की पैतृक दुष्प्रवृत्ति का निवारण पर्याप्त होता है। आनन्द मनुष्य की पैतृक सम्पत्ति है। वह उसे उत्तराधिकार में प्रचुर परिमाण में-मिली है। उपलब्धियों का स्वरूप समझना और उनका सदुपयोग करना जानता चाहिए। जिनसे इतना भी नहीं बन पड़ता उन्हें दुर्बुद्धि जन्य दयनीय दुर्दशा में ही पड़ा हुआ माना जायेगा।

परमात्मा आनन्द स्वरूप है। जीव सत्ता के कण-कण में आनन्द का स्रोत है। प्रकृति में सौंदर्य और सुविधा प्रदान करने की आनन्दमयी विशेषता भरी पड़ी है। यहाँ सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है। इसी से जीवन को ‘आनन्दमय’ कहा गया है। यह कोश उसे असीम मात्रा में, सहज सुखद रूप से उपलब्ध है। हम आनन्दमय लोक में रह रहे है।

दुर्भाग्य लगभग वैसा ही है जैसा कि कबीर की एक उलटबांसी में व्यक्त किया गया है। वे कहते हैं।-

पानी में मीन पियासी। मोहि लखि-लखि आवे हाँसी॥

कोई व्यक्ति अपने घर का ताला बन्द करके कही चला जाय। लौटने पर ताली गुम जाने से बाहर बैठा ठण्ड में सिकुड़े और दुःख भोगे। ठीक ऐसी ही स्थिति हमारी है। तिजोरी की ताली गुम जाने से दैनिक खर्च में कठिनाई पड़ रही है और भूखा-नंगा रहना पड़ रहा है। आनन्दमय कोश अपने भीतर भरा पड़ा है, किन्तु रहना पड़ रहा है निरानन्द स्थिति में। कैसी विचित्र स्थिति है? कैसी विडम्बना है? यह अपने ही साथ अपना कितना विलक्षण उपहास है।

आनन्दमय कोश की साधना इसी दुःखद दुर्भाग्य का अन्त करने के लिए है। उसके आधार पर उस ताले को खोला जा सकता है जिसमें उल्लास का जय भाण्डागार भरा पड़ा है। यह कार्य आत्मा और परमात्मा के मिलन की विधि-व्यवस्था बनाकर-रीति-नीति अपनाकर ही सम्भव हो सकता है। पंचकोशों की साधना के उच्चस्तर पर पहुँच कर इसी ताली को ढूँढ़ना पड़ता है और ताले को खोलने की व्यवस्था बनानी पड़ती है। जो उसे कर सका उसे फिर यह नहीं कहना पड़ा कि हम निरानन्द नीरस जीवन जीते हैं। दुःख ओर दुर्भाग्य से ग्रसित है।

आनन्दमय कोश की साधना का स्वरूप ईश्वर और नाम भर से परिचित है, उसका नाम जब-तक लेते भी है और भजन-पूजन का उपक्रम भी चलाते हैं, पर यह प्रयत्न होता ही नहीं कि ईश्वर को अपने में-और अपने को ईश्वर में-समाहित करने का प्रयत्न करें। इस समन्वय का कितना सुखद परिणाम हो सकता है इसकी कभी कल्पना भी तो नहीं आती। आमतौर से ईश्वर एक ऐसा व्यक्ति माना जाता है जो थोड़े से स्तवन पूजन से प्रसन्न किया जा सकता है और जिससे तुर्त-फुर्त मनोवाँछित वरदान मिल सकते हैं। इसी प्रलोभन में पूजा उपचार की सारी विडम्बनाएँ चलती है। ऐसे भगवत् भक्त कहाँ है, जो अपने ऊपर ईश्वरीय अनुशासन की स्थापना करते हैं। अपना समग्र समर्पण उसके चरणों में प्रस्तुत करते हैं वस्तुतः भक्ति का यही स्वरूप है। यह जहाँ भी अपने वास्तविक स्वरूप में होगी वहाँ निश्चित रूप से अमृत की वर्षा हो रही होगी। स्वर्गीय परिस्थितियाँ बनी होगी। उल्लास बिखरा पड़ा होगा, सन्तोश की शान्ति रह रही होगी। आत्मा और परमात्मा का यथार्थ मिलन रसास्वादन कैसे सम्भव हो सकता है? इसकी पृष्ठभूमि क्या है? यह जानने के लिए हमें आनन्दमय कोश की विवेचना एवं साधना की गहराई में उतरना होगा।

श्रेष्ठ तत्वों का मिलन कितना सुखद होता है इसकी जानकारी सभी को है। पृथ्वी को सन्तुलित सूर्य सम्पर्क मिला और यहाँ जीवन की उत्पत्ति हुई। जिन ग्रह -पिण्डों को यह सुयोग नहीं मिला वे निर्जीव निस्तब्ध पड़े है। गंगा-यमुना के मिलन से संगम बना और तीर्थराज प्रयाग का महत्व बढ़ा। लौह पारस के स्पर्श से सोना बनने वाली बात प्रख्यात है। दो गैसें मिलकर पानी बनाती है। जड़ और चेतन के मिलन से गतिशील शरीर बनाता है। ऋण और धन विद्युत के मिलन से शक्तिधारा प्रवाहित होती है। जिधर भी आँख उठा कर देखा जाय श्रेष्ठता के साथ सम्पर्क से लाभ ही लाभ है। इस मिलन प्रक्रिया को अपनाकर तो दुष्ट, दुरात्मा भी अपनी दुरभि संधियाँ तक पूरी करते रहते हैं। ब्रह्म और जीव का-आत्मा और परमात्मा का मिलन कितना भाव-विभोर कर देने वाला समर्थता और सम्पन्नता से भर देने वाला-आनन्द के समुद्र में डूबो देने वाला है। इसे शब्दों में नहीं बताया जा सकता, यह तो विशुद्ध रूप से अनुभूति का विशय है। भगवत् भक्तों की गरिमा पर जब दृष्टिपात करते हैं तो लगता है इसी में जीवन की सच्ची सार्थकता है।

श्रद्धा और भक्ति का युग्म है। श्रद्धा कहते है-श्रेष्ठता के प्रति असीम निष्ठा एवं आस्था को अन्तःकरण की गहराई में स्थापित करना। भक्ति कहते है-प्रेम सम्वेदना को-आत्मीयता की अनुभूति को। ईश्वर की उपासना श्रद्धा ओर भक्ति के आधार पर ही सम्भव होती है।पूजा उपचार तो उन सम्वेदनाओं को उभारने वाले प्रयोग अभ्यास भर है। ईश्वर परायणता की परख श्रद्धा और भक्ति की कसौटी पर ही होती है।

ईश्वर व्यक्ति नहीं, शक्ति है। उसे मनुष्यों की तरह मनुहार उपहार के सहारे प्रसन्न नहीं किया जा सकता। बिजली का समुचित लाभ उठाने के लिए उसके उपयोग की मर्यादाओं को अपनाना पड़ता है। ईश्वर की प्रसन्नता इन तथ्यों पर अवलम्बित है जिन्हें उत्कृष्टता के नाम से जाना जाता है। जिसे भावना क्षेत्र में आस्तिकता, चिन्तन, क्षेत्र में आध्यात्मिकता और कर्मक्षेत्र में धार्मिकता के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।

उपासना का स्वरूप है- समन्वय। भक्ति का चरम लक्ष्य है- समन्वय-एकीकरण-समर्पण द्वैत को मिटा कर अद्वैत की स्थापना। यह नाले का नदी में समर्पण हुआ। इसे कठपुतली का बाजीगर की उँगलियों के साथ गठबंधन कहा जा सकता है। इसे पत्नी का पति का वरण समझा जा सकता है-अनुशासन की स्थापना यही है। अपनी स्वतन्त्र इच्छा आकांक्षा समाप्त करके ईश्वरीय अनुशासन को अपने ऊपर स्थापित कर लेना-समर्पण यही है। इसी आत्म-समर्पण की गीता में भगवान ने भक्त से माँग की है। ईंधन अपने को अग्नि में डालकर अग्निमय हो जाता है। पानी दूध में मिलकर एक रूप बन जाता है। ईश्वर को मनोकामना पूर्ति का ‘ट्रल’ नहीं बनाया जाना चाहिए, वरन् उसकी गरिमा में अपने आपको आत्मसात् कर देना चाहिए। इसी स्थिति को ब्रह्म निर्वाह-ईश्वर दर्शन या भगवत् प्राप्ति कहा गया है। यही ब्रह्मविद्या की अद्वैत साधना है। इसी आधार पर नर को नारायण-पुरुष को पुरुषोत्तम-जीव को ब्रह्म-आत्मा को परमात्मा बनने का अवसर मिलता है।

प्रेम में आकर्षण है- चुम्बकत्व है। प्रेमी की समीपता सुहाती है, उसी के लिए अधीरता रहती है। ईश्वर भक्ति का-भगवत् प्रेम का-स्वरूप यही है कि बीच की दूरी को समाप्त किया जाय। दोनों के बीच गहन समस्वरता दिखाई दे। इस स्थिति में या तो ईश्वर को जीव की इच्छानुसार काम करना पड़ेगा या जीवन को ईश्वर का अनुवर्ती बनना पड़ेगा। स्पष्ट है कि नदी नाले में नहीं मिल सकती, उसकी गहराई, चौड़ाई इतनी नहीं है जिसमें नदी समा सके। नाले का ही नदी में मिलना सम्भव है। जीव का इच्छानुवर्ती ईश्वर नहीं हो सकता। यह भ्रान्ति छोड़ देनी चाहिए। भक्त को ही भगवान् का अनुवर्ती होना चाहिए। यह कार्य भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं को समाप्त करके, ईश्वर के अनुवर्ती बनने से ही होता है। श्रद्धा और भक्ति का स्वरूप यही है। इसी आधार पर ईश्वर प्राप्ति का आनन्द लिया जा सकता है।

ईश्वर प्रेम सीमाबद्ध नहीं रह सकता। हिमालय के हृदय से निकली हुई गंगा, कही अवरुद्ध नहीं बैठी रहती, वरन् सूखे भू-खण्डों और प्यासे प्राणियों की प्यास बुझाती हुई अपनी क्षुद्रता को समुद्र की विशालता में समर्पित करती है। भक्ति का अर्थ है-प्रेम प्रेम सम्वेदना की प्रतिक्रिया है-आत्मीयता करुणा, उदारता, सेवा सद्भावना। यह श्रेष्ठ सम्वेदनाएँ कल्पना ओर भावना क्षेत्र में आगे बढ़कर जब व्यवहार बनकर विकसित होती है। तो उसका स्वरूप आत्म-निर्माण और लोक-निर्माण के विविध क्रिया प्रयोजनों में ही परिलक्षित होता है। अपने को और दूसरों को ईश्वर की शरण में ले जाने की- श्रद्धा ओर भक्ति का अवलम्बन, आश्रय दिलाने की-ही आकांक्षा प्रबल रहती है निरन्तर इसी दिशा में सोचा जाता है और ऐसे ही कृत्य करने का ताना-बाना बुना जाता है।

यही है वह स्थिति-जिसे आनन्दमय कोश की जागृति कह सकते हैं। पंचकोशी गायत्री उपासना की यही सर्वोच्च स्थिति है। इसमें निरन्तर ईश्वर दर्शन की अनुभूति होती है। भगवान सूक्ष्म है, उसका साक्षात्कार भावानुभूति के रूप में ही होता है। आँखों से खिलौने की तरह ईश्वर को देखने की इच्छा करना बाल-बुद्धि के अतिरिक्त और कुछ नहीं। जब हवा, सर्दी, मैत्री, क्रोध, सुख, दुख जैसे प्रत्यक्ष आँख से नहीं देखे जा सकते तो ईश्वर जैसे अचिन्त्य, अप्रमेय को इन चर्म-चक्षुओं से देखा जा सकना कैसे सम्भव हो सकता है? जिन्हें ऐसे दृश्य दीखते भी है वे उनकी ध्यान चेतना की प्रगाढ़ता का परिचय मात्र देते हैं। उन्हें दिवा स्वप्न के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। ईश्वर दर्शन तो अन्तःकरण में दिव्यता की झाँकी करने के रूप में ही होते हैं। उसके लिए श्रद्धा और भक्ति के दो पैरों के सहारे लम्बी यात्रा पूरी करनी पड़ती है।

आनन्दमय क्रोश-श्रद्धा और भक्ति का उद्गम केन्द्र है। वहाँ ईश्वर मिलन की अनुभूति होती है। मूलाधार में अवस्थित जीव चेतना कुण्डलिनी को सहस्रार स्थित ब्रह्म चेतना में मिलाया जाता है। शक्ति शिव से मिलती है। अग्नि कुण्ड में दग्ध हुई सती को फिर नये शरीर से शिव को वरण करने का अवसर मिलता है। अस्तु ईश्वर मिलन का लक्ष्य पूरा करने के लिए गायत्री की उच्चस्तरीय पंचकोशी साधना में-कुण्डलिनी जागरण की विधि-व्यवस्था बनी है भावनात्मक क्षेत्र में इस दिव्य मिलन की प्रतिक्रिया आनन्द और उल्लास के रूप में दृष्टिगोचर होती है। संसार के श्रेष्ठ-देव पक्ष को देखते हुए प्रसन्न होना आनन्द है और निकृष्ट-दैत्य पक्ष को निरस्त करने के लिए उमगते हुए शौर्य, साहस का नाम है-उल्लास धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश के लिए ईश्वर का अवतार होने की प्रतिज्ञा को साधक अपने ही भीतर पूरी होते देखता है। उसे लगता है कि भगवान का अवतार आनन्द और उल्लास के-श्रद्धा ओर भक्ति के-कुण्डलिनी जागरण के रूप में अपने ही भीतर हो रहा है। आनन्दमय कोश का यह भाव पक्ष है।

कुण्डलिनी जागरण को आनन्दमय क्रोश का शक्ति पक्ष कहा गया है। ईश्वर भाव-सम्वेदना भी है और समृद्धि सामर्थ्य का भण्डार भी। श्रद्धा और भक्ति के आधार पर की गई सोऽहम् साधना, खेचरी मुद्रा जैसी उपासना भाव पक्ष को समुन्नत करती है। कुण्डलिनी जागरण से शक्ति पक्ष उभरता है। उससे मानवी अस्तित्व में ईश्वरीय वर्चस्व की प्रचण्डता प्रकट होती है। आनन्दमय कोश की कुण्डलिनी साधना में भक्ति और शक्ति दोनों का समन्वय है।


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