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February 1976

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इह चेदिवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदोन्महत्ती विनष्टि। भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति॥

−के॰ उ॰ 2।5)

अर्थात्−यदि मनुष्य ने इसी जन्म में अपने सच्चे स्वरूप को जान लिया तब तो ठीक है यदि नहीं जान लेता है तो उसकी बहुत बड़ी हानि है क्योंकि जब तक उसे आत्मस्वरूप का ज्ञान वहीं होगा तब तक उसके दुःखों का अन्त नहीं होगा। इस प्रकार वह आजीवन दुःखी ही रहेगा।

नित्य शुद्ध विमुक्तैक मखण्डानन्दमद्वयम्। सत्यं ज्ञानमनन्तं यत्परं ब्रह्माहमेवतत्॥ एवं निरन्तराभ्यस्ता ब्रह्मै वास्मीति वासना। हरत्यविद्या विक्षेपान रोगानिव रसायनम्॥

−तत्वबोध 36.37

अर्थात्− जो तीनों कालों में रहने वाला कभी नाश नहीं होता, जिसका जो मल रहित और संसार से विरक्त एक और अखण्ड, अद्वितीय आनन्द रूप है वही ब्रह्म है किन्तु वही ईश्वरीय चेतना ‘मैं हूँ’ के अहंकार के भाव निरन्तर अभ्यास उत्पन्न होने वाले चित्त विक्षेप के कारण वास्तविक ज्ञान को नष्ट कर देती है। और ईश्वरीय चेतना जीव रूप में काम करती हुई वासनाओं की पूर्ति में कभी यह कभी वह शरीर धारण करती भ्रमण करने लगती है।

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिंगात्। एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वाँस्त-

स्यैष आत्मा विशते ब्रह्म धाम॥

मु॰ उ॰ 3।2।4

यह आत्मा निर्बलों द्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता है। और न तो प्रमाद या किये गये तप से ही प्राप्त किया जा सकता है। जो ज्ञानी साधक इनके विपरीत बल, अप्रमाद तथा सोद्देश्य किये गये तप के द्वारा यत्न करता है वही इस आत्मा का दर्शन कर पाता है।

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साधन अनुदान ओर प्रशिक्षण सर्ग-


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