आत्महीनता की ग्रन्थि से अपने को जकड़िये मत

December 1975

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किसी दूसरे के साथ इस तरह व्यवहार किया जाय कि गया-गुजरा, अशक्त, अरोग्य और पिछड़े हुए स्तर का हो तो वह निश्चय ही नाराज होगा और ऐसी अभिव्यक्ति को अपना अपमान समझेगा। यह उचित भी है। आत्म सम्मान मानवीय अन्तःकरण की एक स्वाभाविक वृति है। अपना गौरव और वर्चस्व सिद्ध करने और सम्मान पाने की इच्छा से ही लोग बहुत से सही गलत काम करते हैं। पेट भरने में तो थोड़ा सा समय श्रम ही पर्याप्त होता है। अधिकतर समय और चिन्तन तो बड़प्पन पाने के साधन संग्रह करने और इस तरह का ठाट बाट रोपने में ही खर्च होता रहता है। पेट की भूख और यौन लिप्सा के बाद सबसे प्रबल आकाँक्षा बड़प्पन पाने की है कई बार तो वह इतनी उग्र होती है कि आदमी उसके लिए भयंकर खतरे उठाने को भी तैयार हो जाता है।

इतने पर भी कितने ही व्यक्ति ऐसे होते हैं ; जो अपने आप अपना तिरस्कार स्वयं करते रहते हैं और उसके अभ्यस्त बन जाते हैं। दब्बूपन उनका स्वभाव बन जाता है। सही, खरी, उचित और सामान्य बात भी किसी के सामने नहीं कह पाते। मुँह खोलने में उन्हें बहुत डर लगता है और भय बना रहता है कि वह न जाने क्या समझ बैठे, रुष्ट न हो जाय, झिड़क ने दे। वस्तुतः यदि वैसा हो भी जाय तो भी उससे बड़ी हानि नहीं हो सकती किन्तु दब्बू आदमी अपनी बड़ी से हानि करके भी इतना साहस नहीं जुटा पाता कि सीधी सी बात को सरल स्वाभाविक रीति से दूसरे के सामने रखकर अपना मत व्यक्त कर दें और गलतफहमी के जो कारण अकारण , मति भ्रम, घुटन अथवा खाई उत्पन्न कर रहे हैं; उनका निराकरण कर दे। साहस की कमी ऐसे व्यक्तियों को दयनीय स्थिति में डाले रहती है।

बचपन में प्रेम और सम्मान का न मिलना, उपेक्षा उपहास तथा अभाव ग्रस्त स्थिति के समय गुजारते रहने वाले बच्चे बड़े होने पर प्रायः आत्महीनता के शिकार बन जाते हैं। बीमार अपंग मंदबुद्धि बच्चे भी बार बार डाँट-झपट सुनते रहते हैं। फलतः उनका मन यह मान बैठता है कि उनकी स्थिति दूसरों की अपेक्षा है ही गुजरी। उनका भाग्य कुछ ऐसा ही बना है। पिछड़ी समझी जाने वाली जातियों के लोग तथा महिलाएं आरम्भ से ही घटिया समझी जाने की -उपेक्षित स्थिति में रहने के कारण अपने आप को हेय स्थिति का स्वयं ही मान बैठती है और उसी स्तर का अपने को समझते हुए सोचने का ढंग ऐसा बना लेते हैं, मानों वे बने ही घटिया मिट्टी से हैं। इस मान्यता के कारण दब्बूपन उनकी प्रत्येक क्रिया से टपकता रहता है। दूसरों के सामने वे अपने आपको ठीक तरह व्यक्त नहीं कर सकते।

कुछ लोग किसी बाहरी दबाव या अभाव से नहीं अपनी दब्बू प्रकृति के कारण ही अपने को हेय स्थिति में डाल लेते हैं। वे दूसरों के बड़प्पन अपने हेय होने की बात का अकारण ही बड़ा-चढ़ा कर मान बैठते हैं और एक बहुत ऊंची-नीची खाई खोद लेते हैं।

हीनता ग्रस्त व्यक्ति को सहजता से पहचाना जा सकता है वह आलसी, असन्तुष्ट, दब्बू, चापलूस तथा बात-बात पर रूठने वाला होगा। जरूरत से ज्यादा नम्रता प्रदर्शित करता है। उससे कोई भी बेगार ले सकता है, उधार माँग सकता है, ठग सकता है। मन में वैसा न करने की बात रहते हुए भी इतनी इनकार करने की हिम्मत नहीं होती तो सामने वाला का आग्रह टालते नहीं बनता। ऐसे व्यक्ति किसी मिलन गोष्ठी में एक कौने में दबे सहमे सकुचे बैठे होंगे ताकि कोई उनसे कुछ पूछ न बैठे। कुशल प्रश्नों का उतर देना तक उन्हें भारी पड़ता है। ऐसे लोग आये दिन ठगे जाते हैं, उनसे कोई भी बेगार लेता है और काठ का उल्लू समझता है। लाभ उठाने वाले कुछ एहसान भी नहीं मानते क्योंकि वे समझते हैं जो पाया कमाया है वह दब्बू आदमी की दुर्बलता का चतुरता पूर्वक लाभ उठा लेना भर था, इसमें ठगे जाने वाले की कोई उदारता थोड़े ही थी।

कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय द्वारा नियुक्त 22 मनोविज्ञान वेत्ताओं के एक आयोग को चिन्ता के कारणों को पता लगाने का काम सौंपा था। उस दल ने इस मर्ज के हजारों मरीजों की कुरेद बीन करने पर यह पाया कि ऐसे लोग वस्तुतः परले सिरे के डरपोक होते हैं। भूत और साँप का न सही भविष्य का आशंकाओं का डर उन्हें निरन्तर सताता रहता है। इसके अतिरिक्त वे अपनी वर्तमान स्थिति अपर्याप्त असन्तोषजनक समझते रहते हैं। यों निर्वाह में कठिनाई उत्पन्न करने वाला अभाव इनमें से किसी विरलेको ही होता है, आयोग ने यह भी बताया कि भय एक संक्रामक रोग है वह छूत की बीमारी की तरह साथ रहने वाले पर भी असर करता है। छोटा बालक जो अभी संसार की परिस्थितियों के बारे में कुछ भी नहीं समझता, माता को डरी हुई देख कर स्वयं भी रोने लगता है। उसे डरे हुए की दयनीय स्थिति को देखकर स्वयं डर लगता है।

कन्धा झुकाये हुए, जमीन में आंखें गाड़े हुए, कुछ लोग डरे सहमे लोगों की आँखों से अपने को बचाते हुए सड़क पर चलते दिखाई पड़ेंगे। उनके पैर डगमगाते से लगेंगे। सीधी लाइन चलना उनसे बन नहीं पड़ेगा। साँप की तरह टेड़े तिरछे चलेंगे , पैर एक दूसरे में लिपटते से दिखाई पड़ेंगे। इसके विपरीत कुछ लोग सीना ताने फौजियों जैसे कदम मिला कर चलते हुए सीधी लाइन चल रहे होंगे। चेहरे पर विश्राम भरी मुस्कान दीख रही होगी और आँखों से चमक निकलती दिखाई पड़ेगी। यह अन्तर शरीर स्थिति से नहीं मानसिक स्तर से सम्बन्ध रखता है। जिन पर आत्महीनता सवार है वे न केवल सड़क पर चलते हुए वरन् हर कार्य में अपनी दयनीय दुर्बलता व्यक्त कर रहे होंगे। जबकि आत्म विश्वासी व्यक्ति की तेजस्विता उनके हर क्रिया कलाप से हर भाव भंगिमा सके टपक रही होगी।

अत्यधिक हीनता ग्रस्त व्यक्ति उसके भार दब जाता है, हिम्मत खो बैठता है और उज्ज्वल भविष्य की आशा छोड़कर हताश रहने लगता है अपनी क्षमता पर अविश्वास करने वाला एक प्रकार से हाथ पाँव रहते हुए अपंग और बुद्धि रहते हुए भी संशय ग्रस्त रहता है। वह करने की तो बहुत कुछ सोचता है। पर साहस के अभाव में कुछ कर नहीं पाता । करता है तो फल पकने तक किसी वृक्ष को सींचते रहने के लिए जितने धैर्य की आवश्यकता पड़ती है, उतनी जुटा नहीं पाता। अस्तु अधिकाँश कार्यों में असफल रहता है और हर असफलता उस और भा अधिक निरुत्साहित करती चली जाती है।

दब्बूपन के अतिरिक्त विकृत आत्महीनता उद्धत बनकर उभरती है। वह ऐसे कृत्य करने को उकसाती है, जिससे लोग उसे भी असाधारण समझें। विधिवत असाधारण बनने के लिए मनुष्य को व्यक्तित्व का समग्र निर्माण करना पड़ता है और आदर्शवादी गति-विधियाँ अपनाने का उदात्त साहस जुटाना पड़ता है। पर उद्धत काम करने के लिए उच्छृंखलता अपनाने और आतंकवादी रास्ते पकड़ने से काम चल जाता है। यों आरम्भ में होता तो यह भी कठिन है, पर उसी स्तर के आवारा लोगों का साथ ढूंढ़ लेने में वह अभ्यास जल्दी ही हो जाता है और गुण्डागर्दी से दूसरों को आतंकित करने की सफलता पाकर आत्मगौरव की भूख बुझाली जाती है। साथ ही आर्थिक तथा दूसरे लाभ भी कमा लिये जाते हैं। सस्ती तरकीब से दुहरा लाभ पाने से उत्साहित होकर वे इस प्रकार की गति विधियाँ एक पेशे के रूप में अपना लेते हैं। अपराधों में संलग्न उच्छृंखल गुण्डागर्दी अपनाने वाले व्यक्ति बहुत करके आत्महीनता की ग्रन्थि से ग्रसित ही होते हैं। निजी जीवन में थोड़ी सी भी विपत्ति आने पर उन्हें बेतरह रोते कलपते पाया जाता है।

अधिक बन ठन कर रहने वाले और साज श्रृंगार करने वाले नर-नारियों में अधिकाँश ऐसे होते हैं, जो अपने आप को तिरस्कृत, उपेक्षित एवं हेय स्तर का मानते हैं। वे श्रृंगार और चमचम करते जेवर पहन कर दूसरों के साथ अधिक आकर्षण बनने का प्रयत्न करते हैं ताकि लोग उन्हें असाधारण समझे। अमीरी का ढोंग रचते हुए पैसों का अपव्यय करते हुए कई व्यक्ति अपने परिचितों पर यह छाप छोड़ना चाहते हैं कि वे बड़े आदमी हैं और बड़े आदमियों की तरह चाहे जितना पैसा फूँक सकने में समर्थ हैं। ऐसे आदमी कम कीमत की मजबूत चीजें खरीदने की अपेक्षा महंगी और कमजोर चीजें खरीदते हैं, इस खरीद में उनका प्रयोजन दूसरों पर अपनी सुरुचि एवं कलाकारिता की छाप छोड़कर बड़प्पन का आतंक जमा भर होता है। ऐसे लोग सदा ऋणी बने रहते हैं और आर्थिक तंगी भुगतते हैं। लाभ इतना ही होता है कि उनकी आत्महीनता को कुछ समय के लिए राहत मिल जाती है।

अमेरिका में 20 हजार पीछे एक व्यक्ति हर साल आत्महत्या करके मरता है। किसी-किसी वर्ष तो यह अनुपात बहुत अधिक बढ़ जाता है। एक साल तो यह संख्या 15400 पहुँच गई थी। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक संख्या में आत्महत्या करती हैं।

लोग क्यों आत्मघात करते हैं ? इस प्रश्न के उतर में दरिद्रता, बेकारी शारीरिक कष्ट, पारिवारिक कलह, असफल प्रेम, अपमान, निराशा, विपत्ति की आशंका आदि कई कारण गिनाये जा सकते हैं। पर सबसे बड़ा कारण होता है मानसिक असन्तुलन जिसके कारण लोग छोटी-छोटी कठिनाइयों या असफलताओं को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर मान लेते हैं और उस भयंकरता से बचाव का कोई उपाय न सोचने पर किंकर्तव्य विमूढ हुआ व्यक्ति अपने ऊपर ही आक्रमण कर बैठता है और दूसरों को मार डालने का साहस न जुटा करने पर अपने आप का ही वध कर डालता है।

आत्महीनता की व्यथा से ग्रसित व्यक्तियों को मनःचिकित्सकों का परामर्श है कि-वे उचित और अनुचित का अन्तर करना सीखें ओर इतना साहस जुटाएं कि जो सही है उसी को अपनाने और जो गलत है उससे इनकार करने में अपना स्पष्ट मत व्यक्त कर कर सकें। सहमत होना और हाँ कहना अच्छी बात है, पर जो उचित नहीं जंचता उसे अस्वीकार करने की हिम्मत भी रखनी चाहिए। सोचने में यह बात भी सम्मिलित रखनी चाहिए कि हर सही-गलत बात में हाँ हाँ करते रहने से दूसरों की दृष्टि में अपना वजन घट जाता है और इज्जत चली जाती है। विकसित व्यक्तित्व का अर्थ है- अपनी मान्यता का स्पष्ट किन्तु नम्र ओर संतुलित शब्दों में कह सकना। जो ऐसा नहीं कर सकता वह अपने मूल्य को आप ही गिराता है। हंसना और हंसाना एक ऐसी आदत है जिसे पैदा कर लेने से आत्महीनता की ग्रन्थि जमने नहीं पाती और जम भी जाय तो धीरे-धीरे खुलती चली जाती है।

जन संपर्क के काम करने की आदत डालना भी इस दृष्टि से एक अच्छा उपचार है। चार दुकानों पर मोल भाव करके और घटिया-बढ़िया तलाश करके शाक-भाजी खरीदने का नुस्खा छोटा होने पर भी इस रोग में बड़े काम का है। अपने हाथों टिकट खरीदने, सामान बुक कराने, सीट रिजर्व कराने, जैसे छोटे काम करने से भी हिम्मत खुलती है। आदान प्रदान में वार्तालाप करना आवश्यक हो जाता है। गोष्ठियों और प्रतियोगिताओं में भाग लेने से भी अपनी अभिव्यक्तता प्रकट करनी पड़ती है। यह अच्छे अभ्यास हैं।

अपने बारे में यह नहीं सोचना चाहिए कि मैं कुछ नहीं हूँ वरन् यह कहना चाहिए कि मैं भी कुछ हूँ। एक महत्वपूर्ण और प्रतिभावान व्यक्ति हूँ। अपने प्रति और दूसरों के प्रति न्याय उपलब्ध कराने के लिए मेरे विचारों और प्रयत्नों का वजनदार मूल्य है। विश्व भर में संव्याप्त असीम बुद्धि चेतना और प्रचंड शक्ति सामर्थ्य का समुचित अंश मुझ में विद्यमान है। आत्म विकास और सामाजिक प्रगति में मेरी प्रतिभा की अपने गरिमा है जिसे अक्षुण्ण रखना और विकसित करना मेरे परम पवित्र उत्तरदायित्व हैं।

मनुष्य की गरिमा के तीन आधार स्तम्भ हैं (1) जीवन की पवित्रता (2) क्रिया-कलाप की प्रामाणित और (3) लोक सेवा के प्रति श्रद्धा। जिनके पास यह तीन विभूतियाँ हैं उनके लिए महामानव बनने का द्वार खुला पड़ा है।


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