उस दिन बच्चे ने लट्टू घुमाया। कुछ देर वह पूरे जोश में घूमता रहा, पर जल्दी ही उसकी चाल शिथिल होती गई और अन्त में वह गतिहीन होकर जमीन पर लुढ़क गया। मानो उसके जोशीले जीवन का अन्त हो गया हो।
मैं देर तक सोचता रहा क्या हमारा जीवन भी लट्टू की तरह निरुद्देश्य ही नहीं घूम रहा है ? और क्या उसका अन्त ऐसे ही भूमिसात् लुढ़कने के रूप में नहीं होने जा रहा है।
क्षण भर पूर्ण जोश में घूमने वाला और पलक मारते निष्क्रिय होने वाला लट्टू कई दिन तक मस्तिष्क पर छाया रहा और रह रह कर यही प्रश्न उठता रहा क्या हमारा जीवन लट्टू की हलचल मात्र है ?
- सन्त वास्वानी