मनः संस्थान का समूची जीवन सत्ता पर प्रभाव

April 1977

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मनोमय कोश की साधना मस्तिष्कीय क्षेत्र में घुसे मनोविकारों को-दुष्प्रवृत्तियों को-निरस्त करने के लिए लड़ा जाने वाला महाभारत हो, साथ ही इसमें धर्म राज्य की-राम राज्य की-स्थापना लक्ष्य संकल्प भी जुड़ा हुआ हों।

इस सन्दर्भ में वैज्ञानिक-अनुशीलन ध्यान देने योग्य है। बहुत समय पहले शारीरिक रोगों का कारण, बात पित्त, कफ़, अपच, मलावरोध, ऋतु प्रभाव, विषाणुओं का आक्रमण आदि माना जाता है। नवीनतम शोधें शरीर पर पूरी तरह मनःसत्ता का अधिकार मानती है। और बताती है कि बाह्य कारणों से उत्पन्न हुए रोग तो शरीर की जीवनी शक्ति से ही अच्छे हो सकते हैं। जटिल रोग तो आमतौर से मनोविकारों के ही परिणाम होते हैं। उनका निराकरण दवा दारु से नहीं मानसिक परिशोधन से ही सम्भव हो सकता है।

शारीरिक ही नहीं मानसिक रोगों का भी यही प्रधान कारण है। दुष्कर्म अथवा दुर्बुद्धिग्रस्त-व्यक्ति शारीरिक ही नहीं मानसिक रोगों से भी ग्रसित रहते हैं। उन्माद विस्फोट की स्थिति न आये तो भी असन्तुलन से ग्रस्त व्यक्ति अर्ध विक्षिप्त स्थिति में पड़े रहते हैं। अकारण दुःख पाते और अकारण दुःख देते हैं। इनकी मनःस्थिति कितनी दयनीय होती है। यह देखने भर से बड़ा कष्ट होता है। शारीरिक व्यथाओं से पीड़ितों की अपेक्षा मनोरोगों से ग्रस्त लोगों की संख्या ही नहीं पीड़ा भी अधिक है इन व्यथाओं से छुटकारे का उपाय अस्पतालों में नहीं, मानसिक संशोधन की साधनाओं पर ही अवलम्बित है। वे उपाय, उपचार अन्तय प्रकार भी हो सकते हैं, पर अध्यात्म विज्ञान के आधार पर उसे मनोमय कोश से साधना से अधिक सुविधापूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है।

कार्य-विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि मस्तिष्क के साथ जुड़े हुए ज्ञान तन्तु सारे शरीर में फैले है। उन्हीं के माध्यम से इस जटिल यन्त्र का संचालन होता है। इन्द्रियों की क्रियाशक्ति, अनुभूतियाँ, सरसताएँ मस्तिष्क में ही जाकर खुलती है। इन्द्रिय गोलक तो मात्र सूचनाएँ संग्रह करने और उन्हें मस्तिष्कीय केन्द्रों तक पहुँचाने भर का काम करते हैं। कोई मानसिक कष्ट होने पर सारा शरीर शिथिल हो जाता है। और क्रिया शक्ति में स्पष्टतया अस्त-व्यस्तता दीखने लगती है। भय, चिन्ता, शोक, निराशा, जैसे प्रसंगों पर किसी भी मनुष्य का चेहरा उदास और सारा शरीर शिथिल देखा जा सकता है। क्रोध, अपमान, द्वेश, प्रतिशोध, की स्थिति में किस प्रकार अंग-प्रत्यंगों में उत्तेजना दीख जाती है, इसे किसी आवेशग्रस्त पर छाये हुए भावोन्माद को, देखकर सहज ही देखा, समझा जा सकता है। प्रसन्न और निश्चित रहने वाले स्वस्थ रहते और दीर्घजीवी बनते हैं। इसके विपरीत क्षुब्ध रहने वाले अकारण दुर्बल होते जाते हैं। और अकाल मृत्यु से असमय मरते हैं। यह तथ्य स्पष्ट करते हैं कि शरीर संस्थान पर आहार-बिहार का, जलवायु का जितना प्रभाव पड़ता है उससे कहीं अधिक भाव-संस्थान का होता है।

शरीर में स्नायु मंडल द्वारा तथा नलिका विहीन ग्रन्थियों द्वारा भावनाएँ क्रियाशील होती है। हमारे सम्पूर्ण शरीर में स्नायुओं का जाल बिछा हुआ है। सामान्यतः स्नायु उज्ज्वलवर्णी होते हैं। ओर तार की तरह ठोस होते हैं। हमारी सभी पेशियाँ स्नायुओं के ही आधार पर चलती है। प्रत्येक पेशी में पहुँचने वाला मुख्य स्नायु सुतली की तरह मोटा होता है। फिर उसकी शाखा-प्रशाखाएँ तो बारीक सूत जैसी पतली होती है।

सम्पूर्ण स्नायु मण्डल के दो भाग है।- (1) ऐच्छिक (2) अनैच्छिक। चलने-फिरने झुकने-मुड़ने वस्तुएं उठाने, रखने आदि की क्रियाओं में हम अपने हाथ-पैर आदि को इच्छानुसार हिलाते हैं। यह ऐच्छिक स्नायुओं के ही कारण है। अनैच्छिक स्नायुओं पर हमारा ऐसा अधिकार नहीं होता। वे शरीर की आन्तरिक क्रियाएँ सम्पादित करते हैं। जैसे हृदय की धड़कने, साँसों का आना जाना आदि।

अनैच्छिक स्नायु मंडल का केन्द्र मस्तिष्क का एक लघु अंश हाइपोथैलेमस होता है। यही ‘हाइपोथैलेमस’ नारी व पौरुष ग्रंथियों को भी नाम किण्वज (एन्जाइम) भी सम्पूर्ण शरीर से विकीर्ण होते हुए भी केन्द्रीय स्नायुविक प्रणाली में विशेष रूप से जमा रहता है। ‘हाइपोथैलेमस’ द्वारा पिट्यूटरी ग्रन्थि भी उत्तेजित होती है और उससे विभिन्न हारमोन्स निकलते हैं। जो भावनाओं का परिणाम भी होते हैं और नई भावनाओं का कारण भी। किसी नई परिस्थिति के उपस्थित होने पर नलिकाविहीन ग्रन्थियों पर दबाव पड़ता है और वे विभिन्न हारमोनों को स्रावित करती है। इन हारमोनों की शरीर में प्रति क्रिया होती है और यह प्रतिक्रिया उसी के अनुरूप भावना समूहों को जन्म देती है जैसे किसी रोग के कीटाणुओं के संक्रमण-दबाव से पिट्यूटरी ग्रन्थि ने कोई हारमोन छोड़ा, इससे शरीर में तेज हलचल मच गई, व्यक्ति को अस्वस्थता महसूस होने लगी और वह खाट पर पड़ गया। अब बीमारी की दशा में तरह-तरह की भावनाएँ जो अचेतन मन में दबी थीं, उभरने लगीं। उनके परिणाम स्वरूप अनेक प्रकार की शारीरिक प्रतिक्रियाएँ भी पैदा होने लगती है।

मनोमय कोश का निवास मस्तिष्क में बताये जाने का अर्थ केवल इतना ही है कि उसका केन्द्रीय कार्यालय वही है। उसके सूक्ष्म अवयव उसकी शाखा-प्रशाखाएँ तो सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त-विस्तृत है। मस्तिष्क के जीवाणु अन्य जीवाणुओं से अधिक समझदार और अधिक अनुभवी होते हैं। इसीलिए वे शेष जीवाणुओं के अगुआ नेता कहे जाते हैं। वे जिस दिशा में चलते हैं, शेष जीवाणु भी उसी दिशा धारा में बहने लगते हैं। सम्पूर्ण सूक्ष्म शरीर को स्वस्थ, प्रसन्न, उल्लसित, प्रगतिशील बनाये रखने के लिए मस्तिष्कीय-स्थिति वैसी होनी जरूरी है। नेता ही निराश-हताश कुण्ठित-अस्त हुआ, तो प्रगति की क्या आशा की जा सकती है। नेता का संवेग समस्त अनुयायियों को प्रभावित करता है।

वियना के मनोचिकित्सक डा. फैकल का मत है कि मानसिक-धरातल ही शारीरिक स्वास्थ्य का आधार है। मानसिक असन्तुलन का कारण जीवन की सार्थकता को न समझाना है। इसीलिए उन्होंने ‘लौगोथेरेपी’ या अर्थ बोधचिकित्सा’ नाम की चिकित्सा पद्धति विकसित की है। डा. फैकल की मान्यता है कि जिस व्यक्ति को अपने जीवन और कार्य की सार्थकता का बोध नहीं हो, वह स्वस्थ नहीं रह सकता। मनुष्य जीवन के लक्ष्य और उनकी सिद्धि ही आनन्द का आधार है। डॉ0 फैकल की चिकित्सा पद्धति में रोगी से प्रिय-अप्रिय सभी विषयों पर चर्चा कर, उसे जीवन की सार्थकता की तलाश की प्रेरणा दी जाती है। व्यक्ति को जैसे ही जीवन में सार्थकता की अनुभूति हो उठती है, वह अपने भीतर निहित शक्तियों का स्मरण कर आत्मविश्वास से भर उठता है। और धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगता है। मनःक्षेत्र की स्वस्थता उसके स्थूल शरीर को भी स्वस्थ बना देती है।

सूक्ष्म शरीर की हलचलों का स्थूल शरीर पर स्पष्ट एवं निश्चित परिणाम होता है। तन्त्रकीय रोगों का कारण दबे हुए गन्दे विचार की होते हैं। शरीर-शास्त्रियों का भी मत है कि मात्र मानसिक-चित्रों के आधार पर ही अनेक शारीरिक बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती है। “इन्फ्लुएन्स आन द माइन्ड अपान न बॉडी” नामक पुस्तक के लेखक डॉ0 टुके ने लिखा है-विक्षिप्तता मूढ़ता, अण्डों का निकम्मा हो जाना, पित्त, पाण्डुरोग केश-पतन रक्ताल्पता, घबराहट, मूत्राशय के रोग, गर्भाशय में पड़े बच्चे का अग भग हो जाना, चर्मरोग फुंसियां, फोड़े, एग्जिमा आदि अनेक स्वास्थ्यनाशक रोग मात्र मानसिक क्षोभ तथा भावनात्मक उद्देलन के परिणाम होते हैं। मानसिक क्षोभ, भावनात्मक उद्देलन, निषेधात्मक चिन्तन, सूक्ष्म शरीर की विकृतियाँ है, जिनका स्थूल शरीर पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार परिष्कृत दृष्टिकोण स्वस्थ-उदान्त चिन्तन, आदर्शवादी विचारधारा सूक्ष्म-शरीर को तेजस्वी प्रखर बनाती है। और उसका श्रेष्ठ प्रभाव स्थूल शरीर पर भी स्पष्ट देखा जा सकता है।

विधेयात्मक विचारों की, ऊर्ध्वमुखी चिन्तन की आश्चर्यजनक महत्ता के प्रतिपादन में डा. बैनेट ने स्वयं को ही प्रस्तुत किया है। 50 वर्ष की आयु तक डा. बैनेट निराशा और अवांछनीय चिन्तन के कारण अपना स्वास्थ्य पूरी तरह गँवा बैठे। उन्हें जब ऊर्ध्वगामी चिन्तन की इस असीम उपादेयता का पता चला तो उन्होंने अपना जीवन क्रम ही बदल डाला। मन की जड़ता और विषय विकारों का जुआ उनने उतार फेंका, हृदय को श्रद्धा आस्था से भरा, सदैव प्रसन्न प्रफुल्ल रहने की आदत बना ली। 20 वर्षों के अपने इस जीवन को स्वर्गीय सुख से ओत-प्रोत बनाते हुए डा. बैनेट ने अपनी 50 वर्षीय फोटो तथा 70 वर्षीय फोटो भी इस पुस्तक में छापी है। पहली में उनका चेहरा झुर्रियों से पिचके गाल, धँसी आँखों के कारण मनहूस दिखाई देता है। जबकि 70 वर्ष की आयु में वे स्वस्थ सशक्त दिखाई देते हैं, झुर्रियाँ न जाने कहाँ चली गई, चेहरे में उद्दीप्ति है और युवकों जैसी सक्रियता।

अब तक किये गये ऐसे ही विविध आधुनिक प्रयोगों से यह स्पष्ट हो गया है कि मन का, मस्तिष्क का कष्ट प्रत्येक जीवाणु को कष्ट में डाल देता है। घृणा, ईर्ष्या, क्रोध, का अनिष्ट प्रभाव समस्त जीवाणुओं में तुरन्त दौड़ जाता है, झलक उठता है। मस्तिष्क में प्रसन्नता का भाव आते ही प्रत्येक जीवाणु प्रसन्न-पुलकित हो उठता है। ये सभी जीवाणु परस्पर गहन आत्मीयता और अभिन्नता का भाव रखते हैं। प्रत्येक जीवाणु की दशा से सभी प्रभावित होते है-इनका सुख-दुख मिला-जुला ही होता है। इनका पारस्परिक सौहार्द-सद्भाव अनूठा है। सच्ची मैत्री, प्रगाढ़ आत्मीयता समानुभूति के ये अनूठे उदाहरण है। कल्पना करें कि एक व्यक्ति को तेज भूख लगी है। सुस्वादु भोजन का थाल सामने है। उसी समय किसी प्रियजन की मृत्यु का तार मिलता है। उसे पढ़ते ही मस्तिष्क में उस प्रियजन की संचित स्मृति सहसा जागृत हो उठती है। मन में आत्मीय सम्वेदना उमड़ पड़ती है। मस्तिष्क के जीवाणुओं में हलचल, उथल-पुथल मच जाती है। मस्तिष्क के जीवाणुओं की इस प्रतिक्रिया का तत्काल सम्पूर्ण शरीर के जीवाणुओं पर प्रभाव पड़ता है। जीभ सूखने लगती है। भूख बढ़ाने वाले जीवाणु जो उछल-कूद मचा रहे थे, चीख-चीख कर भोजन की माँग कर रहे थे, सहमकर शान्त, निष्क्रिय, दुबके से बैठ जाते हैं। हृदय और दूसरे अंग भी निष्प्राण से हो चलते हैं। दिल-डूबने लगता है, आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है। शरीर निढाल हो जाता है। समस्त अंगों पर यह प्रभाव पड़ता है। स्पष्ट है कि मस्तिष्कीय जीवाणुओं की भावदशा का तत्काल प्रभाव सम्पूर्ण शरीरस्थ जीवाणु-समूहों पर पड़ता है।

‘ओल्ड एजः इट्स काज एन्ड प्रिवेन्शन’ नामक पुस्तक में उसके रचयिता सुप्रसिद्ध अमरीकी वैज्ञानिक तथा लेखक डा. बैनेट ने एक बहुत ही मनोरंजक किन्तु शिक्षाप्रद घटना दी है। एक 16 वर्षीय फ्रांसीसी युवती ने एक अमेरिकन नव-युवक से विवाह का निश्चय किया। युवक निर्धन था सो तय यह हुआ कि पहले वह अमेरिका जाकर धन कमाएगा और लौटकर शादी करेगा। युवक ने 3 वर्ष में पर्याप्त धन कमा लिया, पर दुर्भाग्य से कोई मुकदमा लग जाने के कारण वह 15 वर्ष तक फ्रांस नहीं लौट सका। 15 वर्ष बाद जब वह वापस लौटा तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया कि उसकी मंगेतर का स्वास्थ्य सौंदर्य बिलकुल वैसा ही है जैसा वह 16 वर्ष पूर्व था। 34 वर्ष की अधेड़ हो जाने पर भी उसमें 16 वर्षीय नव-युवती के गुण विद्यमान थे।

घटना का विवेचन करते हुए बैनेट महोदय लिखते है- प्रकृति में मनुष्य शरीर की संचालन प्रक्रिया इस प्रकार रखी है कि शरीर का प्रत्येक कोश (सेल) 80 दिन पीछे पुराना होकर मैल के रूप में उसी प्रकार बाहर निकल जाता है। जिस प्रकार समुद्री लहरों में निरन्तर ज्वार-भाटे से समुद्र की गन्दगी तटों पर जमा होती रहती है। कोश-परिवर्तन की यह प्रक्रिया आयु बढ़ने के साथ क्षीण होती रहती है, उसी का नाम वृद्धावस्था है-किन्तु इस घटना ने इस प्राकृतिक व्यवस्था को ही उलट दिया, ऐसा क्यों?

इसका उत्तर युवती के मुँह से दिलवाते हुये श्री बैनेट लिखते हैं कि-मैं प्रतिदिन प्रातःकाल एक आदमकद शीशे के सम्मुख खड़ी होकर अपना चेहरा देखती और मन ही मन अनुभव करती कि मैं ठीक वैसी ही हूँ जैसी कल थी। दिन के परिवर्तन ने मेरे शरीर में कोई प्रभाव नहीं डाला इच्छा शक्ति की यह दृढ़ता मुझे दिन भर पुलकित और प्रसन्न बनाये रखती। उसी का फल है जो मैं जैसी 15 वर्ष पूर्व भी वैसी ही आज भी हूँ।” सूक्ष्म शरीर के शोधन की-विचारों को ऊँचा उठाने की-संकल्प की महत्ता उन्होंने अमरीका के अध्यात्म परायण व्यक्ति डा. मरडन की पुस्तक लौह इच्छा शक्ति” (ऐन आइरन बिल) से समझी। जिसमें बताया गया है-मनुष्य अपने विचार नये कर ले, चरित्र को ऊँचा उठा ले तो अपना शरीर ही बदल सकता है।” यह स्वाध्याय उनके लिये तो औषधि बना ही, सैकड़ों को नया जीवन देने वाला है। प्रेम, मैत्री, दया, करुणा, और परोपकारी विचारों को धारण कर कोई भी इसका प्रत्यक्ष लाभ ले सकता है।

खोपड़ी के ऊपर या नीचे की रक्तवाहनियों की पेशियाँ भावनाओं के अनुसार फैलती-सिकुड़ती व तीव्र संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ करती है।

अस्वस्थ भावनाएँ विभिन्न शारीरिक रोगों का कारण बनती है। सामान्य सिर दर्द से लेकर” माइग्रेन नामक कठिन सिर दर्द भावनात्मक तनाव से होता है। इस तनाव से खोपड़ी की रक्तवाहनियाँ सिकुड़ती है और इससे सिर दर्द शुरू हो जाता है। आज तो यह पाया जाता है कि सिर दर्द की सौ घटनाओं में से पचासी का कारण भावनात्मक तनाव होता है।

भावना-क्षोभ के कारण पेशियों में उत्पन्न तनाव के कारण कई बार भोजन के बाद ऐसा अनुभव करते हैं कि कलेजे पर बोझ आ पड़ा है। और भोजन नीचे सरक ही नहीं रहा है। अधिक तनाव होने पर उबकाई आने लगती है। जी मिचलाने लगता है।

भावनात्मक तनाव से उत्पन्न स्नायु-रोगों में डकारें आना, पेट में ऐंठन होना, विभिन्न वायु-विकार अनेक त्वचा-विकार एन्जिमा, खुजली आदि होते हैं।

कमर दर्द के बारे में अब ऐसा ज्ञात हुआ है कि अधिकाँश मामलों में इसका कारण भावनात्मक तनाव ही होता है।

यह जान लेने पर कि भावनात्मक तनावों एवं विकृतियों से ही अधिकाँश रोग पैदा होते हैं, यह प्रश्न अनेकों को कचोटता है कि भावनाओं पर नियन्त्रण कैसे हो? इसका एक ही सरल मार्ग है- समझदारी भरे दृष्टिकोण का नित्य-प्रति के जीवन में अभ्यास। बिना अभ्यास के यह दृष्टिकोण व्यावहारिक जीवन में नहीं उतरता। जिन्दगी को बोझ न मानते हुए, खेल-भावना से जीना, अभ्यास द्वारा ही सम्भव है। अपनी सीमाओं को पहचानना, शक्ति के सर्वोत्तम उपयोग की व्यवस्था करना, मैं-मैं की चीख-पुकार से मुक्त होकर अपने दायित्वों को समझना और निभाना, तथा सृजनात्मक वृत्तियों का जीवन में निरन्तर विकास करना ही एकमेव राजमार्ग है।

सामान्यतः कठोरता, क्रोध, बात-बात में लड़ बैठना आदि को हम भ्रान्ति वश शक्ति का पर्याय मान बैठते हैं, जबकि मनोवैज्ञानिक इस सबको ‘बचकानी हरकतें’ मानते हैं। ये दुर्बलता के प्रतीक है। शक्तिशाली व्यक्ति विनम्र एवं दृढ़ होता है। सादगी-संयम का अभ्यास ही शक्ति का स्रोत है। किन्तु अपनी दुर्बलताओं पर व्यर्थ की खीझ भी लाभकर न होगी। धीरे-धीरे ही कुसंस्कार चित्त तल पर जमते हैं। और धीरे-धीरे ही उनका उन्मूलन सम्भव है। सतत् अभ्यास ही सर्वोत्तम उपचार है इस बात को सदा ध्यान में रखा जाय कि मन की कुटिलता और अनैतिक कर्म ही रोग का आधार है। तथा मन की शुचिता, स्नेहः करुणा और व्यापक मानवीय प्रेम द्वारा इन रोगों को मिटा सकना सरलता से सम्भव है।

मस्तिष्क की धुलाई सफाई वैज्ञानिक उपकरणों से भी सम्भव हो सकती है। फिर अध्यात्मिक साधना के उपचार तो उससे अधिक ही सशक्त समर्थ होते हैं। उनका प्रभाव तो और भी अधिक होना चाहिए।

इलेक्ट्रिकल स्टीम्यूलेशन आफब्रेन (ई0एम0बी0) पद्धति के अनुसार कई एशियन विश्वविद्यालयों ने आँशिक रूप से मस्तिष्क की धुलाई (ब्रेन वाशिंग) में सफलता प्राप्त करती है अभी यह बन्दर, कुत्ते, बिल्ली, खरगोश, चूहे, जैसे छोटे स्तर के जीवों पर ही प्रयोग किये गये है। आहार की रुचि, शत्रुता, मित्रता, भय, आक्रमण, आदि के सामान्य स्वभाव को जिन प्रकार चरितार्थ किया जाना चाहिए उसे वे बिलकुल भूल जाते हैं और विचित्र प्रकार का आचरण करते हैं। बिल्ली के सामने चूहा छोड़ा गया तो वह आक्रमण करना तो दूर उससे डरकर एक कोने में जा छिपी। क्षणभर में एक-दूसरे पर खूनी आक्रमण करना, एक आध मिनट बाद परस्पर लिपट कार प्यार करना यह परिवर्तन उस विद्युत क्रिया से होता है। जो उनके मस्तिष्कीय कोशों के साथ सम्बद्ध रहती है। यही बात मनुष्यों पर भी लागू हो सकती है। मानव मस्तिष्क अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत होता है। उसमें प्रतिरोधक शक्ति भी अधिक होती है इसलिए उसमें हेर-फेर करने के लिए प्रयास भी कुछ अधिक करने पड़ेंगे और पूर्ण सफलता प्राप्त करने में देरी भी लगेगी, पर जो सिद्धान्त स्पष्ट हो गये है, उनके आधार पर यह निश्चित हो गया है। कि मनुष्य को भी जैसा चाहे सोचने, मान्यता बनाने और गतिविधियाँ अपनाने के लिए विवश किया जा सकता है।

मनोमय कोश की साधना मस्तिष्कीय क्षेत्र की धुलाई-सफाई ही नहीं करती, वरन् उसे समुन्नत सुसज्जित एवं सुसंस्कृत बनाने का काम भी बहुत हद तक पूरा कर सकती है।

मनोमय कोश शरीर और मस्तिष्क के समूचे क्षेत्र को अपने अंचल में समेटे हुए है। वह इन दोनों क्षेत्रों को प्रभावित करता है। अन्तः करण के अस्त-व्यस्त और विकृत स्थिति में बने रहने पर उसकी प्रतिक्रिया शारीरिक और, मानसिक स्वास्थ्य पर विनाशकारी प्रभाव डालती है। व्यक्तिगत लड़खड़ा जाने पर दृष्टिकोण और व्यवहार दोनों ही गड़बड़ाते हैं। फलतः गतिविधियाँ अवांछनीयता से भर जाती है। स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में विपत्तियाँ ही उत्पन्न होगी। अवरोध ही खड़े होगे। कलह और संकट आक्रमण करेंगे। समूचा जीवन ही नरक बन जायेगा। इस नारकीय यंत्रणा से छुटकारा कोई और नहीं दिला सकता। क्योंकि इस विपत्ति का दोष भले ही किसी पर थोपा जा सकें उसका कारण अपना आपा ही होता है। मनःस्थिति के अनुरूप परिस्थिति बनने का तथ्य इतना स्पष्ट है कि उसे झुठलाये जाने की कही कोई गुँजाइश नहीं है। अपने आप में परिवर्तन किये बिना हम इस नरक से किसी तरह उबर नहीं सकते। जीवन क्रम उत्पन्न विविध-विधि अवरोधों से छुटकारा पाये बिना हमारा उद्धार हो नहीं सकता समस्याओं और विपन्नताओं से प्राण मिल नहीं सकता।

समृद्धि, प्रगति और सुख-शान्ति की समस्त सम्भावनायें बीज रूप में अपने ही भीतर भरी पड़ी है। सत्प्रवृत्तियों की देवी और सद्भावनाओं के देवता ही हमें दिव्य वरदानों से सुसम्पन्न बनाते हैं। अन्तरंग की विभूतियाँ ही बहिरंग की सिद्धियाँ बन कर सामने आती है। आत्मशोधन और आत्म परिष्कार जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ माना गया है। इसे प्रत्यक्ष कल्प-वृक्ष की उपमा दी जा सकती है।

मनोमय कोश का विज्ञान और साधन हमारी मानसिक स्थिति के परिष्कार का ऋषि प्रणीत उपाय है। इस दिशा में कदम बढ़ाने पर हम हर दृष्टि से लाभान्वित ही होते हैं।


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