पदार्थ की तरह व्यक्ति भी मूलतः अनगढ़ होता है। उसे सँभालने, सजाने से उपयोगिता बढ़ती है और सौन्दर्य निखरता है। अनगढ़ मिट्टी पैरों के तले कुचलती रहती है, पर जब इसके परिश्रम करके बर्तन या खिलौने बनाये जाते हैं तो उस की विशेषता निखर कर आती है और उससे समुचित लाभ उठाया जाता है।
जंगली पौधे कुरूप झाड़ियाँ बनकर अस्त−व्यस्त फैले होते हैं, पर जब कुशल माली द्वारा उन्हें खाद, पानी दिया जाता है और निराया, गोड़ा छाँटा जाता है तो उन्हीं पौधों को सुरम्य उद्यान के रूप में देखा जाता है। कच्ची धातुओं की स्थिति उपहासास्पद होती है, पर जब उन्हें तपा−गलाकर शुद्ध किया जाता है और यन्त्र, उपकरण, आभूषणों का रूप दिया जाता है तो उनका सही मूल्याँकन होता है। मामूली से रासायनिक पदार्थ चिकित्सक के परिश्रम से बहुमूल्य औषधि बनते हैं।
व्यक्ति अपनी अनगढ़ स्थिति में नर−पशु से अधिक और कुछ नहीं। गये−गुजरे स्तर का मनुष्य कई बार तो पशुओं से भी अधिक घृणित और दुःखद परिस्थिति में डूबा पड़ा होता है। स्वयं कष्ट सहता और सम्बद्ध व्यक्तियों को दुःख देता है। भार बनकर जीता और भार हलका करने के लिए मृत्यु के मुख में चला जाता है। किन्तु उसे यदि सुविकसित, सुसंस्कृत बनाया जा सके तो लगता है कि वही ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति है।
साधना को दूसरे शब्दों में संस्कृति कह सकते हैं। शरीरगत, क्रियाशीलता, मनोगत, विचारणा और अन्तरात्मा देवत्व में परिणत किया जा सकता है, इसी विद्या का नाम साधना है। अपने आपकी साधना करके कोई भी सिद्ध पुरुष बन सकता है।
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