सही और सफल प्रार्थना की स्थिति

December 1975

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वह क्या प्रार्थना जो कष्ट की निवृत्ति और स्वार्थ की सिद्धि का उद्देश्य लेकर की जाय ? प्रार्थना तो वह है जो तन्मयता और आनन्द की अन्तः सम्पदा को अधिकाधिक बढ़ाते चलने के लिए की जाती है कष्ट निवृत्ति और स्वार्थ सिद्धि न होने पर प्रार्थना के बदले खोल उत्पन्न होनी है, इससे लगता है उसका आधार ही गलत था। सच्ची प्रार्थना तो हमारी अपूर्णता का घट क्रमशः भरती ही जाती है। कल की अपेक्षा आज अपना अन्तः पात्र अधिक भरा देखकर आनन्द के उपासक को सन्तोष ही होगा। सत् चित आनन्द भरी सत्ता के निकट पहुँचने की चेष्टा में-उपासना में निराशा और खीज कैसे हाथ लग सकती है आनन्द की दिशा में बढ़ाया गया हर कदम तो सुखद ही होना चाहिए। आधार को विकृत कर लेने पर जो भटकाव आता है खीज उसी का प्रतिफल है।

प्रार्थना हमें ऊँचा उठाती है और उनसे मिलाती है जो ऊँचे उठे हुए है। उपास्य ऐसा होना चाहिए जिसके समीप पहुँचने वाला रोना भूलकर मुस्काना सीखे और अपनी हँसी से समीपवर्ती सारे वातावरण को हँसा दे।

अतृप्ति और व्यथा तो हमारे इष्ट नहीं हैं, फिर उन्हें के आवाहन विसर्जन का अनुष्ठान क्यों किया जाय ? परम तत्व की ओर बढ़ते हुए हमारे प्रत्येक कदम सत्य के, शिव के, सुन्द के अधिकाधिक निकट पहुँचते जायेंगे। तन्मयता और आनन्द अपने आप में वरदान है। अतृप्ति का चिन्तन इन दोनों अनुदानों की सहज प्राप्ति में अवरोध ही उत्पन्न करता है। यदि प्रार्थना ही करनी है तो क्यों न आनन्द को-उल्लास को अपनायें और उसी के साथ एकाग्र तन्मयता के सूत्र बाँधे।

प्रार्थना याचना नहीं हो सकती, उसमें समर्पण ही समर्पण भरा रहता है। लोगों ने पाने का लाभ देखा है, पर देने का आनन्द नहीं समझा। प्रभु को अपना आपा सौंपकर हमें सर्वोपरि दान का जो गौरव प्राप्त होता है उसकी तुलना उसी लाभ या सन्तोष के साथ नहीं हो सकती।

अपनी आकाँक्षा हटने लगे और प्रभु की इच्छा उस स्थान को ग्रहण करने लगे तो समझना चाहिए कि उसी अनुपात से प्रार्थना सफल हो रही है। प्रभु के दर्शन उसी रूप में होते हैं। कि वे अन्तःकरण की कुरूपता समेट लेते हैं। और उस स्थान पर अपना सौंदर्य सँजो देते हैं। इसे और भी अधिक स्पष्ट समझना हो तो कष्ट निवृत्ति और स्वार्थ सिद्धि जैसे मनोरथों के स्थान पर उन उत्कृष्ट आदर्शों की स्थापना होती है जो तन्मयता और आनन्द के रूप में अनवरत रूप से अपना सौरभ बखेरते रहते हैं। प्रभु को समर्पण करने का अर्थ है अहं का-उसके कामना परि-कर का समापन। प्रभु की इच्छाएँ अपनी मानकर अपनाने वाला और अनुसरण करने वाला देखता है कि परम तत्व स्वयं चलकर उसके समीप आ रहा है, उसकी यात्रा परिधि पूरी हो गई।

किन शब्दों में प्रार्थना करें ? कहाँ बैठकर पुकारने से उसकी सुनवाई होती हैं ? इष्ट का दर्शन कहाँ पहुँचकर हो सकता है ? जैसे प्रश्नों के उत्तर किसी विधान या स्थान को तलाश करने से न मिल सकेंगे। वाणी उस तक नहीं पहुँचती। उपचार के पदार्थ भी इधर-उधर ही बिखर जाते हैं। स्थानों में प्रकृतिगत विशेषता हो सकती है, पर कहीं भी आत्मा का समाधान कर सकने वाला प्रकाश नहीं मिल सकता। आंखें जिसे देख ही नहीं सकतीं, उसका दर्शन किस रूप में किस जगह हो सकता है ?

परमतत्व के सामीप्य के लिए सबसे निकटवर्ती। स्थान अपना अन्तःकरण ही है। वही अन्तःकरण की पुकार से निकलने वाले मन्त्रों की शक्ति ही काम करती है। आवश्यक नहीं कि शास्त्रों द्वारा सिखाये और गुरुओं द्वारा बताये गये हों। आत्मा जब परमात्मा के निकट पहुँचती है तो भाषा की परिधि टूट जाती है और मिलन की अनुभूति अपने आप ही श्रुति शृंखला की तरह निनादित होने लगती है। अपने अन्तः करण से बढ़ कर साक्षात्कार का और कोई उपयुक्त स्थान नहीं। सही प्रार्थना वह है जो कामनाओं को भावना में बदल दे। पाने की अपेक्षा देने की आतुरता जब मचलने लगे तो समझना चाहिए उपास्य का अनुग्रह मूर्तिमान हो चला।


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