परिवार निर्माण में कथा प्रसंगों की भूमिका

December 1975

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परिवार-शिक्षण की दृष्टि से घर के बड़े यह परम्परा आरम्भ कर सकते हैं कि दिन भर की काम-काजी, बात-चीत में समय-समय पर हल्के-फुल्के ढंग से यह परामर्श देते रहें कि इस कार्य को किस तरह अधिक अच्छी तरह किया जा सकता है। इसमें सिद्धान्त और व्यवहार दोनों का जिक्र किया जाय। लड़की यदि आँगन में बुहारी लगा रही है और वह उस कार्य को ठीक तरह कर नहीं पा रही है तो उसे अच्छी तरह सफाई करके दिखानी चाहिए और बताया जाना चाहिए कि भूल कहाँ होती है और उसे दूर करके अच्छी सफाई करने का सिद्धान्त और तरीका क्या है ? इसी प्रकार बच्चों द्वारा किये जाने वाले कामों को किस प्रकार अधिक सुन्दर ढंग से किया जा सकता है, बड़ों को इसका मार्ग-दर्शन व्यावहारिक और सैद्धान्तिक दोनों ही रीति से करते रहना चाहिए। कार्यों की तरह ही विचार भी प्रकट होते रहते हैं। इस ओर भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कौन किस सम्बन्ध में क्या सोचता है और उसके सोचने में कितना औचित्य तथा कितना अनौचित्य मिला हुआ है ? परामर्श इस सम्बन्ध में भी दिया जाना चाहिए।

इस संदर्भ में एक विशेष बात ध्यान में रखनी चाहिए कि सुधार का परामर्श देना बहुत ही टेड़ी खीर है। इसमें दूसरे को अपना अपमान अनुभव हो सकता है, उसके स्वाभिमान को ठेस लग सकती है। आमतौर से यह सहन नहीं होता। गलती बताने वाले को निंदक, विद्वेषी, सनकी आदि कहा जाता है और किसी भी उलटे-सीधे तर्क का सहारा लेकर उस परामर्श की काट की जाती हैं। अशिष्ट लोग मुँहजोरी करने लगते हैं और शिष्ट मुँह से तो कुछ नहीं कहते, पर व्यवहार में उपेक्षा एवं अवज्ञा बरत कर अपना विरोध प्रकट करते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में बात एक ही सिद्ध होती है कि परामर्शदाता के मार्गदर्शन को अस्वीकार कर दिया गया।

ऐसे प्रसंगों में खीजने और बुरा मानने की अपेक्षा यह देखना चाहिए कि सत्परामर्श और उपयोगी शिक्षण की भी अवज्ञा क्यों हो रही है ? होता यह है कि परामर्श के साथ-साथ भर्त्सना, कटुता, तिरस्कार एवं मूर्ख अनाड़ी सिद्ध करने वाली भावभंगिमा तथा शब्दावली का पुट लग जाता है और सुनने वाले को उतना अंश ही तिलमिला देता है। एक गिलास दूध में एक मक्खी पड़ जाने से सारा दूध अपेय बन जाता है। ठीक इसी प्रकार सत्परामर्श के साथ तिरस्कार अपमान, कटु शब्दों का समावेश कर दिया जाय-अपना अहंकार और दूसरे को मूर्ख ठहराया जाय तो इतने भर से सारी बात बिगड़ जाती है और गुड़ को गोबर में बदलते देर नहीं लगती।

परामर्शदाता की भूमिका निभाने से पूर्व वाणी की यह कलाकारिता सीखी जानी चाहिए कि किस तरह दूसरे के सम्मान-स्वाभिमान की रक्षा करते हुए-उसे खिजाने नहीं, प्रोत्साहित करने के ढंग से अभीष्ट शिक्षा किस प्रकार दी जा सकती है। जो किया जा रहा है, उसमें जितना श्रम हुआ है, जितना उत्साह दिखाया गया है उतने अंश की पहले प्रशंसा की जानी चाहिए; इसके बाद जो कमी रही है उसकी भूल का उल्लेख न करते हुए यह बताया जाना चाहिए कि उस कार्य को और भी अधिक कुशलता, सुन्दरता एवं सफलता के साथ किस प्रकार किया जा सकता है। खंडन परक चर्चा हर प्रसंग में हानिकारक होती है। समीक्षा करना टेड़ी खीर है। उसे कोई बिरले ही गले उतार पाते हैं और कोई विरले ही सन्तुलित ढंग से उसे कर पाते हैं। आमतौर से समीक्षा, कटुता एवं मनोमालिन्य का रूप धारण कर लेती है। इससे दुःखी होकर वह सोचा जाने लगता है कि-”बुरा जमाना आ गया, लोग ढीठ हो गये, सत्परामर्श सुनने को कोई तैयार नहीं-ऐसी दशा में आँखों पर पट्टी और मुँह पर ताला लगाये रहना ही उचित है।”

यहाँ समझने की बात इतनी ही है कि कड़ुई कुनैन खाने के लिए प्रौढ़ और दूरदर्शी व्यक्ति ही तैयार हो सकते हैं, बच्चे उसे खाने को रजामंद नहीं होंगे। खाने के लिए जोर दिया जाय तो वे उसे फेंक-फाँक देंगे और खाने का बहाना बना लेंगे। उन्हें खिलाना हो तो चीनी की परत चढ़ाकर गले उतारने की व्यवस्था बना सकते हैं। हमें यही मानकर चलना चाहिए कि भर्त्सना भरा परामर्श किसी को भी स्वीकार नहीं हो सकता। ऐसी समीक्षा से किसी को सहमत करना कठिन है जिसमें उसकी मूर्खता सिद्ध की गई हो।

समीक्षा किये बिना-परामर्श दिये बिना, सुधार सम्भव नहीं। अपने आप अपनी गलती ढूँढ़ लेने और सुधार लेने वाले तो सन्त होते हैं, सामान्य मनुष्य नहीं उन्हें सँभालने, सुधारने और दिशा देने की आवश्यकता रहेगी ही। इसलिए मध्यवर्ती सन्तुलित मार्ग निकालना चाहिए और प्रशंसा युक्त निन्दा करने की कला सीखनी चाहिए। जिसे परामर्श दिया जा रहा है उसे अपने और उसके बीच घनिष्ठ आत्मीयता और गहरी सद्भावना का विश्वास भी दिलाते रहना चाहिए। समीक्षक के प्रति निन्दक और द्वेषी होने की आशंका जगती है अस्तु उसे निरस्त करने के लिए परामर्श देने से पूर्व अपनी सद्भाव सम्पन्न घनिष्ठता का विश्वास किसी न किसी रूप में अवश्य ही स्मरण करा देना चाहिए। हर काम में कुछ न कुछ श्रम और मनोयोग लगा ही होता है, उतने की प्रशंसा किये बिना समीक्षा की शुरुआत कभी नहीं करनी चाहिए। जो गलती रही है उससे होने वाली हानि को प्रधानता न देकर उस कल्पना चित्र में रंग भरना चाहिए जो सुधार होने पर सुखद सम्भावना सामने आने की आशा जगाता है। वर्तमान भूल से होने वाली हानि की चर्चा परामर्श के अन्त में और हल्के ढंग से करनी चाहिए ताकि उसे अभीष्ट जानकारी मिलने और सँभलने की सतर्कता तो जग जाय, पर यह अनुभव न हो कि उसे तिरस्कृत किया जा रहा है। जिन परिस्थितियों में भूल होती रही है, दोषी उन परिस्थितियों को बता देने से भी काम बन जाता है। परामर्शदाता का उद्देश्य निन्दा करना या जी दुखाना तो हाता नहीं; वह सुधार ही तो चाहता है। इस प्रयोजन के लिए व्यक्ति की निन्दा करने की अपेक्षा परिस्थितियों का दोष कह देने से भी काम चल सकता है। इसमें मानापमान का झंझट भी नहीं रहता, साथ ही परोक्ष रूप से असावधानी की भर्त्सना भी हो जाती है। मन्तव्य इतने भर से हल हो सकता है।

जिन्हें अपना घर-परिवार सँभालना हो उन्हें सभी सदस्यों को पग-पग पर तो नहीं, पर अवसर देखकर भूलों के लिए टोकने और अधिक अच्छा करने का उपाय बताने की प्रक्रिया अनवरत रूप से जारी रखनी व्यक्ति एवं परिवार की तरह यही रीति-नीति समाज सुधार के क्षेत्र में भी प्रयुक्त होनी चाहिए और प्रत्येक शुभाकांक्षी को सत्परामर्श देने का प्रयास निरन्तर जारी रखना चाहिए। यह प्रयत्न किस चट्टान से टकराकर टूटते हैं ? जो इस जान लेगा वह सामने वाले के सम्मान, अपमान का सम्वेदनाओं का समुचित ध्यान रखे रहेगा। फलतः उसका तीर ठीक निशाने पर बैठता रहेगा और यह शिकायत करने का कोई कारण न रहेगा कि लोग सत्परामर्श भी सुनने-मानने को तैयार नहीं हैं।

प्रत्येक विकासोन्मुख परिवार को अपने यहाँ परामर्श गोष्ठी का नियमित रूप से प्रचलन आरम्भ कर देना चाहिए। इसे ज्ञान-चर्चा नाम दिया जाय। इसके लिए रात्रि को भोजन से निवृत्त होने के पश्चात् अवकाश वाला समय अधिक उपयुक्त रहता है। इस प्रचलन की जहाँ उपयोगिता समझी जाय वहाँ भोजन जल्दी बनने और जल्दी खाने की परम्परा डाली जानी चाहिए अन्यथा देर तक यही झंझट चला रहा तो गोष्ठी में सम्मिलित होने का अवकाश ही न रह जायेगा, बच्चे तो तब तक सो ही जायेंगे।

गोष्ठी में कथा, कहानियाँ सुनाने की प्रक्रिया चले। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सभी नर-नारी कथा प्रसंगों को बड़े चाव के साथ सुनते हैं। बच्चों के लिए तो प्रायः कथा साहित्य ही छपता है। बड़ों के लिए पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ की ही भरमार रहती है। प्रेसों में प्रायः आधी छपाई तथा साहित्य की होती है। इस रुचि का उपयोग धर्म क्षेत्र में भी चिरकाल से होता आया है। संस्कृत में पुराण, उपपुराण, काव्य, नाटक, ग्रन्थों का विस्तार अन्य विषयों पर लिखे गये समस्त साहित्य की तुलना में भी अधिक है। रामायण, भागवत आदि ग्रन्थ धर्म क्षेत्र में भक्ति भावना साथ पढ़े, सुने जाते हैं और इसका पुण्य माहात्म्य बताया जाता है। यह सब कथा श्रवण के प्रति मनुष्य की सहज रुचि का परिचायक है।

घरों में चुनी हुई- धार्मिक, सामाजिक, नैतिक एवं आदर्शवादी दिशा देने वाली प्रेरणाप्रद कथाएं इस ज्ञान गोष्ठी में सुनाई जानी चाहिए। यदि पुराणों को महत्व देना हो तो एक सिरे से उनका वाचन अन्धाधुन्ध नहीं होना चाहिए। उनमें से उपयोगी अंश ढूंढ़े और उभार जाने चाहिए। इन ग्रन्थों में ऐसी चर्चाएं भी कम नहीं जो आज की स्थिति में ने केवल निरर्थक है वरन् कई बार तो अनर्थ का भी समर्थन करती हैं। अस्तु यह नितान्त आवश्यक है कि पुराण ग्रन्थों को केवल उपयुक्त शिक्षा देने वाले प्रसंगों को छाँटकर ही सुनाया जाय।

इतिहास में ऐसे प्रेरक घटना-क्रम असंख्य हैं जो मानव जीवन के विविध पक्षों पर प्रकाश डालते हैं और अवाँछनीयताओं की हानि तथा सन्मार्ग पर चलने के लाभ सिद्ध करते हैं। ऐसे कथा-प्रसंगों पर अनेकों प्रेरणाप्रद पुस्तकें बाजार में-पुस्तकालयों में मिल सकती हैं। कल्पित कहानियों एवं उपन्यासों की भी कमी नहीं। अपनी ‘युग-निर्माण’ मासिक पत्रिका इसी प्रकार की पाठ्य-सामग्री से भरी रहती है।

ज्ञान-चर्चा गोष्ठी में इसी प्रकार की कथा साहित्य सुनाया जाया करें। इसमें सम्मिलित होने के लिए न आग्रह करना पड़ेगा और न समझाने, दबाव डालने की आवश्यकता पड़ेगी। बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी उसमें उपस्थित होने के लिए स्वयं ही उत्सुक रहेंगे और कोई यह अनुभव न करेगा कि यह उपदेश प्रवचन का रूखा विषय है और उसे सुधारने संभालने के लिए ही सारा सरंजाम खड़ा किया गया है। परोक्ष शिक्षा जितनी सफल होती है उतनी प्रत्यक्ष निर्देश की शैली नहीं। कथा-प्रसंगों का यह उपक्रम वस्तुतः परिवार के लोगों की मनोभूमि एवं चिन्तन दिशा परिष्कृत करने के लिए बहुत सरल, सरस और सफल माध्यम है। इसे हर परिवार में आरम्भ किया जाना चाहिए।

‘नानी की कहानी’ वाली बात अभी भी मुहावरों में आती है। दादी या नानी के जिम्मे एक काम यह भी होता था कि वे बच्चों को कहानियाँ सुनाये। बच्चे उन्हें घेर कर बैठ जाते थे और वे बड़ी हंसी-खुशी के वातावरण में शिक्षा और मनोरंजन का समन्वय करते हुए कहानियाँ कहती थी। न केवल बालक वरन् पूरा परिवार उन्हें चावपूर्वक सुनता था। चौपालों पर भी बड़े-बूढ़े, सिंहासन बत्तीसी, बेताल पच्चीसी, बीरबल विनोद आल्ह खण्ड एवं कथा पुराणों के प्रसंग सुनाते थे और उन्हें सुनने के लिए बड़ी संख्या में छोटे-बड़े उपस्थिति होते थे। अब मनोरंजन के दूसरे साधन बन गये-व्यस्तता बढ़ गई और आलस छा गया-ऐसी दशा में वह कहानियों वाला प्रचलन भी बन्द हो गया। रामायण की कथा रात्रि को मुहल्ले-मुहल्ले में होती थी और उसे सुनने के लिए उस क्षेत्र के बहुत लोग इकट्ठे होते थे। इस प्रचलन से ज्ञानवृद्धि और मनोरंजन का दुहरा लाभ है। यह दोनों ही ऐसे हैं जिन्हें निरर्थक नहीं कहा जा सकता। सामूहिकता की प्रवृत्ति घटने और वैयक्तिकता बढ़ने से इस दिशा में शिथिलता बढ़ती जाती है। यह चिन्ता की बात है।

इसी प्रचलन को अब नये सिरे से हमारे घरों में आरम्भ किया जाना चाहिए। पुराने लोग पुस्तकों के तथा शिक्षा के अभाव में कहानियाँ जवानी याद रखते थे। अब वैसी आवश्यकता नहीं रही। इस उद्देश्य को पूरा कर सकने वाली ढेरों पुस्तकें बाजार में उपलब्ध है। मुहल्ले का पुस्तकालय इस आवश्यकता की पूर्ति कर सकता है। हर घर में नई-नई पुस्तकें खरीदते रहना तो कठिन पड़ेगा, पर एक मुहल्ले में एक छोटा पुस्तकालय इस प्रयोजन के लिए लाभदायक हो सकता है और उससे अदल-बदलकर प्रत्येक परिवार पुस्तकें प्राप्त करने, सुनाने, वापिस करने का सिलसिला चल सकता है। एक ही जगह खरीदी हुई पुस्तकों से पूरे मुहल्ले का काम चल सकता है।

घर का कोई उत्साही सदस्य इस कार्य को अपने कन्धे पर ले सकता है। बदल-बदल कर कई व्यक्ति भी इसे पूरा करते रह सकते हैं। कहने वाले वक्तृत्व कला का अभ्यास होगा और मनोरंजन की एक उत्साहवर्धक परिपाटी चल पड़ेगी। अपने कहानी कहने वालों की एक विशेष पद्धति यह होनी चाहिए कि कहानी के हर मोड़ पर एक छोटी समीक्षात्मक-विवेचनात्मक टिप्पणी अपनी ओर से लगाते चलें। जिससे उसी में से कितनी प्रकार के निष्कर्ष निकलते रहें और नई नई दिशाओं, प्रेरणाओं तथा भाव सम्वेदनाओं का लाभ मिलता रहे। यह शैली मासिक ‘युग-निर्माण योजना’ द्वारा भली प्रकार सीखी जा सकती है। कितने छोटे-छोटे जीवन चरित्र तथा कुछ और भी पुस्तकें इस प्रयोजन के लिए छपी है। प्रसंगों एवं जीवन वृत्तांतों को टिप्पणी समेत प्रस्तुत किया जाय। हर व्यक्ति निष्कर्ष नहीं निकाल सकता । कथाओं में हर मोड़ पर कुछ समझने योग्य तथ्य दिये होते हैं उन्हें उभारा जा सके तो उससे सुनने वालों की अन्तः चेतना नई-नई अनुभूतियों से लाभान्वित होती रह सकती है। परिवार शिक्षण का यह बहुत अच्छा तरीका है। जिन सत्प्रवृत्तियों को घर के लोगों ने उगाया जगाया जाना आवश्यक है उनके लिए सीधा उपदेश देने की अपेक्षा कथा माध्यम से परोक्ष रूप से गले उतारना अधिक श्रेयस्कर है। सीधी शिक्षाएं रोज-रोज नहीं दी जा सकती। इससे ऊबने और खीजने लगने का खतरा है, पर कथा माध्यम से तो हर दिन उसी तथ्य को पुष्ट किया जाया रहे तो भी हर्ज नहीं। उन्हें हर दिन उसी उत्साह और चाव के साथ सुना जा सकता है।

अपने परिवार में जिन वृत्तियों की कमी दिखाई पड़ती है - जिन्हें बढ़ाया जाना आवश्यक है। उसी स्तर की कहानियों का चुनाव करते रहने से- कहने की शैली निखारते रहने से परिवार शिक्षण का काम भली प्रकार से चलता रह सकता है।

सप्ताह में एक बार या अवसर के अनुरूप घर की छोटी-बड़ी समस्याओं पर परस्पर विचार विनिमय करते रहने के लिए भी यही कथा अवसर बहुत उपयुक्त हैं। घर की व्यवस्था एवं प्रगति के सम्बन्ध में हर व्यक्ति को कुछ सोचने और कुछ करने का अवसर मिले तो इससे उपेक्षा और अन्यमनस्कता की स्थिति दूर होगी। परिवार के विकास में इस प्रकार दिलचस्पी जग सकती है और उसका वास्तविक लाभ कुछ ही दिनों में सामने खड़ा दिखाई दे सकता है।

यह आवश्यक नहीं कि कोई बहुत बड़ी समस्याएं सामने आने पर ही यह परामर्श विचार -विमर्श किया जाय। कल क्या साग-दाल बननी चाहिए-परसों का त्यौहार किस तरह मनाया जाना चाहिए ? जैसी छोटी-छोटी बातें भी परामर्श का विषय हो सकती हैं और अर्थ-व्यवस्था, सुसज्जा, शिक्षा, सुधार जैसे समस्या प्रसंगों की जानकारी घर के सभी लोगों को देकर उन्हें पूछा बताया तथा कुछ सोचने एवं करने के लिए उत्साहित किया जा सकता है। परिवार में हमारा भी कुछ उत्तरदायित्व एवं योगदान है, यह अनुभव घर के सभी सदस्य करने लगें तो उस रुझान एवं सहयोग से परिवार निर्माण का उत्साहवर्धक पथ प्रशस्त हो सकता है।

आवश्यक नहीं कि हर दिन कहानियाँ ही सुनाई जाय। समाचार पत्रों को महत्वपूर्ण घटनाएं भजन, कीर्तन रामायण कथा, पहेलियाँ, प्रश्नोत्तर जैसे कई आधार समय-समय पर बदले जाते रह सकते हैं। जिस घर में इन माध्यमों में से जो अधिक पसन्द किया जाय, वहाँ उसकी प्रधानता रखी जा सकती है।

विचार परिष्कार की दृष्टिकोण विकसित करने की, आदर्शवादी उमंगे उत्पन्न करने की दृष्टि से रात्रि को कहानियाँ कहने प्रचलन देखने से छोटा किन्तु परिणाम में बहुत बड़ा ही सिद्ध हो सकता है। इस अति प्राचीन किन्तु अति नवीन परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए हमें नये सिरे से प्रयत्न आरम्भ करना चाहिए। परिवार निर्माण में जहाँ भी रुचि हो वहाँ यह नया प्रयोग परीक्षण आरम्भ किया जाना चाहिए कि यह छोटा सा शुभारम्भ कितना बढ़ा चढ़ा सत्परिणाम प्रस्तुत करता है।

परिवार निर्माण का अर्थ -सन्तान संख्या का विस्तार करना नहीं और न यह कि किसी तरह मन से सर्वथा पृथक लोगों को एक बाड़े में बन्द किये रहने का आग्रह करते रहा जाय। कुटुम्ब बड़ा हो या छोटा उसकी शोभा सफलता इस बात में है कि सुव्यवस्था एवं सुसंस्कारिता को उसमें कितना प्रश्रय मिल रहा है और गुण, कर्म, स्वभाव की विभूति सम्पदा वहाँ किस कदर बढ़ रही है। इस प्रयोजन में गरीबी या व्यस्तता बाधक नहीं है। कठिनाई एक ही रहती है कि घर के लोगों को शरीर सुख ही ध्यान में रहता है, उनके दृष्टिकोण एवं भावना स्तर को ऊंचा उठाने की आवश्यकता अनुभव नहीं की जाती और न उसके लिए कुछ प्रयत्न ही किया जाता है।

बात तब बनेगी जब यह समझा जाय कि शारीरिक सुख या आर्थिक सुविधा का महत्व अति स्वल्प है, उतने भर से आलसियों, विलासियों और अहंकारियों जैसी विडम्बनाएं ही हाथ लगती हैं। व्यक्तित्व का विकास, चिन्तन एवं दृष्टिकोण की प्रखरता पर निर्भर रहता है। आध्यात्मिक न सही-भौतिक ही सही-किसी भी क्षेत्र में दूसरों को प्रभावित कर सकने वाला व्यक्ति ही सफल हो पाता है। यह आकर्षण वेश विन्यास का नहीं गुण सम्पदा का ही होता है। दुर्गुणी व्यक्ति अपने निकटतम व्यक्तियों को भी रुष्ट रखता है और उनके सहज सहयोग तक से वंचित बना रहता है। इसके विपरीत सद्गुणी अपनी सुगन्ध से रास्ता चलने वालों तक को आकर्षित करता है और उन्हें अपना प्रशंसक मित्र और सहयोगी बना लेता है।

बाप-दादों की कमाई बैठे-बैठे खाना अथवा चोरी चालाकी से वैभव खड़ा कर लेना दूसरी बात है, पर यदि किसी को -किसी भी क्षेत्र में वास्तविक सफलता प्राप्त करनी हो तो उसके लिए सद्गुणों की सम्पदा अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मानवी प्रगति के प्रत्येक पक्ष में दूसरों का सहयोग आवश्यक होता है। यह सहयोग किसी को अनायास ही नहीं मिल जाता; वरन् प्रामाणिकता की परख पर सही सिद्ध होने वालों को ही यह अनुदान उपलब्ध होता है। चोर-चोर मौसेरे भाई हो तो सकते हैं पर यह रिश्ता तभी तक चलता है जब तक वे एक दूसरे के अनैतिक स्वार्थों को सिद्ध करते रहते हैं। जैसे ही उसमें शिथिलता आई वैसे ही वह मैत्री बालू की दीवार की तरह विस्मार होती दिखाई देती है। प्रगति के ठोस आधारों में दूसरों का विश्वास और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप मिलने वाला सद्भाव भरा सहयोग अनिवार्य रूप से आवश्यक होता है। जिसने यह उपार्जन कर लिया, समझना चाहिए कि उसकी प्रगति का द्वार खुल गया, वह भौतिक या आत्मिक किसी भी क्षेत्र में अपने स्नेही, सहयोगियों की सहायता से आगे बढ़ सकने में समर्थ हो सकता है।

दूरदर्शी गृहपति अपने परिवार के लिए आर्थिक साधन जुटाते रहने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर देते ; वरन् पूरी सतर्कता और गम्भीरता के साथ यह अनुभव करते हैं कि इन आत्मीयजनों को चिन्तन एवं स्वभाव की दृष्टि से भी सुसम्पन्न बनाया जाय। जहाँ यह मान्यता काम कर रही होगी और इसके लिए प्रयत्न चल रहें होगे वहाँ सुसंस्कारिता बढ़ेगी और उसकी बहुमूल्य फसल के घर के लोग यथासमय लाभान्वित होंगे। परिवार के प्रति मोह, ममता तो सभी रखते हैं, पर जहाँ यह दूरदर्शी आकाँक्षा जग रही हो समझना चाहिए कि परिवार के प्रति उत्तरदायित्व निबाहने की बात यहीं बन पड़ रही है।

स्पष्ट है कि किसी को भी हर घड़ी आदर्शवादिता अपनाने की शिक्षा नहीं दी जा सकती। इस दिशा में अति करने से उलटी प्रतिक्रिया होती है। समयानुसार परोक्ष रूप से ही इस प्रकार का प्रशिक्षण किया जा सकता है। किसी दिशा में अधिक सोचना उसकी उपयोगिता समझना और जो उपयुक्त जंचे उसे अपनाना मनुष्य का अपना काम है। इस संदर्भ में सहायता भर की जा सकती है। आग्रह थोपा नहीं जा सकता। यदि थोपा जा सका होता तो गाँधी जैसे महापुरुष के बड़े पुत्र हीरालाल गाँधी को जहाँ-तहाँ भर्त्सना क्यों सहनी पड़ती ? तब हिरण्यकश्यपु जैसे प्रभावशाली का पुत्र क्यों न अपने पिता का अनुसरण करता। थोपने से मनुष्य की जीवन चेतना को किसी दिशा में ढाला नहीं जा सकता, बाध्य तो शरीर ही किया जा सकता है। अन्तः चेतना को दिशा देने वाले साधन ही जुटाये जा सकते हैं। उस प्रकार की रुझान उत्पन्न करने वाला वातावरण ही बनाया जा सकता है। उसी के लिए शक्ति भर प्रयत्न करना गृहस्वामी का कर्तव्य है। इस दिशा में सतर्क और प्रयत्नशील रहा जाय तो उतने भर से बहुत काम चल सकता है।

इस संदर्भ में जो साधन सामग्री जुटाई जानी चाहिए उसमें प्राथमिकता घरेलू पुस्तकालय को-ज्ञान मन्दिर को दी जानी चाहिए। यह हर विचारशील परिवार को अनिवार्य आवश्यकता है। पेट की भूख बुझाने के लिए हर परिवार का एक रसोई घर, अन्न भण्डार अनिवार्य रूप से आवश्यक होता है। ठीक उसी प्रकार मस्तिष्क की- अन्तःकरण की -भूख बुझाने के लिए ज्ञान भण्डार भी होना चाहिए। पेट का महत्व समझा जाय और अन्तःकरण की उपेक्षा की जाय तो ही ज्ञान भण्डार को निरर्थक कहा जा सकता है। जो चेतना का, चिन्तन का दृष्टिकोण का, अन्तःकरण का, भाव सम्वेदनाओं का कोई मूल्य नहीं समझते जिनके लिए धन और विलास ही सब कुछ है, उन्हें ज्ञान सम्पदा का महत्व बताया, समझाया जा सकना कठिन है। पर जिन्होंने यह समझ लिया है कि मानवी सता चिंतन और चेतना के स्तर पर ही समुन्नत और पतित होती है सम्पन्न और दरिद्र बनती है उन्हें यह स्मरण भर दिलाना पर्याप्त होगा कि शरीर की तरह आत्मिक चेतना की भी कुछ भूख होती है और उसका साधन जुटाना पेट भरने की सामग्री जुटाने से कम नहीं वरन् कुछ अधिक ही आवश्यकता है। घरेलू पुस्तकालय की स्थापना इसी अभाव की पूर्ति करती है।

कूड़े-कचरे की तरह किस्सा, कहानियों की धर्म ढकोसलों की बेकार पुस्तकें हर घर में पाई जा सकती है; पर ऐसे विचारशील परिवार विरले ही मिलेंगे जिनने घर के हर सदस्य को भावनात्मक परिष्कार कर सकने वाले साहित्य को प्रयत्न करके तलाश किया हो। अच्छी पुस्तकें खरीद ली जाय तो उन्हें उपेक्षापूर्वक किसी मेज, अलमारी में पटक दिया जाय तो उतने भर से भी कुछ काम नहीं चलता। उन्हें आवश्यक महत्व देने के लिए सुसज्जित स्थान पर सुसज्जित रूप से रखना उनका महत्व समझाना और स्नेह, दुलार के साथ पढ़ने या सुनने के लिए सहमत करना भी एक बड़ा काम है।

निम्नगामी मानसिक हलचलें उत्पन्न करने वाले ओछे उथले साहित्य में तो हर किसी की सहल रुचि होती है। पानी के नीचे की ओर तो अपने आप बहता है, पर यदि उसे ऊपर लाना हो तो कई तरह के साधन जुटाने और श्रम करने की आवश्यकता पड़ेगी। ठीक यही बात कुरुचि और सुरुचि की ओर मोड़ने के सम्बन्ध में भी है। विवेकशीलता उत्पन्न करने वाला साहित्य आमतौर से नीरस समझा जाता है और उसे पढ़ने में अरुचि रहती है; इस ओर रुचि उत्पन्न करना उपयोगी पुस्तकें खरीदे कर घर में रख देने से भी अधिक कठिन काम है। पैसा तो किसी प्रकार खर्च किया जा सकता है, पर यदि खरीदी पुस्तकों को किसी ने पढ़ा ही नहीं तो घर में बेकार का कूड़ा करकट बढ़ा और उद्देश्य कुछ भी पूरा न हुआ। अस्तु जहाँ ज्ञान मन्दिर की उपयोगिता समझी जाय वहाँ यह जिम्मेदारी भी मानी जाय कि सारी व्यवहार कुशलता का प्रयोग करके उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहन भी दिया जायगा और इसकी देखभाल भी रखी जायेगी कि वैसा ही भी रहा है या नहीं।

जो बिना पढ़े हैं उन्हें पढ़कर सुनाया जाना चाहिए। एक तरीका यह भी है कि इस प्रकार का साहित्य पढ़े जाने और सुने जाने का क्रम बनाया जाय और उसके लिए नियत समय निर्धारित किया जाय। यदि गृहपति स्वयं पुस्तकें सुनाने लगें और कुछ पढ़ा या सुना गया है उसे गहराई से समझने की परीक्षा रूप में पूछताछ करने लगे तो उस पाठन का महत्व और भी बढ़ सकता है और कुछ दिन में सारे परिवार की सहज रुचि उस और ढल सकती है।

अब गुरुकुल रहे नहीं -धर्मोपदेश के नाम पर निरर्थक विडंबनाएं चलती और भ्रम फैलाती रहती हैं। जीवनोपयोगी शिक्षा के लिए घर के लोगों को किसी विद्यालय में पढ़ने भेजा जाय यह भी सम्भव नहीं। ऐसे सुयोग्य शिक्षक अपने घर में आकर रहने लगें यह तो असम्भव है। फिर ऐसे सूक्ष्मदर्शी प्रभावशाली लोग हैं भी कहा जो व्यक्ति की, समाज की वर्तमान समस्याओं का सही और सामयिक समाधान प्रस्तुत कर सकें। इन सब कठिनाइयों का समाधान घरेलू पुस्तकालय की स्थापना से ही सम्भव हो सकता है। जीवित या स्वर्गीय महामानवों की अति महत्वपूर्ण शिक्षा किसी भी समय कितने ही देर प्राप्त करते रहने उनके साथ सत्संग करते रहने का उपाय एक ही है उनके ग्रन्थों को ध्यानपूर्वक श्रद्धापूर्वक पढ़ा जाय और यह मनन किया जाय कि उस कसौटी पर अपनी स्थिति कितनी खरी उतरती है। साथ ही यह भी मनन किया जाय कि उत्कृष्टता अपनाने के लिए कुछ किया जा सकता है ?

बड़े-बड़े धर्मग्रन्थों से घर की शोभा बढ़ती है। आध्यात्मिक और दार्शनिक ग्रन्थ विशिष्ट लोगों के लिए विशिष्ट प्रयोजनों के लिए लिखे हैं। परिवार के लोगों को उनके स्तर के अनुरूप उनकी समस्याओं का समाधान करने वाली सरल पुस्तकें ही उपयोगी हो सकती हैं। बछड़े की पीठ पर हाथी का हौदा नहीं लादा जा सकता है। बच्चों, किशोरों, महिलाओं छात्रों तथा काम काजी तरुणों की उनकी वर्तमान स्थिति में जो समस्याएं सामने हैं उनका व्यावहारिक हल बताने वाली पुस्तकें ही घरेलू पुस्तकालय के काम ही हो सकती हैं। बड़े धर्म ग्रन्थों के प्रति श्रद्धा तो रखी जाय, पर साथ ही यह समझा जाय कि वे परिवार के सदस्यों का सामयिक एवं व्यावहारिक मार्ग दर्शन नहीं कर सकते। ऐसी दशा में उन्हें पढ़ने का आग्रह किया जाय और वह कार्यान्वित होने भी लगे तब भी अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध न होगा। अस्तु घरेलू पुस्तकालय की स्थापना पढ़ने के लिए प्रोत्साहन का क्रम बनाने के साथ उपयोगी पुस्तकों के चुनाव का भी अति सतर्कता पूर्वक ध्यान रखा जाना चाहिए।

इस प्रयोजन के लिए कुछ तो पैसा खर्च होना ही है। उसे अन्न, शाक, दूध, दवा कपड़ा, साबुन स्तर का अनिवार्य रूप से आवश्यक दैनिक खर्च मानकर ही चलना चाहिए। कभी उत्साह, कभी उपेक्षा का उतार-चढ़ाव उसमें नहीं चलना चाहिए। यह दैनिक और अनिवार्य खर्च है ? इसको स्मरण रखने और आदत का अंग बनाने के लिए यह विधि अपनाई जानी चाहिए कि घर के किसी पवित्र स्थान पर, पूजा स्थल पर ज्ञानघट स्थापित किया जाय और इस मद को जितना महत्व दिया गया हो उतना पैसा उस पेटी में नियमित रूप से डाला जाय। खुले पैसों की वैसे तो किल्लत नहीं रही, पर यदि उसमें झंझट लगता हो तो उतने पैसे की एक छोटी पर्ची उसमें डाली जा सकती है और उन्हें हर महीने नोट रुपयों में बदला जा सकता है। इस राशि को हर महीने का पैसा इकट्ठा करके एक साथ कई नई पुस्तकें खरीदी जा सकती है।

आरम्भिक स्थापना के अवसर पर कुछ अधिक खर्च हो सकता है। इसके लिए अलग से से एक सुन्दर कपाट बन सकता हो और उस पर ज्ञान मन्दिर का कपाट बन सकता हो तो घर में आने वाले अन्य लोगों को भी इसकी उपयोगिता समझने का अवसर एवं प्रोत्साहन मिल सकता है। आरम्भ में कुछ अधिक पुस्तकें खरीदने से ही तो यह स्थापना सम्भव होगी इसलिए उसे रेडियो, टेलीविजन, जेवर सिलाई की मशीन बिजली का पंखा जैसी उपयोगी वस्तुएं खरीदने की तरह ही आवश्यक कार्य मानकर साहसपूर्वक कुछ राशि खर्च कर देनी चाहिए। मुहल्ले का, गाँव का पुस्तकालय स्थापित करना भी इस प्रयोजन की पूर्ति का एक महत्वपूर्ण अंग है, उसके लिए भी उतना ही उत्साह, त्याग एवं प्रयत्न करना आवश्यक है जितना कि घरेलू पुस्तकालय के लिए। इस सामूहिक पुस्तकालय से तो माँगकर भी अपने परिवार की आवश्यकता पूरी की जा सकती है।


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