अन्नमय कोश में जीन प्रक्रिया का परिवर्तन

April 1977

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

व्यक्तित्व के विकास निर्माण में आमतौर से वातावरण और प्रयत्न पुरुषार्थ का महत्त्व माना जाता है। यह मान्यता एक सीमा तक ही ठीक है। क्योंकि एक जैसी परिस्थितियों में जन्मे और पले बालक आगे चलकर भारी भिन्नता युक्त देखे गये है। यह उनकी मौलिक विशेषता का ही प्रभाव पड़ता है।

जीव सत्ता की रहस्यमय परतों का रहस्योद्घाटन करने के लिए हमें काय-कलेवर के गहन अन्तराल में प्रवेश करके वह समझने का प्रयत्न करना चाहिए कि व्यक्तित्व को प्रभावित करने, दिशा देने एवं उठाने-गिराने में सूक्ष्म शक्तियों का कितना बड़ा योगदान रहता है। अन्नमय कोश-स्थूल शरीर की वास्तविक स्थिति मात्र आहार बिहार पर निर्भर नहीं है। वरन् ऐसे तथ्यों वर टिकी है जिन पर मानवी बुद्धि का कोई प्रत्यक्ष नियन्त्रण नहीं है।

वंशानुक्रम विज्ञान पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है। कि मनुष्य के शरीर, मन और व्यक्तित्व को बनाने में ऐसे कारणों का भी बहुत बड़ा हाथ होता है। जो दुर्भाग्य या सौभाग्य की तरह बहुत पहले से ही पल्ले बँधे होते हैं। और उनसे न पीछा छुड़ाना सम्भव होता है और न परिवर्तन का पुरुषार्थ ही सफल होता है। ऐसे प्रसंगों पर अध्यात्म साधनाएँ ही एकमात्र वह उपाय है जिनके सहारे वंशानुक्रम एवं संगृहीत संस्कारों में अभीष्ट परिवर्तन सम्भव हो सकता है। इस दृष्टि से शरीर विज्ञान एवं आरोग्य शास्त्र की अपेक्षा अध्यात्म उपचारों की सामर्थ्य बहुत बढ़ी-चढ़ी है उनके सहारे शारीरिक एवं मानसिक स्थिति का ही नहीं स्वभाव, दृष्टिकोण एवं समूचे व्यक्तित्व का ही कायाकल्प हो सकता है।

भावी पीढ़ियों के निर्माण में आमतौर से पति-पत्नी की शारीरिक स्थिति की देख-भाल की जाती है और समझा जाता है। कि निरोग एवं बलिष्ठ पति-पत्नी के संयोग से सुविकसित पीढ़ी बन सकती है। रक्त शुद्धि की मान्यता सम्भवतः इसी आधार पर बनी है। मिश्र के शासक कभी इस सम्बन्ध में बहुत कठोर थे, वे मात्र अपने ही निकटवर्ती कुटुम्ब की मर्यादा में विवाह-शादी करते थे। ताकि अन्य परिवारों के साथ रक्त सम्मिश्रण न हो और उनकी परम्परागत विशेषताओं में अन्तर न आये। योरोप के राज्य परिवारों में भी इस रक्त-शुद्धि के सिद्धान्त की मान्यता मिलती रही है। हिटलर ने इस मान्यता को उन्माद की तरह उभारा था वह जर्मनों में आर्य रक्त की श्रेष्ठता बताता था और अन्यों से अपने लोगों को श्रेष्ठ मानता था। भारत में भी रोटी बेटी व्यवहार में सम्भवतः ऐसी ही मान्यताओं का प्रभाव रहा हों।

उपरोक्त मान्यताएँ अवैज्ञानिक और अन्ध-विश्वासों पर आधारित रही है। तथ्य यह है कि भिन्न रक्त के सम्मिश्रण से नये किस्म में परिवर्तन होते हैं। और उनसे नई प्रगति के आधार बनते हैं। सन्तान के व्यक्तित्व का ढाँचा बनाने में जो जीन्स काम करते हैं, वे न जाने कितनी पीढ़ियों से चले आते हैं। मातृ कुल और पितृ कुल के सूक्ष्म उत्तराधिकार से वे बनते हैं। सम्मिश्रण की प्रक्रिया द्वारा वे परम्परागत स्थिरता भी बनाये नहीं रहते, वरन् विचित्र प्रकार से परिवर्तित होकर कुछ से कुछ बन जाते हैं। यदि पीढ़ियों को दोष मुक्त प्रखर एवं सुसंस्कृत बनाना है तो इस जीन प्रक्रिया को प्रभावित तथा परिवर्तित करना होगा, यह अति कठिन कार्य है। उतनी गहराई तक पहुँच सकने वाला कोई उपाय उपचार अभी तक हाथ नहीं लगा है जो इस सूक्ष्म इकाइयों के ढाँचे में सुधार या परिवर्तन प्रस्तुत कर सकें।

असमर्थता देखते हुए भी यह कार्य बड़ा आवश्यक है। कि जीन्स जैसी व्यक्तित्व निर्माण की कुँजी को हस्तगत किया जाय। अन्यथा परिस्थिति वातावरण, आहार-विहार शिक्षा परिष्कार के समस्त साधन जुटाने पर भी व्यक्तित्वों का निर्माण विधि-विधान स्तर का ही बना रहेगा। इस सन्दर्भ में आशा की किरण अध्यात्म उपचार में ही खोजी जा सकती है। साधना प्रयत्नों के अन्नमय कोश की अन्तः प्रक्रिया में परिवर्तन लाया जा सकता है। उससे जीन्स की स्थिति बदलने और पीढ़ियों के उज्ज्वल भविष्य की आशा की जाती है। इतना ही नहीं पैतृक प्रभाव के कारण वयस्क व्यक्ति का जो ढाँचा बन गया है। उसमें भी सुधार परिष्कार सम्भव हो सकता है शारीरिक कायाकल्प-मानसिक ब्रेन वाशिंग की चर्चा होती रहती है। व्यक्तित्वों के परिवर्तन में साधनात्मक प्रयोग का परिणाम और भी अधिक उत्साहवर्धक हो सकता है।

आनुवांशिकी की खोजो से स्पष्ट हो गया है कि जीन्स में मात्र भोजन की पौष्टिकता का तो प्रभाव नगण्य ही होता है, शारीरिक सुदृढ़ता, स्फूर्ति, अभ्यास, कर्म-कौशल व्यवहार, विकास, चरित्र का स्तर, मस्तिष्कीय क्षमताओं के विकास आदि सम्पूर्ण व्यक्तित्व का सारभूत अंश उनमें विद्यमान् रहता है। शरीर की विकृतियों का भी वे कारण होते हैं, पर उससे अनेक गुना महत्त्वपूर्ण तो मनः स्थिति, बौद्धिक क्षमताएँ और चारित्रिक प्रवृत्तियाँ होती है। आलस्य और प्रमाद के कारण व्यक्तित्व की क्षमताएँ प्रखरताएँ बिखरती, नष्ट होती रहीं, तो शारीरिक सुगढ़ता में तो दोष आते ही है, व्यक्तित्व का मूलभूत स्तर घटिया होता जाता है। जिससे स्वयं का जीवन भी देवोपम विभूतियों से वंचित रहा आता है और अपनी सन्तान पर भी उसका विषाक्त प्रभाव छोड़ने का अपराधी बनना पड़ता है।

आनुवांशिकी शोधें इतना भर विश्वास दिलाती है कि उपयुक्त रक्त मिश्रण से नई पीढ़ी का विकास हो सकता है। आरोपण प्रत्यारोपण की सम्भावना भी स्वीकार की गई है। वर्तमान स्थिति को बदलने के लिए नहीं भावी में सुधार होने के सम्बन्ध में ही यह आश्वासन लागू होता है। वैज्ञानिक कहते है- ‘जीन’ सामान्यतया निष्क्रिय स्थिति में पड़े रहते हैं। उनकी सक्रियता नर-नारी का संगम होने के उपरान्त उभरती है। जीन का कार्य युग्म रूप में आरम्भ होता है। जिनका एक सदस्य पिता से आता है और दूसरा माता से। यह जोड़ा मिलकर नई संरचना की विधि-व्यवस्था में जुटता है। यदि दोनों पक्ष एक प्रकृति के हुए तो उनका सृजन ठीक उसी रूप में होगा, किन्तु यदि भिन्नता रही तो दोनों के सम्मिश्रण का जो परिणाम होगा वह सामने आयेगा। जो पक्ष प्रबल (डामिनेन्ट) होगा वह दुर्बल पक्ष- (रिसेसिव) की विशेषताओं को दबाकर अपना वर्चस्व प्रकट करेगा। फिर भी दुर्बल पथ की कुछ विशेषताएँ तो उस नये सम्मिश्रित सृजन में दृष्टिगोचर होती ही रहेगी। एकरूपता मिलते चलने पर आकार भार बढ़ेगा। पानी में पानी मिलाते चलन पर रहेगा पानी ही, उसका परिणाम भर बढ़ेगा। किन्तु दो भिन्नताएँ मिलकर आकार ही नहीं स्थिति और प्रकृति का परिवर्तन भी प्रस्तुत करेगी। पीला और नीला रंग मिला देने पर वे दोनों ही अपना मूल स्वरूप खो बैठेंगे ओर तीसरा नया हरा रंग बन जाएगा। जीनों की परम्परा में पाई जाने वाली विशेषताएँ तथ्य रूप तो बनी रहेगी, पर उसका प्रत्यक्ष रूप परिवर्तित दृष्टिगोचर होगा। घोड़ी और गधे के सम्मिश्रण से नई किस्म के खच्चर पैदा होते हैं। कलमी पौधों के फल-फूलों में नये किस्म की विशेषताएँ उभरती है।

आनुवांशिकी के आधार पर अब तक इतना ही सम्भव हो सका है कि उपयुक्त जोड़े मिलाकर भावी पीढ़ी के विकास की बात सोची जाय। उस क्षेत्र में भी यह प्रश्न बना ही हुआ है कि निर्धारित जोड़े में जो विकृतियाँ चली आ रही होंगी उनका निवारण, निष्कासन कैसे होगा? अच्छाई अच्छाई से मिलकर अच्छा परिणाम उत्पन्न कर सकती है तो बुराई बुराई से मिलकर अधिक बुराई क्यों उत्पन्न न करेगी? यदि अच्छाई-बुराई के बीच संघर्ष आरम्भ हो गया तो नई मध्यवर्ती स्थिति बन सकती है पर प्रगति का अभीष्ट परिणाम किस प्रकार उपलब्ध हो सकेगा।

आनुवांशिकी शोधें तथ्यों पर पड़े पर्दे का तो उद्घाटन करती है, पर अभीष्ट सुधार के लिए उपयुक्त एवं सुनिश्चित मार्ग-दर्शन करना उनके लिए भी सम्भव नहीं हो सका है। वनस्पति में प्रत्यारोपण क्रिया के उत्साहवर्धक परिणाम सामने आये है। कृत्रिम गर्भाधान तथा दूसरे प्रत्यारोपण का परिणाम भी किसी कदर अच्छा निकला है। मनुष्य की शरीर रचना में भी थोड़े हेर-फेर हुए है। गोरे और काले पति-पत्नी के संयोग से तीसरी आकृति बनी है। एँग्लोइण्डिसन रेस अपने ढंग की अलग ही है। इतने पर भी मूल समस्या जहाँ की तहाँ है। जीन के साथ जुड़ी हुई पैतृत्व परम्परा में जो रोग अथवा दुःस्वभाव जुड़े रहेंगे उनको हटाना या मिटाना कैसे बन पड़ेगा? यह तो भावी पीढ़ी के परिवर्तन में प्रस्तुत कठिनाई हुई। प्रधान बात यह है कि वर्तमान पीढ़ी को अवांछनीय उत्तराधिकार से किस प्रकार छुटकारा दिलाया जाय? उसे असहाय स्थिति में पड़े रहने की विवशता से त्राण पाने का अवसर कैसे मिले? इस क्षेत्र में परिवर्तन हो सकने की बात बहुत ही कठिन मालूम देती है।

मनुष्य के एक जीन में करोड़ों इकाइयाँ होती है। इन पर विषाणुओं, वायरसों की क्या प्रतिक्रिया होती है, प्रस्तुत शोधें इसी उपक्रम में इर्द-गिर्द धूम रही है। डा० हरगोविन्द सिंह खुराना ने जिस जीन के कृत्रिम संश्लेषण में सफलता प्राप्त करके नोबुल पुरस्कार जीता था, वह मात्र 199 इकाइयों वाला था। जिस नये जीवाणु की जीन बनाई जा सकी है। उसकी 199 इकाइयों को सही क्रम में जोड़ने में 9 वर्ष लगे है। यह तो एक प्रयोग भर हुआ। मनुष्य के एक जीन में पाई जाने वाली करोड़ों इकाइयों को सही क्रम से जोड़ना अतीव दुष्कर है। यहाँ एक बात और भी ध्यान रखने की है कि प्रत्येक जीवाणु कोशिका में ऐसे कई लाख जीन होते हैं। जो मानव शरीर से भिन्न -भिन्न अवयवों के निर्माण एवं संचालन का कार्य सम्पन्न करते हैं।

शरीर के विभिन्न अंग-प्रत्यंगों के जीन्स द्वारा निर्माण की प्रक्रिया को अनुशासित रखने का दायित्व ‘ऐंजाइमों’ का है। ये ‘ऐंजाइमों’ ‘न्यूक्लिक अम्लों’ के माध्यम से-जीन्स से सम्बद्ध रहते हैं। चुम्बकत्व अम्लों के माध्यम से-जीन्स से सम्बद्ध रहते है-चुम्बकत्व-शक्ति के प्रयोगों-उपचारों द्वारा इन ऐंजाइमों को प्रभावित कर जीन्स के विकास-क्रम पर प्रभाव डाला जा सकता है। अभी वैज्ञानिक इस दिशा में अध्ययन कर रहें है।

भारत में अतीतकाल में सुसन्तति के लिए तप-साधना का विधान था, जो कि मनुष्य में अन्तर्निहित चुम्बकत्व शक्ति का विकास-अभिवर्धन करता था। कृष्ण और रुक्मिणी ने बद्रीनाथ धाम में बारह वर्ष तक पर अपनी चुम्बकत्व-शक्ति को अत्यधिक उत्कृष्ट बना लिया था। तभी उन्हें प्रद्युम्न के रूप में मनोवाँछित सन्तान प्राप्त हो सकी थीं

वैज्ञानिकों का मत है कि जीन्स की विशेषताएँ विकिरणों द्वारा प्रभावित की जा सकती है। शरीर के भीतर रश्मियों के केन्द्रीकरण द्वारा ऐसी विकिरण-चिकित्सा व्यवस्था की जा सकती है। विद्युत-क्षेत्र इलेक्ट्रिक-फील्ड्स द्वारा जीन्स की रासायनिक और विद्युतीय दोनों विशेषताओं में परिमार्जन संशोधन किये जा सकते हैं। ध्वनियों तथा अतिध्वनियों के क्षेत्र में भी खोजें चल रही है। वैज्ञानिकों का विश्वास है कि उनके द्वारा भी जीन्स में परिवर्तन की विधि खोजी जा सकती है।

भौतिक विज्ञान से यह सम्भव हो या न हो, पर अध्यात्म विज्ञान से तो यह साध्य है ही। भारतवर्ष में साधना द्वारा शरीरस्थ जैविक विद्युत को प्रखर बनाकर विकिरण का उपयोग इस दिशा में सफलतापूर्वक किया जाता रहा है। इन्द्र को जीतने में समर्थ वृत्रासुर की उत्पत्ति तथा राजा दशरथ के यहाँ राम भरत जैसी सुसन्तति की प्राप्ति ऐसे ही प्रयोगों द्वारा सम्भव हुई थी।

अध्यात्म विज्ञान वहाँ से आरम्भ होता है जहाँ भौतिक विज्ञान की सीमाएँ प्रायः समाप्त हो जाती है। स्थूल की अगली सीढ़ी सूक्ष्म है अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से निकलने वाले विचित्र हारमोन स्रावों की तरह आनुवांशिकी क्षेत्र के रहस्यमय घटक ‘जीन’ भी उतने ही विलक्षण है। इन्हें प्रभावित करने में, भौतिकी सफल न हो सकें तो इसमें निराश होने की कोई बात नहीं है। सुनियोजित अध्यात्म विज्ञान के पीछे वे संभावनाएँ झाँकती है जिनसे न केवल हारमोन ओर जीव वरन् ऐसे-ऐसे अनेकों रहस्यमय केन्द्र प्रभावित परिष्कृत किये जा सकते हैं। जो सामान्य मनुष्य जीवन को असामान्य-देवोपम बना सकने में समर्थ है। अध्यात्म विज्ञान की ‘अन्नमय कोश’ की कक्षा प्रयोग प्रक्रिया इसी उद्देश्य को पूरा करती है। उस सन्दर्भ में यदि शोध और प्रयोग के लिए आवश्यक उत्साह जुटाया जाय, तो व्यक्ति को निकृष्ट से उच्च, उच्च से उच्चतर और उच्चतर से उच्चतम बनाया जा सकना सम्भव हो सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles