महत्वकाँक्षाओं की मोड़−जीवन का काया कल्प

February 1976

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प्रगति की आकाँक्षा स्वाभाविक है। प्राणी अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ने में संलग्न है। इस क्रमिक विकास की मंजिल पर चलते हुए उससे प्राणिविद्या विशारदों के अनुसार अमीबा से उत्पन्न करते−करते सरीसृपों, कीट पतंगों, पशुओं की कक्षाएँ पार करते−करते मनुष्य स्तर प्राप्त किया है। अध्यात्मवेत्ताओं के अनुसार भी चौरासी लाख योनियों को पार करते-करते उसे मनुष्य शरीर मिला है। यह दोनों ही तथ्य यह सिद्ध करते हैं कि प्राणी प्रगति के पथ पर अनवरत गति से चल रहा है। उन्नति के साधन जुटाने का प्रधान कारण उसकी महत्वाकाँक्षा होती है। उसी की प्रेरणा से बुद्धि सोचती है−काया काम करती है और अनुभव के आधार पर संग्रहीत कुशलता विविध−विधि साधन जुटाती है। इस सब के समन्वय से सहयोग आकर्षित होता है और अनुकूल परिस्थितियाँ बनती हैं। छोटे बड़े अवरोधों से जूझते−सीखते प्रगति के पथ पर चल रही यात्रा क्रमशः सफलता के निकट पहुँचती जाती है।

महत्वाकाँक्षा से रहित दो ही हो सकते हैं− मूढ़ मति अथवा स्थिति प्रज्ञ परम हंस। मूढ़ जड़ता के कारण और ब्रह्मवेत्ता, तत्वज्ञान प्राप्त होने के कारण साँसारिक महत्वाकाँक्षाओं से किसी कदर बचे रहते हैं और चैन सन्तोष के दिन स्वल्प साधनों से ही गुजार लेते हैं। किन्तु उनकी भी कुछ आत्मिक महत्वाकाँक्षाएँ तो बनी ही रहती हैं। सुख सम्मान से लेकर अपनी कल्पना के उज्ज्वल भविष्य की बात हर कोई सोचता है। भले ही योग्यता और क्रिया शीलता के अभाव में वैसी स्थिति प्राप्त न की जा सके।

छोटे स्तर के प्राणी शरीर सुख तक अपनी महत्वाकाँक्षाएँ सीमित रखते हैं। इन्द्रिय चेतना तक में सीमित जीव पेट और प्रजनन का−इन्द्रिय लिप्सा अथवा शारीरिक सुख−सुविधा भर की बात सोचता है उसी का ताना−बाना बुनता है। वह वैसे साधन मिलने पर सुखी और न मिलने पर दुःखी होता है। इससे ऊँचा स्तर, मनःचेतना की प्रधानता का है, इसमें अहंता प्रबल होती है। दूसरों की तुलना में अपने को बड़ा सिद्ध करने के लिए अनेकानेक योजनाएँ बनती हैं। यश पाने के लिए−अपनी वरिष्ठता सिद्ध करने के लिए लोग कितने ही प्रकार की प्रतिस्पर्धाओं में उतरते हैं, कितने ही प्रकार के प्रदर्शन करते हैं। अमीरों के ठाठ−वाट बनाते और अपनी ओर लोगों का ध्यान आकर्षित हो ऐसी हरकतें करते हैं। ऊंचा पद पाने ऊँचे आसन पर बैठने की ललक पूरा करने में लोगों को भारी श्रम, मनोयोग एवं धन खर्च करना पड़ता है। उन सब की तब सार्थकता समझ ली जाती है जब लोगों की दृष्टि में अपने विशेष व्यक्ति समझे जाने की स्थिति बन जाती है। संसार की आधी हलचलें शरीर सुख के लिए और आधी बड़प्पन पाने की अभिलाषा से प्रेरित होती हैं प्रतिभा, योग्यता, अमीरी, पदवी आदि के सहारे ही लोग अपना बड़प्पन सिद्ध नहीं करते, वरन् गुण्डागर्दी जैसी आततायी आक्रमणकारी गतिविधियाँ अपनाने में भी यही वृत्ति विकृत बन कर काम करती है। डाकू भी बहुधा हीरो बनने की ललक से ग्रसित पाये जाते हैं। धन कमाने से बढ़ कर उनके मन में लोगों के लिए चर्चा का विषय बनने की इच्छा अधिक प्रबल रहती है। भूतोन्माद ग्रस्त लोगों में आधा कारण मानसिक विकृति का और आधा अद्भुतता की चर्चा का विषय बनने का पाया जाता है यथार्थ भूत तो कभी−कभी कहीं ही पाया जाता है शृंगारिकता और फैशन ठाठ−वाट, धर्माडम्बर, प्रीतिभोज, स्मारक निर्माण आदि के पीछे यह यश लोलुपता ही बहुत करके प्रबल पाई जाती है। तथाकथित तपस्वियों में से वास्तविक कम और चर्चा का विषय बनने के आकाँक्षी अधिक होते हैं। विविध प्रकार की प्रतियोगिताओं और प्रतिस्पर्धाओं के आयोजनों में प्रायः यही अभिलाषा काम कर रही होती है।

मनुष्य की स्थूल चेतना में प्रथम शरीर और द्वितीय मन आता है। पहले को स्थूल शरीर और दूसरे को सूक्ष्म शरीर कहते हैं। यह दोनों प्रधानतया भौतिक हैं इसलिए इनकी अभिलाषाएँ भी ऐसी हैं जो भौतिक पदार्थों की सहायता से तृप्त हो सकें। इन्द्रिय सुख प्रिय पदार्थों से ही मिलते हैं। काम वासना का सुख भी साथी की शारीरिक स्थिति की अपेक्षा करता है। शरीर भौतिक है। अन्य सभी इन्द्रियों के भोग तथा सुख साधन अनुकूल वस्तुओं अथवा परिस्थितियों पर निर्भर हैं। इस प्रकार के लाभों को वासना के नाम से पुकारा जाता है। मानसिक बड़प्पन की इच्छा तृष्णा कहलाती है। अहंकार की पूर्ति करने वाली सभी उपलब्धियाँ तृष्णा शब्द के अन्तर्गत आ जाती हैं। वासना से तात्पर्य काम वासना से नहीं वरन् उन सभी बातों से है जो शरीर के इन्द्रिय समूह की, विनोद मनोरंजन एवं आराम विश्राम के सुविधा साधनों के साथ जुड़ी रहती हैं। एक दूसरी परिभाषा के अनुसार इन्हीं को पुत्रेषणा, वित्तेषणा, लोकेषणा के नाम से कहा गया है। दूसरे शब्दों में इन्हें काम, लोभ एवं अहंकार को पूरा करने के लिए उत्पन्न व्यग्रता कह सकते हैं।

मानवी चेतना के यह दो परत भौतिक हैं। तीसरा उच्चस्तरीय है उसमें अध्यात्म की पृष्ठभूमि प्रधान है। कारण शरीर−भाव शरीर है। उस केन्द्र में उठने वाली आकाँक्षाएँ सद्भावपरक होती हैं। उन्हें उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता कह सकते हैं। व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय सद्गुण सम्पन्न बनाना और परमार्थ प्रयोजन के लिए उदारता भरी सेवा साधना में संलग्न रहना ही इस आकाँक्षा पूर्ति के दो मार्ग हैं। ईश्वर प्राप्ति−स्वर्ग, मुक्ति सिद्धि आदि को लक्ष्य मानकर जो साधना मार्ग अपनाना पड़ता है उनमें यही दो तथ्य प्रधान होते हैं। गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता अपनाकर जिया जाने वाला आदर्श जीवन आध्यात्मिक साधना का प्रथम चरण है और लोक मंगल के बढ़−चढ़ कर अनुदान प्रस्तुत करना दूसरा। इस प्रक्रिया को गतिशील एवं सुविधाजनक बनाने के लिए ही पूजा पाठ के अनेकानेक कर्मकाण्डों एवं विधि−विधानों का सृजन हुआ है।

दुर्भाग्य से आज सर्वत्र यही भ्रान्ति जड़ जमा कर बैठ गई है कि देवी देवताओं को पूजा−पाठ के द्वारा वशीभूत करके उन्हें मनोवाँछा पूरी करने के लिए बाधित किया जा सकता है। तीन चौथाई साधना उपचार इसी भ्रान्ति के इर्द−गिर्द चक्कर काटते हैं। किस तरकीब से किस देवता को कितनी जल्दी वश में किया जा सकता है लोग इसी के चित्र−विचित्र ताने−बाने बुनते रहते हैं। पर उससे बनता कुछ नहीं। देवता सद्गुणों को कहते हैं। वे अपने व्यक्तित्व में सोये हुए पड़े होते हैं। उन्हें जगाने की ‘स्वसंकेत’ पद्धति का नाम देव उपासना है।

अन्तःकरण की पवित्रता चरित्र निष्ठा के आधार पर और प्रखरता सेवा संलग्नता के आधार पर जो जितनी मात्रा में सम्पादित कर सकता है, वह उतना ही बड़ा ईश्वर भक्त होता है और उसमें उच्चस्तरीय विभूतियाँ उसी अनुपात से उभरती हैं। स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि अथवा ईश्वर प्राप्ति जैसी आध्यात्मिक सफलता प्रदान करने में आन्तरिक स्तर की उत्कृष्टता का विकास अनिवार्य रूप से आवश्यक है इसी स्तर की प्रवृत्तियों का जीवन क्रम में समावेश हो सके, साधना विधान की समस्त संरचना इसी एक प्रयोजन के लिए की गई है। जो इस तथ्य को समझेगा वही सही गतिविधियाँ अपनायेगा और अभीष्ट सफलता सुनिश्चित रूप से प्राप्त करके रहेगा।

जीवन का स्वरूप सद्भाव सम्पन्न बन सके और आत्मिक प्रगति का द्वार वस्तुतः खुल सके इस के लिए यह आवश्यक है कि आकाँक्षाओं का स्तर ऊँचा उठाया जाय। निम्न स्तर के भौतिकता प्रधान व्यक्ति मात्र वासना और तृष्णा की कामनाओं से ओत−प्रोत रहते हैं। इससे आगे की कोई बात उनसे सोचते ही नहीं बन पड़ती। तथा तथा−कथित पूजा−पाठ भी वे इन्हीं दो प्रयोजनों की पूर्ति में सहायक मान कर ही अपनाते हैं। बात इस प्रकार बनेगी नहीं। इसी जीवन में देवत्व का अथवा ईश्वरीय स्तर का अवतरण करने के लिए उपयुक्त गतिविधियाँ अपना सकना सम्भव हो सके इसके लिए एकमात्र उपाय यह है कि आकाँक्षाओं का स्तर ऊँचा उठाया है। हमारी अन्तरात्मा जो चाहती होगी उसी के आधार पर मस्तिष्क की विचारणा और शरीर की क्रियाशीलता काम करेगी। अस्तु आवश्यक यह है कि चेतना पर शरीरगत वासना और मनोगत तृष्णा का भार हटाया जाय और उनकी पूर्ति के लिए निरन्तर जलती रहने वाली ललक के असीम विस्तार को समेट कर सीमित बनाया जाय। निर्वाह के लिए आवश्यक साधन जुटाने भर की बात सोची जाय। आवश्यक की व्याख्या है अपने देश के औसत आदमी का स्तर।

यदि मध्यमवृत्ति के गुजारे भर का उपार्जन पर्याप्त माना जाय तो धन लिप्सा के लिए लगने वाला श्रम पर्याप्त मात्रा में बच सकता है। इन्द्रिय लिप्सा सीमित हो तो असंयम में नष्ट होने वाली जीवनी शक्ति की बचत हो सकती है। अमीर या बड़े आदमी बनने की ख्याति लालसा काबू में रहे तो सामर्थ्य के अति महत्वपूर्ण भाग को मिथ्या विडंबनाओं में बर्बाद होते रहने से बचाया जा सकता है। इस बचत के बाद स्पष्टतः ढेरों क्रियाशक्ति और विचारशक्ति अपने सामने खड़ी मिलेगी। इसे आत्म−निर्माण एवं समाज−निर्माण के अति महत्वपूर्ण कार्य में लगा दिया जाय तो यह परिवर्तित जीवन द्रुतगति से आत्मिक प्रगति की ओर बढ़ने लगेगा। जीवन के ऊपर हुए स्तर ही महात्मा, देवता और परमात्मा कहलाते हैं। अलौकिकता की दृष्टि से यह तीनों स्तर एक से एक ऊँचे माने गये हैं। चिन्तन एवं कर्तृत्व का परिवर्तन निश्चित रूप से मनुष्य को आन्तरिक दृष्टि से ऊँचा उठाता और दिव्य विभूतियों से सुसज्जित बनाता है। आत्मिक प्रगति का यही यथार्थ मार्ग है। सन्तोषी सर्वदा सुखी की उक्ति में यही तथ्य स्पष्ट होता है कि निरर्थक और अनर्थमूलक वासना और तृष्णा के जंजाल से मनःस्थिति को मुक्त कर लेने वाले व्यक्ति अपने को असाधारण रूप से हलका और सन्तुष्ट अनुभव करता है। उसी स्थिति में किसी के पास समय, श्रम, मनोयोग एवं धन की इतनी मात्रा खाली बच सकती है जिसके सहारे वह स्वयं पर- कल्याण की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण प्रगति कर सके।

आमतौर से मनुष्य के मन पर धन संग्रह की आकाँक्षा छाई रहती है, इसका एक कारण तो बड़ा आदमी कहलाने और विलासिता का मजा लूटने की बात मन में रहती है, दूसरे कुटुम्ब पोषण की आवश्यकता को भली प्रकार पूरा करना। अभीष्ट मात्रा में धन उपार्जन कर सकना तो किसी−किसी के लिए ही सम्भव होता है, पर ललक सभी को उसी की लगी रहती है। सफलता भले ही न मिले, पर प्रयत्न दिन−रात इसी के लिए सिर फोड़ कर किये जाते हैं। यह दृष्टि साफ हो कि औसत भारतीय के स्तर का निर्वाह पर्याप्त है तो इस शरीर और मन पर लदा हुआ आधे से अधिक भार हलका हो सकता है।

यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि कुटुम्ब पालन के लिए पिछली पीढ़ी और समान पीढ़ी का ऋण भार चुकाया जा सके तो वह भी किसी को आत्म−सन्तोष एवं कर्त्तव्य पालन का आनन्द देने के लिए पर्याप्त है। नई पीढ़ी जो अभी अवतरित नहीं हुई है उसे बुलाने में भूल करने से तो पूर्व पीढ़ी और समान पीढ़ी की सहायता कर सकना भी कठिन हो जायगा। पिता, माता, दादी, ताऊ, ताई, चाचा, चाची आदि को अपने छोटे से आर्थिक तथा शारीरिक सहायता की अपेक्षा रहती है। उनकी सहायता करना हर दृष्टि से उचित है। इसी प्रकार भाई, बहिन, भतीजे, भानजे आदि के भी घर के कमाऊ लोगों से सहायता की आशा रहती है। घर परिवार में कई असहाय असमर्थ भी ऐसे होते हैं जिन्हें वस्तुतः सहायता की आवश्यकता होती है। इनके लिए कुछ करना उसी के लिए सम्भव है जिसकी अपनी सन्तानें न हों अथवा एकाध ही हो। उदार दूरदर्शियों को आरम्भ से ही यह ध्यान रखना चाहिए कि सहायता के लिए हाथ पसारे सामने खड़े लोगों के लिए ही जब अपना उपार्जन अपर्याप्त रहेगा तो फिर नई पीढ़ी को अकारण बुलाने के जंजाल में फंसने की क्या आवश्यकता है?

वर्तमान परिस्थितियों में किसी सहृदय और दूरदर्शी व्यक्ति को सन्तानोत्पादन में उत्साह नहीं दिखाना चाहिए। यह अकारण अपने ऊपर आर्थिक तथा नैतिक जिम्मेदारियों का असाधारण भार लादना है। पत्नी के स्वास्थ्य का सत्यानाश करना है। परिवार के अन्य जरूरतमन्दों की सहायता मिलने का द्वार बन्द करना है। देश के ऊपर बढ़ती जनसंख्या का बोझ इतना लद रहा है कि सन्तुलन कायम रख सकना असम्भव हुआ जा रहा है। ऐसी दशा में वे लोग देशभक्त हैं जो सन्तानोत्पादन से हाथ खींचे रहते हैं। कोई जमाना रहा होगा जब सन्तान होना खुशी मनाने का कारण था। वंश और पिण्डदान मिलने की बात सोची जाती थी, आज इस तरह कोई, समझदार नहीं सोचेगा। आज तो जिसके ऊपर जितना सन्तान भार है उसे उतना ही अविवेकी और उतना ही अभागा कहा जा सकता है। बहुमूल्य मानव जीवन की उपलब्धियाँ आदर्शवादी कार्यों में नियोजित करके न जाने कितने महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित किये जा सकते थे किन्तु वह सारी क्षमता बच्चे उत्पन्न करने, उनके भरण−पोषण, शिक्षा−दीक्षा, विवाह शादी एवं उपार्जन में लगाई जाय तो मनुष्य और कुछ काम कर सकना तो दूर- निर्वाह की चिन्ता से भी छुटकारा नहीं पर सकता।

प्राचीन काल में आध्यात्मिक प्रगति के इच्छुक साधु, ब्राह्मण, अविवाहित रहते थे। इसका कारण यह था कि वे नया परिवार बसाने के जंजाल में जितनी शक्ति नष्ट होती है उस बचा कर उच्च आदर्शों के लिए नियोजित कर सकें। आज भी हमारे चिन्तन में उन तथ्यों का स्थान रहना चाहिए। सन्तान बढ़ाना भार लादना माना जाता चाहिए, जिनके बिना किसी का कोई हर्ज नहीं होता वरन् अन्य महत्वपूर्ण कार्य करने में उसी अनुपात में बाधा उत्पन्न होती है।

जितनी सन्तानें हैं उन्हें सुयोग्य सुसंस्कारी बनाने भर की योजना मस्तिष्क में रहनी चाहिए। औलाद को सात पीढ़ी बैठे− बैठे खाने के लिए सम्पत्ति संचय करते रहना हर दृष्टि से अनुचित है। हर व्यक्ति को अपने पुरुषार्थ से उपार्जित आजीविका पर निर्वाह करना चाहिए। उत्तराधिकार में मिली दौलत को प्राचीन भारत में समर्थ बच्चे श्रद्धापूर्वक परमार्थ प्रयोजनों में दान कर देते थे− श्राद्ध इसी का नाम था। मात्र असहाय और असमर्थ ही पूर्वजों की छोड़ी सम्मति से गुजारा करते थे। सरकार मृत्यु कर सम्पत्ति कर आदि लगा कर इसी प्रकार की परिस्थितियां उत्पन्न कर रही है। विचारशील व्यक्ति को अपने उपार्जन का लाभ मात्र समर्थ सन्तान के लिए ही छोड़ कर नहीं जाना चाहिए वरन् उसे पीड़ा और पतन के निराकरण में भी प्रयुक्त होने देना चाहिए।

आत्म-साधना में आकाँक्षाओं का स्तर अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसी को परखते हुए किसी की आन्तरिक स्थिति का पता लगाया जा सकता है। जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने की जिन्हें वस्तुतः आकाँक्षा हो उन्हें उसका मूल्य चुकाने के लिए तैयार होना चाहिए।

पूजा−पाठ की छुट−पुट टन्ट−घन्ट को पर्याप्त न मानकर उन्हें अपने पूरे जीवन का स्वरूप ही बदलना चाहिए। इस परिवर्तन का आधार आकाँक्षाओं को उच्चस्तरीय बनाना है। पर सम्भव उसी के लिए हो सकेगा जो वासना, तृष्णा जैसी क्षुद्रताओं से ऊँचा उठकर आदर्शवादी क्रिया−कलाप अपनाने का साहस जुटाये और उसके लिए सन्तोष सादगी अपना कर वह बचत करे, जिसका उपयोग करने पर सच्चे अर्थों में आत्मिक प्रगति सम्भव हो सकती है। ऐसा जीवन साधनरत व्यक्ति ही उन लाभों को प्राप्त करता है। जिनका वर्णन साधना के दिव्य चमत्कारों के रूप में शास्त्रकारों ने विस्तारपूर्वक किया है।


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