विकृत दृष्टिकोण ही नरक और परिष्कृत चिन्तन ही स्वर्ग है।

February 1976

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भगवान की बनाई दुनिया तो एक है, पर हर मनुष्य अपनी निजी दुनिया स्वयं ही बनाता है और उसी अपने मकड़ी के जाले में स्वयं चैन से रहता है अथवा स्वयं ही उलझ−उलझ कर मरता है। अपने श्रम का सदुपयोग करके आराम विश्राम देने वाला मकान भी खड़ा किया जा सकता है और दुरुपयोग करके ऐसा गड्ढा खोदा जा सकता है जिसमें गिरने का खतरा अपने और मित्र पड़ौसी सभी के लिए उत्पन्न हो जाय।

यह दुनिया जड़ पंचतत्वों की बनी हुई है। उसमें अपने गुण, धर्म तो हैं, पर कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न करने की क्षमता नहीं। यह अपना−अपना दृष्टिकोण ही है, जिसके आधार पर हर व्यक्ति अपने संसार की अपने भाग्य भविष्य की संरचना स्वयं करता है। इस तथ्य को कोई विरले ही समझते हैं कि परिस्थितियों पर नहीं मनःस्थिति पर जीवन के उत्थान−पतन का−सुख−दुःख का− पूरा ढाँचा खड़ा हुआ है। यदि यह मोटी बात समझ में आ सकी होती तो हर व्यक्ति ने अपने सुखी जीवन के लिए भौतिक उपलब्धियों में श्रम करने के अतिरिक्त उन आन्तरिक आधारों को भी सही किया होता जिन पर प्रगति और अवगति की आधारशिला रखी होती है।

आमतौर से यही सोचा जाता है कि अमुक प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाएं− अमुक वस्तुएँ मिल जाएं अथवा अमुक व्यक्ति अनुकूल बन जाय तो अभीष्ट सुख साधन बन सकते हैं और आनन्दित जीवन जिया जा सकता है। यह चिन्तन सर्वथा एकांगी है। बाह्य साधन अथवा व्यक्ति सुविधा तो उत्पन्न करते हैं, पर उन सुविधाओं का उपयोग कैसे किया जाय यह सर्वथा अपने ही दृष्टिकोण एवं व्यक्तित्व पर अवलंबित है। प्रचुर मात्रा में धन मिल जाने भर से कोई सुखी नहीं बन सकता धन का उपयोग यदि व्यसनों में उद्धत अवाँछनीयताओं में किया जायगा तो उसका परिणाम उससे भी बुरा होगा जो निर्धन स्थिति में रहने से होता है। इसी प्रकार शारीरिक बल से जहाँ उपयोगी पुरुषार्थ करके उपयोगी सफलताएँ प्राप्त की जा सकती हैं यहाँ सर्वनाशी कुकर्मों का भी ठाठ रोपा जा सकता है अपने लिए तथा दूसरों के लिए संकट उत्पन्न किया जा सकता है। बुद्धिबल, रूप सौन्दर्य, चतुरता, भरा-पूरा परिवार, धन सम्पत्ति, उच्च पद आदि जिन बातों को सुख साधना माना जाता है, वे ही कुपात्रों के हाथों में पहुँचकर दुरुपयोग में प्रयुक्त होते हैं और सुख देने के स्थान पर दुःखदायी संकट उत्पन्न करते हैं।

साधनों के अनुकूलता एवं प्रचुरता की आवश्यकता समझी जा सकती है, पर यह भुला नहीं देना चाहिए कि वे दुधारी तलवारें आत्म रक्षा ही नहीं आत्म हत्या का साधन भी बन सकती हैं। साधारणतया सुविधा साधनों का उपार्जन पुरुषार्थ एवं संतुलित व्यक्ति पर अवलम्बित रहता है। सुयोग्य व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी कुशलता के सहारे प्रगति के साधन उत्पन्न अथवा एकत्रित कर लेते हैं। इसके विपरीत दुर्बुद्धिग्रस्त दुर्गुणी व्यक्ति उत्तराधिकार में अथवा अन्य किसी प्रकार अनायास मिली प्रचुर सम्पदा को भी नष्ट करके रख देते हैं। इतना ही नहीं ऐसे संकट भी उत्पन्न करते हैं, जिनका सामना अभाव ग्रस्तों को− तथाकथित पिछड़े लोगों को नहीं करना पड़ता।

व्यक्तित्व और साधनों के समन्वय से जो प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। उसी पर प्रगति एवं सुख−शान्ति निर्भर रहती है। मूलतः प्राणियों के शरीर तथा जड़ पदार्थों से बने साधन अपने आप में किसी प्रकार की संवेदना उत्पन्न नहीं कर सकते। जड़ होने के साथ−साथ वे संवेदना रहित भी हैं। नोटों की गड्डी अपने आप में रद्दी कागजों का पुलिंदा भर है। उसके द्वारा सत्कर्मों की उत्कण्ठा, बड़प्पन प्रदर्शन की आकाँक्षा, संग्रह की ललक, उद्धत उपभोगों की आतुरता, ईर्ष्या, अहमन्यता जैसी परस्पर विरोधी चित्र विचित्र प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न हो सकती हैं। इन इच्छाओं के कार्य रूप में परिणत होने पर व्यक्ति एवं समाज के लिए उपयोगी एवं विनाशकारी परिणाम सामने आ सकते हैं। इतने पर भी नोटों की गड्डी निर्जीव की निर्जीव ही रहेगी। उपयोग करने वाले व्यक्ति के दृष्टिकोण पर ही यह निर्भर है कि उस सम्पत्ति का उपयोग किस प्रकार किस प्रयोजन के लिए किया जाता है।

ओछा व्यक्ति अपने गर्हित दृष्टिकोण के कारण उपयोगी व्यक्तियों एवं पदार्थों को भी इस स्थिति में धकेल देता है जिससे वे हानिकारक एवं दुःखदायी सिद्ध होते हैं। इसके विपरीत सद्गुणी, सद्भाव सम्पन्न एवं सुविकसित दृष्टिकोण का व्यक्ति स्वल्प एवं घटिया साधनों से भी बहुत कुछ कर दिखाता है। संसार का इतिहास ऐसे महामानवों की यश गाथाओं से भरा पड़ा है जिनने घोर कठिनाइयों में रहते हुए भी−घटिया लोगों का सहयोग मिलने पर भी बढ़े-चढ़े काम करके दिखाये। राम ने रीछ, वानरों का सहयोग और ईंट पत्थरों के साधन मात्र से लंका विजय जैसा कठिन कार्य कर दिखाया। गोवर्धन उठाने में कृष्ण ने ग्वाल दासों से इंजीनियरों का और लाठियों से क्रेनों का प्रयोजन पूरा कर लिया। इसके विपरीत रावण, कंस जरासंध आदि प्रचुर साधन सहायक होते हुए भी अपने लिए तथा दूसरों के लिए विनाश लीला रचने भरने में लगे रहे।

प्रयत्न और पुरुषार्थों के बल पर भौतिक उपलब्धियाँ उपार्जित किये जाने की बात सर्वविदित है, पर इस तथ्य को बिरले ही जानते हैं कि आस्थाओं एवं मान्यताओं के अनुरूप गुण, कर्म, स्वभाव का समन्वय व्यक्तित्व बनता है और यह व्यक्तित्व का स्तर ही संसार के पदार्थों एवं व्यक्तित्वों के साथ अनुकूल−प्रतिकूल ताल−मेल बिठाता है। इस ताल−मेल की प्रतिक्रिया ही उत्थान−पतन−सुख−दुःख के रूप में सम्मुख आती है। बाहरी प्रगति एवं परिस्थितियाँ दिखाई पड़ती हैं और उनका कारण , पुरुषार्थ अनुदान आदि बता कर समाधान कर लिया जाता है। इतनी गहराई में उतरना किसी−किसी के लिए ही सम्भव होता है कि बाह्य−जीवन की समस्त घटनाएँ, परिस्थितियाँ एवं उपलब्धियाँ व्यक्तित्व की आन्तरिक स्थिति के फलस्वरूप ही उत्पन्न होती हैं।

एक ही परिस्थिति को दो व्यक्ति दो प्रकार सोचते हैं और उसकी परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएँ अनुभव करते हैं। द्रोणाचार्य ने एक गाँव में दुर्योधन को वहाँ के सज्जनों की सूची बना कर जाने के लिए भेजा, उनने बहुत छानबीन के बाद सूचना दी कि यहाँ एक भी सज्जन नहीं रहता। सभी दुष्ट−दुराचारी भरे पड़े हैं। कुछ दिन बाद उसी गाँव में युधिष्ठिर को दुर्जनों की सूची बना कर लाने के लिए भेजा। उन्होंने भी हर व्यक्ति से सम्पर्क बनाया और गतिविधियों की खोज की। वे यह निष्कर्ष लेकर लौटे कि दोष रहित तो केवल परमात्मा है, पर इस गाँव के लोगों में औसत स्तर की सज्जनता मौजूद है। इनमें से पूर्ण दुर्जन एक भी नहीं है। प्राणियों के शरीर और पदार्थ यही तो संसार हैं। इस सृष्टि की समस्त संरचना सत और तम, देव और दैत्य के सम्मिश्रण से बनी है। रात और दिन की तरह यहाँ शुभ और अशुभ दोनों का अस्तित्व है। अन्धकार और प्रकाश से मिल कर रात्रि और दिन की रचना हुई है, उसी से काल चक्र घूमता है। ताने और बाने के उलटे सीधे धागों से कपड़ा बुना गया है। संसार में वाँछनीय और अवाँछनीय दोनों ही तत्व हैं उनमें से उचित को सदुपयोग के लिए और अनुचित को परिशोधन प्रयत्नों का अभ्यास करने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। इस प्रकार दोनों ही अपने−अपने स्थान पर उपयोगी हैं। यह मानकर चला जाय तो दुष्टता खोजते फिरने पर उत्पन्न होने वाली खीज से बचा जा सकता है दुर्योधन और युधिष्ठिर के अपने−अपने दृष्टिकोण थे। उनने अपने−अपने चश्मे पहन रखे थे और अपने−अपने अनुरूप खोज करके अपने ढंग के निष्कर्ष निकाले थे।

गुबरीला और भौंरा एक ही बगीचे में प्रवेश करके दो तरह की वस्तुओं के साथ सम्पर्क बनाते और दो तरह के निष्कर्ष निकालते हैं। भौंरा फूलों पर मंडराता, सुगन्ध लाभ लेता और उस वातावरण पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए गुंजन गीत गाता है। उसी बगीचे में पौधों में लगाने के लिए दुर्गन्ध युक्त गोबर का खाद भी किसी कोने पर जमा रहता है। गुबरीला कीड़ा अपनी प्रकृति के अनुरूप उसी खाद के ढेर को तलाश कर लेता है और अपने दुर्भाग्य पर रोते हुए कहता है−संसार में बदबू ही बदबू भरी पड़ी है। पुष्पोद्यानों में भी दिये तले अँधेरा मौजूद है। बात गुबरीले कीड़े की भी सच ही है। यों झुठलाया भौंरे को भी नहीं जा सकता।

दुर्भाग्य−सौभाग्य, सुख−दुःख, उपयुक्त−अनुपयुक्त प्रिय−अप्रिय क्या है? इसकी परिभाषा नहीं हो सकती। क्योंकि यह सभी सापेक्ष हैं एक मध्यवृत्ति का मनुष्य किसी अमीर की तुलना में निर्धन और गरीब की तुलना में धनी है। एक लकीर छोटी है या बड़ी इसका फैसला करना सम्भव नहीं। बड़ी की तुलना में वह छोटी है और छोटी की तुलना में बड़ी। चोर को हत्यारे की तुलना में अच्छा और उठाईगीरे की तुलना में बुरा कहा जा सकता है। एक सामान्य नागरिक किसी अपराधी की तुलना में श्रेष्ठ और सन्त की तुलना में निकृष्ट है। कौन अभागा और कौन सौभाग्यवान है किसे सुखी और किसे दुःखी कहा जाय इसका निर्णय करने से पूर्व कोई तुलनात्मक मापदण्ड खड़ा करना होता है। व्यक्ति अपने को सुखी अनुभव करके प्रसन्न रहे अथवा दुःखी मान कर रोता कलपता रहे यह पूर्णतया उसकी मनःस्थिति पर निर्भर है। प्रश्न स्थिति का नहीं तुलना का है। मापदण्ड यदि बदला जा सके तो आज अपने को दुःखी, दरिद्र, पिछड़ा, अभागा मानने वाला व्यक्ति कल ही अपने को सुखी सौभाग्यवान अनुभव कर सकता है। तुलना का मापदण्ड न बदले तो तीनों लोकों का अधिपति और सर्व-साधन सम्पन्न व्यक्ति भी अपने को अभावग्रस्त, दीन−दुःखी अनुभव करते हुए चिन्ता और तृष्णा की आग में जलता रहेगा।

इस स्थिति को कोई बाहरी शक्ति या वस्तु नहीं बदल सकती। अभीष्ट वरदान मिल जाने पर−उससे अधिक की आकाँक्षा सामने आ खड़ी होगी और जो उपलब्ध है, वह स्वल्प प्रतीत होने लगेगा। फलतः दरिद्रता और दुर्भाग्य की दुःखदायी पीड़ा से कभी भी छुटकारा न मिल सकेगा। यदि सुखद परिस्थितियों की सचमुच ही अपेक्षा हो तो दृष्टिकोण बदलने का साहस करना चाहिए। तुलना में हेर−फेर करना चाहिए। एक क्षण पहले का अभागा व्यक्ति दूसरे ही क्षण अपने को सौभाग्यवान अनुभव कर सकता है।

एक गुलाब का फूल कह रहा था कि ईश्वर ने हमारे साथ अन्याय किया कि इतनी पतली और कँटीली बेल पर लगाया, हमारा स्वरूप किसी चन्दन जैसे बड़े वृक्ष की शोभा बढ़ाने योग्य था। दुर्भाग्य का रोना रोने वाले इस पुष्प के समीप उगे हुए दूसरे पुष्प ने कहा− मूर्ख, सोचने का तरीका बदल। पतली कंटीली बेल पर उगने के कारण छोटा सा फूल होना चाहिए था, तू कितना सौभाग्यवान है कि तुच्छ स्थिति से उत्पन्न होने पर भी इतना बड़ा सौभाग्य पा सका। दृष्टिकोण के आधार पर ही लोग अपने सम्बन्ध में मान्यता बनाते और दुःख से खीजते एवं सुख से मुसकराते पाये जाते हैं।

इस संसार की हर वस्तु गतिशील और परिवर्तनशील है। वहाँ एक परमाणु भी स्थिर नहीं। बदलाव इस दुनिया का अनिवार्य नियम है। जो आज जन्मा है, उसे कल मरना ही होगा। कोई हंसता है या रोता प्रकृति इसकी परवा किये बिना अपना क्रम जारी रखेगी। पैसा एक हाथ से दूसरे में जाता ही है। अन्यथा अर्थ चक्र का परिभ्रमण ही रुक जायगा। एक का लाभ ही दूसरे की हानि है। एक का मरण अन्यत्र जन्म बनता है। इस परिवर्तन चक्र को जो विनोद की तरह देखता है वह सुखी रहता है। जो स्थिरता की अपेक्षा करता है वह यौवन की विदाई पर, धन की हानि पर, सज्जनों के मरण पर, बेहिसाब रोता कलपता और सिर धुनता है। कोई व्यक्ति अपना सन्तुलन बनाये रहता है या बिगाड़ता है इसकी जिम्मेदारी उसकी खुद की है। समुद्र के किनारे खड़ा बालक ज्वार आने पर खुशी से उछले और भाटा आने पर सिर धुन−धुन कर रोये, यह उसकी मर्जी है। इसके लिए समुद्र को दोष नहीं दिया जा सकता। यदि बच्चे की इच्छानुसार समुद्र स्थिर हो जाय तो उसकी सफाई से लेकर अन्यान्य सभी क्रियाएँ समाप्त हो जायेंगी और फिर वह निकम्मी विकृतियों के भण्डार के सिवाय और कुछ भी न रह जायगा। समुद्र की हलचल रोकना सम्भव नहीं, यदि सन्तुलन बनाये रहना है तो बच्चे को ही यथार्थता समझनी या समझाई जानी चाहिए।

संसार में बुराई और भलाई का−हानि लाभ का प्रिय अप्रिय का अस्तित्व है और वह बना ही रहने वाला है; हमें किसी का भी प्रभाव अपने ऊपर ऐसा नहीं पड़ने देना चाहिए जो मानसिक सन्तुलन बिगाड़ कर सही चिन्तन में हमें अपंग−असमर्थ−बनाकर रख दे। लाभ का− सुविधा सम्पत्ति का उपयोग यह है कि सफलता देख कर उत्साह प्राप्त करें और उपलब्धियों का अधिकाधिक सदुपयोग करके उनसे अपने सम्पर्क क्षेत्र को लाभान्वित करें। हानि, विपत्ति या विकृति सामने आने पर उससे दूसरी प्रकार का लाभ लिया जाना चाहिए। सोचा जाना चाहिए कि अपनी भूलें या दुर्बलताएँ तो इस कठिनाई में कुछ कारण नहीं रही हैं? यदि रही हों तो उस प्रमाद को अविलम्ब हटा देने में तत्परता बरतनी चाहिए, ताकि वैसी दुर्घटना की पुनरावृत्ति भविष्य में न हो, ठोकर लगने का दण्ड भविष्य में अधिक सतर्कता बरतने की चेतावनी देता है। यदि एक ठोकर से एक कडुआ पाठ पढ़ा जाया करे तो उसे भविष्य में सत्परिणाम देने वाला सस्ता सौदा ही कहा जा सकता है।

जो हो रहा है सो ईश्वर की इच्छा से या भाग्यवश हो रहा है यह मानना हो तो इसमें इतना और जोड़ना चाहिए कि यह इच्छा ईश्वर को इसलिए करनी पड़ी कि हमारा शौर्य, साहस, पुरुषार्थ प्रखर हो एवं सतर्कता, दूरदर्शिता की मात्रा बढ़े। कठिनाई को देखकर डर जाना, रही सही हिम्मत भी खो बैठना−भाग्यवश यह सब हो रहा है, अपने करने से क्या बनेगा−समय आने पर ही मुसीबत दूर होगी, यह सोच कर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना और दुःख सहते रहना यह सब तो विपत्ति को चिरस्थायी बनाने वाली कायरता है। यदि संकट के कारण मन इस प्रकार छोटा हो गया तो समझना चाहिए लगी हुई आग में अपनी ओर से ईंधन डाल कर उसे और भी अधिक प्रज्वलित किया जा रहा है।

ठण्ड लगने से शरीर में कँप−कँपी उठती है और रक्त प्रवाह तेज होकर भीतर से गर्मी उत्पन्न होती है। ठण्ड लगने पर जो शरीरगत प्रकृति प्रतिक्रिया होती है वही मनःक्षेत्र में भी होनी चाहिए। संकट उसकी कष्ट कारक प्रतिक्रिया−उससे जूझने की तत्परता−उससे भूल का परिमार्जन−परिवर्तन के लिए आवश्यक साधनों का संचय− फलतः संकट की समाप्ति। यही प्रतिक्रिया चक्र उचित है। इसी नीति का अनुसरण करने वाले आपत्तिग्रस्त मनुष्य तपे सोने की तरह निरन्तर निखरते चले जाते हैं। विपत्ति का प्रत्येक धक्का उन्हें अधिक साहसी पुरुषार्थी, बुद्धिमान और अनुभवी बनाता चला जाता है। इतिहास साक्षी है कि कठिनाइयों से जूझ−जूझ कर लोगों ने अपना मनोबल एवं कौशल बढ़ाया है, तदनुसार वे क्रमशः आगे बढ़ते हुए उन्नति के उच्चशिखर तक पहुँचे हैं। इस दृष्टि से कठिनाइयों को एक विचित्र प्रकार का सौभाग्य भी कह सकते हैं। पत्थर पर घिसे जाने से ही तो चाकू पर चमक आती है और धार तेज होती है।

पाप, अनाचार और विकृतियों को देखकर सन्तुलन खोने और बड़बड़ाने की जरूरत नहीं है। उन्हें सज्जनता के लिए चुनौती समझा जाना चाहिए और यह मानकर चलना चाहिए कि परिपक्व होने का यही एकमात्र तरीका है कि वह अनाचार को देख कर उभरे और अवाँछनीयता से टक्कर मार कर अपने वर्चस्व सिद्ध करे और गौरवान्वित बने।

यदि रावण का आतंक न होता तो राम को रीछ, वानरों को यशस्वी बनाने का अवसर ही न आता। सही परिस्थितियां रही होतीं तो ऋष्यमूक पर्वत के निवासी रीछ, वानर ऐसे ही दूसरे अन्य प्राणियों की तरह जन्मे और मर खप कर विस्मृति के गर्त में चले गये होते। रावण ने आतंक करके जहाँ अपने लिए पतन और अपयश का द्वारा खोला वहाँ प्रतिपक्षियों को गौरवान्वित करने वाली परिस्थितियाँ भी उत्पन्न कीं। महामानवों की परख इसी आधार पर होती है कि वे विपन्नताओं से कट−कट कर जूझते हुए प्रेरणाप्रद आदर्श जनसाधारण के सम्मुख उपस्थित करते हैं।

मरीज अपनी भूल के कारण स्वयं तो कष्ट उठाता है, पर डॉक्टर को आजीविका उपार्जन−कौशल वृद्धि सेवा का अवसर एवं यशस्वी बनाने वाली परिस्थितियाँ भी उत्पन्न करता है। हर विकृति के सम्बन्ध में इसी प्रकार सोचा जाना चाहिए कि उसके उत्पादनकर्ता कितने ही घिनौने क्यों न हों−इतना अच्छा तो वे भी करते हैं कि सज्जनता, सेवा−भावना, अनीति के प्रति आक्रोश एवं आदर्शों की रक्षा के लिए त्याग, बलिदान करने का अवसर उत्पन्न करते हैं। बाढ़, दुर्भिक्ष, अग्निकाण्ड, महामारी, भूकम्प जैसी दुर्घटनाओं से ग्रसित लोग निश्चय ही बहुत कष्ट उठाते हैं। पर उनका एक उत्तम पक्ष यह भी है कि सेवाभावी, सहृदय एवं उदार व्यक्तियों की करुणा जगती है और वे अपनी सज्जनता का परिचय देकर आत्म−कल्याण एवं श्रेष्ठ परम्परा स्थापित करने का सुखद अवसर प्राप्त करते हैं। सुधारकों और शहीदों की यश परम्परा ने संसार का जितना हित−साधन किया है, उतना अहित उन विकृतियों ने नहीं किया जिनसे जूझकर वे अमर हुए। दुष्टता की शक्ति जितनी हानि पहुँचाती है उसकी क्षति पूर्ति समय कर देता है, पर उनसे जूझने वाले महामानवों की प्रखरता अनन्त काल तक प्रकाश उत्पन्न करती रहती है। हरिश्चंद्र का नाटक देखकर बालक गाँधी इतना प्रभावित हुआ कि उसने दूसरा हरिश्चन्द्र बनकर ही दिखा दिया। जिन कारणों से विश्वामित्र को हरिश्चन्द्र की परीक्षा करनी पड़ी थी, वे कारण अब विस्मृति के गर्त में चले गये, पर उनकी यशस्विता अभी भी यथावत् प्रकाशवान हो रही है। यदि अवाँछनीयताएँ−सज्जनता को मोर्चे पर डट जाने के लिए उभार सकें तो कहना चाहिए कि ईश्वर ने उन्हें भी अकारण उत्पन्न नहीं किया। दुष्टता की दुर्गति का उदाहरण देखकर भी तो लोग सबक लेते हैं।

विपत्तियों से धैर्य, साहस और दूरदर्शिता का उदय होना−विकृतियों के प्रति रोष उत्पन्न होने से सज्जनता को प्रखर बनाना−दुष्टता की दुर्गति देखकर अन्यों का उस मार्ग पर चलने से विरत होना जैसे लाभों को सोचा जाय तो विपन्नताओं में भी सन्तुलन बनाये रखा जा सकता है और मनोबल गिराने की अपेक्षा उपयोगी प्रतिक्रिया का लाभ लिया जा सकता है। यदि सोचने का तरीका सही हो तो हर परिस्थिति में अनुकूलता सोची जा सकती है और सन्तुलन बनाये रखा जा सकता। मानसिक दुर्बलता ही विक्षोभ का प्रधान कारण होती है संकट की घड़ी में और भी अधिक जागरुकता का परिचय देते हैं। फौज का कप्तान घोर मारकाट की निर्णायक घड़ियों में सही निर्णय तभी ले पाता है, जब उसका मानसिक सन्तुलन सही बना रहे। घटना−क्रम को देखकर यदि वह आवेशग्रसित हो जाय तो एक प्रकार से मानसिक रोगियों की स्थिति में जा पहुँचेगा। अपना और सारी सेना का सर्वनाश करेगा। यही बात दैनिक जीवन में घटित होते रहने वाली सामान्य एवं असामान्य स्तर की घटनाओं के सम्बन्ध में लागू होती है। साहसी और धैर्यवान व्यक्ति घबराने और रोने−कलपने की कायरों जैसी दुर्बलता को पास भी नहीं फटकने देते वरन् दूने विवेक एवं पुरुषार्थ का सहारा लेकर अपने वर्चस्व का परिचय देते हैं।

स्वर्ग और नरक की चर्चा प्रायः होती रहती है पौराणिक उपाख्यानों में कोई लोक अथवा स्थान विशेष में सुखद परिस्थितियों वाले स्वर्ग का उल्लेख हुआ है वहाँ इन्द्रिय भोगों की प्रचुरता का आकर्षक वर्णन किया गया है। शरीर रहित मृतात्मा को इन्द्रिय भोगों का लाभ मिलना संदेहास्पद है। तथ्य यह है कि स्वर्ग परिष्कृत दृष्टिकोण का नाम है। यह अपनी उत्कृष्टता के कारण विपन्नताओं के बीच भी प्रसन्नता भरे वातावरण का सृजन कर लेता है।

सन्त इमर्सन कहा करते थे कि −मुझे नरक में भेज दो मैं वहीं स्वर्ग का सृजन कर लूँगा। युधिष्ठिर की कथा है कि वे कुछ समय के लिए नरक भेजे गये उनने अपनी सज्जनता के कारण वहाँ भी स्वर्ग जैसा वातावरण उत्पन्न कर लिया। शंकर जी भूत−प्रेतों के बीच रहकर स्वयं पतित नहीं हुए, वरन् उन पिछड़े हुए साथियों को ऊँचा उठाया। रामप्रसाद विस्मिल और सरदार भगतसिंह का वजन फांसी की सजा सुनाये जाने के बाद और अधिक बढ़ गया। गंग कवि ने हाथी के पैरों तले कुचले जाने के मृत्युदण्ड को उस कल्पना के कारण सुखद बना लिया था, जिसके अनुसार उन्होंने खूनी हाथी को स्वर्ग में होने वाले गणेश देवता के रूप में अनुभव किया था। सन्तों ने स्वेच्छापूर्वक अपरिग्रह का व्रत लिया और गरीबों जैसा जीवनयापन करते हुए भी सम्पन्नों से भी अधिक सुखी मानसिक स्तर बनाये रखा। इसके विपरीत कितने ही धनीमानी लोग अपनी विकृत मनःस्थिति के कारण अनेकों कुकल्पनाओं से ग्रसित रहकर चिन्ता, उद्विग्नता की आग में जलते पाये जाते हैं।

अभावों की सूची बनाई जाय तो प्रतीत होगा कि हम संसार के सबसे अधिक दरिद्र व्यक्ति हैं। अपने साथ हुए दुर्व्यवहारों का संग्रह इकट्ठा किया जाय तो प्रतीत होगा कि सारा सम्पर्क क्षेत्र दुरात्माओं से भरा हुआ है। दूर−दूर तक फैली विकृतियों का लेखा−जोखा लिया जाय तो प्रतीत होगा कि संसार में सर्वत्र पाप ही पाप भरा पड़ा है। पर यदि इससे विपरीत स्तर की सूचियाँ बनाई जाएं− पिछड़े हुओं की तुलना में अपनी उपलब्धियों को आँका जाय तो प्रतीत होगा हमारी वर्तमान सम्पन्नता भी कम सन्तोषजनक नहीं है। अपने साथ हुए सद्व्यवहारों और उपकारों की सूची बनाई जाय तो प्रतीत होगा कि सम्बन्धियों में सज्जनता का ही बाहुल्य भरा पड़ा है। संसार में जो श्रेष्ठ गतिविधियां चल रही हैं उनका विवरण प्राप्त करने पर लगेगा कि इस दुनिया में श्रेष्ठता भी प्रौढ़ स्थिति में मौजूद है। अपने अभावों को सोचकर दूसरों से सहायता पाने के लिए जब हाथ पसारते हैं तो दीनता के भार से लदी लज्जास्पद अपनी स्थिति प्रतीत होती है किन्तु जब अपने पास श्रम, समय और विचारों की बहुलता देखते हुए उसी का एक अंश परमार्थ प्रयोजनों में लगाने की बात सूझती है तो प्रतीत होता है आज की स्थिति में भी शिर ऊँचा उठाकर चलने और उदार लोगों की पंक्ति में खड़ा हो सकने का गौरवास्पद अवसर आज भी सामने है।

मनुष्य क्या है? इसके उत्तर में एक ही शब्द कहा जा सकता है−विचारों का पुंज। अपने दृष्टिकोण के आधार पर ही जीवन का बाह्य स्वरूप बनता है और आन्तरिक स्तर का निर्माण होता है। सोचने के गलत ढंग का नाम ही दुःख है और सही चिन्तन को सुख कहा जा सकता है। उत्थान−पतन की दोनों धाराएँ अपनी ही मान्यताओं और रुचियों की चाल लेकर सीधी−उलटी दिशाओं में प्रवाहित होती हैं। उन्हीं के कारण देवत्व प्राप्त होता है और वे ही हमें दानव स्तर का बना देती हैं।

गीता की उक्ति है− ‘श्रद्धामयोयं पुरुष योयच्छद्धः स एव स’ अर्थात् यह मनुष्य श्रद्धा रूप है। जो जैसी श्रद्धा रखता है वह वैसा ही बन जाता है। अपनी आस्था, अपनी मान्यता, अपनी आकाँक्षा एवं अपनी दृष्टि ही अपने व्यक्तित्व का निर्माण करती है और उसी आधार पर उठने, गिरने की परिस्थितियाँ बनती हैं। विकृत दृष्टिकोण ही हमें नरक में धकेलता है और उसके परिष्कृत होने पर स्वर्ग हाथ बाँधकर सामने आ खड़ा होता है। यही है चिन्तन का महत्व और माहात्म्य।

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