आस्तिकता का स्वरूप और आधार

February 1976

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जीव को ईश्वर का अंश कहा गया है। यह अंश उतने परिमाण में प्रत्येक प्राणी में है, जिसमें वह अपनी सामान्य जीवन−यात्रा की गतिविधियाँ ठीक तरह चला सके। उदार पोषण, शरीर रक्षा, वंश वृद्धि, विश्राम, विनोद जैसे प्रयोजन परे करने के लिए कुछ करना और सोचना पड़ता है इसके अतिरिक्त शरीर और मन का ढाँचा खड़ा रखने के लिए भी ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। प्राणधारी को इन प्रारम्भिक आवश्यकताओं को पूरा करने में क्रियाशीलता और कुशलता की आवश्यकता पड़ती है, इसे जुटाते रहने की सामर्थ्य दे सकने वाला ईश्वरीय अंश प्रत्येक प्राणी में मौजूद है। इतना अनुदान प्रायः सभी को समान रूप से मिलता है। जिसकी काया जिस स्तर की है उसकी आवश्यकता का स्वरूप भी उसी प्रकार का होता है−उन्हें जुटाने की क्षमता में बाह्य अन्तर देखा जा सकता है, पर तात्विक दृष्टि से सभी अपने ढंग से −अपने साधनों से अपनी आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। यह क्षमता समान रूप से प्रत्येक प्राणी को प्राप्त होने से यह कहा जा सकता है कि सभी को समान रूप से समान स्तर का ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त है। सभी ईश्वर के समान अंश हैं। यह स्वल्प अंश शारीरिक और मानसिक आवश्यकताएँ उसी स्तर की पूरी कर पाता है जिससे निर्वाह का सामान्य क्रम पूरा होता रह सके।

इससे आगे की प्रगति करना जीवधारी के अपने निज के पुरुषार्थ पर निर्भर है। स्पष्ट है कि चेतनात्मक प्रगति ही भौतिक उन्नति के साधन एकत्रित करती है। इसे प्रयत्नपूर्वक बढ़ाया जा सकता है। साधना इसी का नाम है। साधना के दो स्तर हैं− एक स्थूल दूसरा सूक्ष्म। स्थूल साधना में व्यायाम, अध्ययन, अनुभव, शिल्प, कला, वाणिज्य आदि विषय आते हैं। सूक्ष्म साधना में अपने दृष्टिकोण, क्रिया−कलाप, गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत किया जाता है। प्रमुख शक्तियों को जगाया जाता है। स्थूल साधना में मस्तिष्कीय प्रशिक्षण तथा शरीर को अभ्यास कराने की क्रिया−पद्धति चलती है। सूक्ष्म साधना में आकाँक्षाओं, मान्यताओं एवं भावनाओं को उच्चस्तरीय बनाया जाता है।

शरीर पंचतत्वों का बना है इसलिए उसके निर्वाह तथा प्रशिक्षण में भौतिक उपकरण काम आते हैं। मस्तिष्क में मन और बुद्धि की हलचलें होती हैं उन्हें अध्ययन, अनुभव एवं चिन्तन के आधार पर विकसित किया जाता है लोक−साधना में यही प्रक्रिया अपनाई जाती है। व्यक्ति अपनी क्रियाशीलता और बौद्धिक स्थिति में प्रवीणता उत्पन्न करते और भौतिक प्रगति का पथ−प्रशस्त करते हैं सूक्ष्म साधना में अन्तरात्मा का स्तर ऊँचा उठाना पड़ता है। इसके लिए परमात्म सत्ता के साथ सम्पर्क बनाना पड़ता है। भौतिक प्रगति के लिए भौतिक क्षमता और आत्मिक प्रगति के लिए आत्मिक क्षमता चाहिए। इसके लिए जो प्रयोग प्रयत्न करने पड़ते हैं− उन्हें अध्यात्म साधना कहते हैं। इसके लिए प्रधान अवलम्बन ईश्वर है। चेतना की उच्चस्तरीय सम्वेदना को ईश्वर कहते हैं। साधना प्रयोजनों में इसी के साथ सम्पर्क बनाना पड़ता है।

यों समस्त सृष्टि के उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन के अगणित क्रिया−कलापों में संलग्न ब्रह्माण्ड−व्यापी चेतना का विस्तार और स्वरूप इतना बड़ा है कि उसकी आंशिक जानकारी प्राप्त कर सकना भी सीमित मानवी बुद्धि के लिए सम्भव नहीं हो सकता। इसलिए परब्रह्म को अचिन्त्य, अनिर्वचनीय अगम्य आदि कहा गया है और उसके सन्दर्भ में की गई समस्त चर्चा, विवेचनाओं को ‘नेति−नेति’ कहकर अपूर्ण बताया गया है। किन्तु अन्तरात्मा के भावनात्मक स्तर को स्पर्श करने वाला ब्राह्मी अंश पहचाना, पकड़ा और अपनाया जा सकता है। उपास्य यही है। इष्टदेव इसी को कहते हैं। साधना अभ्यर्थना इसी की की जाती है। अनुग्रह और वरदान इसी से प्राप्त होते हैं। वस्तुतः इसे विश्वात्मा अथवा मानवी उत्कृष्टता की चरमावस्था कह सकते हैं। परब्रह्म की असंख्य हलचलों में से एक यह परमात्म सत्ता तरंग भी है, जिसके साथ सम्पर्क बनाकर मानवी अन्तरात्मा को अपने विकास का अवसर मिलता है। अस्तु, उपासना में आस्तिकता को−ईश्वर भक्ति को परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करने वाले प्रयोग प्रयोजनों को अनिवार्य माना गया है। उपासना साधना की पृष्ठभूमि इसी केन्द्र बिन्दु पर आधारित है।

हमारा उपास्य इष्टदेव परमेश्वर क्या है? इसकी विवेचना कई प्रकार से की जा सकती है। अन्तःकरण में उच्चस्तरीय भाव सम्वेदनाएँ उत्पन्न करने वाली व्यापक चेतना को निराकार ईश्वर कह सकते हैं। वह शरीर में सत्कर्म मन में सत् चिन्तन एवं अन्तरात्मा में सद्भाव बन कर दिव्य प्रेरणाएँ भरता है। अपने को अधिकाधिक परिष्कृत एवं उदार बनाने की आकाँक्षाएँ जगना इसी की प्रचुरता का प्रमाण है। इसमें दुहरा प्रवाह होता है। एक अवाँछनीयताओं से जूझना दूसरे उत्कृष्टताओं को बढ़ाना भगवान के अवतार का प्रयोजन है। जब भी जहाँ भी ईश्वर का अवतरण हुआ है, तब उसने धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश का दुहरा प्रयत्न किया है। अवतारों की कथा−गाथाओं में यही क्रिया−कलाप उभरे दिखाई पड़ते हैं। गीता में यदा−यदा हि धर्मस्य..... वाले प्रसिद्ध श्लोकों में इसी की घोषणा है कि ईश्वर का अवतार इन्हीं दो प्रयोजनों के लिए होता है। न केवल संसार लीला के लिए वरन् व्यक्ति के अन्तःकरण में इन्हीं दो हलचलों को उभरते देखकर यह कहा जा सकता है कि यहाँ ईश्वर के अवतरण की प्रक्रिया चल रही है। संक्षेप में आदर्शवादी जीवन के लिए उठती हुई उत्कृष्ट अभिलाषा एवं प्रबल पुरुषार्थ परायणता को ईश्वर दर्शन के रूप में कहा समझा जा सकता है।

आँखें जड़ तत्वों से बनी हैं, उनकी क्षमता जड़−पदार्थों को देख सकने तक सीमित है। चेतना जड़ नहीं है। परमेश्वर जड़ तत्व न होने के कारण आँखों से नहीं देखा जा सकता। उसके स्वरूप की कल्पना भर की जा सकती है। यथार्थ में उसे किसी स्वरूप−प्रतीक की तरह देखा नहीं जा सकता। चेतना का गुण, देखना नहीं अनुभव करना है। आत्मिक चेतना उसे अनुभव तो कर सकती है, पर मूर्तिमान प्रतीक के रूप में देख नहीं सकती। देखना नेत्रों का गुण है और अनुभव करना चेतना का। जीव, नेत्र नहीं है, चेतना का अंश है। वह ईश्वरीय अनुभूति कर सकता है, उसे आकृतिवान देख नहीं सकता।

फिर भी मस्तिष्क की स्थिति ऐसी है कि उसे किसी तथ्य पर निष्ठापूर्वक केन्द्रित होने के लिए कुछ प्रमाण चाहिए। यह प्रमाण स्थूल रूप से दृश्य और श्रव्य होते हैं और सूक्ष्म रूप से तर्क और प्रमाण। मोटे तौर से किसी बात पर भरोसा तब होता है जब उसे देखा या सुना जाय। शरीर क्षेत्र में इन्द्रिय समूह का एक उद्देश्य रसास्वादन और दूसरा ज्ञान सम्वर्धन है। नेत्रों द्वारा अन्य सभी इन्द्रियों की तुलना में ज्ञान सम्वर्धन होता है इसलिए देखना सबसे आकर्षक और प्रिय विषय है। कहना न होगा कि सौन्दर्यानुभूति ही हमें सबसे अधिक आकर्षित करती है। ईश्वर दर्शन की इच्छा को भी इसी आधार पर मान्यता दी गई है और उसे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रतीकों के रूप में साकार अनुभव करने का प्रयत्न किया जाता रहा है।

ईश्वर की साकार उपासना के लिए प्रतीक पूजा-मूर्तिपूजा एक चिर−प्रचलित आधार है। इससे अपनी आस्तिकता को केन्द्रित एवं विकसित करने का आधार बनता है। पुस्तक के माध्यम से अध्ययन एवं मुगदर आदि व्यायाम उपकरणों के सहारे स्वास्थ सम्वर्धन की सुविधा होती है, इसी प्रकार प्रतीक पूजा से श्रद्धा संवर्धन का प्रयोजन पूरा होता है। यही कारण है कि साकारवादी ही नहीं निराकारवादी भी किसी प्रतीक में दिव्य सत्ता का समन्वय करके अपनी श्रद्धा का पोषण करते हैं। ईसाई धर्म में क्रूस, इस्लाम धर्म में काबा संगे असवद, पारसी और आर्यसमाजियों में अग्नि में दिव्यता का आरोपण किया गया है। अन्य निराकारवादी मत भी ध्यान में प्रकाश ज्योति जैसे प्रतीकों का सहारा लेते हैं। देव मानवों की प्रतीक प्रतिमाएँ समाधियाँ तथा अपने−अपने देश की राष्ट्रध्वजाएँ गहरे सम्मान का केन्द्र इसी आधार पर बनी होती हैं। मूर्तिपूजा के पीछे कोई अवाँछनीयताएं छिपी बैठी हों तो उन्हें निरस्त किया जाना चाहिए। शिर में जुएँ पड़ जाने पर मुँडन कराने या गरदन काटने की उतावली नहीं करनी चाहिए।

प्रतीक पूजा में पूर्ण मानव की कल्पना है। इसे जीवन लक्ष्य का स्वरूप कह सकते हैं। महत्वपूर्ण इमारत बनाने के लिए कागज पर नक्शे बनाना ही पर्याप्त नहीं होता, वरन् उसका छोटा नमूना मॉडल बनाकर तैयार करते हैं। उसे देखकर अनुपात क्रम ठीक करने में सुविधा होती है। भगवान राम, भगवान कृष्ण आदि के−पूर्ण मानव के अवतार के रूप में मान्यता दी गई है। इनके प्रतीकों को ध्यान में रखकर अपनी पूर्णावस्था का स्वरूप ध्यान में रखा जाना चाहिए और उसके लिए क्रमबद्ध योजना बनाई जानी चाहिए। अवतारों और देवताओं के साथ उनके चित्र−विचित्र, नैतिक−अनैतिक जीवन वृत्तान्त भी जोड़ दिये गये हैं। ध्यान विग्रह के लिए स्थापित ईश्वर प्रतीक के पीछे कोई चरित्र नहीं जोड़ा जाना चाहिए वरन् उसे समस्त सद्गुण सम्पन्न पूर्ण मानव का स्वरूप भर माना जाना चाहिए। यहाँ एक बात और भी ध्यान रखने की है कि ईश्वरीय प्रतिमाओं की आकृति में अन्तर तो रखा जा सकता है, पर उन्हें भिन्न−भिन्न नहीं मानना चाहिए। व्यापक ईश्वरीय सत्ता एक है। अलग−अलग देवी−देवताओं की उसके साथ साझेदारी नहीं है। सूक्ष्म−जगत अराजकता का केन्द्र नहीं और न वहाँ सामंतशाहों जैसी इलाकेदारी बंटी हुई है। अमुक का लोक या क्षेत्र यह है अमुक का यह हर देवता अपने−अपने पूजनकर्त्ता की रखवाली करता है। प्रायः ऐसी ही भ्रमग्रस्त मान्यता लोगों के मस्तिष्क में जमी होती है। देववाद की विश्रृंखलता इसी में फैली है। यथार्थता इतनी ही है− एक व्यापक ब्रह्म की विभिन्न दिव्य शक्तियों को देव संज्ञा दी गई है। सूर्य की सात किरणों को सविता देवता के रथ में जुड़े हुए सात घोड़ों के रूप में चित्रित किया जाता है। यह अलंकार है। वस्तुतः न तो सूर्य का कोई रथ है और न उसमें अपने घोड़ों जैसे प्राणी जुते हैं। देवी−देवताओं का पृथक-पृथक व्यक्तित्व मानना और अमुक पूजा−पाठ के आधार पर उन्हें फुसलाकर वशवर्ती कर लेना−उनसे मन चाहे वरदान पाने की अपेक्षा करना−भ्रान्त धारणा है। हमें ईश्वरीय प्रतीक प्रतिमाओं को पूर्ण मानव का लक्ष्य विग्रह एवं श्रद्धा अभिवर्धन को दिव्य उपकरण मानकर ही चलना चाहिए। सम्प्रदाय भेद से बनी अनेक प्रतिमाओं के बीच तात्विक एकता ही अनुभव करनी चाहिए।

साकार उपासना का उच्चस्तरीय दर्शन विराट् स्वरूप के रूप में देखा जा सकता है। यह समस्त विश्व−ब्रह्माण्ड ईश्वर की साकार प्रतिमा है, ऐसा मानकर चलने से लोक−मंगल की, जन सेवा की, विश्व−कल्याण की आकाँक्षा उभर कर आती है। रामायण की एक चौपाई में− ‘‘सियाराम भय सब जग जानी’’ की स्थापना है। ‘ईशावास्थ मिदं सर्व’ जैसी उक्तियाँ प्रत्येक अध्यात्म ग्रन्थ में पन्ने−पन्ने पर अंकित है। कितने ही उपाख्यानों में इस विराट् दर्शन की चर्चा है। अर्जुन ईश्वर दर्शन का आग्रह करता है तो भगवान कृष्ण कहते हैं कि ऐसा दर्शन चमड़े वाली आँखों से नहीं, दिव्य चक्षुओं से ज्ञान नेत्रों से ही सम्भव हो सकता है। उन्होंने विराट् रूप के दर्शन कराये। मिट्टी खाने के कारण ताड़ना देते समय यशोदा को भी कृष्ण के ऐसे ही विराट् रूप के दर्शन हुए थे। राम को पालने में झुलाते समय कौशल्या जी की दर्शन आकाँक्षा इसी प्रकार के दर्शन से तृप्त हुई थी। अन्य देव चरित्रों में भी उनके स्तवनों में विराट् स्वरूप की झाँकी कराई गई है। इस समस्त संसार को ईश्वर का रूप मानना यही प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है कि जड़ चेतन के प्रत्येक घटक के साथ हमें उच्चस्तरीय मान्यता रखनी चाहिए और उसके साथ श्रेष्ठतम सद्व्यवहार करना चाहिए।

देव पूजन की प्राचीन परम्परा शिव और विष्णु के प्रतीक विग्रहों से आरम्भ होती है। इन दोनों की ही प्रतिमाएँ गोल−मटोल पिण्ड के रूप में गढ़ी गई हैं। शिवलिंग और शालिग्राम की पाषाण प्रतिमाएँ अभी भी लगभग गोल गेंद जैसी आकृति की होती हैं। यह विश्व ब्रह्माण्ड का ही नक्शा है। पृथ्वी के गोल होने के कारण उसका विज्ञान ‘भूगोल’ कहलाता है। यह मान्यता लोकसेवा एवं समाज−निष्ठा की प्रेरणा देती है। समूहवाद, सहकारिता, समाजवाद, परमार्थपरायणता−लोकमंगल के लिए बलिदान के लिए भाव भरी उमंगे उत्पन्न करने में यह विराट ब्रह्म की श्रद्धा, भावना अतीव प्रेरणाप्रद सिद्ध होती है।

आत्मा का कषाय−कल्मषों से रहित आन्तरिक उत्कृष्टता से भरा पूरा स्वरूप ‘परमात्मा’ कहा जा सकता है खदान में से निकला कच्चा लोहा, मिट्टी मिला होता है। उसे भट्टी में तपाकर शुद्ध किया जाता है। यह शुद्ध लोहा ही फौलाद कहलाता है। मिट्टी मिले कच्चे लोहे और शुद्ध फौलाद में जो अन्तर है, वही आत्मा और परमात्मा के बीच समझा जा सकता है। जमीन से कच्चा पेट्रोलियम गाढ़ा और अनगढ़ निकलता है। पीछे उसे शुद्ध करके बढ़िया पैट्रोल, मिट्टी का तेल आदि बनाया जाता है। अनगढ़ पैट्रोलियम को जीव और शुद्ध पैट्रोल को ईश्वर कह सकते हैं। जीव ईश्वर बन सकता है और ईश्वर जीव के रूप में अवतार लेता है, इन दोनों कथनों में पूर्ण एकता है और इस तथ्य का प्रतिपादन है कि मल−आवरण, विक्षेप रहित, सद्भाव सम्पन्न, सत्कर्म परायण व्यक्ति में वे सभी विशेषताएँ हो सकती हैं जो ईश्वर में पाई जाती हैं। कोयले और हीरे की तात्विक संरचना में नाम मात्र का अन्तर है। दोनों का रासायनिक पदार्थ एक है, मात्र परमाणुओं के भीतरी संगठन में नगण्य-सा हेर-फेर होता है। जीव जब अपनी संकीर्ण स्वार्थपरता और अहंता के सीमा बन्धन तोड़कर अपने को विश्व सम्पदा मानता है तो भगवान बनने की राह पर चल पड़ता है। उसमें जितनी ही उत्कृष्टता बढ़ती है उतनी ही गहरी देव भूमिका में प्रवेश मिलता चला जाता है।

दूसरों की स्थिति में अपने को रखकर सोचा जा सके तो सहज ही पर-पीड़ा में हाथ बँटाने और अपनी उपलब्धियों से दूसरों को लाभान्वित करने को जी मचलता है। विराट् ब्रह्म का उपासक अपने को विश्व नागरिक मानता है और ईश्वरीय सृष्टि को अधिकाधिक सुविकसित बनाने में जीवन−लक्ष्य की पूर्ति अनुभव करता है। आस्तिकता की ‘विराट् दर्शन’ मान्यता भक्ति−दर्शन का सर्वश्रेष्ठ प्रतिपादन है। इसे अपनाने वाला लोक−मंगल की परायणता को प्रत्यक्ष उपासना मानता है और सत्कर्म में संलग्न रहकर ‘कर्त्तव्य−पालन में ईश्वर पूजा’ की उक्ति को सार्थक बनाता है।

सर्वव्यापी, न्यायकारी, निष्पक्ष ईश्वर की प्रसन्नता सत्कर्मों पर आधारित है। कर्म के आधार पर ही वह भक्त और अभक्त की परख करता है। उसकी कसौटी पर देव मर्यादाओं का पालन करने वाला आस्तिक और उनका उल्लंघन करके दुष्प्रवृत्तियों में निरत व्यक्ति नास्तिक। भक्ति यदि असली है तो उसका प्रभाव मनुष्य के चिन्तन और कर्म पर छाया रहना चाहिए। उसे अनुभव करना चाहिए कि उसकी दृष्टि से कोई वस्तु छिपी नहीं। प्रत्यक्ष कर्म और अप्रत्यक्ष चिन्तन किसका किस स्तर का है? उसे वह भली-भाँति जानता है। इसी कसौटी पर वह किसी को खरा−खोटा−भक्त−अभक्त मानता है। इसी आधार पर उसका अनुग्रह एवं दोष मिलता है। आस्तिकता की यह मान्यता मनुष्य की सज्जनता और शालीनता बढ़ाती है। सामाजिक विरोध और राजकीय दंड से बचकर अनीति के मार्ग पर चलते रहने की चतुरता मनुष्य में मौजूद है। उसे दुष्कर्मों में लाभ दीखता है और पर्दे की आड़ में कुकर्म करता रहता है। यदि सच्ची आस्तिकता को अन्तरात्मा में स्थान मिल सके तो यह आत्मानुशासन की−आत्म−नियन्त्रण की रस्सी से बँधा रहकर मर्यादाएँ पाल सकता है।

आस्तिकता व्यक्ति और समाज की सुव्यवस्था एवं प्रगति की दृष्टि से नितान्त उपयोगी मान्यता है। उपासनारत होकर व्यक्ति अपना स्तर ऊँचा उठाता है और सर्वतोमुखी प्रगति का पथ−प्रशस्त करता है। आस्तिकता को परिपक्व करने में उपासना का असाधारण योगदान रहता है। इसी से तत्वदर्शियों ने उपासना को अत्यन्त आवश्यक नित्यकर्म माना है और उसे अपनाने पर होने वाले अनेकानेक लाभों का वर्णन किया है। वस्तुतः यह अवलम्बन ऐसा ही है− इसे अपनाकर हर व्यक्ति उज्ज्वल भविष्य की दिशा में अनवरत रूप से बढ़ते हुए पूर्णता का जीवन लक्ष्य पूरा कर सकता है।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118