मनोमय कोश-मस्तिष्कीय परिष्कार

April 1977

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मनोमय कोश का साधना में एकाग्रता की शक्ति का सम्पादन एवं अभिवर्धन प्रमुख है। सर्वविदित है कि बिखराव से समर्थता भी छिन्न-भिन्न हो जाती है। असंगठित होने पर समर्थ लोग भी कुछ कर नहीं पाते, जब कि थोड़े से छोटे लोग मिलकर भी बड़े-बड़े कार्य पूरे कर लेते हैं। यही बात मनःशक्ति के सम्बन्ध में भी है वह बिखरी रहे तो मस्तिष्क यन्त्र के पूर्ण समर्थ होते हुए भी उसकी क्षमता गये-गुजरे स्तर पर पड़ी रहेगी और वह बौद्धिक दुर्बलता के साथ-साथ प्रगति के हर क्षेत्र में पिछड़ा हुआ ही बना रहेगा।

ध्यान-योग में एकाग्रता की शक्ति का ही विकसित किया जाता है। इसके कई लाभ है। बिखराव दूर करके यदि चिन्तन एवं संकल्प को एकत्रित करने की कला सीख ली जाय और उसे मनःसंस्थान में अवस्थित विभिन्न क्षमता केन्द्रों पर इकट्ठा कर लिया जाय, तो वे संस्थान जागृत होगे और जो विशेषताएँ अपने भीतर पहले नहीं थी वे समुन्नत होने लगेंगी। इस आधार पर स्मरण शक्ति जैसी कितनी ही क्षमताएँ विकसित की जा सकती है।

आतिशी शीशे के माध्यम से कुछ इंच के घेरे में फैली हुई सूर्य किरणों को यदि एक बिन्दु पर केन्द्रित किया जा सके तो उतने भर से तत्काल अग्नि प्रज्वलित हो जायेगी। उसका उपयोग करके विकराल, दावानल उत्पन्न किया जा सकता है। मनुष्य की शारीरिक श्रम शक्ति और मानसिक चिन्तन शक्ति को अस्त-व्यस्तता ही उसे गई-गुजरी स्थिति में डाले रखने के लिए जिम्मेदार है। यदि हम क्षमताओं का सदुपयोग सम्भव हो सके तो उसका सत्परिणाम देखते ही बनेगा। सांसारिक जीवन में अनायास ही आकस्मिक सफलताएँ तो कदाचित ही किसी का मिलती होगी। सामान्यतः हर प्रगतिशील व्यक्ति को अपनी क्षमताओं को बिखराव से रोककर अभीष्ट लक्ष्य के लिए नियोजित करना पड़ता है प्रगति की सम्भावना का मार्ग इसी उपाय से प्रशस्त होता है जो अपने श्रम, समय को-चिन्तन मनोयोग को-दिशा धारा को किसी लक्ष्य विशेष पर नियोजित न कर सकें, तो वे सुयोग्य एवं साधन सम्पन्न होने पर भी कुछ कहने लायक सफलता प्राप्त न कर सकेंगे। इसके विपरीत स्वल्प बुद्धि और स्वल्प साधन होते हुए भी कितने ही व्यक्ति उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचते देखे गये है। सफलताओं में से अधिकाँश का श्रेय कर्ता की तत्परता एवं मन्मयता पर ही निर्भर रहता है। इसी को एकाग्रता भी कहते हैं।

चूल्हे पर पानी गरम करते समय ढेरों भाप ऐसे ही उड़ती रहती है। पर यदि दो छटाँक पानी की भाप प्रेशर कुकर में ठीक ढंग से प्रयुक्त ही जाय तो उतने भर से कई आदमियों का भोजन तुर्त-फुर्त पक सकता है। यदि उतने पानी में गर्मी बढ़ती रहे और भाप को निकलने का अवसर न मिले तो कुकर फट सकता है ओर एक छोटा बम फटने जैसा उपद्रव खड़ा हो सकता है। भाप का बिखराव निरन्तर होता रहता है, पर उसका संग्रह विरोध चमत्कारी परिणाम उत्पन्न करता है। रेलगाड़ी के इंजन में बनने वाली थोड़ी-सी भाप कितना बड़ा काम करती है। जबकि जहाँ-तहाँ फैले पानी की ढेरों भाप ऐसे ही हवा में उड़ती और निरर्थक नष्ट होती रहती है।

ढेरों बारूद जमीन पर फैलाकर आग लगा दी जाय तो उससे थोड़ी-सी लपट भर उठेगी-जरा-सी रोशनी भर चमकेगी किन्तु यदि उसमें से तनिक सी मात्रा बन्दूक की नली में बन्द करके चलाई जाय तो वह किसी मोटे आवरण को चीरती हुई पार जा सकती है। बाँध में पानी भरा रहता है।पर उसमें एक छोटा छेद करके उसे नीचे गिराया जाय तो उतने से दबाव के कारण बिजली घर बनने-जैसे बड़े काम हो सकते हैं। ऊपर से गिरने वाले झरनों से पनचक्कियाँ तथा दूसरी मशीनें चल सकती है। बिखराव को रोकने और उसे केन्द्रीकरण की दिशा में मोड़ने से कितनी चमत्कारी परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। इसे सहज ही कभी भी देखा जा सकता है। मोटी उड़ ठूँसने से उतनी आसानी से गहरा छेद नहीं हो सकता जितना कि उसमें पैनी नोंक निकाल लेने पर हो सकता है। नोंक में यदि विशेषता है कि एक छोटे से आधार पर दबाव की अधिक शक्ति केन्द्रीभूत होती है। सुई से लेकर छेद करने के बरमें तक इसी सिद्धान्त पर बने हैं कि दबाव को पतली नोंक पर केन्द्रित करने से उसकी शक्ति बिखराव की तुलना में अनेक गुनी बढ़ जाती है।

आमतौर से जीवन की असंख्य घटनाएँ विस्मृति के गर्त में चली जाती है, पर कभी-कभी कोई मन में चुभने वाले प्रसंग ऐसे होते हैं जो आजीवन स्मरण बने रहते हैं। कारण एक ही कि उस घटना को गम्भीरतापूर्वक लिया गया। उस पर मस्तिष्क का सारा ध्यान केन्द्रित हो गया। भुलक्कड़पन में मस्तिष्क की कमजोरी प्रधान कारण नहीं होती, वरन् उपेक्षापूर्वक पढ़ने की अन्यमनस्कता ही निहित होती है। यदि किसी विषय को बारीकी से-दिलचस्पी से-सावधानी के साथ पढ़ा जाय तो वह सहज ही विस्मरण न होगा। स्मरण शक्ति की कमी की शिकायतों पर यदि गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाये तो उसके पीछे उदासीनता-उपेक्षा एवं अन्यमनस्कता का दोष ही उभरा हुआ दिखाई देगा।

कछुए और खरगोश की प्रतिस्पर्धा में कछुए का बाजी जीत लेना इसी कारण सम्भव हुआ कि वह एक निष्ठ भाव से अपनी राह चलता रहा जबकि खरगोश अधिक समर्थ होते हुए भी अस्त-व्यस्त उछल-कूद करते रहने के कारण लक्ष्य स्थान तक पीछे पहुँचा और बाजी हार गया। नित्य एक घण्टा विदेशी भाषाएँ सीखने में लगाते रहने के कारण बिनोवाभावे तेईस भाषाओं के विद्वान बन सके। जबकि हमारा घण्टों का समय अस्त-व्यस्त में ऐसे ही नष्ट होता रहता है और उसका कुछ भी लाभ मिल सकना सम्भव नहीं होता।

प्रवीणता, पारंगत, सफलता, जैसी अनेकों उत्साहवर्धक विभूतियाँ वस्तुतः एकाग्रता की ही उपलब्धियाँ होती है। रुचिपूर्वक, उत्साहपूर्वक, मनोयोगपूर्वक, निष्ठापूर्वक, जो भी काम करते रहा जाएगा उसमें स्वभावतः प्रवीणता उत्पन्न होती चल जायेगी। योग्यता और क्षमता सभी में लगभग एक जैसे स्तर की होती है। अन्तर थोड़ा-सा ही रहता है, उसे प्रयत्नपूर्वक दूर किया जा सकता है। असफलताओं का और कोई कारण उतना नहीं होता जितना कि अनुत्साह। उपेक्षापूर्वक आधे-अधूरे मन से किये गये कामों का परिणाम असफलता के रूप में ही सामने आयेगा।

कभी-कभी किन्हीं विशेष व्यक्तियों में विलक्षण मानसिक विशेषताएँ पाई जाती है। किन्हीं की स्मरण शक्ति इतनी विकसित होती है कि सामान्य लोगों के साथ उसकी तुलना करने पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। किन्हीं में कला-कौशल की इतनी पारंगतता आरम्भिक जीवन में ही पायी जाती है जिनके कारण वे एक आश्चर्य की तरह दर्शनीय और ख्याति प्राप्त बनते हैं।

इन अद्भुत घटनाओं के मूल में रहस्य इतना ही होता है कि उनका मानसिक बिखराव संयोगवश एकाग्र बन गया होता है। संयोग भी एक नियम विशेष के आधार पर बनते हैं। पूर्व जन्मों की उपलब्धियाँ ही ऐसे कारणों में प्रधान भूमिका निभा रही होती है मनुष्य पिछले जन्म के असंख्य संस्कार अपने साथ लेकर आता है। उन्हीं में एक मस्तिष्कीय विकास का होना भी एक हो सकता है।

मस्तिष्कीय विकास, मात्र उस शिक्षण पर निर्भर नहीं, जो स्कूलों में या समीपवर्ती लोगों से मिलता है। वह जानकारी बढ़ाना मात्र है। बलिष्ठ मस्तिष्कों की विद्युत शक्ति का प्रवाह यदि दुर्बल मस्तिष्कों की ओर मुड़ जाए तो उनकी तीक्ष्णता में भारी परिवर्तन हो सकता है और उसका परिचय विशेष प्रोटीन की मात्रा की वृद्धि के रूप में सहज ही देखा जा सकता है। मस्तिष्कीय पोषण के लिए सुविकसित चेतना सम्पन्न मनस्वी लोगों का सान्निध्य अत्यन्त उपयोगी है। उनकी बढ़ी-चढ़ी प्राण शक्ति दुर्बल मनःचेतना की अभाव पूर्ति कर सकती है। प्रयोगशालाओं में मामूली बिजली को कुछ विशेष कोष्ठक में पहुँचा कर प्राणियों की प्रकृति कुछ समय के लिए बदलना सम्भव हो सकता है। प्रतिभाशाली लोगों का प्राण दुर्बल मनःस्थिति को बदलने में स्थायी उपचार का प्रयोजन पूरा कर सकता है।

येल निवासी मस्तिष्क विज्ञानी डा. जोजे डेलगाडों ने अपने प्रयोगों से यह सिद्ध कर दिया है कि मस्तिष्क में बाहर से बिजली पहुँचा कर उसका का केन्द्रों को उद्दीप्त एवं प्रसुप्त किया जा सकता है। तदनुसार उस प्राणी को इच्छित कार्य कराने ओर आज्ञा पालन के लिए विवश किया जा सकता है।

डा. जोजे ने अपने प्रयोगों की सार्वजनिक प्रदर्शनी करके दर्शकों को आश्चर्यचकित कर दिया। उनके हाथ में एक विद्युत संचालक था और कुछ प्राणियों की खोपड़ियों पर अमुक स्थान एवं अमुक संख्या में इलैक्ट्रोड लगा रहे गये थे। इस प्रकार यन्त्र और प्राणी के बीच रेडियो सम्पर्क स्थापित हुआ। प्रसारित सूचनाओं के अनुसार प्राणी ऐसे काम करने लगे जो उनकी सामान्य प्रवृत्ति के विपरीत थे। नम्र प्राणी उद्धत हो उठे और उद्धत प्रकृति वाले पूर्ण शान्त होकर एक कोने में जा बैठे। साँड, बन्दर, कुत्ते, चूहे, बिल्ली, आदि प्राणियों ने इस विद्युत संचार प्रणाली से प्रभावित होकर वे काम किये जिसकी आशा प्रदर्शन में उपस्थित जनता ने कभी भी नहीं की थी।

मनुष्यों पर भी यह प्रयोग किये गये है। और उनकी इच्छा शक्ति ज्ञान शक्ति एवं क्रिया शक्ति पर नियन्त्रण करके अमुक प्रकार से सोचने और अमुक प्रकार के काम करने को उन्हें विवश कर दिया गया है।

स्मरण शक्ति की विलक्षणता कई व्यक्तियों में इतनी अधिक मात्रा में विकसित पाई जाती ह। कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। लिथुयानिया का रैवी एलिजा दो हजार पुस्तकें कण्ठस्थ रखने के लिए प्रसिद्ध था। कितनी ही बार उलट-पटल कर उसकी परीक्षा की गई और वह सदा खरा उतरा। फ्राँस का राजनेता लिआन गैम्वाटा को विक्टर हयूगों की रचनाएँ बहुत पसन्द भी। उनमें से उसने हजारों सन्दर्भ के पृष्ठ याद कर रक्खे थे और उन्हें आवश्यकतानुसार धड़ल्ले के साथ घण्टों दुहराता रहता था। इसमें एक भी शब्द आगे-पीछे नहीं होता था। पृष्ठ संख्या तक वह सही-सही बताता चलता था।

ग्रीक विद्वान रिचार्ड पोरसन को भी पढ़ी हुई पुस्तकें महीनों याद रहती थी। जो उनने आज पढ़ा है उसे एक महीने याद रहती थी। जो उनने आज पढ़ा है उसे एक महीने तक कभी भी पूछा जा सकता था वे उसे ऐसे सुनाते थे मानों अभी-अभी रट आये हो। शतरंज का जादूगर नाम में प्रख्यात अमेरिकी नागरिक हेरी नेलसन पिल्सवरी एक साथ बीस शतरंज खिलाड़ियों की चाल को स्मरण रखकर उनका मार्ग-दर्शन करता था। यह सब काम पूरी मुस्तैदी और फुर्ती से करता था, बीसों खिलाड़ी उसका मार्ग-दर्शन पाते और खेल की तेजी बनाये रखते थे। प्रसा जर्मनी को लायब्रेरियल मैथुरिन वेसिरे दूसरों के कहे शब्दों की हू-बहू पुनरावृत्ति कर देता था। जिन भाषाओं का उसे ज्ञान नहीं था उनमें वार्तालाप करने वालों की बिना चूक नकल उतार देने की उसे अद्भुत शक्ति थी। एक बार भाशा-भाशी लोगों ने अपनी बोली में साथियों से वार्तालाप किये। मधुरिन ने क्रमशः बारहो के वार्तालाप को यथावत् दुहरा कर सुना दिया। बरमान्य का आठ वर्षीय बालक जेरा कोलबर्न गणित के अति कठिन प्रश्न को बिना कागज-कलम का सहारा लिए मौखिक रूप से हल कर देता था। लन्दन के गणितज्ञों के सम्मुख अपने अपनी अद्भुत प्रतिभा का प्रदर्शन करके सबको चकित कर दिया था। हर्म्वग निवासी जाब मार्टिन डेस भी अति कठिन गणित प्रश्नों को मौखिक रूप से हल करने में प्रसिद्ध था। उस दिनों उसके दिमाग की गणित क्षमता इतनी बढ़ी-चढ़ी थी कि आज के गणित कम्प्यूटर भी उससे प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते थे।

मस्तिष्क की अनोखी हलचलों का विश्लेषण अणु जैविकी-मोलीक्यूलर बायोलॉजी के आधार पर करते हुए स्वीडन की गोटन वर्ग यूनिवर्सिटी के जीव विज्ञानों होल्गर हाइर्डन इस नतीजे पर पहुँचे है कि मस्तिष्क को दक्ष बनाने वाले शिक्षण एवं चिन्तन कार्य कोशिकाओं में महत्वपूर्ण रासायनिक पदार्थों की मात्रा बढ़ा देते हैं और वे अधिक संवेदनशील बनकर बुद्धिमान का क्षेत्र विस्तार करती है।

इससे सिद्ध होता है कि मस्तिष्कीय क्षमताओं को विकसित करने की प्रक्रिया न केवल अपने ही बौद्धिक संस्थान को परिष्कृत करती है। वरन् उससे दूसरों को भी प्रभावित किया जा सकता है। प्रतिभा इसी का नाम है। बुद्धिमान और प्रतिभा दोनों को मानसिक दक्षता का ही एक अंग कह सकते हैं। यह दक्षता जन्म-जात रूप में-पूर्व संचित सम्पदा के रूप में-अनायास उपलब्ध भी दीख सकती है और उसे साधनात्मक प्रयत्नों के द्वारा योजनाबद्ध रूप से बढ़ाया भी जा सकता है। मनोमय कोश के परिष्कार की साधना अपनाकर क्रमशः इसी क्षेत्र में पदार्पण करना सम्भव होता है।

संयुक्त-राष्ट्र संघ में एक ऐसे भाषा-अनुवादक थे, जो एक ही समय में चार भाषाओं का अनुवाद अपने मस्तिष्क में जमा लेते थे ओर चार स्टेनोग्राफ़र बिठाकर उन्हें नोट कराते चले जाते थे।

दार्शनिक जेरमी वेन्थम जब चार वर्ष के थे, तभी लैटिन और ग्रीक भाषाएँ ठीक तरह बोलने लगे थे। जर्मनी के गणितज्ञ जाचारियस ने एक बार 200 अंकों वाली लम्बी संख्या का गुणा में नहीं मन करके लोगों को अचम्भे में डाल दिया था। अमेरिका के एक गैरिज कर्मचारी को सैकड़ों मोटरों के नम्बर जवानी याद थे और वह उनकी शकल देखते ही पुरानी मरम्मत की बात भली प्रकार याद कर लेता था।

डान फ्राँसिस कोलंबिया विश्व-विद्यालय में जब प्राकृतिक इतिहास का प्रोफेसर नियुक्त हुआ, तब उसकी आयु मात्र 16 वर्ष की थी।

आक्सफोर्ड विश्व-विद्यालय ने एक चार वर्षीया बालिका बेबेल थाम्पनन के गणित अध्ययन के लिए अतिरिक्त प्रबन्ध किया है। यह बालिका इतनी छोटी आयु में ही अंग गणित, त्रिकोण-मिति और प्रारम्भिक भौतिक शास्त्र में असाधारण गति रखती है। इस उम्र के बालक को जिसने प्रारम्भिक पढ़ाई क्रमबद्ध रीति से नहीं पढ़ी, आगे कैसे पढ़ाया जाय? इसका निर्धारण करने के लिए शिक्षा-शास्त्रियों का एक विशेष पैनल काम कर रहा है।

मद्रास संगीत अकादमी न्यास की ओर से रविकिरण ढाई वर्ष के बालक को उसकी अद्भुत संगीत प्रतिभा के उपलब्ध में विशेष छात्र-वृत्ति देने की घोषणा की गई है। यह बालक न केवल कई वाद्य यन्त्रों का ठीक तरह बजाना जानता है, वरन् दूसरों द्वारा गलत बजाये जाने पर उस गलती को बताता भी है।

जापान निवासी हनाबा होकाइशी सन् 1722 में जन्मा ओर पूरे 101 वर्ष जीकर 1523 में मरा। वह सात वर्ष की आयु में अन्धा हो गया था। पर इससे क्या उसने बिना नेत्रों के ही दूसरों से सुनकर अपनी ज्ञान-वृद्धि आरम्भ कर दी। जो सुना-उसे पूरे मनोयोग के साथ सुना और ध्यान में रखा फलस्वरूप उसके ज्ञान का कोश इतना बढ़ गया कि उसे एक अद्भुत आश्चर्य माना जाता था। उसके द्वारा नोट कराये गये ज्ञान-भण्डार को जापान में 2820 खण्डों के एक अनुपम विशाल ग्रंथ के रूप में छापा गया है। यह अब तक का संसार का सबसे बड़ा ग्रंथ है।

बरमानट निवासी आठ वर्षीय बालक जेरा कोलबर्न ने बिना गणित का क्रमबद्ध अध्ययन किये और बिना कागज कलम की सहायता के-दिमागी आधार पर कठिन प्रश्नों के उत्तर देने की जो क्षमता दिखाई, उससे बड़े-बड़े गणितज्ञ चकित रह गये। जिन कठिन सवालों को केवल अच्छे गणितज्ञ ही काफी समय लगाकर हल कर सकते थे। उसने उन्हें बिना हिचके आनन-फानन में कैसे हल कर दिया। इसे देखकर सब लोग दंग रह जाते थे। आश्चर्य यह था कि पुस्तकीय आधार पर उसे गणित के सामान्य नियम भी ज्ञात न थे।

गणित-शास्त्री जेडिया बाक्सटन बहुत समय के एक गणित समस्या में उलझे हुए थे, हल निकल नहीं रहा था। एक दिन उनकी भेंट स्मरण शक्ति के धनी व्यक्ति जानमार्टिन डेस से हुई। उसने उनका हल मिनटों में बता दिया। गणित सम्बन्धी उलझनों को सुलझाने के लिए डेस अपने समय में दूर-दूर तक प्रख्यात था।

सर जान फील्डिंग इंग्लैंड के जज थे। वे अन्धे थे, पर उनके काम इतने सक्षम थे कि अपने जीवन काल में जिन 3000 अपराधियों से उन्हें वास्ता पड़ा था, उन सब की आवाज वे ठीक तरह पहचान सकते थे और उनका नाम बता सकते थे। मुकदमों के मुद्दतों बाद वे लोग कभी उनसे मिलने आते, तो नेत्र न रहने पर भी केवल स्मरण-शक्ति के आधार पर उसका नाम और मुकदमों का सन्दर्भ बता देते थे। उनकी यह अद्भुत स्मरण-शक्ति चिरकाल तक चर्चा का विशय बनी रही।

फ्रांसिस्को मैरिया गेरिबाल्डी नामक एक प्रसिद्ध कवि चौदहवीं शताब्दी के अन्त में हुआ है। वह इटली का निवासी था। उसकी विलक्षण प्रतिभा यह थी कि दोनों हाथों से दो कविताएँ एक साथ लिखता जाता था। इनमें एक लैटिन भाषा में होती और दूसरी पुरातन ग्रीक भाषा में।

कैन्टरबरी के प्रधान पादरी टामस फ्रेकर ने तीन महीने में पूरी बाइबिल जवानी याद कर डालने का एक अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया। सन् 1724 में जन्मा और 1822 में मरा स्काटलैंड का प्रख्यात कवि डंकन मेक इन्टायर उन दिनों अपनी कविताओं के लिए अपने देश ही नहीं सारे योरोप में प्रसिद्ध था। पर वह न पढ़ना जानता न लिखना। अपनी सारी प्रतिभा उसने सुन समझ कर ही विकसित की थी।

ग्रीक पोरसन नामक व्यक्ति को मिल्टन की प्रायः सभी रचनाएँ याद थी और वह उन्हें सीधी ही नहीं उल्टी करके भी सुना सकता था।

लाक्राज ने अपनी स्मरण शक्ति का एक अनोखा प्रदर्शन करके दर्शकों को चकित कर दिया। उसने अपरिचित 12 भाषाओं की 12 कविताएँ सुनी और दूसरे ही क्षण उसने उन्हें ज्यों का त्यों दुहरा दिया।

मयूनिख की राष्ट्रीय लाइब्रेरी के संचालक जोसेफ वर्न हार्ड डंकन अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न थे। उन्होंने 6 भाषाएँ सीखी ही नहीं थी उनमें पारंगत भी बने थे। इसके अतिरिक्त उनकी उस विशेषता को देखकर दंग रह जाना पड़ता था। जबकि वे 6 भाषाओं के अपने स्टेनोग्राफ़र को एक साथ बिठाकर उन सभी को उन्हीं की भाषा में लेख नोट कराते थे। इतना मस्तिष्कीय सन्तुलन अथाह ज्ञान और विकसित स्मरण-शक्ति का प्रमाण कदाचित ही कही कभी देखने को मिलता है।

5 अक्टूबर 1950 को लन्दन में एक भारतीय महिला शकुन्तला देवी उन्हें गणित की जादूगरनी (विजार्ड आफ मैथेमेटिक) कहा जाता है, टेलीविजन पर अपना कार्यक्रम प्रस्तुत कर रही थी। तभी एक सज्जन ने उन्हें एक गणित का प्रश्न हल करने को कहा। बिना एक क्षण का विलम्ब किये हुए उन्होंने कहा यह प्रश्न गलत है। यह प्रश्न ब्रिटेन के बड़े-बड़े गणिताचार्यों ने तैयार किया था। इसीलिए सब लोक एकदम आश्चर्य में डूब गये प्रश्न गलत कैसे हो सकता है? बी.बी.सी. कार्यक्रम के आयोजन कर्ता ने प्रश्न की जाँच कराई तो वह विस्मित रह गया कि प्रश्न सचमुच गलत है। उसने भी यह माना कि-हम जितना समझा पाये है, मन की शक्ति ओर सामर्थ्य उससे बहुत अधिक है।”

सिडनी (आस्ट्रेलिया) स्थित न्यू साउथ बेल्स विश्व विद्यालय में उनकी प्रतिद्वंद्विता 20 हजार पौंड मूल्य के संगणन (कम्प्यूटर) से हुई। यह कम्प्यूटर विद्युत चलित था ओर उसका आपरेशन प्रसिद्ध गणितज्ञ श्री आर0जी0 स्मार्ट और वेरी थार्नटन कर रहे थे, किन्तु जब भी कोई प्रश्न पूछा जाता था शकुन्तला उसका तुरन्त उत्तर दे देती थी। जब कि मशीन के उत्तर की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। शकुन्तला के उत्तर शत-प्रतिशत सही पाकर वे सब चौंक पड़े।

मन की अद्भुत शक्ति के सन्दर्भ में वैज्ञानिकों ने अनेक तरह के शोध किये है और उन्हें मनोविज्ञान अनुसन्धान समिति द्वारा “दि ह्यूमन परसनैलिटी एण्ड इट्स सरवाइबल ऑफ बाडिली डेथ” नामक शोध ग्रन्थ में विधिवत् प्रकाशित भी किया गया है। उपरोक्त पुस्तक में ऐसे छोटे बच्चों के अनेक उदाहरण भी दिये है जो गणित संगीत, ज्यामिती, चित्रकला आदि में इतने पारंगत थे कि उस विषय के प्राध्यापक भी उतने निष्णात नहीं होते। जगद्गुरु शंकराचार्य ने अपनी ऐसी ही विलक्षण प्रतिभा से अपने गुरु को स्तम्भित कर दिया था। बिना शिक्षा व्यवस्था के पाँच-छः वर्ष जितनी छोटी आयु में ही इस प्रकार का असाधारण ज्ञान होना इसी एक आधार पर सम्भव होता है कि किसी आत्मा को अपने पूर्व जन्म की संचित ज्ञान सामग्री उपलब्ध हो। पूर्व जन्म की सिद्धि आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

200 वर्ष पूर्व जर्मनी में हानरिस हानेन्केन नामक बच्चे का जन्म हुआ। बालक तीन वर्ष का था तभी उसे हजारों लैटिन मुहावरे कण्ठस्थ थे। जोड़, बाकी, गुणा, भाग वह बड़ी आसानी से कर लेता। इसी आयु में उसने फ्रेंच भाषा और भूगोल पड़ने की भी इच्छा की। ‘साइबर नेटिम’ के रचयिता ‘वीनर’ 5 वर्ष के थे तभी 18 वर्ष के विद्यार्थियों के साथ विज्ञान में रुचि लेने लगे थे। गेटे 9 वर्ष की आयु में कविताएँ लिखने लगे थे। वायरन, स्काट तथा विकासवाद सिद्धान्त के जन्मदाता डारविन भी ऐसी ही विलक्षण क्षमताओं के बच्चे थे। पास्काल की प्रथम विज्ञान रचना 15 वर्ष की आयु में ही प्रकाशित हो गयी थी जिसमें उसने 100 से अधिक प्रमेय सिद्ध किये थे।

अमेरिका के भौतिक शास्त्री डा.स्टीवेंसन ने 600 ऐसी घटनाएँ एकत्रित की हैं जिनमें किन्हीं व्यक्तियों विशेषकर 14 वर्ष की आयु तक के बालकों द्वारा बताये गये उनके पूर्व जन्मों के अनुभव प्रामाणिक सिद्ध हुई है, 170 प्रमाण अकेले भारत के है।

पूर्व जर्मनी के विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न तीन वर्ष का बालक ‘हामेन केन’ विद्या के शोधकर्ताओं का केन्द्र रहा है। यह बालक 3 वर्ष की आयु में जर्मन के उच्च साहित्यिक ग्रंथ न केवल पढ़ लेता था अपितु उनका विश्लेषण भी कर लेता था।

साधना की सिद्धि का सिद्धान्त हर क्षेत्र में काम करता है। श्रम का पुरस्कार मिलने की बात सर्वविदित है। पुरुषार्थ का प्रतिफल प्राप्त होने के विविध क्रिया-कलाप चल रहे है। अध्यात्म साधना के सम्बन्ध में भी यह बात है। यदि वह तथ्यों पर आधारित हो ओर विधिवत् संपन्न की जाय तो उसके लाभ मिला भी सुनिश्चित ह।

मनोमय कोश को जागृत परिष्कृत करने के प्रयत्नों में ध्यान एकाग्रता को प्रमुखता दी गयी है जिससे संकल्प बल प्रचण्ड हो, लक्ष्य विशेष पर उसका नियोजन हो सकें। इस आधार पर मस्तिष्क संस्थान को विकसित करने, व्यक्तित्व में चमत्कारी प्रतिभाओं को जगाने जैसे अनेकों लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं।


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