सफलता के लिए प्रखर कर्म और उसके लिए संकल्प बल चाहिये।

February 1976

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विचार बीज है और कर्म वृक्ष। कर्मों का आरम्भ विचारों से होता है और उन्हें पुरुषार्थ का खाद, पानी मिलते रहने से वे उपलब्धियों के फल−फूलों से लद जाते हैं। विचार यदि उत्कृष्ट हैं और कर्म आदर्श, तो फिर उनका प्रतिफल वैसा ही होना चाहिए जैसा स्वर्ग में रहने वाले देवताओं को उपलब्ध रहता है। यदि यह दोनों ही आधार लड़खड़ा रहे होंगे, तो अस्त−व्यस्त जीवन क्रम अपनाकर मनुष्य अवाँछनीय रीति−नीति अपनाता है और दुर्गति का भागी बनता है। विचारों और कर्मों के दोनों घोड़ों की लगाम यदि मजबूती से पकड़ कर रखी जाय और उन्हें सही सड़क पर सही रीति से चलाया जाय तो अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँच सकना किसी के लिए भी कठिन न रह जाय। मानवी सत्ता इतनी सर्वांगपूर्ण है कि उसे असीम सम्भावनाओं का भाण्डागार कहा जा सकता है। कठिनाई एक ही है कि लोग न तो अपनी समर्थ सत्ता के सम्बन्ध में यथार्थ जानकारी रखते हैं और न अपने दो प्रचण्ड शक्ति साधनों का, शरीर और मन का उपयोग जानते हैं। यदि विचारों और कार्यों पर विवेकपूर्ण नियन्त्रण बना रहे तो प्रगति का उच्चस्तरीय क्रम चल पड़ेगा और देव मानवों जैसी उपलब्धियों को करतलगत किया जा सकेगा।

जीवनयापन की सर्वश्रेष्ठ नीति को कर्मयोग कहते हैं। अनियन्त्रित और अव्यवस्थित निरुद्देश्य−स्वेच्छाचारी नीति अपनाकर मनुष्य अस्त−व्यस्त फिरते और बहुमूल्य जीवन सम्पदा को नष्ट−भ्रष्ट करते हैं। यदि आत्मचर्या पर नियन्त्रण स्थापित किया जा सके तो उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाओं में तनिक भी सन्देह न रह जायगा।

आत्म−नियन्त्रण के लिए विचार और कर्म दोनों को योजनाबद्ध बनाना पड़ता है। आमतौर से मस्तिष्क वासना और तृष्णा की अनावश्यक, अवाँछनीय और असंबद्ध कल्पना जल्पनाओं में भटकते रह कर अपनी बहुमूल्य क्षमता को अकारण बर्बाद करता रहता है। मस्तिष्क को आदेश होना चाहिए कि वह केवल योजनाबद्ध निर्देशों का ही पालन करे और चिन्तन के लिए जो दिशा सौंपी गई है उसी की परिधि में अपना श्रम नियोजित रखे। निरर्थक सोचने में रंच मात्र भी दौड़−धूप न करे। अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति के लिए कितने साधन जुटाये जाने हैं− कितने अवरोधों को हल किया जाना है इसके लिए सोचने का सुविस्तृत क्षेत्र सामने पड़ा है फिर उसी में सोचने विचारने की बात को सीमित क्यों न रखा जाय? जो न तो आवश्यक है और न वर्तमान परिस्थितियों में सम्भव, ऐसी उड़ानें उड़ने से मस्तिष्क को रोका जाना चाहिए। वह रोक−थाम तभी हो सकती है जब चिन्तन के लिए निर्धारित क्षेत्र बना कर दिया जाय और उसके लिए आवश्यक साधन सामग्री प्रस्तुत की जाय।

जैसे बिगड़े हुए स्वास्थ को सुधारने की समस्या सामने है तो मस्तिष्क को इस संदर्भ के कारण और निवारण ढूँढ़ लाने का काम सौंपा जाना चाहिए। इसके लिए उसे पढ़ने−पूछने एवं सोचने के लिए साधन ढूँढ़ने और सम्पर्क बनाने की योजना बनाने के लिए कहना चाहिए। सौंपे गये काम का यदि महत्व और लाभ समझ लिया जाय तो मस्तिष्क सहज सी ही उस दिशा में जुट जायगा। मन न लगने का− उलट जाने का− एक ही कारण है कि उस कार्य के सम्पन्न होने का लाभ और न कर पाने की हानि को गहराई तक नहीं समझा गया। यदि स्वस्थ, परिपुष्ट समर्थ और दीर्घजीवी काया का आकर्षक कल्पना चित्र सामने खड़ा किया जा सके और इसके विपरीत वर्तमान क्रम से स्वास्थ गिरते जाने पर कुछ ही समय बाद जो दुर्गति होगी और उसका दुष्परिणाम सगे सम्बन्धियों को भुगतना पड़ेगा उसका भयावह चित्र सामने रखा जा सके तो अन्तःकरण प्रस्तुत स्वास्थ्य समस्या की गरिमा को समझेगा और उसे हल करने के लिए चिन्तन क्षेत्र में उपयोगी हलचलें आरम्भ हो जाएंगी।

मन की अव्यवस्थित भाग दौड़ का तात्पर्य एक ही है कि उसे कोई महत्वपूर्ण काम सुनिश्चित रूप से सौंपा ही नहीं गया। यदि सौंपा जाय तो वह अपनी अस्त−व्यस्तता छोड़ कर निर्धारित दिशा में ही कार्य संलग्न बना रहेगा। वैज्ञानिक, कलाकार, साहित्यकार, शिल्पी, व्यवसायी, कृषक आदि अपने मन को नियत निर्धारित काम में लगाये रहने का अभ्यास करते हैं फलतः उनका चिन्तनक्रम अस्तव्यस्तता में भ्रमण नहीं करता और बिना ननुनच किये अपने निर्धारित क्रम में जुटा रहता है।

आरम्भ में अनगढ़ मन को एकाग्र करना थोड़ा कठिन पड़ता है, पर यह कठिनाई तो हर नये काम में आती है हल में चलने के लिए नया बछड़ा सहज ही कहाँ रजामन्द हो जाता है। नये घोड़े ताँगे में जुतते समय कितनी गड़बड़ फैलाते हैं। यदि मालिक लोग इस असहमति से निराश होकर अपना प्रयास छोड़ दें तो फिर उनका बछड़ा पालना और घोड़े खरीदना ही व्यर्थ है। तब वे हल जोतने और ताँगा चलाने के लाभ से वंचित ही रहेंगे। हिम्मत के साथ देर तक डाँट−पुचकार कर लगे ही रहने पर सरकस के जानवर कैसे−कैसे करतब दिखाने लगते हैं फिर कोई कारण नहीं कि मन को निर्दिष्ट दिशा में ही अपनी चिन्तन प्रक्रिया केन्द्रित किये रहने के लिए अभ्यस्त न किया जा सके।

उथले विचार ऊपरी सतह पर घूमते रहते हैं और गोता मारकर कीमती मोती पाने में सफल नहीं होते। किसी भी विषय पर जितनी गम्भीरतापूर्वक उसके पक्ष प्रतिपक्ष का मन्थन करते हुए निष्कर्ष निकाला जायगा उतनी ही वस्तुस्थिति स्पष्ट रूप से सामने आवेगी। एकाँगी−एक−पक्षीय−विचार भावुकता कहलाते हैं। होना यह चाहिए कि पक्ष और विपक्ष के दोनों विचार काम करें−सरलता और कठिनाई की दोनों तस्वीरें सामने रखी जाएं और सोचा जाय कि अधिक अनुकूलता उत्पन्न करने के लिए तथा कठिनाइयों को हल करने के लिए क्या−क्या करना होगा और उसके लिए क्या साधन जुटाने होंगे? मात्र कठिनाइयों की बात सोच कर किसी प्रयास के लिए साहस ही न करना जितना अबुद्धिमत्ता पूर्ण है, उतना ही यह भी उपहासास्पद है कि अभीष्ट मनोरथ को चुटकी बजाते सफल होने की बालबुद्धि अपनाई जाय। ऐसे उतावले लोग आये दिन असफलता का मुँह देखते, दुर्भाग्य का रोना रोते पाये जाते हैं। हर छोटा−बड़ा काम आवश्यक मनोयोग, परिश्रम, साधन और समय की अपेक्षा रखता है। उन्हें जुटाने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है। जिनमें इसके लिए धैर्य, साहस और संकल्प होगा वे ही कुछ कर सकने और पा सकने में सफल होंगे। योग्यता का अभाव और साधनों की कमी पूरी करने के लिए घनघोर प्रयास करने को ही सफलता की पद यात्रा कहते हैं। उछल कर क्षण मात्र में आकाश चूमने के आतुर लोगों ने कभी कुछ कहने लायक सफलता पाई हो ऐसा देखने, सुनने में नहीं आया।

कर्मयोग का प्रथम चरण है, अपने विचारतन्त्र को सही करना−असम्भव और असम्बद्ध कल्पनाओं में उड़ते फिरने की अस्त−व्यस्तता को निरस्त करना। भविष्य के सुनहरे सपने देखते रहने की अपेक्षा यही उचित है कि आज कि समस्याओं को −आज के साधनों से हल करने का ताल−मेल बिठाया जाय। कल जब अधिक अच्छी परिस्थितियाँ सामने होंगी तो कल उससे आगे की बात सोची जा सकती है। भूतकाल चला गया वह लौट नहीं सकता। इसलिए बीती ताहि बिसार दे की उक्ति को सही मानकर गढ़े मुर्दे उखाड़ने की बात भुला देने में ही बुद्धिमत्ता है। भूतकाल की समीक्षाओं का लाभ इतना ही है कि पिछले अनुभवों से लाभ उठा लिया जाय। बीती घटनाओं की बात सोच कर रंज करने और पछताने से वर्तमान भी नष्ट होता है। सबसे महत्वपूर्ण समय वर्तमान ही है। भविष्य की कल्पनाओं में उड़ना भी भूत चिन्तन की तरह की निरर्थक है। कहते हैं बुड्ढे भूतकाल की बातें सोचते और बच्चे भविष्य की कल्पनाओं में उलझे रहते हैं प्रौढ़ावस्था की बुद्धिमत्ता इसी में है कि वर्तमान को देखा समझा जाय और प्रस्तुत अवसर का अधिक से अधिक सदुपयोग करने में तत्पर हुआ जाय। हमारा चिन्तन यथार्थवादिता पर निर्भर होना चाहिए और भावी प्रगति के लिए आज जो किया जाना सम्भव है, उसी पर ध्यान केन्द्रित रहना चाहिए।

आवेशों से जितना बच सकना सम्भव हो उतने बचने का पूर्ण प्रयत्न किया जाय। थोड़ी सी सफलता पाकर लोग हर्षोन्माद और अहंकारग्रस्त होते देखे जाते हैं। थोड़ी सी कठिनाई या असफलता देख कर कई व्यक्ति बेतरह घबरा जाते हैं और चिन्ता, निराशा, भय, आशंका जैसी विकृतियों में फंस कर अपने चिन्तन तन्त्र को गड़बड़ा देते हैं फलतः उनकी कार्य शक्ति को भी काठमार जाता है। कहते हैं विपत्ति अकेली नहीं आती अपनी सहेलियों की पूरी सेना साथ लेकर चलती है। यह कथन इसलिए सही है कि उद्विग्न मस्तिष्क सही निष्कर्ष निकालने और सही कार्य पद्धति निर्धारित करने में असमर्थ बन जाता है। उसके निर्णय प्रायः गलत होते हैं गलत दिशा में उठे कदम गलत प्रतिफल उत्पन्न करेंगे ही। यही है विपत्ति के साथ चलने वाली सेना शृंखला। कोई हानि हो जाने या शोक उपस्थित हो जाने पर धैर्य से काम लिया जाना चाहिए और बदली हुई परिस्थितियों में क्या करना उपयुक्त है? यह सोचा जाना चाहिए। ऐसा निष्कर्ष वही निकाल सकेगा जिसका मस्तिष्क असंतुलन के आँधी तूफान से बचा होगा। एक हानि चुकी, दूसरी और अनेकों यदि जान−बूझ कर बुलाने की इच्छा न हो तो इसी में दूरदर्शिता है कि विपन्नता के बीच भी संतुलन बनाये रहने की बुद्धिमत्ता का परिचय दिया जाय।

पुराने अभ्यस्त कुविचारों और कुसंस्कारों को उखाड़ कर उनके स्थान पर प्रगतिशील उपयोगी विचारों की स्थापना का उपाय एक ही है− सद्विचारों की समर्थ सेना का मनःक्षेत्र की छावनी में भरती करना और युद्ध कला में प्रवीण बनाना। कुविचार इसीलिए स्वच्छन्द विचरण करते हैं कि उसका मुँह तोड़ने वाले सद्विचारों का संचय और पोषण किया नहीं गया होता। प्रतियोगिताएँ−प्रतिद्वंद्विताएं कभी−कभी मनःक्षेत्र में आयोजित की जानी चाहिएं और दोनों पक्षों के विचारों को अपनी−अपनी बहस छेड़ने का अवसर देना चाहिए। निर्णायक स्वयं रहें। दोनों की बात ध्यान से सुनें। एक पक्ष तात्कालिक लाभ के लिए दूरगामी भविष्य को अन्धकारमय बना देने पर जोर दे रहा होगा। दूसरा आज की कठिनाई सह कर उज्ज्वल भविष्य की फसल उगाने का समर्थन कर रहा होगा। दूरदर्शी न्याय निष्ठा आत्म−कल्याण के पक्ष में यही फैसला करेगी कि किसान, विद्यार्थी, शिल्पी, कलाकार की तरह आरम्भिक कठिनाई को सहन करते हुए उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण ही उचित है। इस प्रकार की टक्करों से बार−बार हारते रहने पर कुविचार और कुसंस्कार अपना पुराना अड्डा छोड़ कर चले जाते हैं और कहीं अन्यत्र डेरा डालते हैं।

चिन्तन क्षेत्र की असम्बद्धता को निरस्त किया जा सकेगा तो कर्मक्षेत्र में प्रगतिशील दिशा अपनायी जा सकना सरल है। यदि मस्तिष्क में विकृतियाँ जड़ जमाये बैठी होंगी, तो फिर उपयोगी कार्य पद्धति का निर्धारण देर तक टिक न सकेगा। विकृत विचार प्रक्रिया भीतर ही भीतर कोंच−नोंच करती रहेगी और जो प्रगतिशील कार्यक्रम निर्धारित किया था वह कुछ ही समय चल कर शिथिलता के, उपेक्षा के गर्त में गिरता है और समाप्त हो जाता है।

उत्कृष्ट कार्य पद्धति को अपनाने के लिए प्रचण्ड संकल्प शक्ति चाहिए, संकल्प और कुछ नहीं विचारों की साधनता, स्थिरता और परिपक्वता का ही समन्वित स्वरूप है। कल्पनाएँ नहीं संकल्प शक्ति सफल होती है। संकल्प अचानक ही न तो उठते हैं और न क्षण मात्र में समाप्त होते हैं, उनके पीछे चिन्तन,मंथन, अनुभव और कठिनाइयों के साथ जूझते हुए चिरकाल तक प्रयास जारी रखने का निश्चय जैसे अनेकों मानसिक उपक्रम जुड़े होते हैं।

जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए अभीष्ट प्रयोजनों में सफलता पाने के लिए प्रचण्ड स्तर की संकल्प शक्ति का निर्माण करना आवश्यक है। यह शारीरिक समर्थता एवं साधनों की प्रचुरता से भी बढ़ कर है। कर्मयोग के मार्ग पर चलने वाले सर्वप्रथम विचार बीज की उपयुक्तता पर ध्यान देते हैं ताकि सत्परिणामों की अच्छी फसल पाने का सुनिश्चित आधार बन सके।


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