उपासना का अर्थ है समीपता। ईश्वर और जीव में यों समीपता ही है। जब भगवान कण−कण में संव्याप्त है तब मानवी काया एवं चेतना में भी वे समाये हुए क्यों नहीं होंगे। जो अपने में ओत−प्रोत ही है वह दूर कैसे? और जो दूर नहीं है उसकी समीपता का क्या अर्थ? इस असमंजस की विवेचना इस प्रकार होती है कि वह समीपता उथली है गहरी नहीं। माना कि शरीर में हलचलों के रूप में और मन में चिंतन के रूप में विश्वव्यापी चेतना ही काम कर रही है तो भी स्पष्ट है कि जीव की आस्थाएँ एवं आकाँक्षाएँ दिव्य सत्ता के अनुरूप नहीं है। उनमें निकृष्टता का आसुरी अंश ही भरा पड़ा है, मनुष्यता की सार्थकता तभी है जब उसका स्वरूप एवं स्तर भी उसी के अनुरूप ऊंचा उठ सके। निम्न योनियों के जीवनधारी पेट और प्रजनन के लिए जीते हैं। स्वार्थ सिद्धि ही उनकी नीति होती है। शरीरगत लाभ ही उनके प्रेरणा स्त्रोत होते हैं। दूसरों के साथ वे आत्मभाव बहुत थोड़ी मात्रा में मिला पाते हैं और परमार्थ परायणता के अंश नगण्य जितने ही देखे जाते हैं। यदि यही अन्तः स्थिति मनुष्य की भी बनी रहे तो समझना चाहिए कायिक विकास ही हुआ−चेतनात्मक नहीं। नर−कीट, नर−पशु उन्हें कहते हैं जो शरीर संरचना भर से मनुष्य है उनके दृष्टिकोण में पिछड़ी योनियों जैसी निकृष्ट स्वार्थपरता ही भरी पड़ी है। आयु की दृष्टि से प्रौढ़ हो जाने पर भी यदि सारा आचार−व्यवहार बच्चे जैसा ही बना रहे तो उस अविकसित स्थिति पर चिन्ता व्यक्त की जायगी। ठीक यही स्थिति उन मनुष्यों की है जो शरीर से तो इस सुरदुर्लभ काया में प्रवेश पा गये पर उनने अपने दृष्टिकोण में क्रिया−कलाप में वही पिछड़ा हुआ क्रिया−कलाप संजोये रखा।
इस दयनीय स्थिति से पीछा छुड़ाने के लिए ईश्वर की समीपता का, उपासना का, उपक्रम बनाना पड़ता है। शरीर ठण्ड से काँप रहा हो तो आग की समीपता से आवश्यक गर्मी प्राप्त की जाती है। आदर्शवादिता से रहित मानव जीवन घिनौना ही कहा जायगा। जो पशु के लिए क्षम्य है वही मनुष्य के लिए अक्षम्य। पशु निर्वस्त्र रहते, खुले में मलमूत्र त्यागते और रति कर्म करते हैं। मनुष्य वैसा करेगा तो भर्त्सना का पात्र बनेगा। शिश्नोदर परायणता निकृष्ट कृमि−कीटकों के लिए स्वाभाविक हो सकती है− मनुष्य के लिए तो वह स्थिति निन्दनीय ही मानी जायगी।
संगति का−समीपता का−प्रभाव सर्वविदित है। चन्दन के समीप उगे हुए झाड़−झंखाड़ सुगन्धित हो जाते हैं कोयले की और गन्धी की दुकान पर बैठने वाले कलोंच का धब्बा और सुगन्ध का छींटा साथ लेकर जाते हैं। दुष्टों की समीपता से दुर्गति और सज्जनों के सान्निध्य से सद्गुणों की वृद्धि और प्रगति की संभावना का साकार होना सर्वविदित है। ईश्वर उत्कृष्टताओं का भाण्डागार है। उसकी समीपता−उपासना से वैसी ही विशेषताओं का बढ़ना स्वाभाविक है। कीट भृंग का उदाहरण प्रसिद्ध है टिड्डे हरी घास में रहते हैं तो उनका शरीर हरा रहता है पर जब वे सूखी घास में रहने लगते हैं तो पीले पड़ जाते हैं। तितलियाँ फूलों के अनुरूप अपने रंग बदलती रहती हैं। समीपता के अनुरूप ढलने के अगणित उदाहरण सर्वत्र पाये जाते हैं। वातावरण की प्रभाव शक्ति को कौन नहीं जानता। व्यक्तियों का भला बुरा निर्माण करने में वातावरण की असाधारण भूमिका रहती है।
उपासना का क्रिया−कृत्य अन्तरंग और बहिरंग स्तर का ऐसा ‘माहौल’ बनना चाहिए जिससे व्यक्ति के भावनात्मक स्तर में उत्कृष्टता की अभिवृद्धि होती हो। बहिरंग वातावरण बनाने में पूजा उपासना में प्रयुक्त होने वाली प्रतीक प्रतिमा−उसका सज्जा शृंगार पूजा उपचार में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ उपकरण आदि का मिला जुला स्वरूप अपना काम करता है पूजा वेदी के समीप बैठने पर ऐसा लगना चाहिए मानो किन्हीं असाधारण दिव्य परिस्थितियों में जा पहुँचे। मन्दिर, देवालय पूजाग्रह, देवपीठ, आराधना कक्ष को बनाने में उपयुक्त वातावरण बनाने का तथ्य ही प्रधान रूप से काम करता है। वहाँ के सुसज्जा साधन सँजोने में इसी बात का ध्यान रखा जाता है कि उस स्थान में जाते ही मन अपने आपको पवित्रता की दिव्य परिस्थितियों से घिरा हुआ अनुभव करने लगे। सामान्य वातावरण से उपासना कक्ष का वातावरण भिन्न रखा जाता है और वहाँ की परिस्थितियां ऐसी बनाई जाती हैं जिनमें बैठने पर उत्कृष्टता की अनुभूति बढ़ने से सुविधा मिल सके।
उपासना का दूसरा आधार कर्मकांडों का क्रिया−कृत्य और तीसरा आधार भावना क्षेत्र में दिव्य उभार उत्पन्न करना होता है। यह दोनों ही आधार अपने आप में अति महत्वपूर्ण हैं। उनसे चेतना को बदलने एवं ढालने में असाधारण सहायता मिलती है।
कर्मकाण्ड वे कृत्य हैं जो शरीर के विभिन्न अवयवों की सहायता से−उपचार उपकरणों के द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। षोडशोपचार देव पूजन−आत्मशोधन के विभिन्न क्रिया−कृत्य इसी श्रेणी में आते हैं। मन पर छाप डालने में विचार और कर्म का समन्वय करना पड़ता है। चित्त पर स्थिर संस्कार डालने के लिए अभीष्ट विचारों के साथ-साथ उनके पूरक कृत्य होने ही चाहिएं अन्यथा कल्पना केवल जल्पना बन कर हवा में उड़ जाती है। विचारणा के साथ क्रिया का समन्वय न कर सकने पर भी जो लोग सफलताएँ चाहते हैं उन्हें शेख चिल्ली कह कर उपहासास्पद किया जाता है। हर क्षेत्र में विचार और कर्म का समन्वय ही प्रतिफल उत्पन्न करता है। उपासना में ईश्वरीय सान्निध्य की कल्पना ही नहीं अनुभूति भी अपेक्षित होती है। भावनिष्ठा को कार्यान्वित होते देख कर ही ऐसी मनःस्थिति बनती है। इसलिए यह सोचना होता है कि परमेश्वर प्रत्यक्ष ही, सचमुच ही सामने है और उनकी किसी जीवित व्यक्ति के उपस्थित होने पर की जाने जैसी अभ्यर्थना की जा रही है। आत्मशोधन और देवपूजन के दोनों की कृत्यों में इसी प्रकार का भाव समन्वय होता है। वह यदि बेगार भुगतने के उथले मन से किया गया है और जैसे−तैसे परम्परा गत लकीर पीटी गई हो−तो बात दूसरी है अन्यथा प्रयोजन के लिए यह प्रचलन हुआ है उसे ध्यान में रख कर चला जाय तो अन्तःक्षेत्र में अभीष्ट निष्ठा होगी और लगेगा कि निराकार परमेश्वर अपेक्षाकृत अधिक सघन− अधिक साकार बन कर सामने आया है।
उपासना का तीसरा प्रयोजन है मनःक्षेत्र पर ईश्वरीय सान्निध्य का चिन्तन घटाटोप की तरह छाये रहना। सामान्य जीवन में आत्म सत्ता शरीर रूप में ही काम करती है अस्तु अपना आपा शरीर मात्र ही अनुभव होने लगता है। शरीर से सम्बन्धित समस्याओं का विस्तार अत्यधिक है। उनके खट्टे मीठे स्वाद भी चित्र−विचित्र हैं और वे सभी बड़े आकर्षक हैं। यों प्रिय अप्रिय स्तर की परस्पर विरोधी अनुभूतियाँ सामने आती हैं, पर वे दोनों ही अपने−अपने ढंग के गहरे प्रभाव चेतना पर छोड़ती हैं। सफलताएँ अपने ढंग का प्रभाव डालती हैं असफलताएँ दूसरे ढंग का। लाभ में एक प्रकार का अनुभव होता है, हानि में दूसरे तरह का। एक स्थिति प्रिय लगती है। दूसरी अप्रिय। इतना होते हुए भी दोनों की स्थितियों की गहरी छाप पड़ती है। सफलता का हर्षोन्माद और असफलता का शोक सन्ताप दोनों ही अपने प्रभाव छोड़ते और चेतना को आवेशग्रस्त बनाते हैं। ज्वार−भाटे जैसे− यह आवेश अवसाद सामयिक अनुभूति बन कर ही समाप्त नहीं हो जाते वरन् पीछे भी बहुत समय तक उनकी उत्तेजित प्रतिक्रिया बनी रहती है। ऐसे क्षण बहुत ही कम आते हैं जिनमें चित्त शान्त सन्तुलित रहता हो और आत्म सत्ता के साथ जुड़ी हुई समस्याओं को हल करने की बात सूझ पड़ती हो। यही कारण है कि हम भौतिक आवश्यकता और समस्याओं को ही सब कुछ मान लेते हैं और उन्हीं के जाल जंजाल में उलझे जकड़े पड़े रहते हैं। आत्मिक जीवन का स्वरूप भी सामने नहीं आ पाता फिर उनका समाधान सूझे तो कैसे? स्पष्ट है कि आत्मिक समस्याओं का समाधान हुए बिना न तो भौतिक जीवन का रस लिया जा सकता है और न जीवन लक्ष्य को पूरा करने की बात बनती है।
आवश्यक है कि कुछ समय हमारे पास ऐसा हो जिसमें भौतिक जीवन को एक प्रकार से पूरी तरह ही भुला दिया जाय और उन क्षणों में केवल आत्मा का स्वरूप जीवन लक्ष्य एवं परमात्म सान्निध्य के अतिरिक्त और कुछ सूझ ही न पड़े। यही उपासना काल है। यह सही हुआ या गलत, इसकी पहचान इतनी ही है कि उन क्षणों में मनःक्षेत्र पर आत्मिक स्तर का चिन्तन छाया रहा या भौतिक स्तर का। यदि साँसारिक मनोकामनाओं की उथल−पुथल मची हुई है और इष्टदेव से तरह−तरह के भौतिक वरदान पाने की ललक उठ रही हो तो समझना चाहिए कि यह उपासना कृत्य भी विशुद्ध रूप से भौतिक है। इससे आत्मिक प्रगति जैसा कोई लाभ मिल नहीं सकेगा। यदि उतने समय शरीर रहित−भौतिक प्रभावों से मुक्त−ज्योतिर्मय आत्मा ही ध्यान में है और उसमें महाज्योति के साथ समन्वित हो जाने की दीप−पतंग जैसी आकाँक्षा उठ रही है, तो समझना चाहिए कि उपासना का सच्चा स्वरूप अपना लिया गया और उससे अभीष्ट उद्देश्य पूरा हो सकने की सम्भावना बन रही है।
उपासना के साँसारिक विचार न आयें इसका एक ही उपाय है कि उन क्षणों के लिए एक निर्धारित विचार पद्धति सामने रहे। वह भी दृश्य मुक्त−आकर्षक स्तर की ऐसी हो जो मन को अपने शिकंजे में पकड़े रहे। यों वैज्ञानिकों जैसे गहरे चिन्तन से भी हो सकता है, पर वैसे बहुत समय के अभ्यास और एकाग्र एकात्म स्तर मिल जाने पर ही सम्भव है। आरम्भ में दृश्य मुक्त चिन्तन मनःक्षेत्र पर छाया रहे ऐसा ही अभ्यास लेकर चलना चाहिए। ध्यान इसी को कहते हैं उपासना में ध्यान अनिवार्य है। यदि उसे छोड़ कर मात्र क्रिया−कृत्य ही किये जा रहे होंगे तो मन इधर−उधर भागता रहेगा और अधूरा शरीर कर्म ही पूजा−पाठ के नाम पर अपनी लंगड़ी−लूली गाड़ी घसीट रहा होगा।
ध्यान साकार और निराकार दो प्रकार के कहे गये हैं। एक में भगवान की अमुक मनुष्याकृति को मान कर चला जाता है दूसरे में प्रकाश पुंज की आस्था जमाई जाती है। तात्विक दृष्टि से यह दोनों ही साकार हैं। सूर्य जैसे बड़े और प्रकाश बिन्दु जैसे छोटे आकार का ध्यान रखना भी तो एक प्रकार का आकार ही है, अन्तर इतना ही तो हुआ कि उसकी मनुष्य जैसी आकृति नहीं है। ध्यान के लिए ईश्वर की परम लक्ष्य की−आकृति बनना आवश्यक है। यों नादयोग, स्पर्शयोग, गन्धयोग को आकृति रहित कहा जाता है, पर ऐसा सोचना अनुपयुक्त है। नादयोग में शंख, घण्टा, घड़ियाल, वीणा आदि की ध्वनियाँ सुनी जाती हैं, पर अनचाहे ही वे वाद्य यन्त्र कल्पना में आते रहते हैं जिनसे वे ध्वनियाँ निसृत होती है। इस प्रकार गन्ध ध्यान में मात्र गन्ध पर ही चिन्तन एकाग्र नहीं हो सकता जिस पुष्प की वह गन्ध है उसकी आकृति भी अनचाहे ही सामने आती रहेगी। ध्यान में आकृति से पीछा नहीं छूट सकता। मस्तिष्क की बनावट ही ऐसी है कि वह निराकार कहलाने वाले चिन्तन को भी आकृतियाँ बना कर ही आगे चलता है। वैज्ञानिक के गहरे चिन्तन को निराकार कहा जाता है, पर वस्तुतः वह भी जो सोचता है उसमें कल्पना क्षेत्र की एक पूरी प्रयोगशाला सामने रहती है और प्रयोगात्मक हलचलें आंधी−तूफान की तरह अपना काम कर रही होती हैं। अन्तर इतना ही होता है कि वह स्थूल प्रयोगशाला के उपकरण छोड़ कर वही सारा प्रयोग कृत्य काल्पनिक प्रयोगशाला में कर रहा होता है ध्यान में आकृति से पीछा छुड़ाना सम्भव नहीं हो सकता अस्तु किसी को साकार−निराकार के वितंडावाद में न पड़ कर ध्यान धारणा के सहारे आत्म चिन्तन का प्रयोजन पूरा करना चाहिए।
ईश्वर का आकृति समेत ध्यान करना अभीष्ट हो तो उन्हें नर या नारी को सुन्दरतम प्रतिमा के रूप में इष्टदेव मानना चाहिए और उनके पीछे कोई इतिहास न जोड़ कर उत्कृष्टतम सद्गुणों की पूर्ण प्रतिमा अनुभव करना चाहिए। इसे अन्य किसी देवता से भिन्न नहीं वरन् समन्वित सत्ता मानना चाहिए। एक ही ब्रह्म को अनेक रूपों में कहा गया है। यह उक्ति बहुदेववाद को तो मनाती है, पर उनकी पृथकता अस्वीकार करती है। शंकर, दुर्गा, हनुमान, गणेश, सूर्य, राम, कृष्ण, सरस्वती, लक्ष्मी, गायत्री आदि की कोई भी प्रिय आकृति साकार ध्यान के लिए चुनी जा सकती है, पर यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि यह अन्य किसी देव सत्ता से भिन्न है। एक ही मनुष्य के अनेक चित्र, पोज या सम्बोधन हो सकते हैं। ठीक इसी प्रकार विश्व में एक ही संव्याप्त चेतना के अनेक नाम रूप रखे जा सकते हैं, पर किसी आकृति को दूसरी आकृतियों से भिन्न नहीं माना जा सकता। इस भिन्नता की मान्यता ने बहुदेववाद के साथ अवाँछनीय विग्रह उत्पन्न किये हैं और भूल प्रयोजन को ही लड़खड़ा दिया है।
साकार उपासना में इष्टदेव के समीप अति समीप होने पर उनके साथ लिपट जाने −उच्चस्तरीय प्रेम के आदान−प्रदान की गहरी कल्पना करनी चाहिए। इसमें भगवान और जीव के बीच माता−पुत्र, पति−पत्नी, सखा−सहोदर, स्वामी, सेवक जैसा कोई भी सघन सम्बन्ध माना जा सकता है इससे आत्मीयता को अधिकाधिक घनिष्ठ बनाने में सहायता मिलती है। लोक व्यवहार में स्वजनों के बीच आदान-प्रदान उपहार और उपचार की तरह चलते हैं। मन, वचन कर्म से घनिष्ठता एवं प्रसन्नता व्यक्त की जाती है। भेंट उपहार से कई तरह की वस्तुएँ दी जाती हैं। नवमी भेंट उपहार में ऐसे ही आदान−प्रदान की वस्तुपरक अथवा क्रिया परक कल्पना की गई है। वस्तुतः यहाँ प्रतीकों को माध्यम बना कर भावनात्मक आदान−प्रदान की गहराई में जाया जाना चाहिए। भक्त और भगवान के बीच सघन आत्मीयता की अनुभूति उत्पन्न करने वाला आदान प्रदान चलना चाहिए। भक्त अपनी अहंता को क्रिया, विचारणा, भावना एवं सम्पत्ति को भगवान के चरणों पर अर्पित करते हुए सोचता है, यह सारा वैभव उसी दिव्यसत्ता की धरोहर है इसका उपयोग व्यक्तिगत वासना, तृष्णा के लिए− ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए किया जाता है। वह स्वयं तो मात्र खजांची −स्टोरकीपर भर है।
ध्यान का एकमात्र उद्देश्य भगवान और भक्त के बीच एकात्म भाव की स्थापना करना है, मात्र किसी आकृति का ध्यान चित्र देखते भर रहने से काम नहीं चलता। भक्त अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को क्रिया, विचारणा और भावना को ईश्वर अर्पण करके उसे मात्र दिव्य प्रयोजनों में नियोजित रखने का संकल्प सघन करता है। इसके साथ−साथ भौतिक धन सम्पत्ति तो अर्पित हो ही जाती है। समर्पण का तात्पर्य है व्यक्तिगत−भौतिक महत्वाकाँक्षाओं की समाप्ति और उसके स्थान पर ईश्वर इच्छा की−उच्च आदर्शों की अपने ऊपर नियन्त्रण करने वाली स्थापना। इसी मान्यता को अंतःकरण में यथार्थवादी निष्ठा के साथ स्थापित करने को आत्म समर्पण कहते हैं। ध्यान के द्वारा इसी निष्ठा को परिपक्व किया जाता है।
भक्त का समर्पण बदले में भगवान का अनुग्रह आश्वासन। इसी के तरह−तरह के लौकिक स्वरूप चित्र कल्पित किये जा सकते हैं। साकार ध्यान में अपनी रुचि की कल्पनाएँ करते रहने और उस दृश्यावली में डूबे रहने की पूरी छूट है। ध्यान की एकाग्रता इसी सीमा तक है कि उसमें भक्त और भगवान के बीच होने वाले आदान−प्रदान की कल्पनाएँ ही चलनी चाहिएं, भौतिक लाभ या प्रयोजन आड़े नहीं आने चाहिए। पूर्ण एकाग्रता जिन्हें शून्यावस्था, योगनिद्रा या समाधि कहते हैं, बहुत ऊँची स्थिति है। मन कहीं जाये ही नहीं एक बिन्दु पर केन्द्रित रहे ऐसा हो सकने को ही तुरीयावस्था या समाधि कहते हैं। यह आरम्भिक साधना में लगभग असंभव ही है, उसकी बात नहीं सोची जानी चाहिए। ध्यान साधना का व्यावहारिक रूप इतना ही है कि भक्त और भगवान के बीच उच्चस्तरीय आदान−प्रदान चलना चाहिए। भक्त अपनी समस्त आकाँक्षाओं और सम्पदाओं को ईश्वर के लिए समर्पित करता है और इसके बदले में वह सब कुछ पाता है जो ईश्वर स्वयं है। मनुष्य को स्पष्ट करने वाली ईश्वरीय सत्ता अपनी अनुभूति, आनन्द और उल्लास के रूप में छोड़ती है। भगवान से कुछ मिला या नहीं इसकी परख इस रूप में की जा सकती है कि उल्लास−आदर्शवादिता के प्रति उत्कंठा भरा उभार अन्तःकरण में उमगना आरम्भ हुआ या नहीं सद्भावना और सत्प्रवृत्ति अपनाने वाले को सहज ही मिलते रहने वाला आत्म−सन्तोष आनन्द अनुभव में आता है या नहीं। ईश्वर दर्शन के सम्बन्ध में यह भ्रान्त धारणा निरस्त की जानी चाहिए कि सपने में या जागृति में इष्टदेव की किसी आकृति की झाँकी मिलती है अथवा प्रकाश आदि दीखने जैसा कोई चित्र−विचित्र दृश्य दिखाई पड़ता है। यदि ऐसा किसी को होता हो तो उसे झाड़ी का भूत, रस्सी का साँप दीखने की तरह अपने संकल्पों की मानसिक प्रतिक्रिया भर समझना चाहिए। जब चेतना की कोई आकृति हो ही नहीं सकती तो फिर उसका निर्भ्रान्त दृश्य दिखाई ही कैसे दे सकता है? इस तथ्य को हजार बार हृदयंगम कर लिया जाना चाहिए कि ईश्वर का जीवन में समावेश आदर्शवादी आकाँक्षाएँ प्राणप्रिय प्रतीत होने लगने और तदनुरूप गतिविधियाँ अपनाने पर मिलने वाले आनंद उल्लास की अनुभूति का स्तर ही ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र प्रमाण है।
निराकार ध्यान में प्रायः सर्वत्र सूर्य के प्रकाश को ही माध्यम बनाया जाता है। प्रभात काल के उदीयमान सूर्य का सविता देवता के प्रतीक रूप में दर्शन उसकी दिव्य किरणों का शरीर मन और अन्तरात्मा में प्रवेश −उस प्रवेश की सत्कर्म, सद्ज्ञान एवं सद्भाव के रूप में प्रतिक्रिया। इसी परिधि में निराकार ध्यान धारणा परिभ्रमण करती है। यज्ञाग्नि रूपी ईश्वर में आहुति द्रव्य की तरह जीव सत्ता का समर्पण, नाले का गंगा में, बूँद का समुद्र में सम्पादन−दीप ज्योति का सूर्य ज्योति में विलय−अर्घ्य जल का भाप बन कर व्यापक क्षेत्र में विस्तार −पतंगे का दीपक को समर्पण जैसे कितने ही दृश्य−चित्र कल्पना क्षेत्र में बनाये जा सकते हैं और उनके सहारे एकात्म भाव की अनुभूति का आनन्द लिया जा सकता है।
उपासना के क्रिया−कृत्य में (1) स्थापना सुसज्जा के आधार पर वातावरण का निर्माण (2) प्राणायाम, न्यास, पूजा, उपचार आदि क्रिया−कृत्यों द्वारा विचारणा की क्रिया रूप में परिणित (3) जप के साथ ध्यान का अवलम्बन और दिव्य सत्ता के साथ ऐसे सघन तादात्म्य की स्थापना जो चिन्तन क्षेत्र में उत्कृष्टता और क्रिया क्षेत्र में आदर्शवादिता अपनाने के लिए विवश कर सके। यही है उपासना का त्रिविधि स्वरूप। गायत्री मन्त्र में तीन व्याहृतियाँ इसीलिए हैं। आठ−आठ अक्षरों के तीन चरण होने के कारण इस महाशक्ति को त्रिपदा कहा गया है। उपासना के इन तीनों आधारों को अपना कर गायत्री मन्त्र के सहारे अथवा कोई और अवलम्बन अपना कर ईश्वर की साकार निराकार जो भी उपासना अपनाई जायगी निश्चित रूप से सफल होगी और अभीष्ट सत्परिणाम उत्पन्न करेगी।
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