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February 1976

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मोघमन्नं बिन्दते अप्रचेताः सत्यं व्रवीमि वध इत् स तस्य। नार्य मणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी॥

ऋ॰ 10।117।6

दुर्बुद्धि मनुष्य व्यर्थ ही भोग सामग्री को पाता है सच कहता हूँ कि वह भोग सामग्री उस मनुष्य के लिए मृत्यु रूप ही होती है। ऐसा दुर्बुद्धि न तो यज्ञ द्वारा अर्यमादि देवों की पुष्टि करता है और न ही अपने साथियों की पुष्टि करता है सचमुच वह अकेला भोग करने वाला मनुष्य केवल पाप को ही भोगने वाला होता है।

सर्गे−सर्गे पृथगरूपं सन्ति सगन्तिराण्यपि। तेष्वप्यतः स्थसर्गोधाः कदलीदल पीठवत्॥

−योग वशिष्ठ 4।18।16-17

आकाशे परमाष्वन्तर्द्र व्यादेररणुकेऽपिच। जीवाणुर्यत्रं तत्रेदं जगदेवत्ति निजं जपुः॥

−योग वशिष्ठ 3।44।34 5

अर्थात्− हे लीला। जिस प्रकार केले के तने के अन्दर एक के बाद एक परतें निकलती चली जाती हैं, उसी प्रकार प्रत्येक सृष्टि के भीतर नाना प्रकार के सृष्टि क्रम विद्यमान है। इस प्रकार एक के अन्दर अनेक सृष्टियों का क्रम चलता है। संसार में व्याप्त चेतना के प्रत्येक परमाणु में जिस प्रकार स्वप्नलोक विद्यमान है उसी प्रकार जगत में अनन्त द्रव्य के अनन्त परमाणुओं के भीतर अनेक प्रकार के जीव और उनके जगत विद्यमान हैं।

अंगुष्ठमात्रो रवितुल्य रुपः संकल्पाहंकार समन्वितो यः बुद्ध गुणेनात्म गुणेन चैव। आराग्र मात्रो ह्यपरोऽपि दृष्टः।। बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च। भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते॥

− श्वेता श्वतरोपनिषद। 5।89

अर्थात्− हे तात। यह अँगूठे जितना लघु होकर भी संकल्प विकल्प युक्त (अर्थात् सोचता विचारता है) तथा अपनी बुद्धि के गुण से और श्रेष्ठ कर्मों के गुण से सुई के अग्रभाग जैसे आकार वाला हो गया है। ऐसा सूर्य के समान तेजस्वी आत्मा भी ज्ञानियों ने देखा है। बाल के अग्रभाग के सौवें अंश से भी सौवें अंश परिमाण वाला भाग ही प्राणी का स्वरूप जानना चाहिए। यह सूक्ष्मातिसूक्ष्म परिमाण वाला आत्मा असीम गुणों वाला हो जाता है।

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नवरात्रि तपश्चर्या सर्ग-


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