भार से लद न जायं हलके फुलके रहें

December 1975

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इस ब्रह्माण्ड की रचना इस प्रकार हुई है कि उसकी पोल में हर वस्तु अधर लटकी रहती है। गिरने की बात तो तब बनती है जब उस पर कोई दबाव पड़ता है और बलपूर्वक अपनी ओर खींचता है। यदि दबाव न पड़े तो वह पोले आकाश में अपनी जगह अनन्त काल तक बनी रहेगी।

पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है, इसलिए वह अपने प्रभाव क्षेत्र में दूसरी वस्तुओं को अपनी ओर खींचती है। इसी खिंचाव से प्रेरित होकर चीजें ऊपर से नीचे गिरती हैं। वजन क्या है ? वजन उस शक्ति का नाम है जो अमुक वस्तु को पृथ्वी की ओर खिंचने से रोकने के लिए जमानी पड़ती है। दूसरे शब्दों में पदार्थ पर पड़ने वाले पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के दबाव को वजन कह सकते हैं।

यह दबाव सदा सर्वदा एक सा नहीं होता। परिस्थितियों के अनुसार वह घटता बढ़ता रहता है, अस्तु चीजों का वजन भी घट-बढ़ जाता है। एक पदार्थ खुली जगह में जितना भारी रहेगा उतना पानी में डुबोकर तोलने पर न रहेगा। क्योंकि उतना पानी आकर्षण शक्ति के प्रभाव को कम करता है अस्तु पदार्थ भी तोल में हलका होगा। आकर्षण शक्ति पृथ्वी की सतह पर पूरे जोर पर होती है और जितने ऊपर उठते जायं उतनी कम होती जाती है। जमीन पर वस्तु का जितना वजन होता है उतना बहुत ऊँचे पर्वत शिखर पर पहुँचने से नहीं रहता और ऊपर आकाश में उड़ें तो वजन और भी अधिक घटेगा।

हाँ इस तोल- नाप में एक बात ध्यान में रखनी होगी कि तराजू और बाँट इस प्रकार के बने हों कि उन पर पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का दबाव न पड़े अन्यथा वजन ज्यों का त्यों ही बना रहेगा।

व्यक्ति अपने आप में पूर्ण है और इस प्रकार के तत्वों से बना है कि अपने स्थान पर खड़ा रह सके। उसे कहीं गिरना न पड़े। गिरावट के कारण साँसारिक आकर्षण हैं। जिन्हें विभिन्न परिस्थितियों के अनुरूप विभिन्न नाम दिये गये हैं। जब यह आकर्षण इंद्रियों को प्रभावित करता है तब उसे वासना कहते हैं। मन को प्रभावित करता है तब उसी का नाम तृष्णा बन जाता है। जब उसका उद्गम धन होता है तो लोभ कहते हैं और जब व्यक्ति में खिंचाव आता है तो उसे मोह कहते हैं। वस्तुतः वे सभी आकर्षण एक ही स्तर के हैं। चीजें हमें अपनी ओर खींचती हैं। जितनी गति से हम उससे प्रभावित होते और खिंचते हैं, उसी का नाम गिरावट या पतन है। यह पतन कितना हो रहा है और उसे रोकने के लिए कितनी शक्ति लगानी पड़ेगी - इसे जुटा लिया जाय तो हमारा वजन नापा जा सकता है।

कौन आदमी कितना वजनदार है ? उसकी गुरुता एवं महानता कितनी है ? इसका पता लगाना हो तो उसकी तोल उस शक्ति के समतुल्य होगी जो उसे गिरने से रोकती है। जिसके पास निरोध का कोई साधन नहीं, जो आकर्षण शक्ति से नहीं जूझ सकता उसे पतित होना ही है। गिरने से रोकना हो तो तराजू के दूसरे पलड़े में उतने ही भारी बाँट रखने पड़ेंगे। जब दोनों ओर का वजन तुल जायेगा तो तराजू के एक पलड़े में रखा हुआ पदार्थ अधर में लटका रहेगा, फिर पृथ्वी की आकर्षण शक्ति उसे अपनी ओर नहीं खींच सकेगी। मनुष्य के पास यदि पतन को रोक सकने वाले मनोबल के बाँट हों तो वह तराजू के दूसरे पलड़े में बिना नीचे गिरे मजे में बैठा रहेगा और यथा स्थान लटकता रहेगा। मनुष्य कितना वजनदार है, कितना हलका, कितना महान, कितना तुच्छ है ? इसका उत्तर उसके पास अवाँछनीय आकर्षणों से अपने आपको रोक सकने वाले मनोबल की मात्रा देखकर ही दिया जा सकेगा। अन्य कोई साधन उसकी स्थिति जानने का है नहीं। बाँट न हों तो वजन कैसे तौला जाय ?

मनुष्य की ऊँचाई का अनुपात इसी आधार पर नापा जायगा कि उस पर भौतिक आकर्षण का दबाव कितना पड़ रहा है ? हवाई जहाज ऊपर उठते हैं। भीतर बैठे संचालक जब यह जानना चाहते हैं कि वे कितने ऊपर उठ आये तो इसका उत्तर उस यन्त्र द्वारा मिलता है जो यह नापता है कि यहाँ आने पर पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का दबाव कितना घट गया। ऊँचाई इसी आधार पर नापी जाती है। हवाई जहाज की तरह मनुष्य की ऊँचाई नापने का भी तरीका यही है कि वह आकर्षणों में कितना ज्यादा लिप्त है। भव बन्धन उसे कितनी मजबूती से बाँधे हुए हैं। जिसके ऊपर इस पकड़ का असर जितना कम है उसे उसी अनुपात से ऊँचा उठा हुआ कह सकते हैं। उच्च पद या उच्च सम्मान मिलने का वास्तविक आधार यही है।

कारण स्पष्ट है। श्रेष्ठ चिन्तन और श्रेष्ठ कर्तव्य तभी संभव है जब मनःस्थिति स्वार्थ और संकीर्णता के वजन से कम लदी हो। स्वतंत्र चिन्तन का निर्वाह उसी स्थिति में सम्भव है और तभी कुछ ऐसा प्रयास सम्भव है जैसा कि जीवन मुक्त महामानवों से बन पड़ता है। ‘मुक्ति’ को जीवन लक्ष्य माना गया है। इसका तात्पर्य इतना ही है कि अमुक वस्तुओं तथा अमुक व्यक्तियों के साथ मनःस्थिति जकड़ी हुई नहीं है। उनकी पकड़ से ऊँची उठ गई और सुविस्तृत क्षेत्र को देख सकने में समर्थ हो गई। उन्मुक्त आकाश में विचरण करते हुए जहाज पर सवार होकर बहुत दूर तक देखा जा सकता है। वैसा करना एक बन्द मकान में बैठे रहने पर सम्भव नहीं था। बन्धन में जकड़ा वह पड़ा है जो सीमित क्षेत्र की बात सोचता है। अपने शरीर या परिवार भर के लिए सब कुछ चाहता है। मुक्त वह है, जिसने व्यापक दृष्टिकोण अपनाकर जीवनोद्देश्य की पूर्ति कर सकने वाले व्यापक उत्तरदायित्वों को संभालने के लिए व्यापक क्षेत्र में प्रवेश किया। ऐसे लोग विश्व नागरिक एवं मानव समाज के परिष्कृत घटक कहलाते हैं, वे वैयक्तिक स्वार्थपरता और संकीर्णता की परिधि को लाँघ कर लोक मंगल को अपना कार्यक्षेत्र मानते हैं और आत्मीयता का विस्तार करते हुए परमार्थ प्रयोजनों में संलग्न रहते हैं।

नीचे रहने पर भार बढ़ने और ऊँचे उठने पर उसका हलका होने की स्थिति को ऐसी तराजू से नापा जा सकता है, जो स्वयं दबाव मुक्त है। अपनी या दूसरों की बढ़ती-घटती गरिमा को केवल उस परिष्कृत विवेक बुद्धि से ही नापा जा सकता है जिसे ‘ऋतम्भरा’, ‘प्रज्ञा’ एवं ‘भूमा’ कहते हैं। विकृत बुद्धि तो पतन में उत्कर्ष, और उत्थान में अपकर्ष देखती है। विकृत चिन्तन के आधार पर बड़े आदमी वे हैं जिनने अपने लोभजन्य परिग्रह का अधिकाधिक भार अपने ऊपर लाद कर रख लिया है। इस दृष्टि से संयम शीलता और परमार्थ परायणता को मूर्खता ही ठहराया जा सकता है। तात्विक विश्लेषण के लिए यथार्थ चिन्तन कर सकने योग्य सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता है। सत्य को प्राप्त कर सकना इसके बिना संभव हो ही नहीं सकता। विकृत बुद्धि तो सत् को असत् आर असत् को सत् ही बताती रहेगी। उसके आधार पर यथार्थता का निर्णय हो ही नहीं सकेगा। तराजू का-विवेक बुद्धि का-भार मुक्त होना वस्तु स्थिति समझने के लिए नितान्त आवश्यक है।

वस्तुतः इस विशाल ब्रह्माण्ड में कोई दिशा हैं नहीं। हर वस्तु जहाँ हैं वहीं बनी रह सकती है। चन्द्रमा हमें ऊपर लगता है और चन्द्रमा पर जाने से प्रतीत होता है कि पृथ्वी ऊपर आसमान में उगी हुई है। यही बात अन्य ग्रह−नक्षत्रों के बारे में है। यदि हम उनमें से किसी पर जा पहुँचें तो देखेंगे कि अपना लोक नीचा है और पृथ्वी ऊपर आकाश में उसी तरह॰ जगमगा रही है जैसे कि हम किसी तारे को देखते हैं। आकर्षण शक्ति के खिचाव से खिंचने का नाम ही गिरना है गिरने की दिशा नीची मानी जाती है।

हम मंगल ग्रह की ओर उड़ें तो जब तक पृथ्वी की आकर्षण शक्ति से लड़ते हुए आगे चलेंगे, तब तक सोचेंगे कि ऊपर उठ रहे हैं। जब मंगल की आकर्षण शक्ति के क्षेत्र में प्रवेश करेंगे तो प्रतीत होगा कि गिरना आरम्भ हो गया। खिचाव का दबाव जितना बढ़ता जायगा उसी अनुपात में गिरने की गति बढ़ती जायगी। इस तथ्य पर विचार करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि पतन और कुछ नहीं-नीचता और कहीं नहीं- इसी आधार पर निर्भर है कि हम आकर्षणों से किस कदर प्रभावित होते हैं। इनसे मुक्त रह कर ही यह सम्भव है कि अपनी मूल स्थिति में बने रहा जाय, अपनी यथार्थ सत्ता में टिके रहा जाय। आकर्षणों के हम जितने समीप पहुँचते हैं उतनी ही तेजी से गिरावट की गति बढ़ जाती है। आत्मिक प्रगति के लिए इन आकर्षणों में अवरोध खड़ा करना पड़ता है जो हमें अधोगामी स्थिति में मजबूती से पकड़ने के लिए अपने बाहुपाश में जकड़ते हैं।

हर ग्रह नक्षत्र का अपनी-अपनी न्यूनाधिक आकर्षण शक्ति है, तदनुसार वहाँ का भार भी उसी अनुपात से घटता-बढ़ता है। पृथ्वी की तुलना में चन्द्रमा पर आकर्षण शक्ति बहुत कम है। इसलिए वहाँ पहुँचकर हम हलके हो जाते हैं। इसके विपरीत बृहस्पति या शनि में आकर्षण शक्ति बहुत अधिक है। वहाँ पहुँचने पर हम अपने ऊपर असह्य भार लदा हुआ अनुभव करेंगे। लोभ, मोह, वासना, तृष्णा और अहंता के पाँच ग्रहों की आकर्षण शक्ति का दबाव अत्यधिक है। इनके असह्य भार से छुटकारा पाकर ही ऊर्ध्वगामी प्रगतिशीलता की बात सीधी और क्रियान्वित की जा सकती है।

लोहा भारी कहा जाता है और रुई हलकी। इस हलके भारीपन का कारण यह है कि रुई के परमाणु हलके होते हैं और लोहे के भारी। हलके उन्हें कहते हैं, जिनके भीतर प्रोटोन इलेक्ट्रॉन की संख्या कम होती हैं। भारी का मतलब है उनकी संख्या अधिक होना। हाइड्रोजन अणु के भार से आक्सीजन अणु का भार 16 गुना होता है और यूरेनियम का 238 गुना। जिनने अपनी भौतिक महत्वाकाँक्षाएँ जितनी अधिक बढ़ा रखी हैं, उनका भार अधिक और आयतन कम होगा। इसके विपरीत तृष्णा की न्यूनता रहने पर स्थिति हलकी फुलकी रहेगी और रुई की तरह उनका व्यक्तित्व अधिक विकसित दृष्टिगोचर होगा। इस हलकेपन का एक कारण यह भी है कि उन वस्तुओं के परमाणु कितने अधिक सघन और कितने विरल हैं। जिनके सघन होंगे वे भारी कहलावेंगे और उनके बीच जितनी विरला रहेगी उसी स्तर पर उनका हलकापन अनुभव किया जायगा, जिसकी लिप्सा जितनी सघन है, वह उतना ही बोझिल होगा। जिनका मन उस दिशा में जितना उपराम अनुभव करेगा उसे अपनी आकुल-व्याकुलता से मन पर लदे भार से राहत मिलती चली जायगी।

पानी और भाप दोनों एक ही वस्तु हैं, पर उनके अणु यथावत् रहते हुए भी भाप की स्थिति बनने पर विरल हो जाते हैं। एक इंच घेरे का पानी भाप बनने पर 1660 इंच के घेरे में फैल जाता है। मोहाशक्ति से यही विरला मनुष्य के व्यक्तित्व को सुविस्तृत बनाती हैं। आदर्शवादी चिन्तन और कर्तृत्व तभी संभव होता है जब भीतरी लिप्सा का खिंचाव, दबाव और तनाव कम हो सके। महामानव को हम सुविकसित व्यक्तित्व की विभूतियों से युक्त देखते हैं यह उनके आन्तरिक परिष्कार विस्तार पर ही निर्भर होता है।

हाइड्रोजन के परमाणु सबसे हलके होते हैं, अस्तु वायुमण्डल के सबसे ऊँचे स्तर पर उन्हीं का साम्राज्य है। इतने पर भी जब वे दूसरे भारी तत्वों के साथ जकड़ जाते हैं तो उन्हें भी निचले परत पर पड़ा रहना पड़ता है। यह कुसंग का ही फल है कि परमात्मा के अमर पुत्र आत्मा को दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों के साथ बाँधकर अधोगामी, दीन-हीन परिस्थितियों में पड़ा रहना पड़ता है।

किसी गुब्बारे में हाइड्रोजन गैस भरदी जाय तो वह रबड़ या धातु का बना होने पर भी हवा में ऊपर उड़ता चला जायगा। विवेकशीलता की प्रखरता हाइड्रोजन गैस की तरह है जो विषम परिस्थितियों में घिरे हुए मनुष्य को भी महामानवों जैसा उच्चस्तरीय जीवन-यापन का अवसर दे सकती है, पानी पर कटोरी तैरती रहती है। समुद्र पर जहाज दौड़ते रहते हैं। कटोरी या जहाज भारी धातु के बने होने पर तैरते हैं। इसका कारण यह है कि पानी के भार की तुलना में उस धातु का तथा उसमें भरी हवा का मिला-जुला वजन पानी से हलका बैठता है। जब तक यह हलकापन बना रहेगा तब तक डूबने का प्रश्न न आवेगा, पर उनके पैंदे में छेद हो जाने या अन्य किसी कारण उनमें पानी भरने लगे तो फिर डूबना निश्चित है।

साँसारिक उत्तरदायित्वों से बोझिल होने पर भी यदि भीतर उत्कृष्ट चिन्तन की हवा भरी रहे तो हम डूबेंगें नहीं पर यदि भीतर ही हवा के स्थान पर लिप्सा पानी की तरह भरने लगी तो फिर डूबना निश्चित है। तैरना तभी तक संभव है जब तक पानी से हलके परमाणुओं वाली हवा जहाज में भरी रहे। हमारा चिन्तन स्वच्छ हो- और आदर्श स्पष्ट हो तो साँसारिक जीवनयापन करते हुए भी इस भव सागर से पार हमारा जीवन जहाज आसानी से तैरते हुए पूर्णता के नियत लक्ष्य तक सरलता पूर्वक पहुँच सकता है।

- जिसे अपनाकर अपनी सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों की देव सम्पदा को हर घड़ी प्रसन्न रहने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है। स्वर्ग और नरक कोई क्षेत्र नहीं वरन् लोक है। लोक का अर्थ है दृष्टिकोण। निष्कृष्ट चिन्तन की प्रतिक्रिया नारकीय दुख दारिद्रय से भरी हुई होती है और उत्कृष्टता भरी विचारणाओं का प्रतिफल स्वर्ग जैसी सुख शान्ति प्रस्तुत करता रहता है। ईश्वर विश्वास की राह पर चलता हुआ मनुष्य स्वर्गीय वातावरण प्रस्तुत करता है, उसमें स्वयं रहते हुए आनन्द अनुभव करता है और समीपवर्ती क्षेत्र को उसी प्रकाश से दीप्तिवान बनाता है।

आस्तिकता का तीसरा प्रतिफल है - मुक्ति। मुक्ति का अर्थ है - अवाँछनीय भव बन्धनों से छूटना। अपनी दुष्प्रवृत्ति, मूढ़ मान्यताएं एवं विकृत आकाँक्षाएं ही वस्तुतः सर्वनाश करने वाली पिशाचिनी हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, छल, चिंता, भय, दैन्य जैसे मनोविकार ही व्यक्तित्व को गिराते, गलाते, जलाते हैं। आधि और व्याधि इन्हीं के आमन्त्रण पर आक्रमण करती हैं। आस्तिकता इन्हीं दुर्बलताओं से जूझने की प्रेरणा भरती हैं। सारा साधना शास्त्र इन्हीं दुष्प्रवृत्तियों को उखाड़ने, खदेड़ने की पृष्ठभूमि विनिर्मित करने के लिए खड़ा किया गया है। इनसे छुटकारा पाने पर देवत्व द्रुतगति से उभरता है और अपनी स्वतन्त्र सत्ता का उल्लास भरा अनुभव होता है।

मनुष्य कितने ही दुराग्रहों, पूर्वाग्रहों, पक्षपातों, प्रचलनों, अनुकरणों से घिरा बँध कंटकाकीर्ण राह पर घिसटता रहता है। स्वतन्त्र चिन्तन की विवेक दृष्टि उसे कदाचित ही मिल पाती है। यदि वह मिली होती तो निश्चय ही औचित्य को प्रश्रय दिया गया होता और तथाकथित मित्र, परिचित क्या कहते हैं ? इसकी पूर्णतया उपेक्षा करके विवेक के प्रकाश में कदम बढ़ाने का साहस सँजोया होता। महामानव इसी सत्साहस के बल पर स्वयं धन्य बनें हैं और अपने युग को - क्षेत्र को धन्य बनाया है। जीवन-मुक्त पुरुष अवाँछनीय चिन्तन से मुक्त होते हैं और आत्मिक स्वतन्त्रता का आनन्द लेते हैं। स्पष्ट है कि ईश्वर भक्तों को संयमी, स्वार्थपरता से रहित, लोकोपयोगी ब्राह्मण और साधु स्तर का जीवन जीना पड़ता है। इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है। ईश्वर विश्वास अपनाकर हम जीवन लक्ष्य प्राप्त करने की ओर अग्रसर होते हैं और उसे पाकर रहते हैं।


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