प्रकृति की अनेक शक्तियाँ हमें प्रभावित करती हैं। कई बार तो उनका उपयोगी-अनुपयोगी प्रभाव-दबाव अत्यधिक होता है, तो भी मानवी चेतना की विशेषता यह है कि वह अनुपयोगी प्रभाव से अपने को बचाने में कोई मार्ग ढूंढ़ निकालती है। उपयोगी प्रभावों से अधिक लाभान्वित होने का उपाय भी उसे मिल ही जाता है।
सर्दी-गर्मी, आँधी-तूफान, अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदि के उलटे-सीधे झंझावात आने ढंग से चलते रहते हैं। दूसरे प्राणी अपनी शारीरिक विशेषताओं के कारण तथा प्रजनन शक्ति के कारण अपना अस्तित्व बचाये रहते हैं। मनुष्य इन दोनों ही दृष्टियों से पीछे है फिर भी प्रकृति के आघात सह सकने की व्यवस्था बना लेता है, यह उसका बुद्धि वैभव ही है।
सूर्य को ही ले, उसका अनुदान पृथ्वी पर- प्राणियों पर अनवरत रूप से बरसता है, पर यदाकदा उसकी ऐसी स्थिति भी होती है जो पृथ्वी पर अपना अनुपयोगी प्रभाव डाले। उन दबावों को रोक न सकने पर भी पूर्व जानकारी के आधार पर बचाव के उपाय ढूंढ़ लिये जाते हैं। सतर्कता बरतना आने आप में एक बड़ा उपाय है, जिससे अनायास ही बहुत कुछ बचाव हो जाता है। इसी प्रकार उसके उपयोगी संपर्क को बढ़ाकर वे लाभ पाये जा सकते हैं जो अनजान स्थिति में पड़े रहने पर मिल सकने सम्भव नहीं है।
साधारणतया सूर्य आग का एक ऐसा गोला है जिसके किसी प्रभाव को रोकना अपने लिए कठिन ही हो सकता है फिर भी सूर्योपासना के कितने ही भौतिक शक्तियों से अधिक लाभान्वित बन सकना संभव हो जाता है। अनावश्यक ताप से बचने के लिए छाया के कितने ही उपाय किये जाते हैं। सूर्य की अपनी महत्ता है और अपनी उपयोगिता। पर उससे भी अधिक प्रशंसा मानवी बुद्धि की है जो इतने समर्थ शक्ति पुंज से उपयोगी प्रभाव ग्रहण करने और अनुपयोगी से बच निकलने का रास्ता खोज लेती है।
सूर्य के उदय होते देखकर ऋषि गाता है-” प्राणः प्रजानाँ उदयति एष सूर्यः”। सन्ध्या वंदन की सूर्योपस्थान क्रिया को करते हुए गायत्री मन्त्र बोला जाता है ओर उसके माध्यम से माँगा जाता है कि सविता देव हमारी विवेक बुद्धि को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान करें।
यह अध्यात्म मान्यता है जिसके अनुसार सूर्य प्राण पुंज और बुद्धि चेतना को प्रेरणा दे सकने योग्य माना जाता है।
भौतिक विज्ञान प्रत्यक्षवाद पर निर्भर रहा है। ‘प्रत्यक्ष’ की उसकी परिभाषा पिछले दिनों बहुत उथली और भोथरी थी। अब धीरे-धीरे वह पैनी ओर गहरी होती जा रही है। पिछले दिनों भौतिक विज्ञानियों की दृष्टि में वह मात्र आग का गोला था, गर्मी, रोशनी भर देता था। पदार्थ की दृष्टि से सूर्य की इतनी ही व्याख्या पर्याप्त प्रतीत हुई थी, पर अब बात आगे बढ़ गई और विचार अधिक गहराई तक होने लगा है। पिछले दिनों विज्ञान के लिए ‘पदार्थ’ ही सब कुछ था। भावना और अध्यात्म के सम्बन्ध में उपेक्षा और उदासीनता थी। अधिक से अधिक शरीर के एक अवयव मस्तिष्क की हरकतों को मनःशास्त्र के नाम से एक विशेष स्थान दिया जा सका था। श्वास-प्रवाह, रक्त संचार, स्नायु संचालन की तरह ही मस्तिष्क को भी सोचने वाला यन्त्र मान लिया गया था और उसकी हलचलों को मन, बुद्धि चित आदि की संज्ञा दे दी गई थी। इतना ‘पदार्थ’ क्षेत्र में आता है इसलिए उतना ही पर्याप्त माना गया। चेतना की गहराई को देखने समझने की दिशा में बहुत समय तक कोई कहने लायक दिलचस्पी नहीं ली गई। तद्नुसार सूर्य का भी चेतना से कुछ सम्बन्ध हो सकता है, इस पर विचार नहीं किया गया। पर अब उस संदर्भ में गहराई तक जाने और गम्भीर विचार करने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है।
सूर्य को अब जीवन का केन्द्र माना जा रहा है। वनस्पतियाँ उसी से जीवन ग्रहण करती हैं और प्राणियों को भी अपनी प्राण शक्ति के लिए बहुत करके सूर्य पर ही निर्भर रहना पड़ता है। विज्ञान स्वीकार करता है कि सूर्य और पृथ्वी के बीच की जो दूरी है वह जीवन और उत्पत्ति एवं स्थिरता के लिए आदर्श है। यदि यह दूरी कुछ घट जाय या बढ़ जाय तो फिर या तो हमारा भूलोक आग्नेय हो उठेगा या हिमाच्छादित बन जायगा तब प्राणियों या वनस्पतियों की उपस्थिति यहाँ सम्भव न हो सकेगी।
सूर्य में जो काले धब्बे हैं, वे उसमें समय-समय पर पड़ते रहने वाले खड्ड हैं। ये कभी गहरे हो जाते हैं, कभी उथले बन जाते हैं, तब वे कम या अधिक दिखाई पड़ते हैं। पहले उन धब्बों से अपना कुछ बनता-बिगड़ता नहीं माना जाता था, पर ऐसा नहीं समझा जाता है। वैज्ञानिक उन्हें बहुत बारीकी से देखते हैं और इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि इनका क्या प्रभाव-परिणाम अपनी पृथ्वी पर पड़ेगा ?
जब काले धब्बे बढ़ते हैं तो सूर्य से प्रकाश एवं गर्मी की ही नहीं दूसरे उन उपयोगी तत्वों की भी कमी पड़ जाती है जो प्राणियों के लिए विचित्र प्रकार से स्वास्थ्य संरक्षक होते हैं। जिस साल सूर्य के धब्बे बढ़ते हैं उस साल अनाज की, फलों की पैदावार कम होती है। पौधे अभीष्ट गति से नहीं पनपते। दाने पतले होते हैं और उनमें पोषक तत्व अपेक्षाकृत कम पाये जाते हैं। खाद और पानी का समुचित प्रबन्ध रहने पर भी इस कमी का कारण जब सूर्य के धब्बों में खोजा जाता है तो यह निष्कर्ष भी निकलता है कि उसमें ‘जीवनी शक्ति’ भी भरी पड़ी है जो पृथ्वी को -उस पर रहने वाली प्राणधारियों को मिलती है। इस प्रकार सूर्य मात्र गर्मी देने वाली अंगीठी और रोशनी देने वाली लैम्प के स्तर का न रहकर प्राणवान्-प्राणदाता भी बन जाता है और वैदिक ऋषि की वह आस्था सही मालूम पड़ती जिसमें उसने उदीयमान सूर्य का अभिवन्दन करते हुए उसे प्राण का उद्गम कहा था।
बात बहुत आगे बढ़ गई है। सूर्य की स्थिति का प्राणियों के शरीरों और मनः संस्थानों पर क्या प्रभाव पड़ता है? यह एक अति महत्वपूर्ण शोध विषय बन गया है। जन्मकाल को ही लें। रात्रि और दिन में जन्म लेने वालों की प्रकृति में अन्तर पाया जाता है। जहाँ सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती है उन शीत प्रधान और जहाँ सीधी पड़ती है उन उष्णता प्रधान क्षेत्रों के लोगों की जीवनी शक्ति एवं प्रकृति में अन्तर पाया जाता है। अपने ही देश में बंगाली, पंजाबी, मद्रासी, गुजराती यों सभी भाई-भाई हैं पर उनकी शारीरिक मानसिक स्थिति में कितनी ही सूक्ष्म विशेषताएं पाई जाती है। इसका कारण उन क्षेत्रों के वातावरण की भिन्नता में पृथ्वी के विभिन्न स्थानों के साथ होने वाला सूर्य संयोग ही मुख्य आधार है। अफ्रीका के नीग्रो, इंग्लैंड के गोरे, उतरी ध्रुव के एस्किमो, चीन के मंगोलियन अपनी-अपनी आकृति-प्रकृति की भिन्नताएं रखते हैं, यों सभी एक मानव परिवार के सदस्य हैं। यह क्षेत्रीय विशेषताएं या भिन्नताएं जिस आधार पर उत्पन्न होती हैं उनमें सूर्य को प्रमुखता देनी पड़ेगी।
सूर्योपासना की वैज्ञानिक विधियों का सहारा लेकर मन और शरीर पर पड़ने वाले सूर्य के प्रभाव को न्यूनाधिक किया जाता है। सूर्य चिकित्सा के अनेक विधि विधान शारीरिक रोगों के निवारण करने में अत्यधिक सहायक सिद्ध होते हैं; जबकि ऐसे ही खुली सर्दी-गर्मी से रोगग्रस्त हो जाना सम्भव है। इसी प्रकार सूर्य मन पर पड़ने वाले प्राकृतिक प्रभाव का विश्लेषण करके ध्यान आदि उपयोगी को बढ़ाने और अनुपयोगी को हटाने का क्रम बन सकता है। सविता देवता के प्रभावों को उपासना रूपी छलनी में छानकर ग्रहण करने में पानी को छानकर पीने में उसमें घुली अस्वच्छता से बचने जैसा लाभ मिलता है। सूर्योपासना मानवी विवेक की एक अति उपयोगी उपलब्धि थी, जिसे हम क्रमशः भूलते जा रहे हैं।
सूर्य द्वारा प्राप्त होने वाली जीवनी शक्ति का- एक प्राण शक्ति का प्राकृतिक प्रभाव धरती पर-उसी प्रकृति सम्पदा और प्राणि परिवार पर पड़ता है। यह तथ्य स्पष्ट हो जाने के उपरान्त यह विचारणीय विषय हो जाता है कि क्या हम उस शक्ति को अभीष्ट मात्रा में ग्रहण करके लाभान्वित हो सकते हैं। सर्दी की ऋतु का शरीर पोषण के लिए उपयोग हो सकता है। अक्सर स्वास्थ्य संवर्धन के प्रयोग उन्हीं दिनों होते हैं। इसके विपरीत सर्दी के संपर्क में आकर निमोनिया, जुकाम जैसे रोगों को भी गले बाँधा जा सकता है। सूर्य की गर्मी रोशनी बरसती तो एक जैसी है, पर हम उसमें एक आवश्यक मात्रा ही लेते हैं। इसी प्रकार प्राणशक्ति की सन्तुलित मात्रा ही ग्रहण करें यह भी हो सकता है। सामान्य वितरण की अपेक्षा कुछ विशेष पाया, समेटा जा सकता है अथवा अनावश्यक एवं अवाँछनीय को हटाया-घटाया जा सकता है। यदि ऐसी सन्तुलित विधि हाथ लग सके तो सूर्य को योग कहा जायगा।
अग्नि का अस्तित्व अनादिकाल से संसार में मौजूद था, पर उसे मनुष्य ने पाया-पहचाना बहुत समय बाद पाने के बाद उसके उपयोग के अनेकों नियम-विधानों की प्रक्रिया क्रमशः विकसित होती गई और उससे उसी क्रम से अधिकाधिक लाभ उठा सकना सम्भव होता गया। बिजली आदि शक्तियों के बारे में भी यही बात है। सूर्य ताप का प्राकृतिक लाभ को सहज ही मिलता रहता है, आवश्यकता इस बात की है, कि उसकी प्राण शक्ति को पहचाना जाय और सर्वतोमुखी प्रगति के लिए उसका उपयोग किया जाय यों सूर्य से जो रोशनी और गर्मी मिलती है उसके भी सदुपयोग की बहुत बड़ी सम्भावना मौजूद है।
गुण, दोषों की विवेचना कर सकने वाली मानवी क्षमता सूर्य जैसी शक्तिशाली सत्ता से अपने लिए उपयोगी प्रभाव ग्रहण करने और अनुपयोगी दबाव निरस्त करने का रास्ता निकाल लेती है। वही विवेक शक्ति यदि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में काम करती रहे तो संसार में निरन्तर चलती रहने वाली सशक्त प्रतिकूलताओं में भी अपनी सुरक्षा को अक्षुण्य बनाये रह सकती है। प्रकृति की शक्तियाँ बड़ी है, पर मनुष्य की उपलब्ध विवेक शक्ति का भी कम महत्व नहीं है; जो उसका ठीक उपयोग कर सके उनके लिए बड़े संकट भी उसी तरह टल जाते हैं, जिस प्रकार सूर्य की प्रतिकूल स्थिति के कारण उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों से निपटने का कोई रास्ता निकाल लिया जाता है।
शास्त्रों में जीवन अग्नि की दो शक्तियाँ मानी गई हैं- एक ‘स्वाहा’ दूसरी ‘स्वधा’। ‘स्वाहा’ का अर्थ है-आत्म-त्याग और अधर्म से लड़ने की क्षमता। ‘स्वधा’ का अर्थ है- जीवन व्यवस्था में ‘आत्म-ज्ञान’ को धारण करने का साहस।
लौकिक अग्नि में ज्वलन और प्रकाश यह दो गुण पाये जाते हैं। इसी तरह जीवन अग्नि में उत्कर्ष की ओर बढ़ने को पुरुषार्थ और आत्म-निर्माण का संकल्प इन दो गुणों का समावेश है। भौतिक जीवन में अग्नि की उपयोगिता सर्वविदित है। आत्मिक जीवन को प्रखर बनाने के लिए उस जीवन अग्नि की आवश्यकता है, जिसे “स्वाहा” और “स्वधा” के नाम से प्रगति के लिए संघर्ष और आत्म-निर्माण के नाम से पुकारा जाता है।