कर्मयोग की सर्व सुलभ साधना

February 1976

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

कर्म आमतौर से वे माने जाते हैं जो शरीर से किये जाते हैं और आँखों से दिखाई पड़ते हैं। जिसके लिए समाज में निन्दा, प्रशंसा की−दंड, पुरस्कार की व्यवस्था है। पर वस्तुतः यह कर्म का सूक्ष्म रूप है। उसका सूक्ष्म रूप विचार है। चूँकि विचार दिखाई नहीं पड़ते इसलिए उनके सम्बन्ध में कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया भी उत्पन्न नहीं होती। दूसरे लोग दूसरों के भीतरी विचार समझ नहीं पाते इसलिए उनके आधार पर विनिर्मित बीज−व्यक्तित्व भी जाना नहीं जा सकता है। इससे इतनी ही हानि है कि अप्रकट विचारों के सम्बन्ध में एक−दूसरे का वास्तविक परिचय मिल न पाने के कारण सही धारण बना सकना कठिन होता है। इतने पर भी उस व्यक्ति की निजी लाभ−हानि तो लगभग उतनी ही होती है जितना प्रत्यक्ष कर्म करने पर।

जमीन में गढ़ा हुआ बीज भी दिखाई नहीं पड़ता और पौधे की जड़ें भी प्रत्यक्ष नहीं होती। इतने पर भी किसी पेड़ का स्वरूप और भविष्य इन अप्रत्यक्ष आधारों पर ही निर्धारित रहता है, जिन्हें बीज या जड़ें कहते हैं। विचारों की स्थिति ठीक ऐसी ही है। उन्हें बीज की जड़ की उपमा दी जा सकती है। दृश्य कर्म तो समयानुसार उन्हीं की परिपुष्ट स्थिति के रूप में सामने आते रहते हैं। अस्तु मानसिक पाप और पुण्य भी होते ही हैं। मनोविकारों के कारण व्यक्ति का समूचा जीवन−क्रम ही अस्त−व्यस्त हो जाता है निकृष्ट दुःखित स्तर की परिस्थितियाँ सामने आ खड़ी होती हैं। उच्च विचारों की प्रतिक्रिया ही किसी को सज्जन, श्रेष्ठ, समुन्नत, सुसंस्कृत बनाती है। उन्हीं के फलस्वरूप व्यक्ति महात्मा, देवात्मा और परमात्मा बनता है। दिशा निर्धारण विचार ही करते हैं और उन्हीं की प्रेरणा से शरीर एवं मन की हलचलें धीमी एवं तीव्र गति से चलकर कर्मफल का दृश्य रूप धारण करती हैं।

अध्यात्म का पूरा ढाँचा ही विचार विज्ञान पर खड़ा है। उसका सारा ढाँचा ही विचार परिशोधन को ध्यान में रखकर खड़ा किया गया है। पूजा, उपासना के क्रिया−काण्डों का महत्व उतना ही है कि वे अमुक स्तर के विचार उत्पन्न करने और उन्हें परिपक्व बनाने में महत्वपूर्ण साधन सिद्ध होते हैं। यदि विचार परिष्कार में उनसे कोई सहायता न मिले तो समझना चाहिए अन्य निरर्थक विडंबनाओं की तरह यहाँ भी लकीर ही पिट रही है। देवी−देवताओं को मन्त्र−तन्त्र द्वारा वश में करने की बात में इतना तथ्य है कि श्रद्धायुक्त विचार, मन्त्र का निष्ठा युक्त कर्म− तन्त्र−अपना प्रभाव जीवन प्रक्रिया पर अनिवार्य रूप से छोड़ते हैं और उनका सत्परिणाम साधन सिद्धि बनकर सामने आ खड़ा होता है।

राजयोग में यम−नियम, आचार−व्यवहार का− आसन प्राणायाम, शारीरिक, मानसिक, स्वास्थ्य का परिशोधन करते हैं। यह अष्टांग योग का आधा भाग हुआ। शेष चार प्रत्याहार धारणा, ध्यान और समाधि विशुद्ध रूप से चिन्तन क्षेत्र की हलचलें हैं। अन्तरात्मा का स्तर ऊँचा उठने से सहज ही देवत्व की मात्रा बढ़ती चली जाती है और उसी फलस्वरूप साधक में अनेकों अलौकिक विशेषताएँ जगमगाने लगती हैं। उपासना का कलेवर तो विधि−विधानों और कर्मकाण्डों से सँजोया जाता है, पर उसका प्राण संबद्ध विचारणाओं और भावनाओं में ही सन्निहित रहता है। भाव में ही देवता की स्थापना मानी गई है। उन्हीं के कारण पाषाण प्रतिमा में देवत्व का प्रकटीकरण होता है।

उपासना एक व्यायाम है। औषधि सेवन है। उसका समुचित लाभ ही इन सामयिक प्रयोगों को पूरे जीवन−क्रम के साथ जोड़ने से ही होता है। एक घण्टा व्यायाम करना पर्याप्त है उसके साथ आहार−विहार की सुव्यवस्था जुड़ी होने पर स्वास्थ संवर्धन होता चलेगा। एक समय दस रत्ती औषधि सेवन पर्याप्त है। अनुपात और परहेज का ठीक तरह ध्यान रखा जाय तो वह अपना गुण दिखायेगा। पर यदि व्यायाम को ही सब कुछ मानकर आहार−बिहार में उच्छृंखलता बरती जाय तो फिर अभीष्ट लाभ मिलना सम्भव नहीं। इसी प्रकार परहेज और अनुपान की उपेक्षा होती रहने पर औषधि का भी क्या परिणाम होता है? आध्यात्मिक प्रगति के लिए उपासनात्मक कर्मकाण्डों के साथ−साथ जीवन−साधना का क्रम भी चलना चाहिए। पूजा और पाठ का बीजारोपण, उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व के रूप में अंकुरित और पल्लवित होना चाहिए।

साधक की विचारणा का स्तर नर−कीटकों, नर−पशुओं और नर−पिशाचों से ऊँचा उठा हुआ होना चाहिए। उसमें सरसता और सहृदयता का गहरा पुट रहना चाहिए। संयमी, सज्जनोचित और आदर्शवादी जीवन−क्रम जिन विचारों को अपनाने से बनता हो उन्हीं को मस्तिष्क में स्थान मिलना चाहिए। संग्रह की तृष्णा, इन्द्रिय भोग की वासना और अहंकारी महत्वाकाँक्षाओं के लौह−बन्धनों में जकड़ा हुआ प्राणी अपनी जीवन सम्पदा को पेट−प्रजनन जैसे तुच्छ प्रयोजनों में गँवाता रहता है। यदि महत्वाकाँक्षाएं बड़े आदमी बनने के केन्द्रबिन्दु से हटकर महामानव बनने की उत्कंठा बन सकें तो समझना चाहिए कि आत्मिक प्रगति का आधार बन गया। निर्वाह के लिए थोड़े से श्रम और मनोयोग से काम चल सकता है। परिवार छोटा रखा जाय और उसे औसत भारतीय के स्तर की सुविधा उपलब्ध कराने तक का अपना कर्त्तव्य सीमित मान लिया जाय तो फिर हर व्यक्ति के पास इतना समय, श्रम और धन बच सकता है, जिसके सहारे परमार्थ प्रयोजनों की पूर्ति के लिए बहुत कुछ किया जा सके। असमर्थता तो उनके लिए रहती है जो अमीरों जैसी खर्चीली जिन्दगी जीना चाहते हैं− बड़े आदमी कहलाने के लिए लालायित हैं और सम्बन्धियों के लिए धन कुबेर जितनी सुविधाएँ जुटाने की ललक सँजोए बैठे हैं। ऐसे लोगों के पास परमार्थ प्रयोजनों के लिए कुछ भी बचता नहीं। उपासना के लिए भी न समय बचता है न मन को उसमें रस आता है। इसमें न शरीर का दोष है न मन का। जो लक्ष्य स्थिर किया है उसी में तो इन दोनों वाहनों को लगना है। मन और शरीर स्वामिभक्त सेवक की तरह कर्त्तव्य−पालन में निरत रहते हैं। उन्हें आन्तरिक आकाँक्षाएँ ही प्रेरणा देती हैं यदि जीवन−लक्ष्य बड़प्पन और उपयोग है तो फिर आत्मिक प्रयोजनों में रुचिपूर्वक लग सकना उनके लिए सम्भव हो ही नहीं सकता। उपासना में शरीर को आलस्य लगने और मन में अरुचि रहने की शिकायत तब तक बनी ही रहेगी जब तक लौकिक महत्वाकाँक्षाएँ सारे चिन्तन क्षेत्र को पकड़−जकड़कर बैठी रहेंगी। ईश्वर प्राप्ति की आत्मिक प्रगति की महा यात्रा आरम्भ हुई तब माननी चाहिए जब उत्कृष्टता का जीवन−लक्ष्य निर्धारित कर लिया जाय। अन्यथा साँसारिक मनोकामनाओं की मनौती मनाने के लिए पूजा−पाठ की उपहासास्पद विडंबना तो सर्वत्र फैली पड़ी है ही।

अन्तरंग साधना मन−क्षेत्र में उत्कृष्टता स्थापित करने की है। यह प्रयोजन पुराने कुसंस्कारों से निरन्तर जूझते रहने और सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव में सम्मिलित करने से ही पूरा होता है। इसके लिए आत्म−चिन्तन, आत्म−सुधार आत्म−निर्माण और आत्म−विकास की चतुर्मुखी चेष्टा अमुक समय से ही नहीं, वरन् हर घड़ी अपनानी पड़ती है कुशल अध्यापक की तरह अपनी ही अन्तरात्मा को कठोर समीक्षक और अभिनव मार्ग−दर्शक की तरह नियुक्त करना पड़ता है। वह आत्म-मंथन कुछ दिन तो कठिन जान पड़ता है किन्तु कुछ ही समय में सब कुछ सरल और स्वाभाविक बन जाता है।

शरीर साधना में सबसे महत्वपूर्ण है− निरालस्यता का अभ्यास। आमतौर से लोग अपनी आधे से अधिक श्रम−शक्ति आलस्य में गँवाते हैं। सुस्ताने के नाम पर ढेरों समय नष्ट किया जाता है। मन में उत्साह न रहने रोते−खीजते किसी प्रकार मन्द गति के नाम की लकीर, बेगार भुगतने की तरह पीटी जाती है। आलस्य से शरीर और प्रमाद से आच्छादित मन जो भी काम कर है वह आधा, अधूरा, लँगड़ा, काना, कुबड़ा और फूहड़ होता है। मात्रा भी उसकी अति स्वल्प रहती है। उत्साही और स्फूर्तिवान व्यक्ति जितनी देर में जितना काम बहुत ही सुन्दर स्तर का कर लेता है, उसकी तुलना में आलस्य प्रमादग्रस्त व्यक्ति आधा चौथाई भी नहीं कर पाता। जो करता है वह भी ऐसा बेतुका होता है कि उससे तो न करना अधिक अच्छा रहता है।

जीवन साधना में सबसे प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण स्थान आलस्य और प्रमाद को निरस्त करने का है। इसके लिए यह आवश्यक है कि समय को बहुमूल्य सम्पदा समझा जाय और एक−एक क्षण का पूरा मूल्य वसूल करने के लिए श्रम संलग्न रहा जाय। प्रातःकाल उठते ही− अथवा रात्रि को सोते समय अगले दिन निपटाये जाने वाले कामों को ध्यान में रखते हुए दिनचर्या बना ली जाय और जब तक कोई अनिवार्य कारण न आ जाय तब तक उस दिनचर्या को मुस्तैदी और दिलचस्पी के साथ पूरा किया जाय। सुस्ताने का अवकाश भी रखा जा सकता है, पर उसके लिए बहुत सा समय गँवाने की आवश्यकता नहीं है। काम को खेल मनोरंजन मानकर किया जाय और उसी प्रयोजन में कार्य−पद्धति का थोड़ा−थोड़ा फेर बदल कर लिया जाय तो उस परिवर्तन से ही ऊब दूर हो जाती है वस्तुतः शरीर को सुस्ताने की उतनी आवश्यकता नहीं पड़ती, जितनी मन की ऊब उतारने की। शरीर के कल−पुर्जे तो सोते−जागते हर घड़ी काम करने के अभ्यस्त हैं। थकान मिटाने के लिए नियत समय पर नींद लेना और बीच−बीच में थोड़ा−थोड़ा विश्राम लेना−टहलने या खेलने जैसा कोई हलका काम अपना लेना पर्याप्त होता है।

साधारण स्थिति के मनुष्य को 8 घंटा आजीविका उपार्जन के लिए, 7 घंटा सोने, सुस्ताने के लिए, 5 घंटे नित्यकर्म तथा फुटकर निजी कामों के लिए खर्च करना पर्याप्त होना चाहिए। शेष 4 घंटे परमार्थ प्रयोजन में लगाने चाहिएं। उपासना स्वाध्याय का समय भी इसी में से काटना पड़े तो भी दो−तीन घंटे लोक−मंगल के कार्यों के लिए बच रहते हैं। अपने युग का सबसे भयंकर संकट विकृत चिन्तन के कारण ही उत्पन्न हुआ है। आज की सबसे बड़ी आवश्यकता सामाजिक, नैतिक और बौद्धिक क्रान्ति की है। इसके लिए अपना ज्ञान−यज्ञ अभियान युग−निर्माण आन्दोलन सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। लोक सेवा के लिए इससे बढ़कर इन दिनों और कोई कदम नहीं हो सकता। हमारे श्रम, समय एवं मनोयोग को इसी परमार्थ−प्रयोजन में बिना इधर−उधर भटके संलग्न होना चाहिए। जिनके पास गुजारे के लिए दूसरे साधन मौजूद हैं उन्हें आजीविका उपार्जन वाले आठ घंटे भी इसी परमार्थ−प्रयोजन के लिए समर्पित कर देने चाहिएं। शरीर पर साधना की दृष्टि से नियमित दिनचर्या का बनना और उस पर कठोरतापूर्वक आरुढ़ रहना एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य है। कर्मयोग का इसे व्यावहारिक और सर्वप्रथम कदम कहा जा सकता है। निठल्लापन जड़ता का−तामसिकता का चिन्ह है। इसे सौभाग्य नहीं दुर्भाग्य माना जाना चाहिए। शरीर की क्रिया शक्ति और मस्तिष्क की कुशाग्रता को नष्ट करने में आलस्य, प्रमाद से बढ़कर और कोई शत्रु नहीं हो सकते।

अपने देश में श्रम से जी चुराने की कामचोरी, हरामखोरी की−आदत बेहिसाब बढ़ी हुई है। कठोर श्रम करने वाले श्रमजीवियों को अछूत कहा गया और निठल्लेपन में समय गुजारने वाले सवर्ण या बड़े आदमी कहलाये। बच्चे तनिक भी कमाऊ होते ही अधेड़ आदमी निठल्ले रहने को सौभाग्य मानते हैं और बेटे की बहू आते ही सास काम करने से हाथ खींचती है। माँ−बाप को कड़ा श्रम करते देखकर भी सयाने लड़के इधर−उधर छिपते फिरते हैं और उनके काम में हाथ नहीं बँटाते। बेकारी से उत्पादन घटता है और दरिद्रता बढ़ती है। व्यक्ति और समाज दोनों का ही निठल्लेपन में अकल्याण है। अस्तु इस जड़ तामसिकता की प्रवृत्ति को उखाड़ना जीवन साधना का प्रथम लक्ष्य होना चाहिए। इन मोर्चों को जीतने पर ही भौतिक और आत्मिक प्रगति का पथ−प्रशस्त हो सकता है। विरक्त होने का मतलब तृष्णा, वासना और अहंकारिता से अनुराग छोड़ना है। श्रम−निष्ठा और कर्त्तव्य परायणता तो साँस रहने तक छोड़ने की वस्तु नहीं है जवानी में कठोर और बुढ़ापे में हलके काम चुने जाएं यह दूसरी बात है, पर अपनी योग्यता एवं स्थिति के अनुरूप श्रम संलग्न हर किसी को रहना चाहिए और समय रूपी जीवन सम्पदा का एक कण भी निरर्थक नहीं गँवाना चाहिए।

कर्मयोग का दूसरा चरण यह है कि प्रत्येक क्रिया के पीछे स्वार्थ सिद्धि की नहीं−उत्तरदायित्वों के निर्वाह की कर्त्तव्य−पालन दृष्टि रहनी चाहिए। हम जो भी करते हैं वह ईश्वर के सौंपे शरीर को निर्वाह एवं श्रम देने के लिए, ईश्वर प्रदत्त मन को सुसंस्कृत बनाये रहने के लिए, ईश्वर के सौंपे परिवार उद्यान को कर्त्तव्य−निष्ठ माली की तरह सींचने, सँभालने के लिए, सामाजिक राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों को निभाने के लिए, जीवन−लक्ष्य को पूरा करने के लिए किया जा रहा है। यह दृष्टिकोण रखकर किये जाने वाली सामान्य काम भी जीवन साधना के अंग बन जाते हैं। कामों में विकृतियाँ तभी उभरती हैं जब उन्हें संकीर्ण स्वार्थ स्थिति के लिए किया जाता है। कर्त्तव्य−निष्ठ सैनिक की तरह यदि ईश्वर की सेना का अकिंचन सिपाही अपने को माना जाय और जिस तरह सैनिक राष्ट्रहित के लिए बड़े से बड़ा बलिदान करने और कड़े से कड़ा अनुशासन मानने के लिए तैयार रहता है, वैसी ही साधक की मनःस्थिति होनी चाहिए। इस चिन्तन को ध्यान में रखकर किये गये सभी काम कर्मयोग की श्रेणी में गिने जाएंगे ओर उनका परिणाम योगाभ्यास के लिए की गई तप साधना जैसा श्रेयस्कर ही होगा।

कर्त्तव्य−पालन अपने आप में इतना बड़ा काम है जिस पर हर किसी को गर्व एवं सन्तोष अनुभव होना चाहिए। हर काम पूरी तरह सोच−विचार कर दूरदर्शिता एवं परिपूर्ण कुशलता के साथ किया जाना चाहिए। इतने पर भी इतने समय में यह परिणाम उत्पन्न हो ही जायगा, इसका कुछ निश्चय नहीं। कारण कि साधन, सहयोग, सूझ−बूझ, परिस्थिति आदि अनेक तथ्यों से मिलकर सफलता उत्पन्न होती है। अपने हाथ में तो केवल मनोयोगपूर्वक श्रम करते रहना भर है। ऐसी दशा में अमुक कर्म का इतने समय में यह प्रतिफल मिल ही जायगा, इसका कुछ निश्चय नहीं रहता। सफलता में हर्षोन्माद और असफलता को गहरा शोक−सन्ताप मनाने में क्षण−क्षण में मानसिक सन्तुलन बिगड़ता है और उस उथल−पुथल में, जीवन धारा में उलट−पुलट उत्पन्न करने वाला व्यवधान उत्पन्न होता है। अस्तु कर्मयोग का एक निर्देश यह है कि विवेकयुक्त सत्कर्म पूरे मनोयोग के साथ करते रहना ही गर्व, सन्तोष एवं आनन्द का आधार मान लिया जाय। अभीष्ट परिणाम में यदि देर लगती है या आंशिक सफलता मिलती है तो उसे देखकर अधीर उद्विग्न न बना जाय। हर असफलता के बाद दूने उत्साह से श्रम किया जाय और पिछली बाद यदि कुछ त्रुटि रही हो तो उसके निराकरण का अधिक सतर्कतापूर्वक प्रयत्न किया जाय।

निन्दा, प्रशंसा के झंझट में न पड़ने की बात भी कर्मयोगी को ध्यान में रखनी पड़ती है। लोग कर्म का बाहरी स्वरूप देखते हैं कर्त्ता का उद्देश्य नहीं समझते। इसी प्रकार लोक−प्रचलन में स्वार्थ सिद्धि की ही प्रधानता है। स्वार्थियों से ही यह संसार भरा पड़ा है वे अपने स्तर के कार्यों को ही पसन्द करते और सराहते हैं। परमार्थ प्रयोजनों का प्रचलन न होने से वे अटपटे और मूर्खतापूर्ण समझे जाते हैं। इस लोक−प्रवाह में सत्पथ अपनाने वालों को प्रायः उपहासास्पद ही बनना पड़ता है। लोग अपने लाभ या रुचि के कामों की प्रशंसा करते हैं। इसमें कई बार खुशामद या चापलूसी द्वारा सस्ती मित्रता जोड़ने ओर उसकी आड़ में उल्लू सीधा करने की प्रवृत्ति भी रहती है। ऐसी दशा में दूसरों के मुँह से निकलने वाली निन्दा, प्रशंसा से अपने कामों के गलत−सही होने का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। कई बार तो ठीक उलटी बात देखी जाती है। सत्कर्मों का उपहास और दुष्कर्मों का समर्थन अब आम रिवाज जैसा हो गया है। ऐसी दशा में उलटी कसौटी से काम लेना पड़ता है। लोग मात्र दुष्कर्मों की ही निन्दा नहीं करते। सत्कर्मों का उपहास उड़ाने में भी नहीं चूकते। प्रशंसा सर्वदा सत्कर्मों की ही नहीं होती, दुष्ट-दुरात्मा भी हीरो बना दिये जाते हैं। कला का आकर्षण लोगों के मुख से सहज ही वाहवाही निकलवा ही लेता है जबकि अनेक बार उस कला की आड़ में सर्वनाशी विष घुला होता है।

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कर्मयोगी अपनी श्रमनिष्ठा और सन्मार्गगामिता को ही आत्म−तुष्टि और आत्म−प्रशंसा का आधार मान लेता है। उसे किसी के मुख से प्रशंसा का प्रमाण−पत्र पाने की आवश्यकता नहीं पड़ती न वह अवास्तविक निन्दा से उद्विग्न होता है उसका अपना आपा ही−अपना स्तर ही सन्तोष के लिए पर्याप्त आधार बना रहता है। इसी प्रकार उसे अभीष्ट परिणाम की उतावली नहीं होती। सत्कर्म की नीति अपनाना ही उसके लिए क्षण−क्षण में मिलने वाली सफलता जैसा उपहार होता है। कर्मयोगी किसी भी स्थिति में खिन्न−उद्विग्न नहीं पाया जाता। उसकी परिष्कृत जीवन नीति ही उसे हर घड़ी सन्तोष देती रहती है, फलतः उस आन्तरिक प्रसन्नता को चेहरे की मुस्कान रूप में हर घड़ी देखा जा सकता है।

कर्मयोग की एक दिशा ईमानदारी है। वह अपने हर काम को पूरी तत्परता, कुशलता और ईमानदारी के साथ करता है। अपने कामों का स्वरूप प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है तो कर्त्ता को हर घड़ी यह ध्यान रहता है कि अपनी कृतियों का स्तर गिरने न पाये। किये हुए कामों को देखकर कोई यह लाँछन न लगाए कि काम में बेईमानी या उपेक्षा बरती गई है। लाभ कम हो या अधिक अपनी प्रामाणिकता गिराकर कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए। जिसमें किसी के साथ छल या विश्वासघात हुआ हो ऐसा कार्य निष्कृष्ट ही माना जायगा। नीति, मर्यादा, न्याय एवं औचित्य का उल्लंघन करके किये हुए काम भले ही आर्थिक लाभ देते हों या सुविधा उत्पन्न करते हों, निश्चित रूप से हेय हैं। कर्मयोगी को भी काम का प्रतिफल तो चाहिए वह उसके लिए प्रयत्न भी करता है किन्तु अनीति की कीमत पर खरीदे गये लाभ की अपेक्षा तो उसे हानि उठाना अधिक श्रेयस्कर लगता है।

शिष्टाचार का पालन और दूसरों के साथ सज्जनतापूर्ण सद्व्यवहार का ध्यान रखना कर्मयोग का आवश्यक अंग है। कटु व्यवहार, क्रोधावेश, दुर्वचन, तिरस्कार, अशिष्टता तो उनके साथ भी नहीं बरती जानी चाहिए जिनसे हमारा मतभेद है या विरोध है। विरोधियों और प्रतिद्वंद्वियों के साथ किस तरह निपटा जाय, इसके लिए जो भी तरीका अपनाना हो उसमें कटुवचन बोलने और दुर्व्यवहार करने की गुंजाइश नहीं है। न्यायाधीश किसी अपराधी को फांसी की सजा तो दे सकता है, पर उसका असम्मान नहीं कर सकता है। इससे तो अपराधी और न्यायाधीश दोनों एक ही स्तर के बन जाएंगे। सज्जनोचित शिष्टाचार का उल्लंघन किसी भी स्थिति में नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि इसमें अपराधी से भी बढ़कर दोषी वह हो जाता है अशिष्टता बरतता है।

नागरिकता के कर्त्तव्यों का पालन प्रत्येक समझदार व्यक्ति को करना चाहिए। सड़क पर बाँई ओर चलना, लाइन लगाकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करना, सार्वजनिक स्थानों को गन्दा करने या क्षति पहुँचाने का प्रयत्न न करना जैसे सार्वजनिक सुविधा के नियम हर किसी को पालन करने चाहिएं। मिलने के काम करके देने के समय का पूरी तरह ध्यान रखा जाना चाहिए। माँगी वस्तु का लौटाना या दिये वचन का पूरा करना मनुष्य की प्रामाणिकता का चिन्ह है। मोल−भाव, नाप-तौल तथा वस्तु के स्तर में गड़बड़ी न की जाय, रिश्वत, जमाखोरी, मुनाफा खोरी, करचोरी जैसे आर्थिक भ्रष्टाचारों से स्वयं दूर रहा जाय ओर दूसरों को रोका जाय। चोरी, डकैती, छल, हत्या जैसे नृशंस क्रूर−कर्मों की बात तो सोची नहीं जा सकती। प्रतिपक्षी से प्रतिशोध लेना हो तो उसका अन्तःकरण बदलने और चरित्र सुधारने की ही दृष्टि रखी जानी चाहिए। हिंसा−प्रतिहिंसा का−प्रतिशोध, प्रति प्रतिशोध का कुचक्र तो उस अवाँछनीयता को चक्रवृद्धि दर से बढ़ाता ही जाता है, जिसके निवारण के लिए आतंकवादी उपायों को अपनाया गया था।

नागरिकता, नैतिकता, नियमितता, शिष्टता, सज्जनता, दूरदर्शिता, कर्त्तव्य−परायणता जैसे आधार अपनाकर जो सत्कर्म किये जाते हैं उन्हें कर्मयोग की संज्ञा मिलती है। उपासना तो थोड़े समय तक होने से भी काम चल सकता है, पर साधना तो हर घड़ी चलती रहनी चाहिए। मन, वचन और कर्म का स्तर ऊंचा रखकर जो सोचा, बोला और किया जाता है, वह सब कुछ योगाभ्यास की तरह सत्परिणाम उत्पन्न करता है। कर्मयोग की साधना सर्वांगपूर्ण है। वह जीवन−लक्ष्य को प्राप्त करने और अगणित दिव्य सिद्धियों को प्रदान करने में सुनिश्चित रूप से सफल होती है।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118