राग−द्वेष रहित, सुसंतुलित स्नेह−सद्भाव

February 1976

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हमें दैनिक जीवन में अनेकों वस्तुओं और व्यक्तियों से काम पड़ता है और उनसे सम्बन्ध रखना होता है। सम्बन्ध होने पर कारणवश किसी के साथ घनिष्ठता जुड़ जाती है और किसी के प्रति उपेक्षा या अवज्ञा की दृष्टि बन जाती है। पदार्थों की ओर से कोई प्रतिक्रिया प्रदर्शित नहीं होती, वे उपयोग में लाने से न तो प्रसन्न होते हैं और न उपेक्षा करने की उन्हें शिकायत होती है इसलिए जड़−पदार्थों के प्रति जो महत्व जुड़ता है वह मात्र अपनी ही ओर से होने के कारण उतना अधिक प्रभावित नहीं करता−जितना चेतन प्राणियों, मनुष्यों, विशेषता मित्र तथा कुटुम्बियों का सम्बन्ध। इन सम्बन्धों से इच्छित प्रतिक्रिया उत्पन्न होने पर राग और अनिच्छित प्रतिक्रिया होने से द्वेष उत्पन्न होने लगता है। यह दोनों ही परिस्थितियां अन्ततः हानिकारक सिद्ध होती हैं।

व्यक्ति विशेष के प्रति बढ़ा हुआ राग−अनुराग−पक्षपात भरी स्थिति उत्पन्न करता है। उसके साथ लाड़−प्यार चलता है और इच्छा होती है कि उसे अधिक प्रसन्न अथवा सुखी बनाया जाय। इस प्रेरणा से दूसरों की तुलना में उसे अधिक सुविधा साधन−पदार्थ एवं दुलार देने का क्रम चल पड़ता है। यह सब औचित्य की सीमा में रहा होता−अन्यों की तुलना में लगभग समान रहा होता तो दर−गुजर होती रहती, पर एक के प्रति बढ़ा हुआ पक्षपात चुप नहीं बैठता, अनेकों प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न करता है। जिसे पक्षपातपूर्ण अनुदान दिये जा रहे हैं वह उन्हें देने वाले की विशेष अनुकम्पा नहीं अपना अधिकार मान लेता है। सोचता है प्रिय पात्र या पुत्र आदि निकट सम्बन्धी होने के कारण यह सब तो उसे मिलना ही चाहिए। माँगें बढ़ती जाती हैं− दबाव के आगे झुकने का क्रम चलता रहता है और बात यहाँ तक जा पहुँचती है कि अनुचित माँगें न मानने पर विद्रोह या आक्रमण के वार होने लगते हैं। यह स्थिति अनेक घरों में बाप−बेटे के बीच देखी जा सकती है। समर्थ बेटे भी बापों से एक के बाद दूसरी बढ़ी−चढ़ी मांगें करते हैं और उनकी इच्छानुकूल न बरता जाय तो शत्रुता का व्यवहार करने पर उतारू होते हैं। यह उस राग के विष वृक्ष के कडुए फल हैं जो उसके बचपन में आसक्ति, अंधता के नाम पर लगाया गया था।

ऐसे अनावश्यक लाड़−चाव से लदे रहने वाले बच्चे धीरे−धीरे अधिक अहंकारी, अधिक आलसी, अधिक अपव्ययी और अधिक पराश्रित बनते चले जाते हैं। जो दूसरों को नहीं मिल रहा है वह उन्हें मिला, इसका सीधा अर्थ वे यही निकालते हैं कि यह उनकी विशेषता अथवा भाग्यशाली होने का प्रतिफल है। अपने सुधार या सद्गुण सम्पादन की ओर प्रयत्न करने की उन्हें आवश्यकता अनुभव नहीं होती। सुधार कठिनाइयों को दूर करने के लिए किया जाता है और योग्यताएँ बढ़ाने का प्रयत्न इसलिए किया जाता है कि इसके सहारे अधिक प्रगति की जा सके। पर लाड़−प्यार के वातावरण में जब सुविधाओं की वर्षा ही हर घड़ी होती रहती है तो फिर यह सूझेगा ही कैसे कि भविष्य में अपने पैरों खड़ा होना पड़ेगा और उसके लिए सुविकसित व्यक्तित्व की आवश्यकता पड़ेगी। जब वैसी आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती तो फिर चेष्टा भी वैसी क्यों की जायगी?

यहाँ पुत्र का उदाहरण दिया गया है। ऐसा ही पक्षपात पूर्ण व्यवहार परिवारों में अन्यत्र भी देखा जाता है और वह निश्चित रूप से रोष पूर्ण प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है। भले ही अपनी दुर्बलता अथवा परिस्थितियों की कठोरता को देखकर चुप बैठे रहा जाय, पर मन पर पड़ने वाली छाप तो अपनी हलचल उत्पन्न करेगी ही। संयुक्त कुटुम्बों के बिखरने से प्रायः यह पक्षपात ही प्रधान रूप से दिलों में दरारें डालता है और अलग होकर रहने के निष्कर्ष पर पहुँचाता है। अक्सर कमाऊ लोग अपने लिए अपने स्त्री, बच्चों के लिए दूसरों की तुलना में अधिक सुविधा साधन देते हैं। यदि ऐसा किसी विशेष उपयोगिता तर्क या कारण से विवेकपूर्वक किया गया होता तो उसका औचित्य समझा जा सकता था, पर जब राग वश पक्षपात चलेगा तो लाभ लेने वाले को प्रसन्नता भले ही हो अन्य सब में द्वेष पैदा होगा। इस द्वेष की हानि उस लाभ से अधिक होगी जो अपने प्रिय पात्र को सुविधा देने पर मिलना थी।

राग−अपने को पक्षपाती और अविवेकी बनाता है जिस पर उसकी वर्षा होती है उसके विकास क्रम में विकृतियाँ भरता है और अन्य सम्बन्धियों के मन में द्वेष की आग जलाता है। बुरे उदाहरण परम्परा बनते हैं और वैसा ही करने के लिए अन्यों को उभारते हैं। अच्छाइयों को कठिनाई से ही सीखा जाता है, पर पड़ौसी की बुराई को उदाहरण मानकर वैसा ही करने की इच्छा बहुतों को होती है। ऐसा अमुक कर रहा है, हम क्यों न करें−ऐसा लाभ अमुक ने लिया हम क्यों न लें? ऐसे ही तर्क सामने रहते हैं। उन लोगों ने अमुक प्रकार की हानियाँ उठाईं इस तथ्य पर गहराई से विचार करने की किसी को इच्छा नहीं होती।

जिसके साथ जितना राग होगा उससे उतनी ही अधिक अपेक्षाएँ रहना स्वाभाविक है। वे जब पूरी नहीं होतीं तो निराशा भी उसी अनुपात से होती है। मोहग्रस्त व्यक्ति ही विछोह की स्थिति में अधिक शोकाकुल पाये जाते हैं। हर किसी को जीवन में अपने कई सम्पर्क क्षेत्रों में कइयों का जन्म और कइयों का मरण देखना पड़ता है। यह सृष्टि का स्वाभाविक क्रम है। अपने के सुख में भी दुःख होता हो तो, पर सृष्टि क्रम रुकता कहाँ है? रागग्रस्त जन्म के समय, हर्षोन्मत्त होकर धूमधाम मचाते और मरण के समय सोना, खाना छोड़कर सिर धुनते हुए बेमौत मरते देखे गये हैं। यह उनके प्रेम की घनिष्ठता नहीं−बढ़े हुए राग से उत्पन्न अविवेक की अथवा अनावश्यक भावुकता की कष्टकारक दुर्भाग्यपूर्ण प्रतिक्रिया मात्र है। ऐसे लोगों को बेचारे भर कहा जा सकता है। उनकी असन्तुलित मनःस्थिति को सराहा नहीं जा सकता।

ज्वार और भाटे की तरह भावनात्मक अतिवाद का एक सिरा राग और दूसरा द्वेष है। जिनके प्रति उपेक्षा या परायेपन का भाव मन में जम जाता है उनकी छोटी सी भूलें भी पहाड़ जितनी दिखाई पड़ती हैं। द्वेष उभरता है और क्रोध बनकर उस गलती करने वाले पर इतना बरसता है कि बेचारे की सारी अच्छाइयां मटियामेट कर दी जाती हैं और इतना अपमानित किया जाता है कि आगे के लिए कुछ करने की हिम्मत ही टूट जाती है।

राग की तरह द्वेष भी एक रंगा चश्मा है जिसे पहन लेने पर किसी रंग का पदार्थ अपने चश्मे के रंग में ही रंगा दीखता है। जो प्यारा उसके सौ खून माफ। जो कुप्यारा उसकी मामूली−सी भूलें भी जघन्य अपराध। इस प्रवृत्ति के बढ़ते रहने से अपने भीतर असन्तुलन और अविवेक बढ़ता है। छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति बढ़ चले तो कुछ को छोड़कर शेष हर व्यक्ति, हर पदार्थ और हर अवसर दोषयुक्त दिखाई पड़ेगा और उस पर अपना विद्वेष उभर−उभर कर बरसता रहेगा। खाई चौड़ी होगी और अवाँछनीय दोषारोपण एक दिन शत्रुता के रूप में सामने खड़ा होगा। सर्वविदित है कि मैत्री की और शत्रुता की कितनी भिन्न प्रतिक्रियाएँ होती हैं।

अपनी विवेकशीलता, दूरदर्शिता और नीतिनिष्ठा सही स्तर की बनी रहे इसके लिए निष्पक्ष न्यायाधीश जैसी सुसन्तुलित मनःस्थिति का बने रहना आवश्यक है। प्रिय पात्रों को अधिक अनुदान देना हो तो वह अधिक मात्रा में सद्गुण देने के रूप में ही किया जाना चाहिए। घनिष्ठता का यही सच्चा लाभ और मैत्री का यही सर्वोत्तम सत्परिणाम होना चाहिए। इसके लिए भीतर के प्यार को बाहर की रुखाई और कड़ाई के स्तर का बनाना पड़े तो उसे कुशलनीति सत्ता मानकर अपनाना ही चाहिए। तात्कालिक प्रसन्नता−अप्रसन्नता की बात को महत्वहीन मानकर दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। व्यायामशाला के उस्ताद अपने शागिर्दों को कड़ी कसरतें कराते हैं जिनमें अपना जितना अधिक प्रेम हो उनके साथ उतना ही अधिक यह प्रयत्न होना चाहिए कि उनके व्यक्तित्व में उतने ही अधिक सद्गुणों का समावेश हो। सरकस में जानवरों को सधाने वाले शिक्षक अन्ततः स्वयं भी प्रशंसित होते हैं और अपने सधाये पशु को भी अधिक उपयोगी बनाते हैं। चिकित्सकों की कड़ाई तथा कष्टकर चिकित्सा पद्धति रोगी के लिए हितकारक ही होती है। यह लोग सस्ती प्रिय पात्रता बरतें तो जिसका हित चाहते हैं उसका प्रकारान्तर से अहित ही करेंगे।

जिनमें दोष अधिक हैं वे वस्तुतः अविकसित बालक अथवा मानसिक दृष्टि से रुग्ण हैं। उनके साथ बालकों और रोगियों की तरह अधिक सहानुभूति, अधिक धैर्य और अधिक माथापच्ची की आवश्यकता होती है। अपना अहित कौन चाहता है? स्वयं बीमार कौन रहना चाहता है, पर जिन्हें अपने हित−अनहित और रोग के स्वरूप एवं समाधान का ज्ञान ही नहीं वे आखिर करें भी तो क्या? जीभ से कान को उपदेश सुना देना आसान है, पर मुद्दतों से अपनाये गये अभ्यास को उलट देने वाली प्रेरणा को अन्तःकरण की गहराई तक उतार लेना और तदनुरूप परिवर्तन प्रस्तुत करने लगना काफी कठिन है। यदि उपदेश मात्र से अभीष्ट परिवर्तन हो जाय तो यह दुनिया कब की स्वर्गलोक जैसी सुखद और सुन्दर बन गई होती। मनुष्य के भीतर धंसे हुए पशु को हटाकर उसके स्थान पर मानवी सद्गुणों की, देवत्व की स्थापना कर सकना काफी कठिन कार्य है। इसके लिए कितने धैर्य और कितने उतार−चढ़ाव अपनाने पड़ते हैं, यह किसी सरकस के पशु शिक्षक से पूछना चाहिए। उतना धैर्य, उतना सन्तुलन, उतना अथक प्रयत्न अपनाकर ही इन अधिक भूलें करने वालों को सुधारा जाना सम्भव है। विद्वेष भरी भर्त्सना और प्रताड़ना से तो केवल अनर्थ ही उत्पन्न होता है। जिसे सुधारने की इच्छा थी वह उलटा ढीठपन दिखाने और अवज्ञा करने पर उतारू दीखता है। सहानुभूति, स्नेह, सद्भाव और संतुलन को यथास्थान बनाये रहकर भूलें करने वाले को उनकी हानियाँ समझानी चाहिएं और सुधारने के बाद मिलने वाले लाभों का भी विस्तारपूर्वक बखान करना चाहिए। भूलों का कारण क्या है और उन्हें सुधारने का तरीका क्या है? इसे रचनात्मक ढंग से सत्परामर्श के रूप में बताया समझाया जा सके तो कोई कारण नहीं कि सुधार की प्रक्रिया आरम्भ न हो जाय। घर−परिवार के और मित्र, स्वजनों के बीच यह राग−द्वेष रहित दूरगामी सत्परिणाम उत्पन्न करने वाली नीति अपनाई जानी चाहिए।

प्रेम सबसे किया जाय−मोह किसी से भी नहीं। प्रेम में सद्भावना और दूरदर्शिता का समावेश होता है। उसमें हित−अनहित की दृष्टि प्रधान रहती है। मोह अन्धा होता है, उसमें प्रियपात्र की तात्कालिक प्रसन्नता ही सब कुछ बनी होती है। उचित−अनुचित का कुछ ध्यान नहीं रहता। प्रियपात्र आँखों के सामने ही बना रहे भले ही इससे उसका भविष्य अन्धकारमय बनता हो मोहान्धता में यह दृष्टि रहती है। प्रेम में राजा दशरथ की तरह अपने बच्चों को विश्वामित्र के हवाले कर देने की निष्ठुरता भी धारण करनी पड़ती है।

जन्म का अन्त मरण में और मिलन का अन्त विछोह में होता ही है। प्रकृति के इस परिवर्तन चक्र को रोका नहीं जा सकता। मिलन के समय प्रत्यक्ष और वियोग के बाद अप्रत्यक्ष सद्भाव संजोये रखा जा सकता है। वियोग हो जाने पर क्रिया पात्र की आत्मा को शान्ति देने वाले ऐसे काम किये जा सकते हैं जिनसे उसके छोड़े हुए उत्तरदायित्वों को अपनी सामर्थ्यानुसार पूरा किया जा सके अथवा उसके यश एवं पुण्य में वृद्धि की जा सके। वियोग में शोकाकुल होकर अपना सन्तुलन बिगाड़ लेना तथा कंधे पर पड़े उत्तरदायित्वों को गड़बड़ा देना, उथली भावुकता भर है। ऐसी आवेशग्रस्त मनःस्थिति उच्चस्तरीय प्रेम−भावना की देन नहीं हो सकती।

स्थान, पदार्थ, वाहन, उपकरण आदि में अत्यधिक आसक्ति रहने पर उन्हें बदलने, बेचने या किसी को देने के लिए मन नहीं करता। फलतः वे परिवर्तनों का लाभ लेने से वंचित होकर अचल शिलाखण्ड की तरह एक निर्जीव ढर्रे में पड़े दिन काटते रहते हैं। यदि वर्तमान निवास स्थान से अधिक उपयुक्त अवसर अन्यत्र मिल सकता है तो कोई कारण नहीं कि उसे बदलने में आना कानी की जाय। इसी प्रकार वस्तुओं की हेराफेरी जरूरी हो तो उसके लिए भी असमंजस में पड़ने की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए।

संकीर्णता भरे पक्षपात का नाम ही राग-द्वेष है। सुविस्तृत क्षेत्र में अपनापन फैला देने में सभी अपने लगने लगते हैं। अपनों से प्रेम ही हो सकता है, द्वेष नहीं। अपनों का हित ही किया जा सकता है अहित नहीं। अपने विराने का भेद−भाव जितना घटता जाय उतनी ही निष्पक्षता बढ़ती जायगी और न्याय एवं विवेक युक्त व्यवहार ही बन पड़ेगा। यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि संसार में सर्वत्र भलमनसाहत ही है और मात्र सेवा सहानुभूति का व्यवहार बिना भले−बुरे का ध्यान रखे किया जाना चाहिए। यह अनुचित भी है और अव्यावहारिक भी। दुष्टता से असहयोग और विरोध ही नहीं उससे संघर्ष भी किया जाना चाहिए। पशुता की ऐंठ को सीधा करने के लिए कठोरता बरतना भी नितान्त आवश्यक है, पर वह सब कुछ द्वेष−भावना से नहीं, सुधार के लिए बरती गई दूरदर्शिता के रूप में ही होना चाहिए। बिना घृणा और बिना द्वेष अपनाये जब डॉक्टर पैना चाकू मरीज के सड़े अवयव को काटने, तराशने में प्रयुक्त कर सकता है तो अनीति पर उतारू लोगों को सीधे मार्ग पर लाने के लिए आवश्यक कठोरता भी बरती जा सकती है। गाँधी जी ने सत्याग्रह आन्दोलन में इसी नीति का प्रयोग किया था और उसे सफल भी सिद्ध करके दिखाया। जब आवश्यकता पड़े तो आपत्ति धर्म के रूप में इस नीति का भी उपयोग किया जा सकता है।

हर हालत में हमारी मनःस्थिति कमल पत्रवत् निर्लिप्त होनी चाहिए। बिना राग और बिना द्वेष का स्नेह, सद्भाव भरा निष्पक्ष एवं विवेकयुक्त दृष्टिकोण अपनाया जा सकता है। इस आधार पर यदि वस्तुओं एवं व्यक्तियों से संतुलित सम्बन्ध रखे जा सकें तो उसमें अपना भी हित है और उनका भी जिनके साथ सम्बन्ध जुड़े हुए हैं।

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