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April 1977

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यथा चानिमिशाः स्थूला जाल छित्वा पुर्नजलम्। प्राप्नुवन्ति तथा योगास्तत्पंद वीतकल्मशाः॥

तथैव वागुरां छित्वा बलवन्तों यथा मृगाः। प्राप्नुवन्ति मार्ग विभुक्ताः सर्वबन्धनैः॥

लोभ जानि तथा राजन् वहिनर्जातवलः पुनः। छित्वा योगाः परं मार्गे गच्छन्ति विमलं शिवम्॥

स एव च यदा राजन् वहिनर्जातवलः पुनः। समीरणगतः क्षिमं दहेत कृत्सनाँ महीममि॥

तद्वज्जातवलों योगी दीप्ततेजा महावलः। अन्तः काल इवादित्यः कृत्स्नं सशोशमज्जगत्॥

तदैव च महास्त्रोतो निश्टम्भयति वारणः। तद्वद्योयवलं लन्ध्वाँ व्युहेत् विशयान् वहन्॥

न यनोनान्तकः क्रुद्धो न मृत्युर्भीम विक्रमः। ईशते नृपते सर्वे योगस्यामिततेजसः॥ (म0शा0प0मो0अ॰ 300)

जैसे मगर मच्छ जाल को काट कर फिर जल में चले जाते हैं। उसी प्रकार योगी जन पाप बन्धन से छूट कर उस ब्रह्म पद को प्राप्त हो जाते हैं। जैसे बलवान सिंह आदि जंगली पशु पिंजरे आदि पाश बन्धनों को तोड़ कर सर्व बन्धनों से छूटकर विशाल मार्ग को प्राप्त हो जाते ह। वैसे ही हे राजन् बलवान, आत्मबल वाले योगीजन लोभ वाले बन्धनों को काटकर विमल ऊँचे कल्याण मार्ग को प्राप्त करते हैं। अग्नि जैसे बढ़ी हुई वायु से भड़काई हुई सारी पृथिवी को भी शीघ्र जला देती है। इसी प्रकार आत्मबल वाला योगी दीप्त तेज वाली अग्नि की भाँति अन्त करने वाले सूर्य की भाँति जगत सुखा देता है। या जैसे श्रोत को बाँध या हाथी रोक देता है उसी प्रकार योगी भी योगबल प्राप्त करके बहुत विषयों को रोक देता है। हे राजन् अतुल बल वाले योगी के ऊपर उसकी भावना पर यम, अन्तक, भयंकर, मृत्यु भी क्रुद्ध हुआ स्वामित्व नहीं कर सकता है।


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